सच को तो झेलना पड़ेगा ही

   डाॅ. अवध बिहारी पाठक, सवेढ़ा, दतिया (म. प्र.), मो. 9826546665

इन दिनों संस्मरण हिन्दी की अन्य विधाओं के मुकाबले में अधिक चर्चित सृजन/लेखन/पठन-पाठन में भी इसका बोलबाला है। जब संस्मरण विधा का जन्म हुआ तब उसने सहज ही अपने ऊपर एक आदर्शवादी खोल चढ़ा लिया था। फलतः हमारे आराध्य, मेरे संस्मरण जैसी रचर्नाएँ आइं जिनमें संस्मृत के प्रति पूरी निष्ठा के साथ उनका गरिमा मंडन करते हुए, पूजक भाव का बखान कुछ इस तरह किया जाता था कि जैसे 90 प्रतिशत सद्गुण, आदर्श उन संस्मृतों में ही हैं बाकी 10 प्रतिशत शेष दुनिया के लोगों में वितरित किए गए हों, वस्तुतः ये संस्मरण व्यक्ति/राजनेता/साहित्य/पद की ऊंचाई-नज़दीक तक पहुँचने की सीढ़ियाँ भर थे-यथा श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने राज्य सभा की सदस्यता लगे हाथ हथिया ली थी, गुण गान फलित।

मकान के दरवाजे पर पड़ा पर्दा हो या किसी चेहरे को आवृत्त किए घूँघट, उस पार का देखने की जिज्ञासा सहज है, निसर्गगत, सो जब कुछ संस्मरण लेखकों ने ताक झांक कर आदर्शवादी अवगुन्ठन हटाकर उस ‘सुदर्शन‘ के विद्रूप को वाणी दी तो नैतिकतावादी, मर्यादावादी लोगों को घोर आपत्ति हुई। “ये क्या बेशर्मी‘‘।

अभी अभी जुलाई अगस्त, 07 की पत्रिका ‘अक्षरा‘ ने अपनी परम्परा यानी कि नैतिकतावादी परम्परा का निर्वाह करते हुए परम प्रबुद्ध विचारक राजेन्द्र सिंह गहलोत का ‘‘स्मृतियों की जुगाली में गालियों की लज़्ज़्त‘‘ (उर्फ चीर हरण करते साहित्यिक संस्मरण प्रकाशित किया है, उसमें दूसरी परम्परा के संस्मरण लेखकों-राजेन्द्र यादव, रवीन्द्र कालिया और कान्ति कुमार जैन के संस्मरणों पर अश्लीलता, अश्लील संवादों का आनन्द लेते हुए, परनिंदा करते हुए, गालियों का आरोप लगाया है, गहलोत साहब के आरोप बड़ी हड़बड़ी में दिख रहे हैं, यही कारण है कि आलेख में उन्होंने एक एक बात को कई कई बार दुहराया है। यथा ‘मि. क्लीन‘ का उल्लेख। आलेख की भाषा, विचार और तर्क खुद में ही गड्डमगड्ड है। आदमी भले ही चन्द्रमा के धरातल के नमूने ले कर वहां से लौट आया हो परन्तु मर्यादा/नैतिकता की रक्षा होना चाहिए ही चाहिए। वह मर्यादा भगवानों की है। यह अलग बात है कि भगवानों की मर्यादा ‘आप्त‘ ग्रन्थों में भी अनावृत हुई है कटु सच उनका सह्य नहीं अस्तु लगता है कि वे सच के स्थायी प्रति-पक्ष हैं।

चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले एक बात कहना बहुत जरूरी है कि ‘अश्लीलता‘ के आरोप में राजेन्द्र यादव, रवीन्द्र कालिया और कान्ति कुमार को घेरने में गहलोत साहब की व्यवहार बुद्धि बहुत सक्रिय रही दिखती है, उन्होंने राजेन्द्र यादव की पुस्तक ‘मुड़ मुड़ कर देखता हूँ।‘ का नाम भर लिया किसी आलेख का ज़िक्र नहीं, इसी तरह कालिया जी की पुस्तक ‘गालिब छुटी शराब‘ का एवं उसके ‘भैरव जी‘ प्रसंग का मात्र नामोल्लेख किया है। याद भर दिलाई है, दोनों के नाम में अन्तिम वर्ण ‘द्र‘ जो है न, इसे देखकर गहलोत साहब द्रवित हो गए हैं कि छोड़ो भी यार, इस ‘छोड़ने‘ का एक कारण और भी है कि ये दोनों महानुभाव पत्रिकाओं को पकड़े हुए हैं, जाने कब गहलोत साहब के ‘‘छपास के भूत को साकार करने कराने में दोनों ‘खोटे सिक्के‘ काम आ जावे‘‘ परन्तु कान्ति कुमार, इनके पास न कोई पत्रिका शोभा बढ़ा रही है, न अखबार, क्या काम पड़ना है, सो नैतिकता के थाने में गहलोत साहब ने कान्ति कुमार के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करा ही दी और ऐसे नहीं बाकायदा तीन धाराओं में यानी तीन बिन्दुओं में, शब्द बदल बदल कर ताकि अपराध गुरू गंभीर बन जावे और फिर बने न बने कोशिश करना फर्ज़ जो है।

इन संस्मरणों के संबंध में गहलोत ने मार्च, 07 ‘नया ज्ञानोदय‘ में प्रकाशित किन्ही विजयमोहन सिंह का लिखित ‘हिन्दी में संस्मरण लेखन‘ शीर्षक का यह अंश गौरतलब बताया है कि ‘‘पर इधर हिन्दी में तो यह हाल हो गया है कि अचानक लेखक ख़ासतौर पर कथाकार जाने क्यों पीछे मुड़ मुड़ कर देखने लगे हैं, यह मुड़ मुड़ कर देखना क्यों और क्या है‘‘ तो लेखक सिंह साहब और कोटक (कोट करने वाला कोटक ही हुआ न) सिंह साहब से पहला निवेदन यह कि वे जाने कैसे संस्मरणकार को कथाकार मान और कह रहे, स्पष्ट नहीं होता है, दूसरी बात यह भी कि संस्मरण लेखक को पीछे मुड़ कर तो देखना ही पड़ेगा अन्यथा क्या वह आगामी समय, व्यक्तियों के संस्मरण लिख लेगा, शायद नहीं, और यदि वह ‘एडवांस‘ लिखता भी है, तो कोरी काल्पनिक गप्प होगी। संस्मरण तो कतई नहीं, आगे इसी आलेख में पृ. 87 पर गहलोत साहब कहते हैं ‘‘ज्यादातर संस्मरण उन लोगों के बारे में लिखें जा रहे हैं जो अक्सर दोस्त या हमसफर रहे हैं और जिनके कद को आप कुछ विशेष कारणों से छोटा या बड़ा कर देना चाहते हैं‘‘ वाक्य पढ़ कर मजा आ गया और आशा बंधी कि ‘निराश नहीं होना। स्वामी वाहिद काजिमी की प्रजाति अभी शेष है, जो हम प्याला हम निवाला यानी कि चिपरिचितों पर संस्मरण लिखने को निकृष्टतम समझते हैं। स्वामी वाहिद काजिमी जी की दृष्टि में संस्मृत को तो किसी कब्र से खोद कर लाया जाए और संस्मरण में उसे ‘इस प्रकार जिंदा पेश किया जावे कि उसका उठना, बैठना बोलना बतियाना सुनाई पड़ने लगे‘‘ (देखें वागर्थ जुलाई 05, पृ. 96) कहनी कुछ करनी कुछ? स्वामी जी की। फिर क्यों वे श्री नारायण चतुर्वेदी जैसों पर संस्मरण लिख रहे हैं? ऐसी अपनी निजी स्थापना के तहत उन्हें वास्कोडिगामा, एटलस या जयपुर नरेश सवाई जयसिंह पर संस्मरण लिखना चाहिए थे परंतु ऐसे आलेख संस्मरण विधा में स्थान नहीं पायेंगे, सभी सुनें, कि ऐसे संस्मरणों में तो चंद्रकांता संतति, वही अपनी देवकी नंदन खत्री वाली के क्षेपक के रूप में पढ़ना पड़ेगा, उसी परम्परा में अनगढ़, कल्पना प्रवण, ‘‘कुछ याद रहा कुछ भूल गए सपने में मिलन की दो बातों‘‘ की तरह।

