हे माते-
हे! प्रथम वन्दनीय, प्रथम गुरु
माँ तुझको सब कुछ अर्पण
है
जब आंख खुली इस दुनिया
में
मुख तेरा ईश्वर दर्पण था
मैं रहता अक्क्षुण क्रंदन
में
आँचल तेरा अवतर्पण था...
नन्हें पैरों की मारो से
मैं तुझको बहुत सताता था
क्षणिक आंख लग जाती तेरी
तत्क्षण ही तुझे उठाता था
अपार स्नेह की थपकी में
निस्वार्थ प्रेम समर्पण
था
मेरे नादान से प्रश्नों
का
हर उत्तर तेरे मुख पर
था..
खुद रहकर भी भूखी तू
मुझे क्षीर पिलाती थी
दे सूखा बिछोना मेरा तू
खुद गीले में सो जाती थी
मेरे हर इशारे को तू
सरल समझ ही जाती थी
मुझ पर देख प्रहार को
तू ढाल मेरी बन जाती
थी...
जीने का वो प्रथम पाठ
तुझसे ही मेने सीखा है
जब भी लोटा हु घर को मैं
बैचैन तुझे ही देखा है
तनय स्वर सुनने को माँ
बस तुझे तरसते देखा है
...
बस तुझे तरसते देखा है
हुई बड़ी संताने अब
जो माँ को मूर्ख बताती है
जिसने घर सींचा लहू से
उसे द्वार दिखाती है
जिसने छोड़ा विद्यालय तक
जीवन तेरा गढ़ने को
उसको छोड़ वृद्धालय में
अब शर्म तुझे नही आती है
किंचित विचलित नही है वो
दिल से दुआएं देती है
हर पल रहे तू हंसता सा
अब भी सजदे में रहती है
मंदिर मंदिर तू भटक रहा
पर ईश्वर तुझसे दूर नही
शीश नवा ले माँ के आगे
भोली है वो क्रूर नही
लग जा फिर छाती से उसके
जीवन फिर बन जायगा
जितना पाप किया है तूने
पल मैं वो धूल जायगा
व्यर्थ भीड़ है मंदिरों
में
पत्थर में कहाँ गीर्वाण
है
नमन तुझे है पूज्य माँ
चरण तेरे निर्वाण है ..
चरण तेरे निर्वाण है.।।
प्रफुल्ल सिंह ‘बेचैन कलम’ युवा लेखक/स्तंभकार/