‘सुरंग में लड़की’य बर्बरताओं के खिलाफ बेहतर भविष्य की कविताएँ

 पुस्तक समीक्षा


    हरिराम मीणा, जयपुर, मो. 94141 24101

   राजिन्द्र नागदेव, भोपाल, मो. 8989569036


जल ही जीवन है किंतु ‘नदी अब नहीं बहती’.‘जल / जलकर आकाश में घुल गया / बहुत तड़पा होगा जलने से पहले जल.’ (पृष्ठ-9) ‘नदी का जल पी पीकर जीती रहीं सभ्यताएं / सभ्यताओं को पालती पोषती रही नदी.’ (पृष्ठ-12) कवि कहता है-‘मेरा बचपन नावों में अब भी तिर रहा है / मैं लौटना चाहता हूँ नदी किनारे...’(पृष्ठ-122) ‘मछुआरे’ रचना में नदियों के सूखने का दृश्य फिर उभरता है-‘अनजानी दिशाओं से लौट रही है नावें / थकी-हारी / मच्छियों से भारी / और मच्छियों से खाली.’ (पृष्ठ-42) कवि विवश हो जाता है यह कहने के लिए कि ‘सूखे में नहीं आता ईश्वर.’ (‘सूखे में ईश्वर’पृष्ठ-44) कहा जाता रहा है कि भगवान के घर में देर हो सकती है, अंधेर नहीं. यह भी कि ईश्वर मन्नतें पूरी कर देता है. कवि का अनुभव भिन्न है, इसीलिए वह ‘सूखा’ शीर्षक वाली कविता में कहता है कि ‘हे ईश्वर! तुम्हारी कृपा की आशा में उस दिन / जितना जल हमने चढ़ाया था तुम पर / उतना जल कम से कम लौटा दो हमें.’ सूखा जैसे हालात के लिए ईश्वर जिम्मेदार है अथवा नहीं और सवाल यह भी कि ईश्वर जैसा कोई तत्व है भी या नहीं? यह बात अवश्य तय है कि मनुष्य ने प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़खानी जारी रखी तो उसका यह कृत्य ग्लोबल वार्मिंग के आगे निश्चित रूप से अग्नि-प्रलय का कारण बन जायेगा! कवि को आभास हो रहा है कि ‘हम पृथ्वी पर अंडे को सदा तलते रहे / कैसी विडंबना है / यह अंडा (सूर्य) अब पूरी पृथ्वी को तल रहा है.’ (‘सूर्य’ नामक कविता से पृष्ठ-51)‘नदी में सारंगी’कविता की पंक्तियाँ देखिये-‘अंधकार में उदास सारंगियां / समय में शेष / सारंगी भर पुराना समय / झोले में उंडेलता है.’(पृष्ठ-25)

चिड़िया संवेदनशीलता की प्रतीक है. जब जीवन में से संवेदनशीलता सूखती चली जाए तो स्वाभाविक है चिड़िया का कविता में बार बार आना. लोगों को लगता है ‘कि कविता में चिड़िया / अपने कोटे से अधिक आ गयी.’ (‘चिड़िया और कविता’ पृष्ठ-49) ‘चिड़िया वापस आई’ में भी कवि की मूल चिंता अभिव्यक्त होती है जहाँ चिड़िया को घोसला बनाने के लिए वृक्ष, पत्ते और घास तक का टोटा पड़ गया है. विवश होकर उसे अखबार की कतरनें और पोलीथिन के टुकड़ों से घोसला बनाना पड़ गया है. ‘शहर में चिड़िया’ में चिड़िया के बच्चों के लिए खाना नहीं मिलने की त्रासदी का चित्रण है. ‘चिड़िया की प्यास’ रचना में कवि की चिड़िया के नसीब में अब केवल सूखा पेड़ और प्यास है. सूरज रूपी पूँजीवाद चिड़िया ही नहीं प्रत्युत सम्पूर्ण मानवता का पानी सोखता चला जा रहा है. इस संग्रह में कवि की चिड़िया जीवन और संवेदना का प्रतीक है, जिसके लिए संकट का दौर है. वह विलुप्ति के कगार पर है. कवि का स्वर-‘मैं इस सदी का आदमी / प्रार्थना करता हूँ चिड़िया की वापसी के लिए.’ (पृष्ठ-93)

