मिर्ज़ा साहिबा बलवंत गार्गी के पंजाबी नाटक का अनुवाद
नाटकांश
दृश्य चार
(साहिबा
खिड़की में खड़ी सुरमा लगा रही है। छोटे शीशे में मुँह देखती है। वह घड़ा उठाकर बाहर
निकलती है। उसने हरा कुरता और काली लुंगी पहनी हुई है। कमर पर घड़ा रखे मंच पर चलती
हुई हानामीची पर आ के बैठ जाती है और नीली रोशनी के घेरे में स्नान करने का अभिनय
करती है।)
(लोकगायक
का गीत)
साहिबा चली नहाने, लुंगी तन लपटाय
मल मल धोती मेढियां, बालों में पानी पाय
मैल तो मैं धो डालती, इश्क न धोया जाय
(दूसरी
हानामीची से मिर्ज़ा का प्रवेश होता है।)
साहिबा : अरे मिर्ज़ा ?
मिर्ज़ा : हाँ।
(वे दोनों मंच पर आगे जाते हैं)
साहिबा : तू कहाँ गया था?
मिर्ज़ा : तुझे क्या?
साहिबा : मुझसे नाराज है? कितनी देर से इस तालाब पर बैठी तेरा इंतजार कर रही थी।
मिर्ज़ा : भूल गई उस दिन काज़ी से
मस्जिद में मुझे डांट पड़वायी थी?
साहिबा : मिर्ज़ा
काज़ी तुझे पीट
रहा था और निशान मेरी पीठ पर पड़ रहे थे।
मिर्ज़ा : औरतों के ऐसे ही झूठ मर्दो
को बर्बाद कर देते हैं।
साहिबा : क्या कहा? मैं झूठ बोल रही हूँ, उस दिन के बैंत के निशान अभी
तक मेरे शरीर पर पड़े हैं। मैं इसी तालाब पर मल मल कर उन्हें धो रही थी। पर ये
निशान मेरे शरीर से जाते ही नहीं - क्या सोच रहे हो?
मिर्ज़ा : सोच रहा हूँ कि
थोड़े दिन बाद मैं दानाबाद वापिस चला जाऊँगा।
साहिबा : क्यों?
मिर्ज़ा : छत्ती का निकाह
होने वाला है। अम्मा के कई संदेसे आ चुके हैं।
साहिबा : कब लौटोगे?
मिर्ज़ा : पता नहीं कब। पढ़ाई खत्म हो चुकी है। लौट कर
अब्बा की जमीनों को देखूँगा। अम्मा कहती है मेरे बिना घर सूना है।
साहिबा : तेरे बिना यह आँगन भी सूना
हो जायेगा मिर्ज़ा । यह तालाब, यह बेला यह लंबी राहें . ... तेरे बिना सब सूने। सोचती हूँ तो कलेजा मुँह
को आता है। मुझे बता, कभी तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तेरा धक
धक करता दिल एकदम रुक जाय या अंधेरे में किसी के कदमों की आहट उँची हो के एकदम
सन्नाटा छा जाय ... यह कैसा अजीब अहसास है ... मैं तुझे प्यार करती हूँ मिर्ज़ा !
मिर्ज़ा : साहिबा मैं अपना प्यार बताने से शर्माता रहा हूँ। पर सच
यह है कि पहले दिन ही जब मैं खीवे आया तुझे देखकर दानाबाद भूल गया। माँ, बहिन, भाभी सब को। तू इतनी सुंदर है कि मैं तेरे लिए
खून भी कर सकता हूँ, साहिबा ।
साहिबा : फिर वादा कर कि तू मुझे
कभी नहीं छोड़ेगा।
इस तालाब के पानी को अंजुरी में भर कर क़सम
खा।
मिर्ज़ा : मैं इस तालाब
के पानी को अंजुरी में भरकर क़सम खाता हूँ कि तुझे कभी छोड़ कर नहीं जाऊँगा।
साहिबा : मेरे सर पर हाथ रख के क़सम
खा।
मिर्ज़ा : : मैं तेरे सिर पर हाथ रख के क़सम खाता हूँ।
साहिबा : इससे भी कोई बड़ी क़सम खा -
अपने खून की।
(मिर्ज़ा
तलवार से अपनी
कलाई की नस काटता है। साहिबा भी अपनी बाँह आगे कर देती है। दोनों अपना खून
मिलाते हैं।)
अब मुझे यकीन हो गया।
मिर्ज़ा : अब हम सदा साथ
रहेंगे।
साहिबा : हमेशा।
मिर्ज़ा : हाँ, हमेशा। (साहिबा के भाइयों का प्रवेश)
शमीर : (चीख़ कर) ओ मिर्ज़ा ।
सभी तलवारें निकाल लेते हैं। मिर्ज़ा और उसके भाइयों में लड़ाई। साहिबा
भाग कर बीच में आ
खड़ी होती है।)
साहिबा : नहीं! नहीं!
