संस्मरण : नई दिशा

  राकेश गौड़, नई दिल्लीमो.  9818974184

‘‘अरे, छोरों अड़े आओ, देखो तमनै किस्तै मिलवाऊं‘‘, हमारे बराबर से निकल रहे दो युवकों को डी जे  म्यूजिक के शोर के बीच, विक्रम सिंह ने जोर से आवाज दी।  एक युवक ने पीछे मुड़ कर देखा और अपने साथ चल रहे युवक का हाथ खींचते हुए हमारी ओर आया । ‘‘अरे, साहब के पैर छूकर आशीर्वाद लो, अगर ये नहीं होते तो आज मैं ना जाणै  कहाँ होता?‘‘ दोनों युवकों ने आगे बढ़ कर मेरे पैर छू लिए।  मैंने उन के सिर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया।  ‘‘साहब, ये बड़े वाला विक्रमादित्य और वो छोटा आदित्य है ‘‘, विक्रम सिंह ने बड़े उत्साह से दोनों का परिचय कराया, ‘‘बड़े ने  एम बी ए किया है और एक मल्टीनेशनल कम्पनी में काम कर रहा है और छोटे  वाले ने बी टेक करके अभी एक ऑटोमोबाइल कम्पनी ज्वाइन की है। सब आप का ही आशीर्वाद है साहब, अगर आपने मुझे उस वक्त सही रास्ता न दिखाया होता तो मैं इनके लिए कुछ नहीं कर पाता।‘‘ मैंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘बच्चों सदा खुश रहो। विक्रम, ये सब तुम्हारी मेहनत का फल और बच्चों का भाग्य है। चलो, अभी शादी एन्जॉय करो।‘‘ दरअसल मैं दक्षिण दिल्ली के अपने पड़ोस के एक गाँव में शादी के समारोह में सम्मिलित होने गया था वहीं विक्रम सिंह से कई साल बाद मुलाक़ात हुई थी।

घर पहुँच कर मैं जैसे ही सोने के लिए बिस्तर पर लेटा तो आखों के सामने लगभग तीस वर्ष पहले की एक घटना घूम गयी।  बात उन दिनों की है जब यू पी एस सी की परीक्षा उत्तीर्ण कर मेरी नियुक्ति दिल्ली प्रशासन में रोजगार अधिकारी के रूप में हुई थी।  पहली पोस्टिग कर्जन रोड स्थित रोजगार कार्यालय में हुई, जहाँ पर ग्रुप डी यानि चपरासी, दफ्तरी और सफाई कर्मचारी आदि पदों के लिए भी बेरोजगारों का पंजीकरण किया जाता था।  इसी कारण यहाँ काफी भीड़-भाड़ व अव्यवस्था भी रहती थी।  मैं घंटे- दो घंटे बाद  अपने कमरे से उठ कर पंजीकरण काउंटर पर चक्कर लगा आता था ताकि स्टाफ मुस्तैदी से काम करता रहे।  ऐसे ही एक दिन जब मैं  बाहर निकला तो देखा पंजीकरण क्लर्क  से एक गोरा चिट्टा नौजवान बहस कर रहा था।  मैंने जब उससे बात की तो उसने अपनी देहाती टोन में कहा, ‘‘साहब, तीन घंटे तै लाइन में खड़ा हूँ मगर इब बाबूजी कह रहे  हैं, दरिया गंज वाले  एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज  में जाओ।‘‘ मैं उसके कंधे पर हाथ रख कर अपने कमरे की ओर ले चला।  गर्मी के मारे वह पसीने  पसीने  हो रहा था।  बेरोजगारी के  दौर से मैं भी गुज़र चुका था अतः बेरोजगारों से मुझे सहानुभूति भी थी। 

मैंने चपरासी को पानी लाने के लिए कहा और उस युवक से उसकी परेशानी का कारण पूछा।  उसने बताया कि उसका नाम विक्रम सिंह है और वह  दक्षिण दिल्ली के एक गाँव का रहने वाला है।  यह सुनकर  तो उसमें मेरी रूचि और भी बढ़ गयी क्योंकि मैं स्वयं भी दक्षिण दिल्ली देहात  के एक गाँव से हूँ। विक्रम ने बताया कि उसके पिता डी टी सी में ड्राइवर हैं।  उसके कई भाई बहन हैं और बड़ा होने के नाते घर की जिम्मेदारी संभालने में उसे पिता के हाथ मजबूत करने हैं।  हालांकि उसने बी ए की परीक्षा पास की थी और जे एन यू से फ्रेंच भाषा का डिप्लोमा भी कर रहा था पर उसके पिताजी दिन रात यही ताने देते रहते थे कि पड़े पड़े रोटियां तोड़ रहा है, कोई नौकरी क्यों ढूंढ लेता। इसलिए फिलहाल उसके ऊपर नौकरी करने के लिए बहुत दबाव था। पंजीकरण क्लर्क उसे दरिया गंज में पंजीकरण के लिए इस लिए ही कह रहा था क्योंकि वहां  क्लर्क, स्टेनो  व अन्य उन पदों के लिए पंजीकरण होता था, जिन के लिए स्नातक डिग्री होना आवश्यक है। विक्रम का कहना था, ‘‘ साहब, आपको तो बेरोजगारी की हालत पता ही है। लाखों स्नातक और ऊँची शिक्षा प्राप्त बेरोजगार घर बैठे हैं, ऐसे में मेरे जैसे थर्ड डिवीजन पास को कौन नौकरी देगा? बड़ी मेहरबानी होगी ,आप मेरा पंजीकरण चपरासी के लिए यहीं करवा दें।‘‘ मैंने उसे एक दूसरा फॉर्म दिया और कहा इसमें  शैक्षणिक योग्यता सिर्फ हायर सेकेंडरी भरना और  चपरासी के साथ उसे काउंटर पर  फार्म जमा करने भेज दिया।

