समीक्षा : ‘स्त्री का पुरुषार्थ’: नई सोच की कविताओं का संकलन
इंद्र राठौर
डॉ. सांत्वना श्रीकांत
आजादी के बाद, अर्थात् स्वाधीन भारत की हिंदी कविता के
अधिकांश रचाव को देखें तो कह सकते हैं कि यश प्रतिष्ठा मान-सम्मान पुरस्कार व अन्य
सभी महत्वपूर्ण कार्य क्षेत्रों पर एकतरफा आधिपत्य पुरुषों के ही रहे ; तो बड़ा कारण और कमियों में मौजूदा दौर की स्त्री कविता का रूदाली चेहरा
तथा गंभीर हस्तक्षेप का न होना रहा। यहां तक कि अपने हिस्से की लड़ाई को भी ‘वे’ न लड़, वाक ओवर दे छोड़ दीं
थीं। कुछेक कवयित्रियों को छोड़ भी दें, फिर भी शेष बचे में
सामाजिक राजनीतिक व आर्थिक चेतना का अभाव तो रहा ही ! अतः इन मायनों में स्त्री
बहुत पीछे छूटी रह गई। संदेह नहीं, स्त्री के संघर्ष का
इतिहास जानें तो वह प्रागैतिहासिक है। मुकाबले और तुलनात्मक हर मोर्चे पर वे
पुरुषों की अगुवाई की हैं तथा उसके बड़े भागीदार भी रहीं हैं। मैं तो मानता हूं कि
आदमी के मनुष्य बनने की कड़ी की वे पहली सूत्रधार हैं। किन्तु समय के रथ का पहिया
और आखेट मनुष्य के पराक्रमी ज़िद और हठ के आगे, तथा किन्हीं
मायनों में अपनी शारीरिक संरचनाओं से वे कमज़ोर हो, रूढ़
सामाजिकता से परास्त हुईं हैं। तत्पश्चात ही वे पितृसत्तात्मक व्यवस्था का अंग
हुईं। अब यह दुर्भाग्य ही कहें कि तब से ही स्त्री, इसी जड़,
पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अधीन रह, कराहती
हुई दिखीं हैं, छटपटाती हुईं दिखीं हैं, कभी स्व अस्तित्व को भूल, अपने को पुरुष की आधी ही
मान अंगीकार भी की। आज हमारे जीवन में यह व्यवस्था इस तरह पैवस्त है कि उससे विलग
कोई भी नई चेतना, प्रगतिशील विचार हमें खटकने लगते हैं।
सांत्वना श्रीकांत इसी जठर विषाद के बीच कुछ तेरा, कुछ मेरा,
कुछ हम दोनो का; के भाव के साथ हिंदी कविता
में दस्तक दे रहीं हैं, चुनौती प्रस्तुत कर रहीं हैं और बता
रही हैं कि कहां खोट है, कहां कमियां हैं, कहां धूर्तता और धृष्टता है, कहां कीमियागरी है।
कहीं प्रत्यक्ष वीरांगना सी, तो कहीं अप्रत्यक्ष साहसी
विदुषी-सी सचेत् और चैकसी लिए मानक तय, कर रही हैं ! आधुनिक
भारत को एक अनुकूलन स्ट्रक्चर देने का प्रयास कर रहीं हैं !! बताना न होगा,
स्त्री की भागीदारी को सुनिश्चित किए बगैर कि दृढ़ता से रखे बगैर,
कि क्या वांछित है, क्या अवांछित है, पुरुष के पुरुषार्थ में !!! यह वे स्त्री के पुरुषार्थ से परिभाषित कर
रहीं हैं। स्त्री का पुरुषार्थ क्या है ? कैसे होता है
स्त्री में पुरुषार्थ ?? तो कहना न होगा इसकी बानगी सांत्वना
की कविताओं में, उसके वैविध्य रंगों में दिखाई देगा।
गोकि बताना न होगा कि डॉ सांत्वना श्रीकांत की इस ‘स्त्री का पुरुषार्थ’ संग्रह के सभी चारों ‘स्त्रीकाल’ में स्त्री के संघर्ष का संघीय रुप व
दीप्त मन की आकांक्षाओं का वेग है। बाज के डैनो सा हवा के विपरीत कहीं गतिमान,
तो कहीं सरल प्रवाह और उड़ान लिया हुआ है। सांत्वना श्रीकांत
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की उदीयमान कवयित्री हैं। अभी हालिया प्रकाशित ‘स्त्री का पुरुषार्थ ‘ उनका पहला संग्रह है। जो सर्व
भाषा ट्रस्ट नई दिल्ली से प्रकाशित है। कवयित्री को उदीयमान इसलिए ही कह पा रहा