पृथ्वी के आभूषणों में सबसे सुन्दर फूल होता है. अब तो फूल केन्वास पर भी नहीं उतर पा रहा! नागदेव का कवि फूल को केवल महसूस करने को विवश हो गया- ‘मुझे नहीं मालूम / महसूसने के पलों को हुबहू कैसे उतारा जाता है केन्वास पर.’ (पृष्ठ-60) समय बहुत तेजी के साथ बदल रहा है. कविता में ‘बूढ़ा पीपल’ अंतिम सांसें ले रहा है उसके ‘पत्ते झेल रहे थे / अजीब इलेक्ट्रॉनिक नामों वाले / इक्कीसवीं सदी की आँधियों के थपेड़े...’(पृष्ठ-115) यह ऐसा वक्त है जब देश-दुनिया को बर्बाद करते जा रहे सत्तालोलुप मानव-तत्वों द्वारा नैतिकताओं, अवधारणाओं, सिद्धांतों और शब्दों की नयी नयी व्याख्याएं की जाने लगी हैं. इस समस्त वातावरण को कवि ने गागर में सागर भरने की नाईं इस पंक्ति में समेट दिया है-‘इस युग के बड़े-बड़े सत्य असुंदर हैं.’ (पृष्ठ-117) 

‘अपनी एक सुबह’ में एक नितांत काली बंजारन / अपना तम्बू काँधे पर उठा/आकाश को खाली कर अभी अभी गई है. (पृष्ठ-15) अवसर लूट ले मालिक वही. ‘डार्विन बताते हैं / बंदर का डी.एन.ए. उन्होंने / पीढ़ी दर पीढ़ी नली से /मनुष्य की देह में उतरते देखा है.....मैं बंदर को उधेड़ आदमी को बुन रहा हूँ.’ अवसरों की यह लूट आज की नहीं है. इसका बाकायदा एक इतिहास है, इसकी योजना रही है, इसका ढाँचा अबतक कमजोर नहीं हुआ है. कई दफा सृजन के लिए विध्वंस अनिवार्य हो जाता है. कवि का आह्वान है कि ऐसे ढाँचा को नष्ट करने के लिए जरूरी है ‘सूर्य गिरे लड़खड़ा कर कहीं’ और ‘अँधेरा....

अँधेरा / शांति.....शांति.....शांति’, ताकि ‘सदियों से खड़ा / चार खण्डों का अक्षत पिरामिड,......(जिसके) तलघर में / शोषितों का अनसुना आर्त्तनाद’ घुट रहा हो, ऐसे पिरामिड का ध्वंस अनिवार्य.’ (‘मुर्दों का गाँव’ कविता से)      

आज हम जिस दौर में जी रहे हैं वह असमंजस, अविश्वास, आशंकाओं, अनिश्चितताओं, भय, चिंता वगैरा वगैरा का है. बहुत कम स्पेस बचा है सुकून का. चाहे ‘बैठ सकते हैं बरामदे में / चाय के साथ पीते हुए अखबार / जबकि  हम नहीं जानते / अखबार के पीछे की हवा / कब हथियार में बदल जाए.’ (पृष्ठ-30) यह वक्त है जब ‘दर्पण की तरह टूटा आदमी / भूत से अब वर्तमान की यात्रा पर है / अत्यंत त्रासद, अत्यंत लंबी है वापसी / पगडंडी जबकि वही.’ (पृष्ठ-125) मानवता की राह तो आखिर एक ही होती है. हमारा दुर्भाग्य है की उस राह को त्याग दिया जा रहा है. इस कठिन समय में ‘कहीं कुछ गलत हुआ’ जान पड़ता है और सवाल उठ खड़ा हुआ है कि ‘कहाँ चले गए उस बस्ती के लोग? जो धुआं उठ रहा है / उसमें रोटी की गंध नहीं है.’ (पृष्ठ-92) अन्य कविता में कवि संकेत दे रहा है- ‘लुटेरे बस्ती में आ गए लगता है.’ (पृष्ठ-108) 

