जुग-जुग जीवे मेरा मुर्षिद सोणा

    प्रो. सादिक़, नई दिल्ली, मो. 9818776459

    डाॅ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य


उस्तादे मोहतरम डाॅ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य की अस्सीबीं वर्षगांठ के अवसर पर जब कुछ लिखने के लिए बैठा और जहन को टटोला तो अतीत के वातायन में कहीं दूर साठ के दशक का उज्जैन नजर आया जब मैंने हायर सेकेण्डरी परीक्षा 

उत्तीर्ण करने के बाद बी.ए. करने के लिए माधव महाविद्यालय में प्रवेश किया था। यहां एक और ही दुनिया से मेरा परिचय हुआ। उर्दू मिडिल स्कूल में नाटककार के रुप में कुछ पहचान बनी थी जो महराजवाड़ा हायर 

सेकेण्डरी स्कूल में पहुंचते ही लुप्त हो गई। यहां एक दूसरी पहचान चित्रकार की हैसियत से बनी थी जो काॅलेज में आते ही गुम हो रही थी। अब यहां जो नई पहचान बनने वाली थी मैं उससे बिल्कुल ही अनभिज्ञ था। स्कूल से काॅलेज पहुंचकर ऐसा लगा मानो किसी कुएं से निकलकर तालाब में तैर रहा हूं। बेहद खुलापन और आज़ादाना माहौल पाकर जी खुश तो हुआ लेकिन जहनी परेशानी भी रही। उदाहरणार्थ उर्दू के उस्ताद जैसे स्कूल में मिले थे वैसे ही गैर दिलचस्प और दकियानूसी काॅलेज के उस्ताद भी लगे। वह भी अपने विषय और विद्यार्थियों से बेगाना थे और यह भी कोई रुचि न रखते थे। कायस्थों के बारे में पढ़ा और सुना था कि शेरोशायरी के बड़े शौक़ीन होते हैं लेकिन यहां मैंने अपने उस्ताद में ऐसी कोई बात न पाई। क्लीन शेवड थे। पैंट और बुशशर्ट जरुर पहनते थे लेकिन मिजाज और आदतें बिल्कुल मौलवियों जैसी थीं। उनकी क्लास में जाकर मुझे कभी खुशी नहीं हुई। 

बी.ए. में मेरा दूसरा विषय चित्रकला था। स्कूल में इस विषय के जो उस्ताद मिले उनकी हौसला-अफजाई के बल पर मैंने खूब काम किया और एक चित्रकार के रुप में ख्याति प्राप्त की। स्थानीय और प्रांतीय स्तर पर पुरस्कार भी हासिल किये लेकिन काॅलेज में पहुंचते ही सारी शोहरत खाक़ में मिल गई क्योंकि चित्रकला के उस्ताद मेरा हौसला बढ़ाने की बजाय पस्त करने में ज़्यादा रुचि रखते थे। 

तीसरा विषय राजनीति विज्ञान था जिससे मुझे अधिक लगाव न था। इस विषय के एक उस्ताद डाॅ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य थे। दूसरी एक लेडी लैक्चरर मैडम शुक्ला थीं जिनकी सुन्दरता और अंदाजे-गुफ्तुगू प्रभावित करता था। पढ़ाया तो नहीं लेकिन प्रेम और प्रोत्साहन दिया। उनके निकट रहकर भी मैंने कुछ सीखा ही होगा। उनमें से एक डाॅ.शिवमंगल सिंह सुमन थे जो माधव काॅलेज के प्राचार्य थे और दूसरे जनाब चंद्रकान्त देवताले, जो काॅलेज के हिन्दी विभाग में उन दिनों नए-नए आए थे। इस विस्तृत पृष्ठभूमि के बाद मुझे कहना यह है कि 