हूं कि बहुत कुछ अच्छा होने के बाद भी उनके कहन में अभी, अधिक
और अप्रत्याशित लरजता तथा समर्पण है। निसंदेह यह स्त्रियों के नैसर्गिक गुण हैं।
परन्तु स्त्री पर दासता लादने में कि आक्रमण का सबसे नितांत सुलभ मार्ग भी यही से
बना है। यकीनन सांत्वना की यह कोशिश, उनके द्वारा बिखराव को
रोकने/टूटने को सहेजने/बचाने की मंशा से है। कुछ घटे, कि
पहले जोड़ लेनें की दृढ़ता से है तथा काफी हद तक भौतिकवाद के विरूद्ध सांस्कृतिकवाद
की जड़ों को मजबूती प्रदान करने के सामथ्र्य में है। फिर भी, चूक
पर चूक कुछ ज्यादा सध जाए कि लद जाए, पहले मैं कहूंगा स्त्री
को खुद को परखने उन्हें एक नई सौंदर्य दृष्टि विकसित करने की महती जरूरत है,
और यह उन्हें ही हासिल करना है। संग्रह में प्रकाशित कविताओं को
सांत्वना श्रीकांत ने ‘स्त्रीकाल’ के
नाम से जिस तरह से नियोजित किया है वह काव्य के वैशिष्ट्य से पहले एक स्त्री के
जीवन वैशिष्ट्य को गहराईयों में उतार, देख पाने की समग्रता
में आया है।
“तुम भींचना मत
अपनी मुट्ठियां
कहीं पसीजती हुई हथेलियों से
रिस न जाऊं मैं।”
सांत्वना श्रीकांत की कविताएं नायक और नायिका के मूल भाव-भेद से
उपजती है और वह एक ऐसे लौकिक जगत और लोक में विचरण करती है जहां उनके सोचने,समझने चाहने को नायिका की प्रधानता में रख देखा गया। यह एक तरह से काव्य
का रीतिकालीन रूपक है। जैसे प्रचलित तोता मैना की कहानियों में गढ़ी गई, किस्सागोई में हुआ।
स्व से आरंभ कविता जब अपने वैयक्तिक पीड़ाओं, आकांक्षाओं की सीमा को लांघने लग जाए तो उसका वास्तविक रूप सौन्दर्य,
निखर बाहर आता है। वह सिर्फ निजी और एकांतिक अनुभूति न रह, निर्वैयक्तिक और व्यापक समाज में प्रक्षेपित होता है। दुख के संदर्भ में
तो यह अकाट्य है कि दुख का रंग दुखों के अलग-अलग होने के बावजूद एक-सा अपना होता
है। कविता इस परिस्थिति में समाजिक आचरण व व्यवहार का भाग बन, सहारा बनती है। इधर सांत्वना की ढेरों कविताएं इसी तरह से निजी अनूभूतियों
के रास्ते समाजिक परिप्रेक्ष्य में दस्तक देने वाली हैं।
सांत्वना की कविताएं हैं तो असलतः स्त्रीवादी कविताएं ही। मोड कि
माडल के वैविध्य में एकांगिक न रहकर वह स्त्री पुरुष के आत्मिक मेलजोल को मजबूती
देने के प्रयत्न की कविताएं हैं तथा कठिन बंधनों के परिष्कृत रूप सौन्दर्य की
कविताएं हैं। वे अपनी कविताओं में स्त्री के परस्पर ही पुरुष को रखती हैं।
जवाबदेही, एकतरफा न स्त्री पर लादती हैं न पुरुष पर
बल्कि दोनों ही के प्रेम और मुक्ति का विन्यस्त रुप है सामने लाती हैं। कि जोड़ीदार
को वह प्रेम में बुद्ध बना देती है
गरम सांसों की छुअन,
होठों की चुभन
समाधि तक चलेगी साथ,
वहीं घटित होगा प्रेम।
और तब देना
मेरे शरीर के
हर हिस्से पर अपना नाम,
वहां पर बीज बो दूंगी मैं,
जब आखिरी बार मिलोगे
तब वह बन चुका होगा
बोधिवृक्ष
और-
तुम उसकी छांव में
बैठ कर
बुद्ध बन जाना।
प्रमाणिक जीवन यथार्थ न कपोल कल्पित स्वप्न- सा होगा, और न ठस्स वैचारिक-सा, होगा तो वह जीवन सम्मत ही
होगा
“आंखें मूंद कर भी
तुम्हारी छुअन ही टटोलती है
मेरे अंतस को,
जाते-जाते आखिर में तुम
थोड़ा बच जाते हो मुझमें..”