‘मोमबत्तियां’ नामक कविता में कवि के जहन में कहीं न कहीं शायद कोई ऐसी घटना की स्मृतियाँ हैं जिसमें किसी सड़क-पुल के निर्माण में हुई भयंकर गड़बड़ी के खिलाफ एक इंजिनियर आवाज उठाता है तो उसे बुल्डोजर के नीचे कुचल दिया जाता है. सत्य की सौगंध खाकर मिथ्याचार-भ्रष्टाचार-अनाचार करने वाले राजनेता-अफसर-ठेकेदारों का ‘रोडरोलर तभी बहकता है / सामने जब / कोई ईमानदार नज़र आता है.’ कवि को पूरी आशंका है कि ‘कितनी अँधेरी हो जाएँगी बस्तियां / जब मुट्ठी भर उजाले के लिए / एक छोटी मोमबत्ती तक नहीं मिलेगी।’ (पृष्ठ-39) 

पृथ्वी के भविष्य को लेकर कवि बार बार चिंता व्यक्त करता है. ‘प्रलय से पहले’ कविता में वह लिखता है-‘सफेद कबूतर थे कभी / पंखों के बीच सहेज रखते थे पृथ्वी को.’ आज ‘प्रलय से पहले / रच रहे हैं लोग पृथ्वी पर प्रलय होने का ट्रेलर.’ एक तरफ नन्हा सा कबूतर और दूसरी ओर खतरनाक मनुष्य. फिर क्या ईश्वर से उम्मीद कोई जाये? मगर ‘इतने सारे ईश्वरों के होते / असहाय है धरती / या उनके होने से है.’ कवि का स्पष्ट संकेत है कि आज मनुष्य ने ईश्वर को पृथ्वी के विध्वंस का हथियार बना लिया है. (पृष्ठ-101) कवि जब जब पृथ्वी के बारे में सोचता है, उसके ‘सामने प्रलय ही आता है’, इस मनोदशा के पीछे ‘अपार हैं पृथ्वी के दुःख’ और इसीलिए कवि विवश है इस आह्वान के लिए कि ‘मैं अपनी पृथ्वी के लिए दयामृत्यु चाहता हूँ.’ (पृष्ठ-36) कवि के लिए यह ‘दयामृत्यु’ पृथ्वी के अंत की इच्छा नहीं होकर उसके ऊपर फैला दी गयी क्रूरताओं के अंत का आह्वान है. यहाँ मुझे नबारुण भट्टाचार्य की बांगला कविता याद आ रही है जिसका हिंदी शीर्षक ही ‘यह मृत्यु उपत्यका मेरा देश नहीं’ है. वे कहते हैं-‘ढँक दो पृथ्वी की गंध से उस सबको / जिसने यह मृत्यु उपत्यका बनायी / मेरी धरा हत्यारे का मंच नहीं हो सकती / मेरी धरा विराट श्मशान नहीं हो सकती / मेरी धरा रक्तस्नात वधस्थल नहीं हो सकती, कदापि नहीं!’ इसी भाव की एक कविता है ‘प्रलय’, जिसकी अंतिम पंक्तियाँ इस तरह हैं- ‘धीरे धीरे रेंगती आती तकलीफदेह मृत्यु से / अच्छी होगी अकस्मात् आ गयी पृथ्वी की मृत्यु.’ (पृष्ठ-96) पृथ्वी के सामने युद्ध का संकट सदैव मंडराता रहा है. युद्ध की विभीषिका ने सबसे अधिक त्रासदी पहुँचाई है वृद्धों, महिलाओं और बालकों को. युद्ध से तो सैनिक भी तंग आ जाता है. राजेन्द्र जी का कवि इस समस्या को ‘बच्चों मैं आ रहा हूँ’ शीर्षक की कविता से अभिव्यक्त करता है-‘मेरी हथेलियों में बंदूक उठाते-उठाते हो गए घाव / मुझे आना है घर / कुछ घावों का इलाज अस्पताल में नहीं होता.’ (पृष्ठ-111) यह रचना बेहद मार्मिक है. 

