ग़ज़ल
प्रो. सादिक़, दिल्ली, मो. 8384036071
साभार: ज़िंदगी का ज़ायक़ा, अमरसत्य प्रकाशन, दिल्ली
शरीफ़ चोर था कुछ तो जनाब छोड़ गया
कबाब खा गया लेकिन शराब छोड़ गया
जो रास्ते में बहुत मेहरबान था मुझ पर
सफ़र के अंत में सारा हिसाब छोड़ गया
पढ़ी तो निकलीं कविताएँ अर्थहीन सभी
वह अपनी याद में ऐसी किताब छोड़ गया
मुक़दमे, क़र्जे, रहन-जायदाद के झगड़े
मरा तो देखिए क्या-क्या नवाब छोड़ गया
सवाल जितने उठाए थे पत्रकारों ने
वह गोल-मोल सभी के जवाब छोड़ गया
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ढूँढे से कभी भाग्य का तारा नहीं मिलता
इक बार जो मिल जाए दुबारा नहीं मिलता
थोड़े से कभी अपनी तबीयत नहीं भरती
और ऐसा मुक़द्दर है कि सारा नहीं मिलता
हों जिसमें समाधान समस्याओं के अपनी
ऐसा कोई जादू का पिटारा नहीं मिलता
विष-वृक्ष बढ़े जाते हैं धरती पे निरंतर
जो काट दे इनको लकड़हारा नहीं मिलता
तुम सैर करप्शन के समुंदर की करो तो
चलते ही चले जाओ किनारा नहीं मिलता
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जो कथा तूने सुनाई वो बड़ी है बंधु
गुम मगर बीच की इक ख़ास कड़ी है बंधु
दूसरों का कोई रखता ही नहीं ध्यान यहाँ
जिसे देखो उसे अपनी ही पड़ी है बंधु
जो ग़लत काम तू कर सकता है जल्दी कर ले
नेक कामों के लिए उम्र पड़ी है बंधु
सारे संसार के दुःख दर्द हरेंगे कैसे
पास क्या बाबा के जादू की छड़ी है बंधु
ज़िंदगी साल महीनों में गिनी जाती है
मौत की उम्र मगर उससे बड़ी है बंधु
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ख़ता करता है ख़ुद लेकिन मुझे इलज़ाम देता है
वो अपने इस अमल को भी मोहब्बत नाम देता है
सुना है आजकल चलने लगा है लीक से हट कर
पुरानी मान्यताओं को नए आयाम देता है
हुनर पीने-पिलाने के सभी मालूम हैं उसको
वो साक़ी को भी अपने हाथ से भर जाम देता है
कहें क्या आजकल करने लगा है कितनी मनमानी
अगर माँगो सेवरा, हाथ में वो शाम देता है
अमीरी ने उसे सिखला दिए हैं गुर तिजारत के
मोहब्बत, दोस्ती, सौहार्द सबके दाम देता है