माधव काॅलेज में प्रवेश के समय से लेकर बी.ए. पास करने के बाद काॅलेज छोड़ने के दौरान में जिस उस्ताद ने मुझे सब से अधिक प्रभावित किया, प्रेरणा दी और आगे बढ़ाया वह डाॅ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य के अलावा कोई और न था। यह अब से लगभग पचास वर्ष पहले की बात है उन दिनों प्रभात जी को माधव काॅलेज में आए हुए कुछ ही वर्ष हुए थे। वे राजनीति विज्ञान पढ़ाते थे। नवजवान क्रियाशील और डाईनैमिक व्यक्तित्व के हामिल थे। उन दिनों इस विभाग के अध्यक्ष डाॅ.प्रकाश हुआ करते थे। निहायत शानदार व्यक्तित्व वाले अत्यंत गम्भीर इंसान...लेकिन प्रभात जी की बात कुछ और ही थी उनमें कुछ ऐसी कशिश थी जिसने उन्हें हर-दिल अज़ीज़ बना दिया था। 

उन दिनों प्रभात जी की एक पुस्तक विद्याार्थियों में बहुत मकबूल हुई थी जिसमें राजनीति विज्ञान के बी.ए. के कार्य का अहाता किया गया था। वो पुस्तक मैंने भी खरीदी थी अब उसकी दो ही बातें याद रह र्गइं हैं एक तो यह कि शुष्क नहीं थी बल्कि रुमानी स्टाइल में लिखी गई थी दूसरे सुकरात, अफलातून और अरस्तू वाले अध्यायों में कुछ ड्रामाई अंदाज़ मिलता था जो बड़ा रोचक लगता था। ड्रामाई अंदाज़ से याद आया कि उन दिनों प्रभातजी ने एक नाटक लिखा था ‘‘रोशनी की चार दीवारी।‘‘ यह उनका पहला नाटक था जिसके शीर्षक से ही आधुनिकता की गंध आती थी। इस नाटक का मंचन भी हुआ था। नायक की भूमिका हफीज खान ने निभाई थी जो पूर्व में पारम्परिक नाटकों में काम करता रहा था और ‘‘उज्जैन का दिलीप कुमार‘‘ कहा जाता था। हरीश पाठक ने इसमें राइटर का रोल अदा किया था। गफूर टिड्डे को ख्वाहिश के बावजूद इसमें में कोई रोल नहीं मिल सका था। डायरेक्टर का कहना था कि उसके स्टेज पर आते ही ड्रामे की सारी गम्भीरता खत्म हो जायेगी। इस नाटक के मंचन की सफलता के लिए प्रभातजी, शिंदे साहब और भगवती बाबू ने बड़े प्रयत्न किए। आॅल इंडिया रेडियो इन्दौर के हनफी साहब ने प्रकाश व्यवस्था के बारे में जो मशवरे दिये उनमें रंगों के प्रतीकात्मक प्रयोग पर खास तौर से ध्यान दिया गया था। 

नाटक का मंचन सफलतापूर्वक हुआ। सारे ही दर्शकों ने उसे शुरु से आखिर तक देखा, लेकिन पसंद नहीं किया। अधिकतर दर्शकों का कहना था कि नाटक तो बहुत अच्छा है किन्तु समझ में नहीं आया। इस नाटक प्रयोग ने प्रभातजी को काफी दुखी किया। नाटक का नायक हफीज खान एक अर्से तक एक्टिंग करके दिखाता रहा कि नाटक को फ्लाप हो गया मानकर प्रभात जी किस तरह अपने हाथों में सिर थामकर बैठ गए थे और क्या-क्या कहते रहे थे। उस नाटक की एक स्क्रिप्ट मेरे पास भी थी जो मैं उज्जैन छोड़ते समय अपने साथ औरंगाबाद ले गया था और बाद में उसे पढ़ा था। उसकी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वो अत्याधुनिक और प्रयोगात्मक नाटक था जिसमें काव्यात्मकता का बाहुल्य था। उसका मंचन यदि देहली या कलकत्ता में इब्राहीम अलकाजी या उसी स्तर के किसी बड़े डायरेक्टर के निर्देशन में होता और योग्य दर्शक मिलते तो निस्संदेह वह हिन्दी के निहायत मैयारी नाटकों में गिना जाता। आधुनिक नाटकों में मील का पत्थर माना जाता। आधुनिक नाटककार उससे बहुत कुछ सीखते और प्रेरणा हासिल करते। अफसोस है कि साठ के दशक के उज्जैन के दर्शक उसे समझ न पाए। यह हादसा नाटककार की हताशा का कारण बना और नई तर्ज के कई भावी नाटक उसके जहन के गर्भाशय में ही लुप्त हो गए इस हादसे ने लेखक से कहीं अधिक क्षति हिन्दी नाटय साहित्य को पहुंचाई जिसका मुझे हमेशा अफसोस रहा है। 

