गुज़रते हुए
प्रो. सादिक़ के लेखन का एक और अहम पहलू- लंबी कविता
प्रो. सादिक़, नई दिल्ली, मो. 9818776459
नींद की क्षिप्रा
तार-तार हो गई
आसमान से धूलकोट बरसा
और दब गई
ज़िंदा और आबाद अवंतिका
एक-दूसरे के मुकाबिल
लेकिन नामालूम फासलों के
दोनों सिरों पर
खड़े होकर
नितांत असंबद्धता के साथ
हमने देखे
एक-दूसरे की आँखों में
हैरानियों के विंध्याचल
जिन पर छाए हुए थे
शंकाओं के बादल
और कड़क रही थीं बिजलियाँ
आठवें कमरे में आकर
फँस गई थी रात
कमरा आग की लपेट में था।
कौन-सा स्थान था वह
कुछ याद नहीं पड़ता,
जहाँ
कमरा-दर-कमरा चलती हुई
अजीब तज़र््ा की
पुरानी इमारत
एक अनंत सिलसिला बन गई थी
मुझे तो सब ख्वाब लगता है।
विशाल सिंहद्वार पर अंकित
कुंडली मारे
फन उठाए, दो काले नाग
और बीच में स्थिर सूर्य
द्वार खुलने पर
दो हिस्सों में बँट गए थे/हमारे पीछे
द्वार बंद होने पर
बाहर से/देखने वालों के लिए तो
चित्र अधूरा न होगा
वर्ष पर आच्छादित
कमरे का विस्तार
आवश्यक वस्तुओं से परिपूर्ण
मौजूदा सन् का कैलेंडर
पार करके
निकल गए हम
दूसरे कमरे में
पीछे बंद हो गया दरवाजा
कमरा अपेक्षाकृत सँकरा था
आवश्यक वस्तुओं से भरा कैलेंडर
एक वर्ष आगे का था।
तीसरे कमरे में पहुँचते ही
पीछे बंद हो गया
एक दरवाजा
टँगा हुआ पाया
एक और कैलेंडर
जिस पर दर्ज था
आगामी वर्ष का
एक और सन्
बढ़ते चले गए
एक के बाद एक चैथे, पाँचवें,
छठे और सातवें कमरों में
बंद होते चले गए
हमारे पीछे दरवाजे
सँकरे होते चले गए अँधेरे
गहरे होते चले गए अँधेरे
यह आठवाँ कमरा था
बेहद संकीर्ण, अँधकारमय और अनिष्ट
बेख़्याली में
एकदम खड़े हो जाने पर
हमारे सिर
छत से टकरा जाते थे
नवें कमरे में प्रवेश करने का अर्थ
परिचित अनुभवों के
उतरे चेहरों से स्पष्ट था
और अधिक संकरापन
और अँधेरा
और घुटन
गूँजते संकल्प
टूट-टूट जाते थे, जहाँ
एक दूसरे की ओर पीठ करके सोए
और हड़बड़ाकर
जाग पड़े थे
भयभीत होकर
देख रहे थे हर तरफ
छत और दीवारें
भभक-भभक जल रही थीं
कमरा आग की लपेट में था।
उफनता चला आ रहा था धुआँ
गले से फेफड़ों तक
श्वास की नली में
एक गहरी लंबी खरोंच पड़ जाने की
उद्विग्न संवेदना
