अनुभव की मुक्त पाठशाला: ‘निज पथ का अविचल पंथी’
समीक्षा
आशुतोष आशु ‘निःशब्द’
साहित्य और राजनीति, जीवन रेखा के विपरीत
ध्रुव हैं। एक लेखक का राजनीतिज्ञ हो जाना संभव है, लेकिन एक
राजनीतिक व्यक्तित्व का लेखन की ओर तन्मय रुझान कम देखने को मिलता हैय कुछ अपवाद
हो सकते हैं। परंतु संवेदनशीलता, अध्ययन और अभिव्यक्ति की
तीव्र इच्छा राजनीति के पंक में अक्सर दबकर रह जाती है। इन विपरीत परिस्थितियों
में भी एक संवेदनशील साहित्यकार-राजनेता ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व में जीवन
के दो भिन्न छोरों को समग्रतापूर्वक निष्काम योगी की तरह साध लिया।
भारतीय राजनीति के पटल पर शांता कुमार मुखरता के पर्याय हैं। वहीं
साहित्यिक परिधि में भी वे जाना-माना नाम हैं। व्यस्ततम राजनीतिक जीवन में भी
उन्होंने 20 पुस्तकें लिखने का महती प्रयास किया।
उनके लेखन में समसामयिकता, देश-प्रेम, युवा-शक्ति
और मनुष्यता का आह्वान मुखरित होता है। आज हम इस दार्शनिक दूरद्रष्टा-राजनीतिज्ञ
की सद्यप्रकाशित आत्मकथा ‘निज पथ का अविचल पंथी’ पर चर्चा करेंगे।
शांता कुमार को व्यक्तिगत तौर पर जानने वाले इस आत्मकथा के शीर्षक को पढ़कर मुस्कुरा देंगे। पूरी कथा एक शीर्षक में बयान है। पिता के असमय देहावसान के बाद उत्पन्न हुई विकट आर्थिक परिस्थितियों के कारण जब पूरा परिवार लेखक को रोजगारोन्मुख मार्ग पर धकेलने को आतुर था, तब एक रोज बाजार घूमने के बहाने शांता कुमार डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में जारी कश्मीर आंदोलन का हिस्सा बनने निकल पड़ते हैं। क्या आप इसे परिस्थितियों से भागना कहेंगे? बकौल शांता कुमार - “यदि बुद्धि से सोचा जाए तो वह निर्णय बिलकुल गलत ही नहीं अपितु मूर्खतापूर्ण लगेगा, परन्तु विश्व की बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ केवल बुद्धि व तर्क के आधार पर ही नहीं अपितु हृदय की ज्वलंत व उग्र भावनाओं की प्रेरणा से ही हुई हैं।” और हृदय में देशप्रेम की ज्वलंत भावना ने लेखक के सम्पूर्ण जीवन की पटकथा लिख दी।
श्री शांता कुमार लेखन में लघु वाक्यों का बहुतायत में प्रयोग करते
हैं। यह उनकी मौलिक शैली है। और छोटे वाक्यों में बड़ी बात समझाना उनके व्यक्तित्व
की विशेषता।
उनके जीवन का प्रेरक प्रसंग अत्यंत रोचक बन पड़ा है। हिमाचल की
राजनीति में भीष्म पितामह के नाम से विख्यात लेखक सफलता के शिखर पर पहुँच कर भी
अपने प्रेरणास्रोत को नहीं भूलता। गाँव का एक बुजुर्ग, जिनका नाम ‘बाजा’ था, उनसे कहता है - “तुम रोज रास्ते के आम तोड़कर खाते हो,
वे क्या तुमने लगाए हैं? वर्षों पहले
जिन्होंने लगाए थे वे हम खा रहे हैं। जो अब मैं लगा रहा हूँ, वे आने वाले खाएँगे।” लेखक के मानस पटल पर अंकित इन
वाक्यों की छाप आगे चलकर उनके समग्र कृतित्व में प्रतिबिंबित होती है।
