कुलवी साहित्य के पुरोधा - चंद्रशेखर ‘बेवश’

आशुतोष आशु ‘निःशब्द’ सत्कीर्ति-निकेतन, कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश, मो. 9418049070


व्यक्ति विशेष  

कुल्लू के समग्र जीवन दर्शन पर यदि चर्चा करें तो संस्कृति, देव-समाज, समृद्ध परंपरा और नैसर्गिक सौंदर्य की एक मिली-जुली लेकिन बेहद खूबसूरत तस्वीर उभर कर सामने आती है। कुल्लू जनपद हिमाचली सांस्कृतिक विरासत का पुरोधा है। दशहरा हो या फागली उत्सव, यहाँ की सभी परंपराएँ अनूठी हैं। इन्हें देखकर मन में बरबस एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है। 

इस सब के बीच कुल्लू का सबसे मजबूत पक्ष यहाँ की स्थानीय भाषा है। बोलचाल में प्रयुक्त शब्दों की बात करें या फिर अभिव्यक्ति का सलीका, दोनों ऐसा मन मोह लेते हैं कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाए। हिमाचल में प्रचलित अनेक स्थानीय बोलियों में से कुलवी की लय सर्वाधिक सरस प्रतीत होती है। इस भाषाई सरसता ने यहाँ जन्मे कवि-साहित्यकार स्वर्गीय श्री चंद्रशेखर को भी ‘बेवश’ कर दिया था। इस आलेख में हम आज चर्चा करेंगे कुलवी साहित्य के इस विलक्षण पुरोधा की। 

चंद्रशेखर की बेवशताः स्वर्गीय चंद्रशेखर की बेवशता परिस्थिति विशेष से उपजी किसी कुंठा का परिणाम नहीं थी। बल्कि ज्ञान की तुरीय अवस्था में स्थित कोई साहित्यिक योगी जब आत्म-अभिव्यक्ति को नियंत्रित नहीं कर पाता तो वो बेवश हो उठता है। उसका सृजन स्व-नियंत्रण की स्थिति से बाहर होता है। मानो कोई ईश्वरीय शक्ति उसके सृजन की अदृश्य संचालक हो। इसी को स्वर्गीय चंद्रशेखर की बेवशता कहना समीचीन होगा। क्यूँकि उनके द्वारा सृजित साहित्य भी यही तस्दीक करता है। हिमाचल प्रदेश की साहित्यिक वीथियों में यह नाम बेशक गुमनाम रहा हो, लेकिन इनकी रचनाओं ने कुलवी एवं हिमाचली साहित्यिक उड़ान को भरपूर पंख दिए। 

27 मई, 1905 ईस्वी को ढालपुर, कुल्लू में इनका जन्म हुआ था। कुल्लू के लोक-साहित्य, संस्कृति, मेलों एवं परंपराओं ने इन्हें खासा प्रभावित किया। संबंधित विषयों पर इनके शोधपत्र यही प्रमाणित करते हैं। परंपराओं में भी विज्ञान खोजने की भरसक उत्कंठा का नाम है चंद्रशेखर ‘बेवश’।

तीतर चाकरः स्वर्गीय श्री पुरुषोत्तम शर्मा के पुत्र चंद्रशेखर ने हिंदी, उर्दू और संस्कृत भाषा में भी भरपूर सृजन किया। परन्तु हिमाचली काव्य संग्रह ‘तीतर चाकर’ उनकी उल्लेखनीय प्रकाशित पुस्तक है। पहाड़ी, जिसे अब हिमाचली कहा जाने लगा है, को जब भाषाई दर्जा दिलाने के प्रयास ने जोर पकड़ा, तब समग्र हिमाचली साहित्य में कुलवी का अपेक्षाकृत कमतर योगदान जानकर इस कुलवी पुरोधा ने विविध शैलियों में रचित काव्य से परिपूर्ण यह पुस्तक प्रकाशित कर दी। ‘तीतर चाकर’ कुलवी बोली के स्वाभिमान और हिमाचली भाषा के प्रति ‘बेवश’ जी के योगदान का प्रमाण है। दुःखदायी पक्ष केवल यह कि प्रचलित हिमाचली साहित्य में इस पुस्तक की योग्य समीक्षा नहीं हुई। 

