हो गईं आँखें चार
व्यंग्य
डॉ. दलजीत कौर, चण्डीगढ़, मो. 9463743144
पचास की उम्र तक आते-आते
मनुष्य के शरीर में कई परिवर्तन आने लगते हैं। थकान, कमजोरी,
दर्द, दाँतो की समस्या और सबसे महत्त्वपूर्ण
आँखों की रोशनी कम होना। मगर दिल है कि मानता नहीं। दिल को मना भी लो तो दिमाग
तरह-तरह के बहाने सुझाता है। किसी को कानों-कान खबर नहीं होनी चाहिए कि मुझे ऐनक
की जरूरत है। आदमी आँखों पर जोर दे -देकर पढ़ता है। एक आँख बंद कर के पढ़ता है। सिर
में दर्द रहता है पर मानता नहीं कि अब ज़िन्दगी ढलान की ओर है।
कल बाजार में बाँके जी
मिल गए। बड़ी-सी सुंदर घड़ी पहने थे। मैंने पूछ लिया-“क्या
वक़्त हुआ है ?”
उन्होंने काफी प्रयत्न
किया। एक आँख बंद कर दूसरी से हाथ दूर कर फोकस किया। पर नाकाम रहे और बोले-“शायद बंद पड़ गई है। कई दिनों बाद पहनी है।”
मैंने कहा -“आँखों में दिक़्कत तो नहीं ? मेरी आँखों में तो है।
पढ़ने के लिए ऐनक लगानी पड़ती है।”
वे तो जैसे इस विषय पर
बात ही नहीं करना चाहते थे। चलते-चलते बोले-“नहीं!
नहीं! मेरी आँखें तो बिलकुल ठीक हैं। चलता हूँ। देर हो रही है।”
बाद में उनके मित्र ने
बताया-“जेब में छुपा कर ऐनक रखते हैं। जब ज़्यादा
ही समस्या आ जाए तो लगाते हैं और फिर उतार कर छुपा देते हैं।”
मेरी सहेली की सास काफी
माडर्न है। बनने-संवारने में। धार्मिक भी बहुत है। कुछ दिन पहले उनके घर गई तो पता
चला कि वे तीन दिन के उपवास एवं मौन व्रत पर हैं। सहेली ने बताया-“किसी शादी में गई थीं। सुंदर दिखने के चक्कर में ऐनक नहीं पहनी। दिखाई
दिया नहीं और पनीर पकौड़ा समझकर फिश पकौड़ा खा गईं। तब से केवल पानी पर चल रही हैं।”
मैंने कहा-“पानी में मछली तैरने न लगे।”
मेरी बात सुनकर वह नाराज
हो गईं।
मुझे याद आया। हमारे पड़ोस
की दादी अपनी पोती की शादी में लहंगा पहन कर तैयार हुईं। ब्यूटिशियन ने कहा कि अब ऐनक
मत पहनों। बिना ऐनक के दादी को कुछ दिखाई न दे। पूरे फंक्शन में नौकरानी दादी को
लेकर ऐसे घूम रही थी। जैसे अपने सूरदास साथी को लेकर कोई भिखारी घूम रहा हो। मुझे
बहुत अफसोस हुआ। दादी कई वर्षों से यही कह रही थी कि अपनी पोती की शादी देखने को
जिंदा हूँ। पर बेचारी शादी देख भी नहीं पाई ।
मेरे मौसा जी अपने गाँव
एक शादी में गए। बाल काले कर,जवान शहरी बाबू बन
कर। ऐनक का तो सवाल ही नहीं था। बिना ऐनक सब कुछ धुंधला। गाँव की चाचियाँ मिलने
आईं तो सबके पैर छूने लगे। दिखाई दिया नहीं और साथ खड़ी पत्नी के भी पैर छू गए।
इतना मजाक़ उड़ा कि अभी तक पूरे गाँव की जुबान पर हैं। एक दिन मैंने पूछ लिया-“मौसा जी! चश्मा क्यों नहीं पहन लेते ?
बड़ी मासूमियत से बोले -“बेटा! दिक़्क़त तो कुछ नहीं। बस चश्मे में जब अपनी चमड़ी पर पड़ी झुर्रियाँ
साफ दिखाई देती हैं तो मन मायूस हो जाता है। जवानी के भ्रम में जीते हैं और कुछ
नहीं।”
इधर हमारे घर में भी कई दिनों से हंगामा हो रहा है। इसका कारण मैं हूँ। नजदीक का चश्मा तो मैंने बना लिया था। जो कभी-कभार पहन लेती थी। परंतु अब दूर-पास का चश्मा हर वक़्त पहनने की नौबत आ गई। कभी रोटी में बाल, कभी दाल में कंकड़, कभी कुछ तो कभी कुछ। डाक्टर ने कह दिया कि टी.वी. देखते हुए और कार चलाते हुए चश्मा पहनो। पति ने कई बार आग्रह किया-“चश्मा बनवा लो।
परंतु मैं हिचक रही हूँ
कि जब मुझसे बड़े भाई-बहन ने चश्मा नहीं लगाया तो मैं कैसे लगा लूँ। अभी तो मेरी
चाची-मामी ने चश्मा नहीं लगाया। मैं अपनी सुंदरता को ग्रहण कैसे लगा लूँ।
मेरा तर्क सुनकर पति
बेचारे चुप। उन्होंने कहा तो नहीं। पर मुझे स्पष्ट सुनाई दिया-“भाड़ में जाओ।”
कुछ दिन पहले मेरी मौसी
जी बीमार हो गई। मैं उन्हें देखने, उनकी
कुशल-क्षेम जानने उनके शहर गई। मेरे मामा के बच्चे भी आए हुए थे और दूसरी मौसी के
भी। रात के खाने के समय मुझसे कुछ चावल बैड पर गिर गए। हम लोग मौसी के बैड पर बैठ
कर खाना खा रहे थे। मैंने मौसी की बेटी से कहा-“देखना
ज़्यादा चावल तो नहीं गिरे।”
वह बोली-“आप टेन्शन न लो दीदी ! यहाँ सब आपके जैसे ही हैं। किसी को दिखाई नहीं
देता।”
मैंने आश्चर्य से पूछा-“ आप तो मुझसे छोटे हो ?”