अपने ही खून में तरबतर
फड़फड़ा रही थी
धुएँ से जलती लाल-लाल आँखों से
उबल रहा था मटमैला पानी।
मौत से बचा नहीं जा सकता
जानते हैं और
मध्यस्थ दूरियों को
आॉक्सीजन दे-देकर
लिए फिरते हैं अस्थायी संतोष
छोटे-से-छोटा दुख भोगना
पसंद नहीं, लेकिन अकस्मात् जब
विशालकाय दुख सामने आकर
ललकारने लगे
तो सहन भी करते हैं
और स्वीकार भी
प्रकृति में यह रीति
अनादिकाल से चली आ रही है।
घुटनों
और हाथों के पंजों के बल
फर्श पर चलते हुए
स्वयं को
नवें कमरे के दरवाजे तक
ले जाने से
रोक न पाए, किंतु
दरवाज़ा खोलने से पूर्व
उसमें झाँककर देखा।
नवाँ कमरा
बहुत लंबा-चैड़ा था
उसके बीच उगे हुए थे
जंगल और पहाड़
जिसमें घूम रहे थे नरभक्षी
दाँत कचकचाते
और बिलबिलाते हुए
वृक्षों पर
झूल रहे थे प्रेत
चीत्कार करती फिर रही थीं
डायनें।
दाहिने ओर, कोने में
एक टेकरी थी, जिस पर
अघोरियों की झोंपड़ी थी
झोंपड़ी के द्वार पर
लटक रहा था
एक कंकाल
और सारे अघोरी
हाथों में खपोड़ियाँ लिए
आकाश की ओर मुँह किए
जोर-जोर से बोल रहे थे
कोई मंत्र
कंकाल से
टपक रहा था खून
भयभीत होकर
एकदम पीछे हट गए
हम दोनों।
एक तलघर था
बढ़ती हुई दूरियों की
भूमिका के सहारे
उतर गए थे
जिसमें
फुरती और आवेश के साथ
नवें कमरे का दृश्य
आँखों से गुज़रकर
स्मरण में पैठ गया था
तलघर के अंदर-ही-अंदर हम
चलते चले गए
चलते चले गए
पहले मोड़ पर
ज़मीन में गड़ा पाया
एक त्रिशूल
जिसमें अटका हुआ डमरू
आपों-आप बज उठा
और आवाज़ की लय पर
झूमता-लहराता
सामने आ खड़ा हुआ
एक निर्बल वृद्ध साधु
जिसकी भौंहे, दाढ़ी और जटाएँ
कपास हो रही थीं
और उसका चेहरा
आँखों से बंचित था
‘तुम आ गए...
उसने गंभीर लहजे में मुझे संबोधित किया
... और पिंगला भी साथ है।’
सुनो!
‘अमरफल’ तो एक कसौटी मात्र था
तुमने यथार्थ की झलक देख ली है
‘श्रृृंगारशतक’ के रचनाकार
तुम्हें अब ‘वैराग्यशतक’ लिखना होगा
जाओ
और याद रखो
दोनों के बीच जो अनुभव है
वही सुंदर, पवित्र और सत्य है
चलते-चलते
सिसकियों की गूँज महसूस की
अब कुछ नहीं हो सकता
मैंने मुड़कर कहा
कर्म से बँधी नियति
‘होनी’ का रूप धारण कर चुकी है
और ‘होनी’ कालचक्र का
कालचक्र को कौन रोक पाया है?
