मैं मजदूर

सुनो!

यह जो तुम कहते हो

कि धरती घूमती रहती है

दरअसल, मैं ही धरती को

अपने कँधे पर रख

लगाता हूँ

रोज एक चक्कर

 

ये जो तुम देखते हो

रंग-बिरंगे

खेत-खलिहान

दरअसल मैं ही

दिन-रात टाँकता हूँ

धरती के आँचल में

हरे, लाल, पीले

पेड़-पौधों के गोटे

 

हाँ, यह भी सच है कि

अपने पैरों के थाप से

नदियों को मोड़

बहता हूँ खेतों की मेड़ों पर

 

हाँ तो सुनो

मैंने अपने हथेलियों पर

बना लिए हैं

खेतों के मानचित्र

अपने ग़मछे संग सर पर बाँध लेता हूँ

पूरे जगत की भूख

 

हमारे रास्तों की ज़मीन पर

बिछे होते हें उम्मीदों के क़फ़न

जिसके रंग बारिश तय

किया करती है

 

हाँ तो जान लो

जब तक मैं चलता रहूँगा

धरती लगाती रहेगी ऐसे ही चक्कर

मेरे पैरों की ताल संग

Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य