वह भी बोली-“सारा दिन कम्प्यूटर के आगे बैठने से और अब उम्र पचास के आस-पास ही है
सबकी।
मैंने फिर पूछा-“तुम चश्मा क्यों नहीं पहनती ?”
बोली-“बस दीदी! शर्म-सी महसूस होती है। चश्मा पहनेगे तो बूढ़े लगेंगे।”
मैंने ज्ञान बाँटते हुए
कहा -“इसमें शर्म कैसी ? हमें
अपनी उम्र को स्वीकार करना चाहिए। बूढ़े हो रहे हैं तो मान लेना चाहिए। यदि हम मन
से तैयार हो जाएँगे तो बुढ़ापे का सामना शांत रहकर कर सकेंगे।”
मेरी ममेरी बहन जो अब तक
चुप थी। तपाक से बोली-“तो दीदी! आपने चश्मा क्यों नहीं लगाया ?”
उसकी बात सुन कर जैसे
मुझे सांप सूंघ गया ।अब मेरी मौसेरी बहन बोली-“दीदी की
बात तो ठीक है। हमें स्वीकार करना चाहिए कि हम बूढ़े हो रहे हैं।
अचानक वह उठ खड़ी हुई-“चलो! कल सभी चश्मा लगवाने चलते हैं। अकेले-अकेले की बजाए इस बुढ़ापे को
मिलकर स्वीकार करते हैं ।”
उसकी बात पर पहले तो सभी
हँसते रहे। फिर सबने तय किया कि कल आँखों के डाक्टर के पास जाएँगे। सुबह मन ने एक
बार तो अस्वीकार किया। परंतु हमने एक -दूसरे को हौंसला दिया। डाॅक्टर ने सबका
नम्बर चेक किया और अगले दिन आकार चश्मा लेने को कहा। दूसरे दिन शाम को सबके चश्मे
आ गए। रात तक हम बच्चों की तरह एक-दूसरे का चश्मा पहन कर देखते रहे। फोटो शूट हुआ।
कौन चश्मे में कैसा लग रहा है। इसपर चर्चा होती रही। हम बार-बार चश्मा उतार रहे
थे। फिर पहन रहे थे। एक अजीब-सी बेचैनी थी। मौसी ने कहा-“कुछ दिन में आदत हो जाएगी।”
अगले दिन मैं अपने घर लौट
आई ।मैंने चश्मा पहने रखा। ताकि रास्ते में कोई दिक़्कत न आए। टिकट लेने में, पढ़ने में। बस में चढ़ने में आसानी रही। जिंदगी के रंगों से ज्यों धुँध उठ
गई हो। घर पहुँची तो दरवाजा पति ने खोला। देखते ही बोले-“हो
गईं आँखें चार !”
मैं धीरे से मुस्कुराई और
अपने बुढ़ापे के साथ घर में प्रवेश कर गई।
न्योता (लघुकथा)
मैंने उसे अपने घर आने का
न्योता दिया। उसने कोरोना का डर दिखाया। इसी को न आने का कारण बताया। रखना बचाव
मुझे समझाया।
अगले ही दिन उसे एक
उच्चाधिकारी का न्योता आया। उसने तुरंत आने की हामी भरी। उसने कोरोना को बताया।
काम पड़ सकता है अधिकारी से उसे समझाया।
कोरोना ने उसे बस एक दिन
की मोहलत दे दी है।
कविता
लापता है बसंत
बसंत आया तो है
डाली पर फूल
मुस्काया तो है
वीरान पेड़ पर
हरी कोंपलें
फूटी तो हैं
कोयल ने बसंती गीत
गया तो है
सरसों ने पीला खेत
महकाया तो है
बसंती चुनार
पगड़ी का रंग
लहराया तो है
मगर
लापता है
स्नेह के फूलों का बसंत
नहीं फूटती
प्यार की कोई लता
नहीं आता
अपनेपन का बौर
जाने क्यों ?
बसंत आकर भी
नहीं आता
लापता है बसंत
मेरे मन का बसंत
तेरे मन का बसंत
लापता है बसंत