इसी आलेख में (पृ. 88) एक अभिनव ओझा का भी गहलोत साहब ने ज़िक्र किया है, जिसमें उन्होंने यानी ओझा जी ने कान्तिकुमार को ‘संस्मरणों का गुलशन नंदा‘ नाम दिया था, परन्तु उसमें भी गहलोत साहब ने सुधार कर दिया और जैन साहब को नाम दिया ‘साहित्यिक संस्मरणों के दुःशासन‘, साथ में ओझा जी और जैन साहब की साहित्यिक अखाड़ेबाजी का ज़िक्र भी है यों जैन साहब अखाड़ेबाज नहीं एक भाषाविज्ञानी, समीक्षक, लेखक के रूप में सारे देश में ख्यात हैं लेकिन जब कोई उलझता है तो चित किए बिना नहीं छोड़ते और ओझा का ‘मुड्डा‘ उसी समय जैन साहब ने धूल धूसरित कर दिया, जबकि शुद्ध हिन्दी लिखने की ज़िद में अभिनय जी ‘गो‘ को ‘गौ‘ लिखने के समर्थक हो कर भी अपनी ओझा की ‘ओ‘ को ‘औ‘ करने का साहस नहीं कर सके और भी प्रसंग है आगे (देखे वागर्थ दिस। 04, पृ. 81) जो जैन साहब ने दिए हैं उनके सामने अभिनवी शुद्ध हिन्दी की सनक चूरचूर हो गई दिखी है।

जैन साहब ने शिवमंगल सिंह सुमन, संत रजनीश, रामेश्वर शुक्ल अंचल, श्यामाचरण दुबे और मुक्तिबोध के संस्मरणों के अभ्यंतर प्रवृत्ति चित्र खीचे हैं, उनको ले कर गहलोत साहब ज़्यादा चिंतित हैं हाय! हाय!! सारी गरिमा धूल में मिला दी इस लिक्खाड़ ने, अश्लीलता, गालियां, दीनता, कामुकता, मौका परस्त छिछोर चारण-भाट सभी कुछ आयद होता है इन विभूतियों पर। कान्ति के लेखे तो, बिना ‘विशेषण‘ के कोई नहीं बचता। अस्तु अब कान्ति को घेरने के अलावा कोई चारा नहीं, क्योंकि नैतिकता हनन का अपराध वह जो ठहरा परन्तु गहलोत साहब ने इन विभूतियों के प्रति कान्ति के आदरभाव को किन्हीं विशिष्टयों के परिप्रेक्ष्य में जो व्यक्त किया गया है, शायद नहीं देखा, यथा कांति ने सुमन जी को मेरे देवता तक कहा रजनीश के दर्शन ज्ञान सम्पन्न होने का ज़िक्र किया डॉ. त्रिपाठी के इतिहास के ज्ञान की प्रशंसा की। प्रो. दुबे राजनीति की गोटों को फिट करने की महारत की प्रशंसा की और मुक्तिबोध की संघर्षों से जूझने का अदम्य जिजीविषा की, इस सब के लिखने का आशय यह है कि जैन साहब ने जिसे और जब जिस जिस कोण से देखा कलुव दिखा हो या दीप्ति। उसको शब्द दिए हैं ऐसी स्थिति में गहलोत साहब के आरोप दुराग्रह से दिखते हैं न कथ्य में दम न तथ्य में।