जो लोग दिल्ली के रहने वाले हैं या दिल्ली के बारे में जानकारी रखते हैं उन्हें पता होगा कि दिल्ली  की जमीन  कभी भी बहुत उपजाऊ नहीं रही।  दिल्ली के अलग अलग इलाकों की जमीन को खादर, डाबर और बांगर के नाम से जाना जाता था और खेती बाड़ी  उत्तर, उत्तर पश्चिम, पूर्व और दक्षिण दिल्ली के कुछ भागों में ही होती थी। मेरे पिताजी जो स्वयं एक शिक्षक थे, बताते थे  कि  शिक्षा का प्रचार प्रसार भी यहाँ कम ही था मगर खेती बाड़ी के अलावा कोई और साधन न होने के कारण नौकरी करना भी  ग्रामीणों की मजबूरी थी। दिल्ली देहात के अधिकतर लोगों को  क्लर्क, चपरासी, ड्राइवर, कंडक्टर, सेना या पुलिस की नौकरी  ही मिलती थी।  हाँ, कुछ अपवादों में दिल्ली देहात के लोग रामजस बोर्डिंग स्कूल या कुछ अन्य  अच्छे विद्यालयों और  दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों से पढ़ाई कर वकील, शिक्षक या लेक्चरर  बने और सेना में कमीशन पदों पर भी चुने गए थे।  आजादी के  बाद सरकार ने लघुकुटीर व भारी उद्योगों, रोजगार, शिक्षण संस्थान, अस्पताल व सड़क निर्माण पर जोर दिया।   इन विकास कार्यों को पूरा करने के लिए खेती की जमीन को सरकार ने अधिग्रहित करना शुरू कर दिया।  दिल्ली में भी  पचास और साठ  के दशक में सरकार ने अस्पताल, कॉलेज, विश्वविद्यालय और आवासीय कॉलोनी बनाने के लिए खेती की जमीन  का अधिग्रहण करना शुरू कर दिया था। किसानों को खेती में तो ज्यादा आमदनी नहीं होती थी पर जमीन का मुआवजा मिलने के बाद उनकी आर्थिक हालत यकायक सुधर गई।  रहन सहन का ढंग बदल गयाबच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ने लगे और  मकान बनाने और ब्याह शादियों में खुलकर खर्च किया जाने लगा।

विक्रम सिंह भी एक ऐसे ही गांव का रहने वाला था जिसकी अधिकांश खेती की जमीन एक विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए अधिगृहित कर ली गयी थी।  गांवों  में अचानक आये इस आर्थिक परिवर्तन ने  भूमिहीनों, छोटे किसानों, बड़े जमींदारों और नौकरीपेशा ग्रामीणों के बीच एक खाई पैदा कर दी।  विक्रम सिंह ऐसे परिवार से था, जिनके पास जमीन बहुत कम थी इसलिए परिवार के सदस्यों को नौकरी भी ढूंढनी पड़ती थी।  उन्हें  मुआवजा भी कम मिला तो अचानक वे आर्थिक रूप से निचले वर्ग में आ गए। नव धनाढ्य जमींदारों के बढ़ते खर्चे व रहन सहन के तौर तरीकों को देख कर छोटे किसानों व नौकरीपेशा ग्रामीणों के बच्चे  भी माँ बाप के सामने रोज नयी मांग रखने लगे।  इस बदले हुए माहौल का असर विक्रम सिंह पर भी हुआ और पैसों की मांग को लेकर उसकी अपने पिता से अनबन रहने लगी।  यही कारण था कि वह चपरासी की नौकरी करने के लिए भी तैयार हो गया। 

