शब्दों

ओमान, मो. 00968. 96103888, ईमेल: paramjitoberoi66@gmail.com


शब्दों

शब्दों आओ,

कल्पनाएँ बिखरी हुईं हैं।

विचार राह देखते हैं,

बुद्धि चलने लगी है,

कलम भी हाथ में आने को,

आतुर है।


पृष्ठ भी खाली हैं ,

जैसे सजे हैं तुम्हारे लिए।

शब्दों आओ, 

भावनाएं अंतर्मन में,

हिलोरें ले रहीं हैं।

कहीं ज्वालामुखी की तरह, 

वे भीतरी गुहा में-

धधक न उठें,

कहीं तुम जल न जाओ,

इसी शीत- शांत वातावरण में।

तुम आओ-

मेरे विचारों को सजाओ,

भाव व विचार- 

आश्रित हैं तुम पर,

तुम आ इन्हें समेटो,

सब के सम्मुख पृष्ठ पर उतरकर।

मैं तुम्हारा आकार-

हाथ से बनाऊंगी,

तुम कितने महान हो,

सब समझ गए हैं।

शब्दों में गहराई है,

विचारों की,

विचारों को यदि तुम,

थाह न दो अपने आँगन में,

तो विचार खड़ा हो,

दस्तक देता रहेगा,

तुम्हारे द्वार पर।

इसलिए तुम आओ,

विचारों कल्पनाओं,

और भावों को,

अपना रूप वाला,

आभूषण पहनाओ।

तब न हो ये सब,

तो व्यर्थ है,

तुम हो- 

तभी तो इनका अर्थ है।


नर संहार

वर्तमान समय में बढ़ता,

जा रहा नरसंहार,

मनुष्य मनुष्य का शत्रु,

बनने को बैठा है तैयार।

नरसंहार के बाद,

लगे लाशों के ढेर,

देखा न जिन्हें,

किसी ने आकर,

होने लगी सवेर।

रक्त से हुए बर्बाद,

कईं घर बार,

मिट्टी भी चुप थी,

पर अब करने लगी पुकार।


हे मानव,

तू पुत्र है मेरा,

फिर क्यों  रहा -

मुझ पर इतना अत्याचार ?

खून बहा पहन रहा तू,

खूब जीत का हार।

कितनो की गोद सूनी कर,

कितनो के सिंदूर-

मिटा,

कितनो के भाई -बहन ले,

कितना किया,

तूने अत्याचार ?

इसका नहीं है-

तुझे एहसास स

खून धरा पर, 

पड़ा सूख गया,

देख न आई तुझे दया ?

सोच ले रहा तू,

उन सबकी बद दुआ,

जिनका खुशियों का,

आँगन सूना तूने किया।

भर रहे मन में तेरे, 

क्यों कुविचार ?

दया व परोपकार है गहना तेरा,

पहन इन्हें तू, 

जीवन अपना सुधार।

औरों के जीवन की,

जब न छिनेगा,

तू बहार,

तभी खत्म होगा यह संहार,

सुकर्मों को संचित कर

भविष्य अपना ले सुधार।

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