अपनी वेदना व्यक्त करती कविता : धरती माँ की पुकार
एक दिवस प्रात भ्रमण को
ज्यों ही मैं घर से निकली
शीत ऋतु की शीतल बयार ने
आकर मुझे झकझोरा,
सहकर उसका आघात
मैं आगे बढ़ने लगी
नम धरती ने
बीच में ही मेरे पग रोके
आवाक मैं ठिठकी तो देखा
मेरे गतिशील पग के साथ
स्वयं जुड़ी धरा
मेरे संग-संग पग से पग मिला
चली आ रही है,
तन से तरबतर
आँखें भी नम
वाहनों और राहगीरों से रौंदी हुई
अकुलाती
लगा मुझसे कह रही है-
उठाए हूँ काँधे पर गिरिवर हिमालय,
औषधियों की पेटियाँ निज कोख में धारे
मेरे फूलों की खुशबुएँ तुम्हारा तन-मन भिगोतीं
मेरी गोद में खेलती पावन जलधाराएँ
प्यासे की प्यास प्रेम से बुझा रहीं।
खेतों के केश मैंने प्यार से सँवारे
पेड़ों के झूमर भी हवा में लहराते,
इंसानों, पशु-पक्षियों को
आहार भी ये देते
पग चाहें कठोर हों या हों अति कोमल
दोनों का आघात निज शीश पर मैं धारती
कटें ना वृक्ष मेरे टूटें न पग मेरे
चाह यही मन में सदा सब रखते ,
पर सच तो आज यहाँ खुलेआम रोता
कट रहे वन, घट रहे हैं पशु-पक्षी
बिखर रहे घुँघरू, टूट रहे हैं झूमर
घिरी पीड़ा से, पड़ी हूँ मैं घायल
छटपटा रहे अंग मेरे, मन मेरा व्याकुल
खंडित है मंच मेरा, तबले की थाप रूठी,
वीणा के तार आज गुमसुम-गुमसुम,
नाचने से पहले ही शृंगार मेरा उतरा
आकाश ने देख कर भी मौन है साधा,
उदासी का आलम है चारों ओर छाया
तृष्णा के चंगुल में
तुम्हारी माँ फँसी है ऐसे -
मकड़ी के जाल में भोली भृंगी हो जैसे!
कोई तो आए,इस निर्मम वासना-जाल से
मुझको उबार ले, मेरी घुटती साँसों को
जीवन धन दान दे
मुझमें निखार दे
बासंती रंगों से मेरी झोली आ भर दे
पुष्पा मेहरा, नई दिल्ली, फोन नं. 011-22166598