उस नाटक (रोशनी की चार दीवारी) का नायक एक प्राॅम्पटर था। महत्वहीन समझा जाने वाला वह किरदार जो स्वयं अंधकार में रहकर, स्टेज पर रोशनी में मौजूद पात्रों का सहायक होता है। नाटक के संवाद बहुत मार्मिक, अछूते और आधुनिक कविता की तर्ज और अंदाज के थे, जिनमें बड़ी ताजगी और जान थी लेकिन यह समय वो था जब आधुनिक कविता को ही अपने पैर जमाने में दाॅतों पसीने आ रहे थे। साठ के दशक में उस अत्यन्त आधुनिक नाटक के साथ जो कुछ होना था वही हुआ। दर्शकों की समझ में न आया। हफीज खान हीरो की समझ में भी यह बात नहीं आई कि नाटक समाप्त हो जाने के बाद प्रभाजती हाथों में सिर थामकर बैठ गये थे उसका मुल कारण नाटक की असफलता नहीं बल्कि दर्शकों की कमफेहमी थी। 

मैंने प्रभातजी में एक विशेष बात यह भी पाई कि वे अपने दोस्तों-साथियों और शिष्यों की क्षमताओं को पहचानने में देर नहीं करते थे। फिर उन्हें ध्यान में रखकर राय-मशवरे देते, काम कराते और आगे बढ़ाकर खुश होते थे। 

जब मुझे व्यंग्य-चित्र बनाने का शौक चर्राया था तो प्रभातजी ने मुझे ‘माधविका‘ के लिए व्यंग्य-चित्र बनाने को कहा। उनके निर्देशानुसार मैंने कई कार्टून बनाए जिनमें डाॅ.शिवमंगलसिंह सुमन, हरिवंशराय बच्चन जी, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी जी इत्यादि के नाम मुझे याद आ रहे हैं। सभरवाल (हरभजनसिंह) हमारे काॅलेज की हाॅकी टीम का माना हुआ खिलाड़ी था और प्रभातजी का प्रिय शिष्य। उसका भी एक कार्टून बनवाया गया था। ‘माधविका‘ में उन कार्टूनों के प्रकाशन के बाद शहर-भर में उनके चर्चे हुए। मुझे बड़ी शोहरत मिली यह सब प्रभातजी 

द्वारा मिले प्रोत्साहन का नतीजा था। इसके बाद तो मेरे बनाए हुए व्यंग्य-चित्र स्थानीय समाचार-पत्रों से लेकर ‘धर्मयुग‘ तक में प्रकाशित हुए। 