गहलोत साहब ने मुक्तिबोध के सम्बन्ध में एक हैरत अंगेज वाक्य लिखा है। (दृश्य दिया है वह बुलडॉग भोंकने वाला हंस जुलाई, 05 पृ. 36) कि “किस कदर प्रतिष्ठित प्रगतिशील, क्रान्तिकारी कवि मुक्तिबोध को अपमानित करते हुए उनका मखौल उड़ा रहा है। यह बतलाने की आवश्यकता नहीं।‘‘ स्मरण रखा जाना चाहिए कि यह कथन है प्रो. दुबे का परंतु कोट किया है जैन साहब ने, सो वे ही दोषी। मुक्तिबोध को ‘अपमानित‘ करने के गहलोत साहब के इस ‘गंभीर‘ ज्ञान को क्या कहा जाए। शब्द नहीं दिख रहे हैं और लीजिए स्वामी वाहिद काजमी जी, जो मुक्तिबोध की घोर कंगाली पर उसके कारणों पर ध्यान न देकर पूछ डालते हैं ‘‘मुक्तिबोध का खर्च अपनी आय से क्यों नही ंचलता था‘‘ मुझे याद आ रहे हैं स्वामी जी की तरह ही शायद गहलोत साहब को मुक्तिबोध और उनके मंडल की जानकारी न्यून है। अरे भाई मेरे गहलोत साहब जिन कान्तिकुमार को मुक्तिबोध की खिल्ली उड़ाने वाला, अपमानित करने वाला सिद्ध कर रहे हैं उदाहरण देकर, वे ही जैन साहब मुक्तिबोध के अभिन्न मित्रों में हैं। जैन साहब, परसाई जी, रामानुज श्रीवास्तव शिवकुमार श्रीवास्तव जबलपुर के गुरू ये मुक्तिबोध की मित्र मंडली थी। उनके हर दुख सुख में शामिल, तब क्या जैन साहब मुक्तिबोध को अपमानित करने का हौसला करेंगे? गहलोत साहब जरा गहराई में जाने की कृपा कीजिए, जैन साहब ने जो दृश्य कोट किया है वह प्रो. दुबे के अपने निजी आभिजात्य-प्रदर्शन का व्याख्याता है। मुक्तिबोध के प्रति, सीधी बात प्रो. दुबे अपने मुकाबले मुक्तिबोध सरीखे क्रान्तिकारी विचारक को नीचा दीन हीन कुत्तों से डरने वाला सिद्ध करना चाहते थे, याद करें गहलोत साहब उसी संस्मरण का वह वाक्य, जो परसाई ने कहा था ‘‘मुक्तिबोध कुत्तों से नही डरता‘‘ अपने भाषण में मुक्तिबोध के विरोधियों के सामने ही, इसे कोट जैन साहब द्वारा किये जाने का एक कारण और भी है वह यह कि वे दिखाना चाहते थे कि इस कोटिंग‘ से मुक्तिबोध के प्रति एक विचारधारा के प्रति क्रूर बानगी। इस तरह से जैन साहब का लक्ष्य मुक्तिबोध को अपमानित करना नहीं, बल्कि उनकी असीम संघर्षी जिजीविषा का दिग्दर्शन कराना है।