चाहे कितना भी अंधकार हो, कवि के भीतर कविता का ‘अंगारा’ है. और उस अंगारा को बुझाने के लिए दुश्मन के कब्जा में पूरा समुद्र ही क्यों न हो, ‘मैं सदियों से सुलग रहा हूँ मौन / सदियों तक और सुलगते रहना / मुझे स्वीकार नहीं अब, मैं लपटों में बदलने को आकुल / मुझे बस थोड़ी सी हवा चाहिए.’ (पृष्ठ-32) अंगारा में तो बड़ी ताकत होती है, हमारे कवि राजेन्द्र जी के रचना संसार में तो अंगारे का कण ही क्या, उसका प्रतीक जुगनू प्रचंड ज्वाला भड़का सकता है. मन के काले लोग उनके पुरखों द्वारा रचित इतिहास के काले अध्यायों को ही उजागर रखना चाहते हैं ताकि जनसाधारण को काला भी उजला-सा दिखाई देता रहे. ऐसे कृष्णवर्णी छद्म उजास को बेपर्दा करने में अग्नि का आभासित अस्थिर (चल) कण अर्थात ‘जुगनू’ भी काली सत्ता के लिए खतरा है. तभी कवि कहता है कि ‘माना गया / जुगनुओं की दीप्ति चिंगारियों में / और चिंगारियां बदल सकती थीं अग्नि में / अग्नि इतिहास के कई पृष्ठ लील सकती थी / जुगनुओं का मारा जाना इसलिए जरूरी था.’ (पृष्ठ-62) हमें कभी छोटे को कमजोर नहीं समझना चाहिए. यह छोटों के प्रति हमारा घटिया नजरिया है. ‘परिंदे का मामूली दिखना नजर का मामूली होना है.’ (पृष्ठ-66)‘बच्चे’ शीर्षक कविता में ‘सब कुछ टूट-बिखर’ जाने के हालात के बावजूद बालसुलभ अ-मलिनता से भूमंडल को महकाने की उम्मीद कुछ इस तरह से है -‘अपने हाथों रची अपनी ही चिता पर सोई दुनिया को / चिता से उठा लोगे एक दिन....’ यह पंक्ति ध्यान आकर्षित करती है-‘ज्ञान-ध्यान, दर्शन, धर्म, विज्ञान / मेरे बच्चे! निकष पर परखे जा चुके / तुम्हारी अबोध निश्छलता ही अब / बचा सकेगी दुनिया को.’ (पृष्ठ-34) ‘इसी पल’ कविता में यह पंक्ति है, जिसे मैं सलाम करता हूँ-‘कोई शाम देर तक शाम नहीं रहती’. (पृष्ठ-65) सलाम करने की एक मात्र वजह यह है कि मेरी भी एक कविता का भाव यह है कि ‘कोई भी रात कितनी ही काली, लंबी और भयानक क्यों न हो, उसका भी सवेरा होता ही है.’ अगर दुनिया में विकृतियाँ पैदा हो गई हैं तो रात की भाँति ‘दुनिया थम जानी चाहिए’ ताकि सवेरा हो और ‘नए आदमी के नए अंकुर / नई मिट्टी में जन्में फिर.’ (पृष्ठ-107)   