सांत्वना की इस कविता में अहसास व अनुभूति की प्रबलता है। जो नितांत
और निजी है। बावजूद वह निजता के दयारों को फांद अपनी स्पंदन अहसासों से सामाजिक
जीवन का रचाव करती है। उनकी इस कविता के बिम्बों को झांकें तो उसमें एक ऐसे जीवन
पर्यन्तता से भरा रूह लम्हा और ताजगी है कि जिसके सहारे जीवन की जटिल दुर्गम
रास्तों का पार पाना भी संभव प्रतीत होता है। चूंकि यह अंतस का उभार है, थोड़ा बचे रह जाने का आंतरिक प्रक्षेपण है। स्पंदन अहसासों के खूबसूरत
स्त्रोतों से झरनों का फूटना है। यह दीगर है कि इस तरह की कविता में वह जीवन
यथार्थ नदारद होते रहे हैं जहां संकट के साथ संघर्ष व टकराव बनता है। अतः लोक जीवन
के काव्यवस्तु के तौर ये निष्प्रभावी हो जाते हैं। बतौर एक कवि ध्कवयित्री को देर
सबेर इन संदर्भों से छूटना ही वांछनीय है अन्यथा यह लिजलिजा होगा।
“तुम्हारे स्वयं में होने के मायने
कर दिए है लिपिबद्ध”
सांत्वना की अधिकांश कविताओं की पृष्ठभूमि में स्त्री का पुरुष में लीन समर्पण है। जो उसके स्वत्त्व से समिष्ट की मिश्रित व्यवस्था व भौगोलिकी में दिखाई देता है। स्त्री के पुरुष पर अधिकाधिक हस्तक्षेप तथा अधिकृत जुड़ाव में रूपायित होता है। सांत्वना के यहां भावात्मक बयार और बहाव से उत्पन्न यह एक विकट स्थिति है कि “देना” ही देना हुआ ! और देना सुखकारी ही है। फिर अप्राप्य क्या रह जाता है ? कि वे कहती हैं
“अंकित कर दिया है
अपने वर्तमान और भविष्य में
तुम्हें...”
“ताकि सदियों तक जीवित रहे
अप्राप्य का सुख।”
इस अप्राप्य सुख की प्राप्ति का सवाल, कविता के
पुनर्पाठ की मांग करती है।
“तुम्हारे साथ सुख जीते जीते
दुख का आकार और गहराई भूल गई थी”
सांत्वना की कविता में संबंधों की जो रागात्मकता है वह अनुभूति के
वैभव में है। यद्यपि एक का जाना और दूसरे का आना होता है। यह दूसरा जो आया है अथवा
उपस्थित हुआ है अनुगामी व सहचर बन, आया है।
किन्तु सांत्वना के यहां “जाना” ही
कहां हुआ ? उनके यहां तो यह जाना क्रिया ही नहीं है। न कभी
व्यतीत होने वाली है। बल्कि भीतर ही भीतर और निरापद घटित होने वाली है।
दरअसल दुख ने मुझे अपने भीतर लील गया और मैंने तुम्हारा जाना स्वीकार किया।
हालांकि इस तरह के गूढ़ और रहस्यवादी बातें अक्सर हमें भटका जाती है।
ओरांग ऊटांग की सैर कराती तथ्य और लक्ष्य से दूर रखें रहती है। कविता किन्हीं
मायनों में क्लिष्ट सी हो जाती है और थकावट भरी मशक्कत भी कराती है।
कवयित्री सांत्वना श्रीकांत की कविताई चेतना एक लंबे और दीर्घ
पठन-पाठन के बाद स्त्रीवादी रूझान में आ टिका है।
इधर स्त्रीवाद में पुरुषार्थ के मायने को मैं सांत्वना की कविताओं से
देख रहा हूं तो सांत्वना के यहां कि यह स्त्री पारंपरिक भारतीय प्रेयसी है,अथवा पत्नी है। जो ढांचागत परिवार की बड़ी जरूरत है। जिसकी अपनी सोच का भी
एक ‘सीमित’ आकाश है। सीमित इन मायनों
में है कि वह अपनी स्थिति और जड़ जुड़ाव से खुद को अलगा नहीं पाती, कांधा बनने के जतन में कांधे से झूल जा रही है और झोल खा जाती हैं।
मुंबईया फिल्मी पटकथा के किरदार की तरह, नायिका की भूमिका को
जीने के यत्न में वह खोती अधिक और पाती कम हैं। लेकिन सांत्वना के यहां कम में भी
तसल्ली अधिक है जिसे वे “अप्राप्य का सुख” भी कहती हैं
“मैंने तुमसे प्रेम किया
बैचैन हुई, नींद त्यागी,
तुम्हें जो पसंद था
इसलिए पसंद किया,
आखिर में मेरे पास
कुछ नहीं बचा मेरा।”
मैं फिर जोर देना चाहता हूं। प्रेम व्यवसाय नहीं है। सौदा भी नहीं
है। किए को बताए जाने की अथवा अपेक्षाओं से भी पृथक है। विवश भी नहीं होता है
प्रेम। समृद्धि का आधार है प्रेम। पसंद-नापसंद को इस तरह के जस्टीफाई की दरकार
नहीं हुई, कभी भी प्रेम में।
“तुम्हें जो पसंद था
इसलिए पसंद किया,”
सांत्वना की कविता में निश्चितता, अनिश्चितता
और द्वंद्व का जो वितान है वह दृष्टव्य पंक्तियों में देखे जा सकते हैं
“और तुम हमेशा
इस प्रायश्चित में रहे
कि मुझे तुमसे प्रेम नहीं!”