मैं उर्दू के साथ-साथ हिन्दी में भी कविताएं लिखता था, जो हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में छप भी जाती थीं। गद्य में लिखने की प्रेरणा मुझे प्रभातजी से ही मिली। ‘माधविका‘ के लिए उन्होंने मुझसे एक लम्बा आलेख तैयार कराया। इसकी तैयारी में मार्गदर्शन भी दिया। यही आलेख आदरणीय शरद जोशी और फिर उनके  हमजुल्फ कवि नईम से मेरे परिचय का ज़रिया बना लेकिन यह कहानी फिर कभी। एक मैं ही क्या, मेरे सभी दोस्तों-साथियों को जो उनके सम्पर्क में थे, प्रभातजी के प्रेम और आर्शीवाद के साथ-साथ सही मार्गदर्शन और प्रोत्साहन मिलता रहता था। कौशल मिश्र, नरेश भार्गव, हरीश पाठक, गफूर टिड्डा, सभरवाल, सुदीप बनर्जी, हफीज खान और मुज्म्मिल अंसारी किस-किसके नाम गिनाऊं? अब सारे नाम याद भी नहीं रहे। मेरा प्रिय मित्र कौशल मिश्र भी उनका शागिर्द था। साठौत्तरी पीढ़ी के भूले-बिसरे कवियों में से एक, जिसकी आक्रोश भरी कविताएं बड़ी जानदार होती थीं। वह रेलवे की गैर-शायराना सर्विस में फंसा हुआ था। प्रभातजी उस पर हमेशा मेहरबान रहते थे। हरभजनसिंह सभरवाल पर भी उनकी खास कृपा दृष्टि रहती थी। जब कौशल मिश्र का प्रेम प्रसंग गंभीर रुप धारण करने लगा तो प्रभातजी ने उसके पिताजी को मनाने के लिए मगरमुहे में स्थित उसके घर जाने से भी गुरेज नहीं किया। एक लम्बे समय के बाद जब कौशल ने प्रेम-विवाह कर लिया तो उसके पिताजी ने सारा दोष अपने बेटे के बजाए उसके गुरु के सिर मढ़ दिया। सुना है कि प्रभातजी ने मगरमुहा शीर्षक से एक उपन्यास लिखा है, जो प्रकाशित हो चुका है। मेरी नजर से नहीं गुजरा अतः कह नहीं सकता कि उसमें क्या है? कौशल मिश्र को रेलवे की क्लर्की से निकालकर लैक्चरर के पद पर लाने और फिर काॅलेज का प्रिंसिपल बनवाने में प्रभातजी की केन्द्रीय भूमिका रही है। 

गफूर टिड्डा अच्छा चित्रकार और दिल-फेंक नौजवान था। उसे सारे दोस्त दीन-हीन और नाकारा समझते थे। प्रभातजी के सम्पर्क में आने के बाद वह एक बेहतरीन मेक-अप मैन और मंचसज्जा का माहिर बन गया। उसने मुखौटा-साजी में भी नाम पैदा किया सम्मान हासिल किए और आगे चलकर शिंदेजी का बदल साबित हुआ। हफीज खान और हरीश पाठक का जिक्र मैं कर चुका हूं। प्रमोद त्रिवेदी और नरेश भार्गव के बारे में कुछ याद नहीं आ रहा है। सुदीप बनर्जी उनका शिष्य नहीं था लेकिन कृपा का पात्र जरुर था। 

एक बार प्रभातजी सब्जेक्ट एक्सपर्ट की हैसियत से किसी काॅलेज की स्लेक्शन कमेटी में जाने वाले थे। इंटरव्यू होने से दो तीन दिन पहले पता चला कि वहां सबसे योग्य उम्मीदवार की बजाए किसी सिफरिशी प्रत्याशी को लिया जाना पहले से तय हो चुका है। प्रभातजी ने यह कहकर वहां जाने से इन्कार कर दिया कि मैं किसी लायक उम्मीदवार के साथ इतनी बड़ी बेइंसाफी नहीं कर सकता। यह फैसला उन्होंने डाॅ.मुजम्मिल अंसारी के कारण किया था जो राजनीति विज्ञान का न केवल एक अच्छा विद्यार्थी था बल्कि सारे उम्मीदवारों में अकेला पी.एच.डी. भी था। वह एम.ए. में प्रभातजी का शिष्य अवश्य रहा था लेकिन बाद में शोध कार्य किसी और निर्देशक के अधीन किया था। 