कुलवी में लिखित साहित्य की कमी के लिए ‘बेवश’ जी ने ‘लिपि के असमंजस’ को कारण ठहराया। हिमाचली की अधिकांश बोलियाँ टांकरी लिपि में लिखी जाती रहीं। लेकिन जिन बोलियों ने पहले-पहल देवनागरी लिपि को अपना लिया, वे उत्तरोत्तर अधिक सृजनशील हुईं। टांकरी को न छोड़ पाने का मोह कुल्लू में लम्बे समय तक बना रहा। परन्तु ‘तीतर चाकर’ कुल्लू के इस असमंजस को दिशा प्रदान करने हेतु बेवश जी का महती प्रयास है। यह बात दीगर है कि इस प्रयास को वर्तमान पीढ़ी भी योग्य अधिमान नहीं दे पा रही। 

बेवश का काव्य व्योमः अड़सठ पन्नों की पुस्तक, ‘तीतर चाकर’ एक बेजोड़ रचना संग्रह है। जिस समय यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी, वह कालखंड हिमाचली बोलियों का कृष्ण पक्ष था। बिखरती स्थानीयता और हिंदी के पसरते पाँव स्थानीय भाषाओं को संकुचित करने को आतुर थे। सामान्य दुराग्रह था कि स्थानीय बोलियों में राष्ट्रीय स्तर का साहित्य सृजित नहीं हो सकता। परन्तु चंद्रशेखर बेवश ने इस मिथक को तोड़ते हुए ‘जपु जी साहिब’ और ‘तुलसी रामायण’ के खंडों का कुलवी हिमाचली में काव्यात्मक सृजन करके दुराग्रहियों को माकूल जवाब दे दिया। ‘जपु जी साहिब’ पर आधारित उनके ‘कुलुई’ सृजन में उन्होंने श्रद्धा, सिमरन, भक्ति और काव्य का अंश मात्र भी लोप नहीं होने दिया:- 

”असल सत सा सीभी न बडा नां, सी तेई रा एक ओंकार। / प्रगटा आपू ता सौउंत बौसदा, तेयै बणाउ ऐ सारा संसार।। / तेई री काया ना बौगत बेला, तेई नी कौसौ री डौर वकार। / किरप तेई री वधकी शदर’ सौहै सा सीभी न बडी सर्कार।।1।।“

इसे तुरीय अवस्था को प्राप्त साहित्यिक योगी की अभिव्यक्ति न कहें तो क्या कहें! यह उनकी बेवशता का केवल अंशमात्र है। अगले छह बंधों में गुरु की महिमामयी वाणी कुलवी हिमाचली में साक्षात हो उठी है। 

कुल्लू के सेब की मिठास से सभी परिचित हैं। वही भाषाई मिठास चंद्रशेखर बेवश की रचनाओं में और भी सरस हो उठती है। तुलसी रामायण, ‘रामचरित मानस’ में राजा राम के राजतिलक की तैयारी का सुंदर वर्णन है। उसी पर आधारित ‘कुलुई’ सृजन में बेवश के कतिपय दोहों को पढ़िए:- 

”नां जश सभ किछ देणिया, तुसा रा सा माःराज। / इच्छा न आगै फौल सा, तेरा नृप सरताज।।११।।“ / ”राजा छेकैं देर नी, केरिए कुल समान। / रामै री गादी जबै, सोहैं बेल प्रमाण।।१४।।“

यह उनके अध्ययन, काव्य विधा की गहन जानकारी और अभिव्यक्ति की मौलिकता का दर्शन भर है। छंदोबद्ध शैली में रचित यह रचना कुलवी का उत्कृष्ट काव्य कही जा सकती है। देवनागरी लिपि में लिखे होने के कारण यह मुझ अज्ञानी के लिए भी सहज पठनीय एवं ज्ञान गम्य है। ऐसे में भाषाई पुरोधाओं के लिए तो यह और भी मोहक सिद्ध होगी। 

तीतर चाकर पुस्तक को विलक्षण कहने के अनेक कारण हैं। यह बेवश जी का एकमात्र प्रकाशित संकलन है। उनके विविधता पूर्ण सृजन को एक ही पुस्तक में संजोने का प्रयास किया गया है। इसलिए रचनात्मक विविधता के कारण पुस्तक में समरूपता बेशक न दिखे, लेकिन यह पुस्तक चंद्रशेखर बेवश जी के व्यक्तित्व में समग्रता के दर्शन अवश्य कराती है। पुस्तक का शीर्षक ‘तीतर चाकर’ स्थानीय देवताओं के सेवादारों का प्रतीक प्रतीत होता है। शीर्षक के आलोक में लेखक की भाषाई सेवादारी और अटूट क्षेत्रीय श्रद्धा प्रतिबिंबित होती है। पुस्तक की यह प्रथम रचना कुल्लू के देव, महाराज श्री रघुनाथ जी को समर्पित है - “तू सा म्हारा मालक ठाकर / आसै तेरे तीतर चाकर।” यह रचना भक्ति-भाव से परिपूर्ण श्री रघुनाथ जी की सुन्दर काव्य स्तुति है। भावी कालखंड में इसका रघुनाथ जी की आरती बनना तय है। 

