आप कहाँ हो, ‘सर’... : डॉ. नरेन्द्र मोहन
अंतिम क्षण: नरेन्द्र मोहन
02 मई 2021
‘नमस्कार सर
‘नमस्कार
‘सर, आप खाना खाने की तैयारी तो नहीं कर रहे ?‘
‘बस तैयारी ही है’
‘ठीक है फिर आप खा लीजिए। मैं बाद में बात करती हूँ।’
मैंने
फोन काट दिया यह सोच कर कि सर को खाना खाने में आधा घंटा तो लगेगा। अचानक दो मिनट
बाद-
‘हैलो, रजनी
‘सर, अभी खाना खाने का प्रोग्राम नहीं है।‘
‘दरअसल, मैं यमुना नगर में हूँ‘
‘अच्छा, मनीषा दी (बेटी) के पास‘
‘मैं यहाँ हॉस्पिटल में हूँ’ ‘मैं हतप्रभ और अवाक् ‘सर क्या हुआ’
‘वो सुमन (बेटी), और ऋत्विक (नवासा) कोरोना
पोजि़्ाटिव हो गये थे तो मनीषा मुझे यहाँ ले आयी। 3-4 दिन से
हॉस्पिटल में हूँ।’
‘सर, आपने तब से मुझे बताया क्यों नहीं मेरी आवाज में
बेबसी भरी नाराजगी थी।’
‘पहले मेरी पूरी बात तो सुन ले - मुझे यहाँ अलग से पूरा कमरा मिल गया है।
अब मैं ठीक हूँ।‘ उनकी आवाज में थकावट झलक रही थी।
फोन
रख कर तुरन्त सुमन दी को फोन लगाया सारा वाक्या जानने के लिए। उन्होंने कहा- ‘26 अप्रैल से मैं पॉजिटिव हुई और फिर ऋत्विक। पापा को यमुना नगर जबरदस्ती
भेजा था ताकि वे इन्फेक्शन से बच सकें लेकिन 29 तारीख से
उन्हें भी कारोना के Symptoms महसूस होने लगे। वे जाने को तैयार नहीं थे। अमित
(बेटे) ने सुझाव दिया कि पापा अभी कोविड के शुरूआती दौर में हैं तो एहतियातन
उन्हें अस्पताल में दाखिल करा देना चाहिए। दिल्ली के घर में चार में से दो लोगों
के कोविड की गिरफ्त में आने से सहलूयित न घर में थी, न
दिल्ली के किसी अस्पताल में जगह और न ही दिल्ली में रहते हुए अस्पताल में
तीमारदारी करने का कोई सुभीता था। लिहाजा वह नरेन्द्र मोहन जिनकी अन्तिम इच्छा थी
कि अपने आखिरी वक्त में वह अपनी ‘स्टडी‘ (पत्नी श्रीमती अनुराधा शर्मा के बाद ‘स्टडी‘ की छोटी-सी 8×10 की जगह उनकी पूरी दुनिया थी) में
हों; भारी मन से अपने आख़िरी विस्थापन के लिए निकल पड़े।
पिछले
2-3 सालों से वह लगातार कहते ‘मैं
तो जाल को छोड़ना चाहता हूँ पर जाल है कि मुझे छोड़ता नहीं है। चीजों को अब समेटना
चाहता हूँ लेकिन समेटने की इस कोशिश में कोई न कोई भूली-बिसरी फाइल हाथ लग जाती है
और निंदर कुछ लिखवा डालने की जिद में मुझ पर सवार हो जाता
‘‘क्या करें सर, वह निंदर है ही कमबख्त लेकिन प्यारा
कमबख्त- जिसके बिना आप (नरेन्द्र मोहन) नहीं। जब कभी लिख नहीं पाते तो कितनी
व्याकुलता के साथ आप उसे ढूंढने लगते हो क्योंकि आपके भीतर का निंदर है तो लेखन है
और लेखन (शब्द) है तो आप हैं। निंदर और नरेन्द्र मोहन का यह चोली-दामन का साथ है
छूटे तो छूटे भी कैसे ?‘
04 मई 2021
‘हैलो,
नमस्ते
सर‘
‘नमस्ते‘
‘सर, अब आप कैसे हैं ?