सुरंग में चलते-चलते
पैरों तले, आस-पास और ऊपर
हर तरफ एक लिजलिजा पीलापन
अजीब एहसास दिला रहा था
सुरंग
फैलती-सिकुड़ती लग रही थी
छूकर देखा
तो हर तरफ/मांस-ही-मांस महसूस हुआ
जिसमें जिंदगी
और हरारत थी
लगा-सुरंग की बजाए हम
अंदर-ही-अंदर
किसी विशालकाय प्राणी के शरीर में
चलते चले जा रहे हैं
भयभीत हो काँपने लगे दोनों
भागते-भारते
रोशनी की धज्जी की ओर
सुरंग के मुँह से निकल कर
पहुँच गए,
खुले में
एक छोटी-सी घाटी थी
जिसे घेर रखा था
ऊँची-ऊँची सीधी चट्टानों ने
जिन पर खुदी हुई थीं
गर्दभ सेन की कथाएँ
रानी के साथ
मैथुनरत गधा
बेहद विचित्र लगता था
फासले की पीठ पर
मंदिर के जगमगाते कलश के करीब
नज़रों की गिरफ़्त में थी
एक बस्ती
जिसकी ओर
हमारा रुख था
‘वो- ऽऽऽऽ
एकाएक, उसने
एक ओर संकेत करते हुए
एक लंबी चीख मारी
और गिर पड़ी मूच्र्छित होकर
दूर सामने से
कुछ लोग आते-दिखाई दिए
जिनके सिर गायब थे
जिस्मों से
प्रेत होंगे
मैंने सोचा, हम
शायद किसी तिलस्म में फँस गए हैं।
यकायक ठहर गए वे सब
थोड़ा आगे बढ़ा
उनमें से एक
‘हम प्रेत नहीं, अजनबी
और यह घाटी भी तिलस्मी नहीं’
उसकी आवाज़ सुनाई दी
उमड़ा आता था डर
कि मेरे मस्तिष्क में आई बात
कैसे लौट आई
उसकी आवाज़ में उतर लेकर
‘डरो नहीं
तुम्हारे जेहन में उत्पन्न होने वाला
प्रत्येक विचार, हमारे लिए
आकाश की तरह निर्वस्त्र है’
वही आवाज़ फिर सुनाई दी
‘देखो, वह सामने
हरसिद्धि मंदिर है, जिसमें
विक्रमादित्य का कटा हुआ सिर
अब तक देवी के चरणों में पड़ा है
कि उसे शीश की बलि चढ़ाते हुए
देख लिया था किसी ने छिपकर
और उसी दिन से
बस्ती के सारे संपर्क खो गए हैं
हम लोग प्रेत नहीं
शापग्रस्त इंसान हैं अजनबी
जिनके सिर
जिस्मों से अलग हो गए हैं
यह हरसिद्धि मंदिर तो नहीं था!
जहाँ चारों तरफ
नज़र आ रही थीं सीढ़ियाँ
सीढ़ियाँ
उतरती चली गई थीं कुंड में
कुंड में से
सीढ़ियों पर चढ़ते हुए हम
बढ़ रहे थे
मंदिर के द्वार की ओर
सामने बैठा था
पत्थर में तराशा हुआ नंदी
नंदी के सामने था
महाकालेश्वर लिंग
आ-टकराया
एक रास्ता
रास्ता जाता था ऊपर की ओर
ऊपर की ओर
द्वार के सामने था
पत्थर का नंदी
और नंदी के सामने
सामने था
एक और रास्ता
रास्ता जाता था और ऊपर
और ऊपर था एक और नंदी
पत्थर में तराशा हुआ
और उसके सामने
शिवलिंग
जिसमें लिपटा हुआ था
चाँदी का नाग
नाग ने
फैला रखा था अपना फन
पास ही
पड़ी हुई थीं
धृतराष्ट्र की आँखें
जिनसे गुज़रकर
चट्टान पर चढ़ते-चढ़ते
फिसल-फिसल जाते थे, अतीत में
कच्चे उजालों को पकड़ते हुए
फिर करते थे कोशिश
चट्टान की दूसरी ओर
तना हुआ था एक मरुस्थल
जिसके बीचोंबीच
औंधी पड़ी हुई थी
अजीब-तर्ज़ की एक पुरानी इमारत
इमारत में
प्रवेश करते ही
एक परिचित अँधेरा आ मौजूद हुआ?
बढ़ती हुई दूरियों की
भूमिका के सहारे
उतर गए थे जिसमें दोनों
भटक रहे थे
उसी तहखाने के अंदर
ढूँढते फिर रहे थे
कमरे में वापस जाने का रास्ता।
रास्ता
हमसे बहुत दूर न था
नज़र आ रही थी वह सड़क
जिस पर से
गुज़रते चले जा रहे थे लोग
कंधों पर लिए हुए एक अर्थी...
और शोकमय स्वरों में
होंठों पर शब्द
‘राम नाम सत्य है
राम नाम सत्य है।’
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