बेवश जी की एक अन्य रचना ‘फौजी वीर’ मुझे सबसे प्रिय है। पूर्वी पकिस्तान का विघटन होकर बांग्लादेश बनने की घटना पर आधारित इस कविता में ‘बेवश’ भारतीय वीर जवानों के बलिदान की गाथा सुनाते हैं:- 

”चार गेरै हमलै कराऐ ईनै बैरी लोके, / कसर नी डाही तोफा तुबका समाने री। / चेका चोड़ू चीने रा मरीकै रा मरोकू नाक, / लका लकी बेठी जुरदाने री ईराने री। / मारै सेवर मिराज नैटा सैघै तूसै तंढै जंढै, / चीड़ू पांघै बाज हुई जंग आसमाने री। / सरगा समुदरा न जोता न ता बंदरा न, / बैइरी जुआन भूने झासी खीला धाने री।।३।।“

वीर रस से ओतप्रोत यह कविता भारतीय जवानों को आज भी गौरवान्वित कर रही है। इस बंध की अंतिम पंक्ति में दुश्मन को धान की खील जैसे भूनने का बिंब जवानों के शौर्य को पुनर्जीवित करने का माद्दा रखता है। पीड़ादायक पक्ष यह है कि वर्तमान पीढ़ी उनके सृजन और काव्यलोक से सर्वथा अनभिज्ञ है। 

बेवश की समग्र हिमाचलीः ऐसा नहीं कि बेवश जी केवल एकांतिक विचारधारा के पक्षधर थे। हिमाचली भाषा को आठवीं अनुसूची में स्थान दिलाने की जद्दोजहद आज भी चल रही है। परन्तु ‘कौन सी हिमाचली(?)’ का द्वंद्व वर्तमान में भी जस का तस बना हुआ है। बेवश जी देवनागरी लिपि में इस द्वंद्व का समाधान खोजने का प्रयास करते हैं। पुस्तक की प्रस्तावना इशारों ही इशारों में इस बात का उल्लेख करती है। आगे ‘नुआरा हिमाचल’ कविता में ‘मिश्रित कुलुई’ का प्रयोग करके बेवश जी कुलवी हिमाचली को सहज बनाकर प्रस्तुत करते हैं। भावी पीढ़ियों के लिए एकमत हो जाने का इशारा भी कर जाते हैं। और साथ ही कुलवी को समग्र हिमाचली के समकक्ष भी खड़ा कर देते हैं। बेवश जी का प्रत्येक प्रयास सराहनीय तथा सम्मान योग्य है। परन्तु जिस यात्रा हेतु बेवश जी प्रयत्नपूर्वक मार्ग तैयार कर रहे थे, भाग्य की विडंबना है कि उस पथ को योग्य पथिक नसीब नहीं हुए। 

15 दिसम्बर, 2001 को चंद्रशेखर ‘बेवश’ जी ने महाप्रयाण किया। कुलवी का पुरोधा अपने पीछे केवल एक, परन्तु अत्यंत समृद्ध विरासत, ‘तीतर चाकर’ छोड़ गया। उस समय निजी प्रयास और भाषा संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश के सहयोग से इस पुस्तक का प्रकाशन संभव हो पाया था, परन्तु अब यह अनुपलब्ध है। पुस्तक की चवालीस वैविध्यपूर्ण रचनाओं में चंद्रशेखर जी का समग्र जीवन दर्शन समाहित है। आशा है कि भाषा संस्कृति विभाग पुस्तक का पुनर्संस्कार करके इसके पुनर्मुद्रण का प्रयास करेगी ताकि वर्तमान पीढ़ी उनके साहित्य से लाभान्वित हो सके। इस पुस्तक का मूल उद्देश्य भी तो लोगों को अपनी माँ-बोली से जोड़ना ही तो था। बेवश जी लिखते हैं:- 

“मैं ऐ वपार गजारैं बै नी छापी, हाऊं चाहा सा बोहू लोक पौढ़ा न ता आपणी बोली न आपणी ता होर तैंरी गला बी लिखीऐ प्रगटी केरा न। ता आपणे तीतरा-चाकरा बै झूरा न। ऐ भेट मेरी कूलू रै लोका बै सा। 

तूसरा आपणा माह्णू - चंद्रशेखर बेवश, ढालपुर, कुल्लू....  

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