गहलोत साहब को एक चिंता और भी है कि जब कोई ‘‘पाठक जैन के इन संस्मरणों को पढ़ेगा और उसे अपने प्रतिष्ठित साहित्यकार कायर, चापलूस लम्पट, लफंगे नजर आयेंगे तो उसके हृदय में उनके प्रति स्थापित सम्मान एवं प्रतिष्ठा की प्रतिमा क्या खंडित नहीं हो जायेगी।‘‘ (पृ. 89 अक्षरा जु। 07) अपनी स्थापना के, श्रेष्ठ कवि, विचारक, इतिहासविद् जैसे संबोधन इन संस्मरणों के पठन से धुल जायेंगे, आम पाठक के दिमाग से। मेरा मानना ये है कि भैया सच तो सच है, उद्घाटित किया गया है पाठक प्रशंसा करता है या निंदा, उसकी बुद्धि विवेक पर छोड़ें, मैं पूछना चाहूंगा कि भारतेन्दु बाबू हरिशचन्द्र का बार-बार कलकत्ता जाकर वहां की एक सदगुणी नर्तकी मल्लिका से मिलना एवं उसके प्रति अनुरक्ति चरम सीमा तक, होना, आल्सटाय की स्त्रियों के प्रति अनुरक्ति ठीक कवि ‘सुमन‘ की तरह बंगला के शरदचन्द्र का वैश्याओं के मुहल्ले में घूमना, सम्पर्क में आना, प्रेमचंद का अपनी कन्या के विवाह में कन्यादान की रस्म को पूरा न करना (पत्नी के आग्रह पर भी) परसाई का सुरासेवन, इसी तरह तमाम लोगों की तमाम चारित्रिक विडम्बनाएँ पाठकों के सामने हैं, उन्होंने पढ़ी है। इनका यह अंधेरा पक्ष भी देखा है, फिर भी क्या ऊपर लिखित कवियों, साहित्यकारों, विचारकों की रचना को पाठकों ने पढ़ने से इन्कार कर दिया? क्या ये नहीं पढ़े गए, जाते रहे और जायेंगे? वस्तुतः नहीं। गहलोत साहब आज का पाठक अब 1857 का नहीं रहा। वह अपनी पुरानी मान्यताओं से हटकर भी पढ़ना चाहता है। व्यक्तित्व की कमियों को पचाने की सार्मथ्य बढ़ आई है। अश्लीलता, गालियों के प्रयोग एवं आदमी की विडम्बनाओं से वह छड़कता नहीं, वह उनके प्रति सदाशय रहता है। मानसिक ग्रंथियों के आलोक में आदमी को देखता, पढ़ता है। बहरहाल पाठक का मूल्यांकन अपना होता है। इसकी चिंता वही करेगा। मूल्यांकन भी वही करेगा। छद्म भरा, साफ साफ लेखन परोसने से वह अपने से तादात्म्य भी स्थापित नहीं कर पायेगा। यह विषय एक विस्तृत चर्चा मांगता है। अस्तु फिलहाल इतना ही।

जाए यों तो गहलोत साहब एवं इसी तरह के तमाम मर्यादावादियों की एक विरंच के साहित्य की जरूरत अनुभव कर रहा हूँ जो उन्हें प्रबोधित कर सके। मैं तुच्छ, मनीषियों से क्या कहूं, फिर भी कहने की हिम्मत जुटा रहा हूँ जिस पर गहलोत साहब को सोचना चाहिए और करना भी। 

1. वे पहले ‘लौट कर आना नहीं होगा‘ और ‘जो कहूँगा सच कहूँगा‘ जैना साहब की रचनाएँ अद्यान्त पढ़ें। केवल ‘हंस‘ के पंखों की फुटकर हवा में न उड़ें तो निश्चित रूप से जैन साहब के लेखन के प्रति उनकी धारणा बदलेगी। 

2. सुदर्शन दिखने वाले व्यक्ति में भी आडम्बर मिल ही जायेगा। कहीं न कहीं अपूर्ण। सम्पूर्ण त्रुटि हीन प्रकृति ही होती है और हाड़मांस का आदमी तो हो ही नहीं सकता। अतः अभ्यंतर खंगालने के कारण और परिणाम दोनों ही साहित्य, व्यक्ति और समाज के लिए नितांत जरूरी है। मीठे भोजन के साथ करेला की तरह। 

3. समाज, साहित्य में अश्लीलता आदमी ने अपनी छद्म नैतिकता के द्वारा ही अर्जित की है। क्या गहलोत सा. ने वस्तुतः जगदलपुर के आदिवासियों की वर्जनाहीन समाज रचना को देखा है? वहाँ, अंग अंग है शरीर का, कुछ भी अश्लील नहीं। सब कुछ खुला सामान्य व्यवहार, अस्तु अश्लीलता को ले कर जैन सा. की ले दे करना। बड़ी नागबार हरकत है। अरे सच, यथार्थ को कबूल तो करना ही पड़ेगा। आज नहीं तो कल।