यह आत्मकथा जीवन में व्यावहारिक क्रांतियों की दास्तान है। बिरादरी से बाहर विवाह करने का जोखिम हो, या फिर ग्राम पंचायत चुनावों में परिपाटियों को बदलने की पहल, दोनों परिस्थितियों में सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी मानसिकता को बदलने में लेखक अवश्य सफल रहाय यह दीगर बात है कि हर बदलाव बलिदान की वेदी से होकर गुजरता है। शिकरूराम गाँव के इतिहास में प्रथम हरिजन सरपंच चुन लिया जाता है, लेकिन इस जीत के बाद लेखक जब घर पहुँचता है तो उनके दादा के भाई उनसे कहते हैं - “शान्ता, वहीं खड़े रहो। जब वकील बने थे, तो हमें बहुत खुशी हुई थी। हमें लगा था कि तुम परिवार का नाम रोशन करोगे, परन्तु तुमने आज हमारा सिर शरम से नीचा कर दिया है। जाओ, अब मुझे कभी मत मिलने आना।” यह सनद है कि बदलाव का पुरोधा ‘भगत सिंह’ चाहता तो हर कोई है, लेकिन पड़ोसी के घर में। यह पुस्तक ऐसे अनेक बदलावों और क्रांतिकारी पहलों का लेखा-जोखा है जिसकी कीमत शांता कुमार ने निजी नुकसान झेल कर चुकाई
लेखक के जीवन में अनेक सहयात्री हैं जिन्होंने इस राजनीतिक पुरोधा का भरसक ‘अविचल’ साथ दिया। सफलता के शिखर पर पहुँच कर नेता अक्सर विचलनवादी हो जाते हैं। लेकिन शांता कुमार अपने गुरबत के साथियों को याद करना नहीं भूलते। लाला महेन्द्रनाथ के योगदान को याद करके लेखक भावुक हो उठता है। वहीं जीवन बीमा निगम एजेंट, प्रेम प्रकाश के मोटर साइकिल पर बैठकर चुनाव प्रचार का वाकिआ और उनका असमय स्वर्गवास हो जाने के बाद लेखक के जीवन में शून्य, संजीदा शांता कुमार पाठक की आँखें नम कर जाते हैं।
नेता या साहित्यकार हो जाने के बाद कोई सुरखाब के पँख नहीं लगते। यह
बात दूसरी है कि आजकल फिल्मी राजनेताओं का दौर है, उनमें पर्दादारी
हैय होने और दिखने में अंतर है। लेकिन शांता कुमार उन सबसे अलग, आभ्यासिक सहज जीवन-दर्शन के पुरोधा बनकर उभरते हैं।
वैवाहिक जीवन के मनमुटावों को लेकर आम-ओ-खास की कहानी एक जैसी है, लेखक भी अपवाद नहीं। लेकिन उनका परिणय-दर्शन युवा पीढ़ियों के लिए सुखमय दाम्पत्य
की कुँजी अवश्य सिद्ध हो सकता है। शांता कुमार लिखते हैं - “मैं
समझता हूँ जो पति-पत्नी आपस में कभी लड़े नहीं, झगड़े नहीं,
रूठे नहीं और फिर एक-दूसरे को मनाया नहीं, तो
वे एक बड़े आनंद से वंचित ही रहे। यदि इन सबकी पृष्ठभूमि में शुद्ध सात्विक प्रेम
है तो उसमें एक स्वर्गिक सुख का आनंद मिलता है।” पारिवारिक
मनमुटाव और उसके समाधान सहित सुखमय जीवन-चक्र में सात्विक प्रेम की भूमिका को लेखक
ने बखूबी रेखांकित किया है। टूटते हुए रिश्तों से भरे समाज में संबंधों को संभालने
की शिक्षा प्रासंगिक है।
लेखक के जीवन की कहानी में ‘स्वीकार्यता’ का सिद्धांत परिलक्षित होता है। परिस्थितियाँ अनुकूल हों या प्रतिकूल, दोनों ही स्थितियों में एक स्थितप्रज्ञ की तरह नियति को सहर्ष अंगीकार कर लेना शांता कुमार की विलक्षणता कही जा सकती है। आपातकाल की घोषणा के बाद की घटनाओं के विस्तृत ब्योरे में आपको इस स्वीकार्यता की छाप सुस्पष्ट देखने को मिलेगी। नियति (नीति) नियंताओं के प्रति दुर्भावना नहीं, प्रत्युत समय के सकारात्मक घूर्णन के प्रति आशावान व्यक्तित्व से पाठक की भेंट होती है। लेकिन दूसरी ओर अराजकता और मौलिक अधिकारों के हनन के प्रति सजग कैदी का संघर्ष भी सामने आता है। यह व्यक्तित्व का द्वैतवाद नहीं, बल्कि लेखक की चैतन्यता का द्योतक है।
इस अध्याय का एक उल्लेखनीय संदर्भ पठनीय एवं मननीय है - “...