(अंधेरा)
(दृश्यलोप)
दृश्य: ग्यारह
(खाली मंच
पर घोड़ों की टापों की आवाज। ऊँचा पेड़ और उसकी जड़े नीचे लटक रही हैं।
इस पूरे दृश्य में कई बार
लोकगायक गाता है। साजिदें और गायक खीवा खान की ऊपरी छत पर बैठे हुए हैं। यही से वे
गाके, ताशे बजाते, रोते
हुए नाटक के त्रासद अंत को प्रभावशाली बनाते हैं।
मिर्ज़ा और साहिबा
अभिनय द्वारा
काल्पनिक घोड़े पर सवार हुए आते हैं। मंच पर पूरा चक्कर काटते हैं जिसके साथ नगाड़े
की चोट और घोड़े की टापों की आवाज से लयात्मक प्रभाव पैदा होता है)
साहिबा : ओये मिर्ज़े यह है तेरी
घोड़ी? रद्दी तेरी घोड़ी मिर्ज़ा , कहाँ से लाया खोज। न थी तेरे बाप घर,
मांग लाता कोई और।
घोड़ी खीवा खान की, सरपट
दौड़े ज़ोर।
मिर्ज़ा : कान लम्बे, खुर पतले, दुम घोड़ी की स्याह।
देख तो मेरी घोड़ी को, चिंता
चित्त न ला।
दस भैंसों का घी हमने, इसको
दिया खिला।
बक्की मेरी से डरें फरिश्तें, मुझसे डरे खुदा।
साहिबा : इतना गुमान है तुझे अपनी
घोड़ी पर (हँसती
मिर्ज़ा : (घोड़ी को रोकता है) साहिबा, तेरा गाँव तो बहुत पीछे छूट गया। जी
चाहता है अब जरा सांस ले लें।
साहिबा : ना मिर्ज़ा
, मुझे बड़ा डर लगता है। मैं टापों की आवाज़ सुन रही
हूँ। लगता है मेरे भाई हमारा पीछा कर रहे हैं। तू मुझे दानाबाद ले चल।
मिर्ज़ा : पगली, मिर्ज़ा तेरे साथ है। तुझे कैसा डर?
साहिबा : मैं अपने लिए नहीं डरती।
तेरा डर है मुझे।
जो चीज जितनी प्यारी होती है, बंदा उसके लिए उतना ही डरता है।
मिर्ज़ा तू सुनता क्यों नहीं! पता चले खान शमीर को, लहू पीयेगा आज। ले चल दानाबाद को, जब तक सिर पर है
पाग।
मिर्ज़ा : मोसे बड़ा न कोई सूरमां, मुझ पर जो वार करे।
खत्म करूँ सभी को मैं, जो
भी तेरे वीर खड़े। पेड़ तले करने दे प्यार, आगे जो खुदा करे। (मिर्ज़ा घोड़ी से उतरता है और साहिबा
को भी उतारता है।
काल्पनिक घोड़ी को पेड़ से
बांधता है और साहिबा से प्यार करने लगता है। साहिबा
और मिर्ज़ा प्रेम में डूबे हुए हैं।
लोकगायक -
बड़ नीचे सोया है मिर्ज़ा, लाल दुशाला ताने। माथे पर है मौत लिखी,
उसे न देती जाने। काली थी किस्मत की रेख, उसे
जिताये कौन? लेख लिखे विधाता ने, उन्हें
मिटाय कौन? (साहिबा घोड़ों की टाप सुन घबरा उठती है और मिर्ज़े को
जगाती है)
जाग नींद से मिरज़या, सिर
पे खड़े सवार। खूनी तलवारें हाथों में, करेंगे मारो मार।
बाबुल के घर की घोड़ियां जिन पर हैं वीर सवार
साहिबा : उठ मिर्ज़ा
उठ, तुझे मेरी जान की क़सम
(उसे हिला कर जगाने का उपक्रम)
लोकगायक : रो रोकर जगाती, ऐ खुदा के लिए जाग।
पार न पहुँची साहिबा, मंझधार में डूबी नाव।
बीच राह जो छोड़ना था, क्यों
पकड़ी थी बांह।
(साहिबा के दो भाइयों का घोड़ों पर प्रवेश। मिर्ज़ा उठता है और निशाना लगा कर तीर चलाता है।
लोकगायक : नज़र मिर्ज़ा के पड़ा, साहिबा
का वीर शमीर।
तरकश से बाहर किया, तीखी
नोक का तीर। कर बिसमिल्ला चला दिया, ठीक निशाने तीर। घोड़ी से
नीचे आ गिरा, साहिबा का वीर शमीर।
(शमीर को तीर लगता है और वह दर्द से कराहता
है। वह और लखमीर जख्मी होकर लौट जाते हैं)
साहिबा : तूने यह क्या किया मिर्ज़ा ! मेरे वीर को मार दिया? आखिर तो वह मेरा ही खून था। मैं किसी को मुँह दिखाने के काबिल नहीं रही।
मुझे लोग पापिन कहेंगे, जिसने अपने भाइयों को मरवा दिया। मिर्ज़ा तूने बहुत बुरा किया। (वह भाई की गिरी हुई पगड़ी
उठा कर सीने से लगाती है) मेरे भाई की पगड़ी मिट्टी में मिल गई। यह तेरे हाथों हुआ
है मिर्ज़ा ! तूने कसम खायी थी कि तू
मुझे इतना प्यार करेगा कि मेरे लिए किसी का खून भी करना पड़े तो करेगा। क्या तुझे
मेरे भाइयों का ही खून करना था?