“मैं जब कभी
बंद करती हूं आंखें
तुम मेरा माथा चूमते हुए
दिखाई देते हो मुझे,
बांहों में लेकर सुनाते हो
धरती की लोरियां,”
“हालांकि
वास्तविकता यह नहीं है।”
जीवन के कई यक्ष प्रश्न, कई यक्ष
आशंकाओं के बावजूद सांत्वना की कविताई खूबी में विश्वास का जीवित रूप, उसके उलट-पलट भाव-विचार, भाव-विभोर, शिकवे-शिकायत भरे सौंदर्य उनकी कविताओं में दिखाई दे जाते हैं। यही वह
तथ्य है कि सांत्वना जीवन के तार को पारंपरिक राग से छेड़ देती हैं
“तुम ब्रह्मांड हो
जहां से हुआ उद्भव मेरा,
हम दोनों के लिए
प्रेम के मायने
इतने अलग हैं
जैसे-
मेरे मौन में तुम्हारा होना,
मेरे हर खयाल की
शुरुआत और अंत का
तुमसे होकर गुजरना।
यहां तक कि
प्रेम का पर्याय तुम हो।”
सांत्वना की कविता ज्ञानमार्गी उपदेश से नहीं, बल्कि भौतिक उद्देश्यपरक, घनीभूत विचार और यथार्थ से
बुने गए हैं।
“सुनो लड़की।
तुम छुपना मत,
आंखें नीची मत करना,
दुपट्टा कहीं खिसका तो नहीं,
इसकी भी परवाह न करना,
सिर उठाना और
नीची कर देना उनकी आंखें
अपने तेज से।
सुनो लड़की !
तुम्हें इतिहास नहीं बनना,
तुम्हें पूज्य भी नही होना।
सामान्य जिंदगी चाहिए तुम्हें
जहां-
दहशत न हो अपनी देह
के नोचे जाने की,
फिक्र न हो दबोच कर
पर काटे जाने की,
जहां खिली रहे
तुम्हारी मुस्कुराहट
बिना इस डर के”
सुनो लड़की सांत्वना श्रीकांत की एक मजबूत और बेहतरीन कविता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सांत्वना श्रीकांत की यह कविता, स्त्री विषयक कविताओं में अतुलनीय कविता है ! इसमें जरा भी संदेह नहीं कि
सांत्वना की यह कविता एक स्त्री को लेकर बनी बनाई प्रचलित धारणाओं के खिलाफ साहस
और बल की जीवंत कविता है। महत्वपूर्ण यह है कि वे इस कविता में स्त्रीवाद या कि
उनकी रूदन से कहीं अधिक बल, उसके प्रतिरोध में दी है। स्त्री
मुक्ति अथवा समानता की कामना जड़ता को तोड़ कर ही हासिल किया जा सकता है ! और स्त्री
को ऐसा होना होगा !! ऐसा होना, उनके होने के दरकार में है
!!!
“अफसोस यह है कि
इस प्रक्रिया में
हर बार वे
बदचलन “हो जाती हैं
युद्धरत होने
तैयार हो जाती हैं
अगली दफा के लिए।”
कह, दशा और दिशाएं दोनों को ही सांत्वना ने
इस कविता में बड़ी सजगता के साथ रखी है। औचित्य को बरकरार रखा है। मैं यह बार बार
कह रहा हूं कि स्त्री अनगिन साजिशों का शिकार या कि अभ्यस्त न बने, प्रतिरोधी बनें।
समीक्षक इंद्र राठौर रायपुर (छत्तीसगढ़), मो. 9098649505