उनके मार्क्सवादी आदर्श की तरह ही उनके सिगरेट के धुएँ की बारीक
लपटें उस अंधेरी कोठरी की छत तक कंपकंपाती हुईं पहुँचतीं। छत से टकराती और फिर
झुरमुट होकर बिखर जातीं।” उपमान-उपमेय पर आधारित यह कटाक्ष
भारतीय राजनीति के पटल पर मार्क्सवाद की वर्तमान स्थिति को प्रतिबिंबित करता है।
राजनीति में कहावत है, मतभेद
बेशक हों, मनभेद नहीं होना चाहिए। हालांकि यह उक्ति अब प्रासंगिक
नहीं रह गई है। परन्तु शांता कुमार यहाँ भी अपवाद प्रस्तुत करते हैं। पंडित अमरनाथ
ने उनके जीवन को दिशा देने में भरसक योगदान दिया। लेकिन राजनीति में उनकी
विचारधाराएँ विपरीत दिशा में बहने लगीं। शांता कुमार लिखते हैं - “वह काँग्रेसी थे और मैं जनसंघ में था। जहाँ भी पार्टी का प्रश्न आया,
हमने एक-दूसरे का प्रबल विरोध किया। ३ व्यक्तिगत रूप से मैं उनका
बहुत ऋणी रहा हूँ, परन्तु
व्यक्तिगत ऋण की बलिवेदी पर मैंने अपने सिद्धांत का कभी बलिदान नहीं किया।”
यही कारण है कि निजी रिश्तों और राजनीतिक मित्रता के महीन दायरों
में भी समन्वय स्थापित करते हुए सिद्धांतों की राजनीति में लेखक का वर्चस्व सदा
निर्विवाद रहा।
इस आत्मकथा में एक ओर माँ के कष्टों का कारण होने की टीस है, तो दूसरी ओर जेल में सजायाफ्ता कैदियों के आपराधिक मनोविज्ञान के गहन अध्ययन की छाप। जहाँ एक अपराधबोध है, वहीं अपराधियों के साथ अमानवीय व्यवहार के प्रति चिंता भी आसन्न है। लिखते हैं - “समाज का वातावरण, जीवन की कठोर मजबूरियां, विवशता और मनुष्य मन की दुर्बलता अपराध करवाती है। वास्तव में कैदी का सुधार समाज का सुधार है।” ऐसे संवेदनशील राजनीतिज्ञ जो समाज के प्रत्येक वर्ग की चिंता और उनकी परिस्थितियों में सुधार कर पाने की इच्छा रखते हों, लालटेन लेकर खोजने पर भी नहीं मिलते।
राजनीति रस्साकशी का खेल है। निजी नफे-नुकसान की चक्की में दल से
लेकर देश तक पीस दिया जाता है। यहाँ आदर्शवाद और राजनीति में कुत्ते-बिल्ली का बैर
है। इधर आदर्शवाद ने भ्रष्टाचार पर नकेल क्या कसी, उधर
राजनीतिक-भ्रष्टाचारियों का समूह बिलबिला उठा। असंतुष्टों का कबीला बढ़ता गया। एक
महिला मंत्री का केले के छिलके पर पैर फिसला और षड्यंत्रकारियों ने इसे अपहरण बना
कर पेश कर दिया। एक बार को आप कुतर्क से आदर्शवाद को झुका सकते हैं, लेकिन अविचल सिद्धांतवाद को कैसे झुकाएंगे? तत्कालीन
प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई के सामने एक युवा मुख्यमंत्री का सिद्धांतों के लिए
अड़ जाना इसी बात की तस्दीक है। दो बार अविश्वासमत जीतकर भी पार्टी व सरकार का मजाक
बनकर रह जाने का बयान एक दूरदर्शी मुख्यमंत्री की मर्मस्पर्शी टीस भले हो, लेकिन अल्पावधि सरकार में से भी ‘पानी वाला
मुख्यमंत्री’ के रूप में उभरकर यह युवा तुर्क पुनः अपनी
अदम्य जिजीविषा और जीवटता का परिचय दे जाता है। इसलिए यह आत्मकथा युवाओं के लिए
निश्चित ही पठनीय है। इसके बाद अंत्योदय अन्न योजना का शुभारम्भ एक अंत्योदय
द्वारा ही किया जाना मुख्यमंत्री की सदाशयता, समग्रता,
