डाॅ. मीनाक्षी सिंह ‘परी’
नहीं बन सकती मंजिल, तो सीढ़ी ही बन जाऊँ,
गुज़रे हुए वक्त की एक पीढ़ी ही बन जाऊँ।
कोई मुझे पाना चाहे क्यों, मैं राह भटकी हुई
मौत ही अंजाम अब, मैं साँस हूँ अटकी हुई
सृजन ही था अंत मेरा, अंत में होगा सृजन-
अब तो छा गई मैं बदरी बरसना ही है धरम
दीप की बाती की तरह, जगमगाने का भरम
जब तलक थी गर्भ में मेरी ज़िन्दगी थी मेरे नाम,
जन्म ही इस देह की अब मौत का फरमान हैं
इस धरा पर कुछ भी शाश्वत है न नाशवान है
तीर हूँ कमान की तो अब धनुष पर तन जाऊं
काम जो आई हूँ करने करके अब गुज़र जाऊँ
तारों को मैं पथ बनाकर, तड़ित को ले हस्त थाम,
त्याग अब जर्जर से शव को,धरणी को मेरा प्रणाम
मुक्तिपथ पर बादलों के,मैं ढूंढती अपना मकाम
दुष्टता के फन पर चढ़कर, आज मैं तांडव करूँ
कौरवों का नाश कर दूँ, आज मैं पाण्डव बनंू
जितने रावण जन्म लेंगे, राम उनका तय ही है
मनुजता को सफल करने इस धरा पर भय ही है
नियति का ही भय दिखाकर सृष्टि बांधे सकल धाम
कर्म का फल नियति मेरी अपना भाग्य मैं बनाऊँ
दुनिया से मैं कूच करके भाग्य फल फिर कहाँ पाऊँ