संपादकीय
देवेंद्र कुमार बहल, वसंतकुँज, नई दिल्ली, मो. 9910497972
नरेन्द्र मोहन: ‘भ्राजी’ (भाई साहब)
चले गए बिन मिले, बिन बताए, कितनी जल्दी में रहे होंगे, ‘वक़्त’ की पाबंदी और कोरनिश उनकी आदतों में
शुमार एक अदा थी (चनदबजनंसपजल पे जीम बवनतजमेल व िापदहे) जिसमें समझौता न मुमकिन
रहा होगा। लेकिन एक मलाल चेतना को हमेशा कचोटता रहेगा जो मैं वक्ते रुखसत कदम बोसी
से महरूम रह गया। खैर, मैंने अपनी इस महरूमियत को अपने
तसव्वुर के हवाले कर दिया है। जहाँ अब मुलाकातें होती ही रहेगीं।
भ्राजी ने मेरी शख़्सियत में पड़ी एक बहुत पुरानी पिचक को न केवल हमवार किया बल्कि उसे एक खूबसूरत आवरण से ऐसा ढका कि मैं जे़हनी सकूं को हासिल कर पाया। बचपन से ही मुझे अपने ‘सगों’ से हमेशा शिकायत थी- मुझे कभी अपनेपन का अहसास नहीं होता था। एक थोपी हुई रिश्तेदारी सी महसूस होती रहती थी। पर जब मैं जनवरी 2013 में भ्राजी से मिला तो उन्होंने उस पहली ही मुलाकात में मेरी बचपन की उस कुंठा का इस कदर निवारण कर दिया कि मैं उस इलाज को जिं़दगी भर नहीं भूल सकूँगा। पहली ही मुलाकात में प्यार, इज़्जत और हौसला अफज़ाई से मुझे सराबोर कर दिया। जिस तवक़्को और तवज्जोह से मैं वंचित रहा महसूस करता रहा था उसकी भरपाई उन्होंने अपने प्रेम और प्रोत्साहन से कर दी। उनसे प्राप्त शाबाशी मुझे प्रेरणा देती रही हैं और मुझे विश्वास है कि उनका आशीर्वाद मुझे ताउम्र प्राप्त रहेगा।
12 मई को प्रिय सुमन ने फोन पर बताया कि वह अस्थिकलश लेकर गढ़ गंगा जा रही है। तो मेरे दिल ने गवाही दी कि वह साहित्य को समर्पित साहित्यकार, ज़िंदा ए जावेद लफ्जों का मुज्जसम पहले ही प्रवाह हो चुका होगा अपनी स्मृतियों में धसी ‘रावी’ की लहरों में।
...तुम्हीं बताओ, हनीफ़!
मैं उस नदी को बेगाना कैसे कह सकता हूँ
जो मेरे रग-रेशे में बसी है
जिसके साथ में बड़ा हुआ माँ का-सा दुलार पा
देश के नक़्शे में नहीं है वह नदी
न सही
नक़्शे में न होना इतिहास में न होना कैसे मान लूँ !
रावी को अपने भीतर
बहने से कैसे रोक लूँ
उस की उपस्थिति के एहसास और इतिहास को
कैसे नकार दूँ ?....
साभार: नरेन्द्र मोहन, ‘मेरी लम्बी कविताएं’