क्या अंधेरा भी सूरज होता है?
प्रि. सुरेश सेठ, जालंधर (पंजाब), मो. 9914527719
क्या अंधेरा भी सूरज होता है?
तुम्हारा हठ है
तुम मुझे पहचान नहीं दोगे
जलावतन कर दोगे यहां से
जहां तुम्हारी उपलब्धियों के
नकली फानूस जलते हैं
मुझे तड़ीपार कर दोगे
हर उस अखाड़े से
जहां के खिलाड़ी भी तुम और निर्णायक भी तुम!
मैं तुम पर कोई महाभियोग चलाऊं
ऐसी कुव्वत कहां?
इस कुव्वत पर प्रशस्ति के उस गायन ने
जंग लगा दी
जो तुमने खुद अपने लिए गाया
फिर देश के माथे पर
एक जुमला बना कर चिपका दिया
तुम इस जुमले की अंतहीन उम्र
की कामना करते हो
मैं अपने भ्रमित चेहरे पर
इसके क्षणभंगुर बुलबुले फूटते देखता हूं
बाहर किसी आधुनिक पारसी थियेटर सी
तुम्हारी नौटंकी चलती है अनवरत
मैं इस नौटंकी से अलग
घाटी में खो गई एक दर्दभरी धुन
की तलाश करता हँू
अंधेरे में कहां गुम हो गए सब लोग?
वे नई राह तलाशने की छटपटाहट
क्यों नहीं दिखाते?
छटपटाहट नहीं बेचैनी
घुप्प अंधेरे में किसी अलाव की लहक
देख पाने की बेचैनी
किसी वंचित प्रवंचित आदमी के भाग्य
सा यह अलाव
बालू की दीवार पर खड़े तुम
इसे नहीं देख सकोगे
तुम इसे अपनी बनाई कतार में
फिट न हो पाने की मजबूरी कहोगे
पहाड़ की चोटी
तुम्हारी आत्मश्लाघा से चमत्कृत है
और मेरी बहिष्कृति में
मेरा बहिष्कार छिपा है
तुम्हारे भाषणों से गड़े हुए चैखटों में
फिट न हो पाने का एहसास!
तुम्हारी आंखों से अपने लिए
सपने देखने का इन्कार!
बालू के मीनार बना
तुमने मुझे जंगली घाटियां दे दीं
लेकिन इनमें मेरी चीखों ने उभर
इन्हें आदिम नहीं रहने दिया
तुमने अपने मीनारों पर
मुझसे छीन मेरे दीये जला लिए
लेकिन अपना सूरज
इस परित्यक्त घाटी के अंधेरों
की भेंट कर दिया
सुनो, अंधेरा भी क्या कभी
सूरज हो सकता है?
मैं पूछता हूं एक सलीब सा सवाल
घाटी की अनुगूंज
मेरा सवाल दोहराती है
एक जैसे चेहरों वाले लोग
न जाने कितनी सदियों से
इन सलीबों को
अपने कंधों पर ढोते नजर आते हैं
पूछता हूं, अभी और कब तक?
तब पूरी घाटी ही
जैसे बन जाती है
एक सवाल?