‘कविता की किताब’रचना में कवि कहता है-‘जब जब उठाता हूँ यह किताब / पगडंडियों के उलझे हुए जाल में चला जाता हूँ (पृष्ठ-21)और ‘उलझनें ही उलझनें / सुलझाने के सूत्र कवि के पास होंगे.’ (पृष्ठ-23) ‘मैं कवि नामक जीव के / मस्तिष्क और मन की शल्यक्रिया कर / देखना चाहता हूँ / कहाँ है कविता का मूल?’ इस प्रश्न का उत्तर आगे मिलता है। जिन्दगी के संघर्षों से जूझने की कविता है ‘जंग’. ये जंग-जुझारू ‘पीते रहे पीड़ा / क्योंकि पीने के लिए / कुछ अन्य बहुत कम था’ इनके पास. जंग भी वैसी जैसे ‘कई जंगों के परिणाम साफ नहीं होते’ (पृष्ठ-73) कवि का यह लड़ाकू और कोई नहीं, बल्कि साधारण मनुष्य हैं जो ‘जन्मसिद्ध अधिकार’ कविता में ‘जीना चाहते थे एक सीधासादा जीवन’..../ दाल-रोटी, थोड़ा-सा नमक / एक हरी मिर्च, थोड़ा-सा पानी / और छत हो सर पर’. ‘सुना है स्वतंत्रता / जन्मसिद्ध अधिकार है मनुष्य का /  होगा(!) / उससे पहले मनुष्य होने का अधिकार हमें / कौन कब देगा?’ कविता की जंग हमेशा से यथास्थिति को तोड़ने के लिए जारी रही है. दूसरी तरफ यथास्थितिवादी ताकतें उस जंग को हराने के लिए पहले से तैयार रहती आई हैं. ताकतवर जानता है कि ‘कलम की नोक में बाकी है अभी अणु बराबर सूरज’ जो भस्म कर सकता है. कवि चश्मदीद है इस घटना का जब ‘एक कलम की हत्या हुई है कल.’ इस कविता शीर्षक भी ‘हत्या’ ही है. (पृष्ठ-97)

धरना, समय से बाहर, किराये का घर, अवकाश, बीच संवाद में, रामनरान, जिनके घर नहीं होते, नई पुस्तक, उम्मीद, बिका हुआ घर, अकेली शीर्षक से अन्य कवितायेँ भी इस संकलन में सम्मिलित हैं, जो पाठक का ध्यान आकर्षित करती हैं।     

अंत में मैं इस संग्रह की शीर्षक-कविता ‘सुरंग में लड़की’ को रेखांकित करना चाहता हूँ जो मुझे सबसे मार्मिक और प्रभावशाली लगी. इस रचना की शुरुआत यूँ होती है-‘मुझे नहीं मालूम था / कि कोई पीड़ा इतनी सघन होती है...../ अकेली उस अँधेरी सुरंग में कैसे गयी होगी...’ फिर कविता में आत्महत्या की प्रक्रिया का वर्णन है ‘लड़की ने दुपट्टा उठाया पहले / मरोड़ कर उसे फिर रस्से का आकार दिया / घूमते पंखे का स्विच बंद किया / यह हरा संकेत था किसी यात्रा का.....( पृष्ठ-28) ’और फिर सुइसाईड नोट ‘पापा, क्षमा करना / अस्सी प्रतिशत अंक ही ला सकी / अगले जन्म में नव्बे की कोशिश करुँगी.’ ‘हमने सुरंग के मुहाने से झाँक कर देखा / दो छोटे छोटे कोमल पाँवों के निशान थे दूर तक जाते...’ (29) दुविधा या विडंबना की जगह कहना चाहिए कि यह हमारे वक्त की सबसे बड़ी त्रासदी है कि किशोर और युवा पीढ़ी को बहुआयामी व्यक्तित्व निर्माण की जगह किस कदर भौतिकवादी राह पर धकेला जा रहा है, जहाँ आधारभूत मानवीय मूल्यों को तिलांजलि देते हुए बस एक मात्र ध्येय और विकल्प उसके सामने रख दिया है कि किस तरह से अधिकाधिक धन कमाया जाये? ‘हाउ मच पैकेज’ के पीछे भागती नयी पीढ़ी देश-दुनिया के बहतर भविष्य के लिए अपनी भूमिका कैसे निभा पायेगी, जब हम उसके ऊपर प्रतिस्पर्द्धा में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए भारी मानसिक दबाव थोपे जा रहे हैं, जिसे वह सहन नहीं कर सकती और आत्महत्या के लिए विवश हो जाती है!

संग्रह की सभी रचनाएँ समय के सच को अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं, हमारे इर्द-गिर्द पसरती जा रही दुविधाओं, विडम्बनाओं, विरूपताओं, क्रूरताओं और त्रासदियों की परतें उधेड़ने में सफल हुई हैं. मैंने कविता को लेकर मेरी बौद्धिक क्षमता की सीमाओं में इन कविताओं पर अपनी यह टिप्पणी अंकित की है। बहतर भविष्य के विकल्प हेतु रचित इन संदेशवाही कविताओं के लिए राजेंद्र नागदेव जी को बधाई।   

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