‘रजनी, यहाँ सारा दिन लेटे-लेटे भी क्या करूँ। 1-2 तो ऐसे ही बज जाते हैं। डॉक्टर, नर्स आते ही रहते
हैं। ये लोग 24 घंटे काम में ही लगे रहते हैं... मैं
डिप्रेशन में जा रहा हूँ।
‘सर, आपकी मुझे, हमें और सारे
साहित्यिक जगत को बहुत जरूरत है। आपका जब प्रॉस्ट्रेट का आपरेशन हुआ था तो उस
अनुभव की टीप आपने अपनी डायरी में भी नोट की है। कोविड का यह व्यक्तिगत अनुभव आपको
वैश्विक त्रासदी से जोड़ेगा सर क्योंकि आप तो आत्म से इतिहास और इतिहास से वर्तमान
में लगातार झांकते रहते हैं। हम सब आपसे एक बड़ी सर्जनात्मक कृति की उम्मीद कर रहे
हैं। उन्होंने कहा, ‘देखते हैं, क्या
बनता है।
06 मई 2021
इन
दिनों नरेन्द्र मोहन के रचना संचयन पर काम कर रही हूँ, उसी को लेकर बातचीत फोन पर होने लगी।
‘प्रलेख प्रकाशन से फोन आया था तुम्हारे पास’ उन्होंने
पूछा।
‘नहीं सर‘
‘आ जायेगा
‘कुछ रुक कर, ऐसा करो तुम उनसे बात करके किताब उन्हें
भेज दो’
‘ठीक है सर, भेज देती हूँ’
अचानक
याद करते हुए ‘भूमिका तैयार हो गयी ?‘
‘नहीं सर, पहले आप ठीक हो जाइये वह सब हो जायेगा।’
‘भूमिका के बिना कैसे भेजोगी। वह तो इम्पॉरटन्ट है। ऐसा करो एक टेन्टेटिव
सी भूमिका बनाकर मुझे भेज दो। तुम्हारी शुरू से प्रवृति रही है कि परफेक्शन के
चक्कर में काम...‘
‘सर आप पहले स्वयं को मानसिक और शारीरिक आराम दीजिए। सब हो जायेगा।’
‘जाते-जाते मैं अपना काम तो पूरा कर दूँ न‘
अवाक
स्थिति में मैंने कहा ‘सर जाते-जाते का क्या मतलब है ? आप अपने शब्द अभी वापिस लीजिए। आपने मुझे हर्ट किया है।’
‘फिर गुस्सा करने लगी। मेरी बात तो सुन‘ ‘बात क्या सुनूँ सर, बात ही आपने दिल दुखाने वाली की है‘ मुझे लगा जैसे उनके भीतर का निंदर बड़ी जल्दी में है।
30 जुलाई (जन्म दिन) के मद्दे नजर ‘अभिनव इमरोज‘
और ‘साहित्य सिलसिला‘ के
विशेषांक निकालने की योजना थी। ‘अभिनव इमरोज‘ के लिए उनका नवीनतम नाटक ‘हद हो गई, यारो!‘ की टाइप्ड सॉफ्ट कापी उनके पास भेज चुकी थी।
दिल्ली से एक बार उनका फोन आया था कि अभिनव इमरोज का जुलाई संस्करण उन पर
केन्द्रित होगा जिसके लिए उन्होंने अपने सम्पूर्ण साहित्य को समेटने वाले एक आलेख
के लिए मुझे कहा था। अस्पताल में होते हुए उन्होंने 15 मई तक
की डेडलाइन मेरे सामने इस आलेख/भूमिका के लिए रखते हुए कहा कि मैं इसे हँसते हुए
स्वीकारूँ और मेरे उदास होने के बावजूद उन्होंने मुझे हँसने के लिए कहा। एक उदास
कृत्रिम हँसी का स्वांग मैंने फोन पर किया। उनके आदेशानुसार ‘साहित्य सिलसिला‘ के संपादक डॉ. अजय शर्मा को लाहौर
पर केन्द्रित यात्रा संस्मरण और ‘हद हो गई, यारो!‘ की वर्डफाइल मेल कर दी।
07 मई 2021
सुबह
सर ने फोन नहीं उठाया। उसी शाम भी ऐसा ही हुआ। रात को सुमन दी से दिल्ली बात।
उन्होंने बताया ‘पापा ने उनका फोन भी नहीं उठाया था लेकिन
वह ठीक हैं।
09 मई 2021
सुबह
फोन पर सुमन दी ने बताया कल सर ने खाना नहीं खाया। उनकी इच्छा ही नहीं हुई। उन्हें
ऑक्सीजन लगा है और उनका ऑक्सीजन लेवल 80-82 है।