मिर्ज़ा : वे मुझे मारने
के लिए आये थे। तुझे मुझसे छीनने। हमें हमेशा के लिए एक दूसरे से अलग करने। पर
खुदा भी तुझे मुझसे अलग नहीं कर सकता। (वह साहिबा को सीने से लगा के दिलासा
देता है। दोनों पेड़ के नीचे सो जाते हैं। पर साहिबा
को नींद नहीं
आती। घोड़ों की टापों की आवाज गूंजती है। टापों की आवाज पास आती जाती है)
साहिबा : मेरे भाई आ गये हैं। क्या करूँ? अगर मिर्ज़ा जाग गया तो उन्हें मार डालेगा। मिर्जे को कौन जीत सकता है? उठ मिर्ज़ा मुझे अपनी घोड़ी के साथ घसीटता हुआ दानाबाद ले जा। छड़ी की मार से मेरी पीठ पर निशान डाल दे। ओह मिर्ज़ा उठ जा? मुझे यों दो हिस्सों में मत बांट। मैं क्या करूँ? दोनों ओर तबाही। एक ओर है मिर्ज़ा और दूसरी ओर मेरे भाई, हमने एक ही माँ का दूध पिया है। मैं फटी हुई रुह हूँ या बंटी हुई धरती। एक ऐसा पेड़ जिसे ठीक बीच से चीर दिया गया हो। ऐसा गीत जो गले में ही अटक कर चीख बन जाय। मैं क्या हूँ। पापिन या बेगुनाह? चंडालिनी या देवी? एक शापित औरत या प्यार की भूखी आत्मा?
(वह पेड़ की ओर दौड़ कर जाती है)
हे बड़ की बड़ी जटाओं, तुम
ही करना न्याय। फलो-फूलों तुम चैगुना, मुझे देना अपनी छाय।
(यह ठीक है। मैं मिर्ज़े का तरकश पेड़ पर टांग देती है। वह फिर मेरे भाइयों को मार
नहीं सकेगा।
वह ऊँची चढ़ के मिर्ज़े का तरकश पेड़ पर टांग
देती है। नीचे उतरकर वह देखती है कि उसके भाई जलती मशालें और नंगी तलवारें लिये
खड़े है)
लखमीर : उठ ओये मिर्ज़ा । तेरी मौत तेरे सिर पर खड़ी है।
(मिर्ज़ा उठता है। तरकश में हाथ डालता है : और देखता है
कि तरकश तो पेड़ पर टंगा हुआ है। साहिबा की ओर देखता है। साहिबा भाइयों को देखती है और भागती हुई उनके पास जाकर
मिन्नतें करती है कि वे मिर्ज़े को कुछ ना कहें। चारों भाई तलवारें खीचें मिर्ज़े की
ओर बढ़ते हैं। साहिबा उनके पैर पकड़ती है। थोड़ी देर के लिए एक्शन रुक
जाता है और सभी पात्र वहीं बिना हिले डुले रुक जाते है।
लोकगायक : (गाता है)
यह साहिबा तूने क्या किया, दिया तरकश पेड़ पे टांग।
तीन तीर जो खींचता, सियालों
का ना बचता नाम।
पहला मारता शमीर को, पाग
पर होता दूजा वार।
तीसरा उसको मैं मारता, बननी
थी तू जिसकी नार।
(चारों भाई आगे बढ़ते हैं। मिर्ज़ा तलवार निकालता है। लड़ाई का दृश्य)
जब मिर्ज़ा
साहिबा के भाई पर तलवार उठाने लगता है, तब साहिबा चीख पड़ती है। मिर्ज़ा
का ध्यान बंट
जाता है तब साहिबा के सारे भाई मिर्जे के सीने में तलवार घुसेड़
देते हैं। मिर्ज़ा गिर जाता है।)
साहिबा रोती हुई मिर्ज़े के शव के साथ दहाड़ कर मार कर
लिपट जाती है। साहिबा के भाई खींच कर उसे अलग करते हैं और उसके मुँह
पर लाल कपड़ा बांध के उसे घसीटते हुए ले जाते हैं। कबीले के दूसरे लोग मशालें उठाये
उनके पीछे पीछे जाते हैं। मिर्ज़ा की लाश लाल रोशनी के वृत्त
में पड़ी है।
लोकगायक : गाता है-
उतरी सर से पगड़ी पड़ी
बिखरे बाल हैं माथ
आखिर भाइयों ने मार दिया
कोई न मिर्ज़े के साथ (धीरे धीरे अंधेरा)