मुझे अधिक समय तक प्रभातजी के संपर्क में रहने का अवसर नहीं मिला। बी.ए. पास करने के बाद मैं उज्जैन छोड़कर औरंगाबाद चला गया। चित्रकला को अपना व्यवसाय और साहित्य को शौक बनाने का ख्वाब देखता था लेकिन लोगों का यह कहना सच निकला कि ख्वाब की ताबीर उल्टी होती है। 

उज्जैन छोड़ने के बाद मैंने लगभग बारह वर्ष महाराष्ट्र में गुज़ारे और फिर दिल्ली में आकर बस गया। इस बीच प्रभातजी बातों और यादों में तो आते रहे लेकिन प्रत्यक्ष में उनसे मुलाकात न हो सकी। 

एक दिन अचानक उनका पत्र मिला कि वे एक साहित्यिक पत्रिका जारी करने का इरादा रखते हैं और उसकी टीम में मुझे भी शामिल कर रहे हैं। यही नहीं, कुछ दिनों बाद उन्होंने मेरे नाम का सुन्दर सा लेटरपेड भी छपवाकर भेज दिया। उसके साथ टिकिट लगे हुए बहुत-से लिफाफे भी थे। 

मार्च 2008 की एक शाम को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में ‘समावर्तन‘ के प्रवेशांक का लोकार्पण हुआ। इसी मौके पर चालीस वर्षों के बाद प्रभातजी से मेरी मुलाकात हुई। वे निहायत गर्मजोशी के साथ उसी तरह मिले जैसे चालीस वर्ष पूर्व मिला करते थे। इतने लम्बे समय तक न मिलने की न उन्होंने कोई शिकायत की, न ही मैंने कोई जरुरत महसूस की। ‘समावर्तन‘ का प्रवेशांक देखा तो उसके परामर्श मण्डल में मेरा नाम भी छपा था। प्रभातजी ने अपने स्वभाव और आदत अनुसार स्वयं को नुमायां करने की बजाए कई दोस्तों-शिष्यों को शामिल किया था जिनके नाम विभिन्न हैसियतों से दिए गए थे। वे स्वयं न सम्पादक थे और न प्रधान सम्पादक। उस समय मुझे ‘रोशनी की चार दीवारी‘ का प्रोम्पटर रह-रहकर याद आता रहा। 

‘समावर्तन‘ के लिए कुछ लिखने को उन्होंने मुझे दो तीन बार कहा और अन्ततः ‘आत्मकथ्य‘ (मैं और मेरा हमज़ाद) लिखवाकर ही माने। फिर एक अंक में ‘चैमासा‘ के तहत मुझ पर विशेष सामग्री प्रकाशित करके खुश हुए। पहली कक्षा से लेकर एम.ए. और फिर पीएच.डी. करने तक मुझे कई अच्छे, बहुत अच्छे और साधारण शिक्षक मिले। उनमें से अधिकांश अब परलोक सिधार चुके हैं। खुदा सबको जन्नत नसीब करे। अपने समस्त गुरुजनों को ध्यान में रखते हुए जब मैं सोचता हूं कि उन सब में ऐसा मेहरबान और आदर्श उस्ताद कौन है जिसने मुझे मेरी अपनी नैसर्गिक क्षमताओं के अनुसार रचनात्मक कार्य करने की प्रेरणा दी, हौसला बढ़ाया और मुझे आगे बढ़ाकर खुश हुआ तो मस्तिष्क-पटल पर एक ही नाम उभरता है। प्रभात कुमार भट्टाचार्य। उस समय दिल से यही सदा निकलती है। 

‘‘जुग-जुग जीवे मेरा मुर्षिद सोणा।‘‘

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