संवेदनशीलता और समतावादी सोच को प्रतिबिंबित करता है।
यहाँ से आगे आत्मकथा सामाजिक और राजनीतिक व्यथा का दस्तावेजीकरण है। ‘जसलोक से बांसघाट’ तक अपना ही पायजामा अपनी ही टांग
खींचने लगता है तथा सत्ता के व्यापारी दल-बदलू सिद्धांत के मातहत राजनीतिक समीकरण
साधते नजर आते हैं। संवेदनशील साहित्यकार द्रष्टाभाव से नियति को स्वीकार करता चला
जाता है। बकौल शांता कुमार - “याद रखिए, मैं जिंदा मांस का व्यापारी नहीं हूँ।”
राजनीति में यदि उतार है तो चढ़ाव भी हैं। जल परियोजनाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी पर हड़ताल होती है तो ‘नो वर्क नो पे’ आता है। स्वर्गीय जेटली जी सलाहियत करते हैं - ^It is good governance but very bad politics.' इस पर लेखक का दो टूक जवाब -'I prefer good governance’, सिद्धांत के अड़ियल स्वभाव को पुनर्जीवित कर देता है।
‘नई सोच नवाचार’ अध्याय वर्तमान सरकार को अवश्य पढ़ना
चाहिए। दो वर्ष में हिमाचल सरकार ने 50 करोड़ रूपए की बचत
कैसे की, भारी कर्ज में डूबे राज्य को भी यह जानना आवश्यक
है।
90 से 190 करोड़ की कहानी हृदय विदारक है। अटल जी का
फोन - “मुझे दुःख है परन्तु अब वह कागज दे ही दो”, ईमानदारी की कीमत केवल एक नेता ने नहीं बल्कि पूरे देश ने अदा की थी। उस
पर हिमाचल में हार का ठीकरा भी लेखक के सिर पर फोड़ा गया। एक समाचार पत्र लिखता है
- “दीजिए कुर्बानी उस शांता कुमार की जिसकी वजह से भाजपा का
चेहरा हिमाचल में दिखा।” लेकिन शांता कुमार और निराशा कभी एक
राह नहीं चले। ‘निज पथ का अविचल पंथी’ होने
का यही निचोड़ है।
बाजे ने कहा था भावी पीढ़ियों के लिए फलदार पौधे लगाओ। दार्शनिक
साहित्यकार ने सबके सहयोग से ‘कायाकल्प’ और ‘विवेकानंद मेडिकल संस्थान’ नाम से दो वृक्ष लगा दिए ताकि भावी पीढ़ियां सम्मानजनक जीविकोपार्जन कर
सकें और सूबे को माकूल स्वास्थ्य सुविधाएँ भी मिलें।
राजनीति के लम्बे सफर के बाद पार्टी की दी हुई सफेद चादर को और उजला
करके लौटते हुए शांता कुमार लिखते हैं - “दास कबीर
जतन से ओढ़ी / जस की तस धर दीनी चदरिया।”
किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली से
प्रकाशित यह आत्मकथा 464 पृष्ठों में हार्ड बाउंड एवं
पेपरबैक, दोनों संस्करणों में उपलब्ध है। पेपरबैक का मूल्य 550 रुपए है। पुस्तक की सामग्री शिक्षाप्रद है।
उल्लेखनीय जानकारियों से युक्त यह आत्मकथा पुस्तकालयों के लिए
संग्रहणीय तथा अनुभवजन्य ज्ञान की मुक्त पाठशाला की दृष्टि से युवाओं के लिए
निश्चित ही पठनीय है। एक संवेदनशील राजनेता का यह आत्म-मंथन देश की भावी पीढ़ी में
नैतिक चरित्र का बीजांकुरण अवश्य करेगा। तथा खट्टी-मीठी आपबीती से भावी पीढ़ी अपना
मार्ग खोजने और उस पर अविचल बने रहने की प्रेरणा ले सकती है।
समीक्षक: काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश, मो. 9418049070
आत्मकथा का नाम - ‘निज पथ का अविचल पंथी’
लेखक - शांता कुमार
प्रकाशक - किताबघर, अंसारी रोड,
नई दिल्ली