खैर, लगभग एक साल बाद विक्रम सिंह एक दिन अचानक मेरे दफ्तर आया और मिठाई का डिब्बा मेरे हाथ  में थमा दिया।  मेरे पूछने पर उसने बताया, ‘‘साहब आपने उस दिन मेरा रजिस्ट्रेशन करवा दिया था तो मेरी कॉल शिक्षा विभाग से आयी और मुझे इंटरव्यू के बाद वहां नौकरी मिल गयी।  साहब, आपने मेरी जिंदगी बना दी।‘‘ उसकी आँखों में ख़ुशी के आंसू छलक आये थे।  मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘ विक्रम, ईमानदारी और मेहनत  से काम करो और यहीं संतोष करके मत बैठे रहना।  तुम्हारे अंदर योग्यता है, किसी ऊँचे पद  पर पहुँचने की कोशिश करना। यह कहते कहते मैंने घंटी बजाकर चपरासी को बुलाया और डिब्बे में से एक लड्डू निकल कर डिब्बा उसे देते हुए कहा, ‘‘ जाओ, विक्रम के साथ यह मिठाई स्टाफ में बंटवा दो।‘‘ विक्रम सिंह हाथ जोड़े हुए कमरे से निकल गया। 

तीन साल बाद मेरा तबादला शिक्षा विभाग में  उपनिदेशक के पद पर हो गया और दक्षिण क्षेत्र में पोस्टिंग हो गयी । एक दिन अचानक मुझे विक्रम सिंह की याद आयी।  मैंने अपने स्टाफ से उसकी पोस्टिंग के बारे में पूछा तो संबंधित कर्मचारी ने बताया की इस नाम का एक चपरासी मोती बाग के स्कूल में कार्यरत है।  बात आयी गयी हो गयी।  एक दिन मोती बाग स्कूल के प्रधानाचार्य किसी प्रशासनिक कार्य से मुझसे मिलने आये तो मैंने विक्रम सिंह के बारे में उनसे पूछा।  उन्होंने कुछ संकोच करते हुए कहा, ‘‘सर, क्या बताऊँ वह लड़का तो बहुत अच्छा है, काम भी ठीक करता है लेकिन उसकी संगत अच्छी नहीं है।  वह आसपास के स्कूलों के ग्रुप डी स्टाफ के साथ मिलकर अक्सर शराब पीता  है और एक दो महिलाओं से उसके अवैध सम्बन्ध भी हैं।‘‘ मुझे यह सुनकर बहुत दुःख हुआ मगर  मैंने सिर्फ इतना ही कहा,‘‘उसे किसी दिन मेरे से मिलने के लिए कहियेगा।‘‘

एक दिन विक्रम सिंह मेरे दफ्तर आया और मेरे सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। मैंने उसे बैठने के लिए कहा तो बोला,‘‘ नहीं सर, आप मेरे अफसर हैं, आपके सामने कैसे बैठ सकता हूँ? आपने याद किया, कहीं मेरी कोई शिकायत तो नहीं आयी है?‘‘ मैंने उसे कहा,‘‘ ऐसी कोई बात नहीं है, वैसे ही पता लगा तुम दक्षिण क्षेत्र में हो तो मिलने के लिए बुला लिया। और सुनाओ, क्या हाल हैं? कहीं और नौकरी के लिए कोशिश की या नहीं?‘‘ वह आँखें झुकाये खड़ा रहा। मैंने कहा, ‘‘विक्रम, अभी तो तुम अकेले हो कल को शादी होगी, बच्चे होंगे और तुम्हें पूरे परिवार का बोझ उठाना पड़ेगा। इतने कम वेतन में कैसे गुज़ारा करोगे। तुम्हारी अपने पिताजी से भी इसी बात को लेकर अनबन रहती थी।  जरा सोचो, तुम अपनी पत्नी और बच्चों को कैसे खुश रख पाओगे।  तुम्हारे पास योग्यता है, कमी है तो बस इच्छा शक्ति की। अभी थोड़ी पढ़ाई और मेहनत कर लोगे तो आगे सुखी रहोगे वरना जैसे तुम अपने पिताजी से परेशान थे, तुम्हारे बच्चे तुम्हारे से परेशान रहेंगे। आगे तुम्हारी मर्जी।‘‘ वह सिर्फ इतना ही कह पाया, ‘‘साहब, वादा करता हूँ, आपको निराश नहीं करूंगा।‘‘

मेरी बातों का विक्रम पर कुछ ऐसा असर हुआ कि उसने नौकरी करते करते बी एड की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली।  लगभग पांच  साल बाद वह विभागीय परीक्षा देकर एक स्कूल में ही प्रयोगशाला सहायक के पद पर लग गया।  उसके लगभग दस साल बाद प्रयोगशाला सहायकों के लिए निर्धारित कोटे से स्नातक शिक्षक के पद पर उसे प्रोन्नति मिल गयी।  अपनी हर उपलब्धि की खबर वह एक मिठाई के डिब्बे के साथ मुझ तक पहुंचाता रहता था।  हर बार मिलने पर हाथ जोड़कर यही कहता,  ‘‘साहब आपने बचा लिया वर्ना मैं बर्बाद हो गया होता।‘‘  इसके बाद सालों उस से मुलाकात नहीं हुई लेकिन मुझे यह पता लगा  कि उसकी शादी एक अच्छे परिवार में हो गयी थी और उसके दो लड़के भी हैं।  आज शादी में अचानक हुई इस मुलाकात ने अतीत के सारे पृष्ठ फिर से खोल दिए।  सोचते सोचते न जाने कब मेरी आँख लग गयी।


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