परिवार वाले सोच रहे हैं हॉस्पिटल बदलें। मैंने कहा ऐसा कैसे हो गया कि कोविड के
शुरुआती लक्षणों के सामने आते ही एडमिट होने के इतने दिनों बाद समस्या इतनी बढ़ गयी
? 8 मई को हुए सी.टी.स्कैन में उनके फेफड़े संक्रमित पाये गये
थे।
रात
10.30 बजे सुमन दी से पता चला सर को आज शाम चार बजे
दूसरे अस्पताल के आईसीयू में रखा गया है। उन्हें लग रहा था कि अब सब ठीक हो जाएगा।
11 मई 2021
सुबह
9.30 बजे जैसे ही कोविड की दूसरी वैक्सीन के लिए
निकलने लगी अचानक दिल्ली विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग के सेवानिवृत्त ऑफिसर श्री
एस.के. बग्गा जी के शब्द मोबाइल के ऊपरी हिस्से पर ‘स्क्रॉल‘
होते देखे। सोचा बग्गा सर ने किया है तो खोलती हूँ। मुझे क्या पता
था उसे खोलते ही मेरी दुनिया में ताला लग जायेगा।
पता
चला सुबह डॉक्टरों ने उनकी स्थिति बिगड़ती देख वेंटिलेटर पर उन्हें ले जाने का
निर्णय लिया लेकिन उससे पहले ही पिता श्री रूपलाल शर्मा का मखबूतलहवास बेटा निंदर
अपनी मखबूतलहवासी में ही नरेन्द्र मोहन को साथ ले कभी न खोजी जा सकने वाली डगर पर
निकल गया।
बचपन
में नीद में चलकर अपनी चारपाई से उठकर दूसरी जगह पहुँच जाने वाले निंदर को पिता
ढूंढते हुए पकड़ लाते और उनकी माँ श्रीमती विद्यावती को कहते ‘संभाल अपना बेटा।‘ सोचती हूँ क्या आज भी वह कुछ ऐसा
चमत्कार नहीं हो सकता कि निंदर को पकड़ कर लायें और कहें यह संभालो अपना नरेन्द्र
मोहन।
नरेन्द्र
मोहन अक्सर कहते वह तो जाल को छोड़ना चाहते हैं पर जाल उन्हें नहीं छोड़ रहा। इस बार
कलम और जिन्दगी के जाल ने उनकी बात को दिल से ऐसा लगाया, उनकी सर्जना और जीवन का जाल कोविड की सुनामी में ऐसा उड़ा कि दिशाओं का
ज्ञान ही खो गया। उन्होंने अपनी ‘स्टडी‘ के लिए लिखा है ‘मैं कहीं भी जाऊँ यह कमरा उड़ता हुआ
वहीं चला आता है। सर, कमरे ने दिशा-दिशा छान मारी आपका कहीं
पता नहीं चल रहा। बहुत हुई लुका-छिपी कोई सुराग तो बताइए। आजीवन दिशा निर्देश देने
वाले गुरुवर, एक बार बस एक बार कोई दिशा निर्देश तो दीजिए -
कमरा और हम कहाँ ढूंढें आपको... सर.....
विभाजन
की सिल एक चट्टान की तरह रही आपके लिए। उस चट्टान पर आप दर्दीले अहसास की इबारत
उकेरते हुए कदावर और दीर्घजीवी साहित्यिक रचनाएँ देते रहे। विभाजन के रक्तबीज ने
विस्थापन को अपने वो ‘जीन्स‘ दिये कि
लाहौर से अमृतसर, अमृतसर से अंबाला, अंबाला
से हिसार, हिसार से दिल्ली, दिल्ली से
यमुना नगर और... यमुना नगर के अस्पताल के बाद विस्थापन थम गया क्या सर! आपने लिखा
है ‘चाहता हूँ इस जन्म का लेखक अगले जन्म में भी मेरा पीछा
करता रहे’। आपको अपना वायदा पूरा करना ही होगा क्योंकि आप और
आपके सर्जित चरित्र हमेशा सच के लिए सच के साथ जिए हैं। हम आपका इन्तजार कर रहे
हैं, सर! आप कब आयेंगे....
आपके
लिए, प्रतीक्षारत आपकी विद्यार्थी,
रजनी बाला, हिन्दी विभाग, जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू, Email : rbalajmu@gmail.com