4. सारे जमाने में चल रही दृश्य, श्रव्य अश्लीलता, अश्लीलता नहीं। यदि कोई लेखक उन्हें ‘कोट‘ करते हुए लिखे, वह अपराध? भई कैसे? यदि वह अश्लील है तो खजुराहों और कोर्णाक मंदिरों में युग्म मिथुनों को तो तत्काल खोद कर फिंकवा देना चाहिए था। इन मर्यादावादियों को। क्या वे अश्लील नहीं है? टी।वी। पर दिखाये जाने वाले तमाम दृश्य अश्लील नहीं हैं, बंद करो इनको, फिर मंदिर में जाकर ‘शिवलिंग‘ पर जल चढ़ाना कैसा लगता है? क्योंकि शिव के साथ ‘लिंग‘ भी अश्लील। भैया अश्लीलता मन का एक भाव भर है। उसे आदमी खुद ही पैदा करता है खुद ही उसको दफन करता है।

5. मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूँ निरा अल्पज्ञ, परंतु इतिहास की किताबों में पढ़ा था ‘हमाम‘ शब्द, मुगलिया बादशाह जहाँगीर, शाहजहाँ आदि ने ‘हमाम‘ अपने महलों में बनवाए थे ‘हमाम‘, यानी नहाने की जगह, बादशाह हो या बेगाम हमाम में पहुँचे। किवाड़ बंद किए, खूब नहाए वस्त्रों में और विवस्त्र भी। यानी विवस्त्र होने की जगह, स्नानरत ‘अक्षरा‘ ने अपना एक स्तंभ ही बना रखा है। इस हमाम में‘ हमाम में पहुँच कर सभी नंगे होते हैं सहज हैं, स्वाभाविक है फिर नंगे होने की अनिवार्यता जहाँ हो, वहाँ फिर अश्लीलता की चर्चा बहस का कोई अर्थ नहीं वहाँ ‘हमाम‘ में अश्लीलता है ही कहाँ जो चर्चा हो कान्तिकुमार जैन या काशीनाथ सिंह के तथाकथित अश्लील प्रसंगों की।

6. गहलोत साहब ने उल्लेख किया है कि काशीनाथ सिंह ने अपने संस्मरणों में संस्कृति, भाषा का चीर हरण किया है और खुद को भी बेनकाब किया है। (अक्षरा जुलाई अंक। 07 पृ. 92) यानी काशीनाथ सिंह ने अपने खुद के अभ्यंतर में झांक कर देखा है यानी खुद को भी नहीं बख्शा। मैं भी गहलोत साहब को सलाह दूंगा कि वे कान्तिकुमार जैन की संस्मरण रचना ‘जो कहूँगा सच कहूँगा‘ मंगा कर उसमें तीसरा भाग आत्म स्वीकृतियां पढ़ें। जरूर पढ़े। संस्मरणकार आत्म स्वीकृतियों में अपनी खुद-अपनी जिन्दगी का कच्चा खाका खींचता है सब कुछ कह कर सच सच कह कर कबूल करता है क्लीन नहीं रहना चाहता। अपनी खुद की अन्तर्वृत्तियों को उघाड़ कर रख देता है। तब क्या फिर भी दूसरों की सेंध को उजागर करने में लेखक का पक्षपात करना जिंदा रह पायेगा? शायद नहीं ।

चलते-चलते एक निवेदन और कहना चाहूँगा कि गहलोत साहब समय की चाल को समझें, वे इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं। अब वह वक्त आ गया है कि सच को सच कहना होगा, कबूल करना होगा, मर्यादावादी आखिर ‘गू‘ को ‘गू‘ कहने से क्यों कतराते हैं? और यह तभी हो पायेगा जैसा कि डॉ. कमला प्रसाद कहते हैं कि “आज साहित्यिक क्षेत्र को सबसे बड़ी जरूरत है ‘साहित्यवाद‘ से बाहर आने की ओर ‘साहित्य वादियों‘ के भ्रमजाल से बचे रहने की‘‘ (वसुधा 48 पृ. 10) ।

अस्तु राजेन्द्र यादव, काशीनाथ सिंह, डॉ. कान्तिकुमार आदि की रचनाएँ मंटो की कहानी ‘खोल दो‘ के यथार्थ-चित्रण परम्परा को आगे बढ़ा रही है। आज साहित्यवादी भले ही उनके अस्तित्व को हेय दृष्टि से देखें लेकिन आगे का समय इसी साहित्य को क्लासिक कहेगा, यह तय है।              


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