स्त्री का पुरुषार्थ
वैदिक और लौकिक संस्कृत साहित्य में स्त्रियों के अनेक पुरुषार्थ वर्णित हैं। जब जब देव असुरों से हारे हैं, किसी देवी ने ही उनकी सहायता की है परंतु काव्य-ऋषियों ने उन्हें स्त्री का पुरुषार्थ नहीं कहा। वे देवियाँ अर्थ, काम, मोक्ष, से विरस धर्म का दायित्व-निर्वाह कर रही थीं। स्त्री को त्याग प्रेम बलिदान, वात्सल्य और विरह के घेरे में प्रतिबंधित कर दिया गया। उसके इस रूप को पुरुषार्थ नाम देने में कोताही बरती गई। आज जब स्त्री-विमर्श चरम पर है, लगभग अराजक स्वतंत्रता के लिए, तब सांत्वना श्रीकांत ने स्त्री-अस्मिता को नया स्वर देकर नया विमर्श खड़ा किया है। संबंधों (माता-पिता, प्रेमी-पति) को लेकर वे बेहद संवेदनशील हैं। उनकी प्रत्येक कविता एक वक्तव्य है, स्त्री के सामथ्र्य का हलफिया बयान है। स्वर्गीय पिता की इतनी विविध वर्णी तस्वीर बहुत कम कवयित्रियाँ उतार सकी हैं। सांत्वना ने पिता-माता की अनुभूति को परकाया प्रवेश की मनःस्थिति में जिया है। हर कविता में वे गहराई से उतर सकी हैं। वे रोने-धोने वाली कवयित्री नहीं है, समस्याओं को पुरुषों की तरह झेला है, कदाचि इसीलिए वे सभी रूपों (स्त्री-काल 1-4) में स्त्री की सर्वश्रेष्ठता मानती हैं। सांत्वना के काव्य का फल देश का पूरा भूगोल है, इसे हम व्यापक परिप्रेक्ष्य में ‘अबकी बार जो मिलोगे’ रचना में देख सकते हैं ‘अबकी बार जो मिलोगे/तुम अरब सागर का/सारा नीलापन मेरे माथे पर मलना/और मैं सोख लूँगी/तुम्हारी उदासियों का खारापन’। ‘स्त्री का पुरुषार्थ’ कविता संग्रह नाम के अनुरूप रचनाओं मं रूपायित हुआ है। रचनाएँ पढ़ने को न सिर्फ आमंत्रित करती हैं, विमर्श के लिए बाध्य भी करती हैं।
डाॅ. चन्द्रिका प्रसाद ‘चन्द्र’, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की स्थायी, समिति की पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ साहित्यकार
शताब्दियों से मैंने पढ़ी है
हड़प्पा से लेकर मेसोपोटामिया
तक की लिपियाँ,
मिट्टी के टीकरों पर उत्खनित
अवशेषों को भी
बहुत ध्यान से देखा है,
रोसेता शिलाखंड और
धोलाविरा की शिला पट्टिका का भी
उद्वाचन किया है,
समस्त उवाच शब्दों को
उच्चरित करने में प्रयासरत हूँ
पशुपति और मदर गाॅडे्स
के सामने सिर झुका कर
घुटने के बल बैठी हूँ
सिंधु और दजला फरात में
जी भर कर डुबकी लगाकर
उपासना की है
यह समस्त प्रक्रिया मैंने
तुम्हारी खोज में की है।