‘‘बुद्ध’’ तुम कहाँ हो

एक गरीब, एक भूखा

एक बीमार, एक लाचार

और एक अर्थी 

देख, कितने विचलित 

हो गए थे तुम,

कर गए थे पलायन,

धन, वैभव, ऐश्वर्य, भंडार,

परिवार, पत्नी, पुत्र छोड़

जंगल में,

खुले आसमान के नीचे

लिप्त हुए,समाधि में,

की निर्वाण प्राप्ति

और कहलाए ‘‘तथागत‘‘।


आज कहाँ हो?

चारों ओर, बीमार ही बीमार हैं,

लाचार ही लाचार हैं,

गरीब हैं, भूखे हैं और

बिखरी पड़ी हैं

लाशें ही लाशें,

घर उजड़ गए हैं

पिता, पत्नी, पुत्र, परिवार

सगे-संबंधी छूट गए हैं

कहर बरस रहा है, आसमान से

ज़हर घुल गया है वायुमंडल में

कहीं बाढ़ तो कहीं

धरती खिसक रही है

गोली, बारूद बरस रहे हैं

मानव, मानव का दुश्मन बन

काट रहा है इक दूजे को

समाप्त हो गई हैं संवेदनाएँ

बाजार बन गई है

दुनिया सारी

कहाँ हो?

‘‘बुद्ध‘‘ तुम कहाँ हो?









डॉ. प्रज्ञा शारदा, चंडीगढ़, मो. 9815001468

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