मैं समझ नहीं पाई (कविता)

   डॉ. प्रज्ञा शारदा, चंडीगढ़, मो. 9815001468, Email : pragyasharda@gmail.com


मैं समझ नहीं पाई कविता

प्रसव पीड़ा को सहती हुई

उसकी चीख

पहुंच गई वहाँ

जहाँ निवास करती है

सृष्टि।

निढाल हो

परास्त सा महसूस

करती है

जब पता चलता है

कि

पैदा हुई है बेटी।

क्योंकि

बेटी के आने से

न होता है कोई

खुश

न मिलती है बधाई

पड़ी रहती है

अकेली

छा जाता है

सन्नाटा चारों ओर

हो जाते हैं सब खामोश।

न कोई पूछता है

न बूझता है

न पास आता है

न हाल पूछता है

बस मिलती है

सबसे जुदाई।

बेटा होता

तो विपरीत होता

लोगों का हुजुम्ब

लग जाता

कोई मुझे चूमता

कोई उसे चूमता

कोई गले लगाता

कोई सिर पर

हाथ फेरता

तो कोई बच्चा

गोदी में उठा

उसका चेहरा निहारता

तुझ पर गया है

मुझ पर गया है

के क्यास लगाए जाते

लड्डू बांटे जाते

ढ़ोल वाला आता

नगाड़े बजाए जाते

हिजड़े आते

नाचते गाते

पैसे,जेवर

माँग ले जाते

और मिलती

खूब बधाई।

प्रसव पीड़ा

एक नया जन्म

होता है स्त्री का

आती है स्त्री वापिस

मौत के मुँह से

पर लड़के की चाहत में

धकेला जाता है उसे

फिर से।

तभी तो

स्त्री भी चाहती है

कि न हो बेटी,

बेटा जन्में

पहली ही बार में

नहीं तो उसे दोबारा

उस राह जाना पड़ेगा

जहाँ उसे

फिर से बेटी

हो जाने के

भय का

दर्द सहना पड़ेगा।

लड़का हो

या लड़की

भला स्त्री के

हाथ में है क्या?

सब इस सच्चाई को

जान कर भी

क्यों लेते हैं

ऑंखें मूंद

मैं समझ नहीं पाई

मैं समझ नहीं पाई।



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