समीक्षा : ‘तीस पार की नदियाँ ’ को समाज से उम्मीद
(सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की कलम ने स्त्री मन की पीड़ा को आवाज़ दी)
सत्या शर्मा ‘कीर्ति’
स्त्रियाँ कभी खाली नहीं बैठ सकती हैं। वो हमेशा कुछ-न-कुछ करती रहती
हैं। स्त्रियों को कभी खाली बैठना सुहाता भी नहीं है। कपड़ा धोते हुए, घर बुहारते हुए, आँगन लिपते हुए, खाना बनाते हुए, स्वेटर बुनते हुए भी
स्त्रियाँं उन पलों में अनगिनत सपने देखती
रहती हैं। घर-परिवार, समाज और देश के सुनहरे स्वप्न होते हैं
उनके सपनों में। उन सपनों को साकार करने की ज़िद होती है। यह ज़िद स्त्रियों को औरों
से अलग करती है!
स्त्रियाँ यदि ठान ले, तो क्या
कुछ नहीं कर सकती हैं। घर संभाल सकती हैं, परिवार संभाल सकती
हैं। समाज और देश को संभाल सकती हैं। स्त्रियों को कमतर नहीं आँका जा सकता है।
स्त्रियाँ संजीदगी के साथ अपना कर्तव्य निभाती हैं। स्त्रियाँ फर्ज निभा रही हैं,
तभी देश चल रहा है, समाज चल रहा है और परिवार
में खुशियों का अम्बार है।
स्त्रियाँ सृजनहार हैं। कोख से शिशु को जन्म देने वाली स्त्रियाँ
विचारों को जन्म देती हैं। शब्दों के माध्यम से उन विचारों को कागज़ पर लिपिबद्ध
करती हैं। विचारवान स्त्रियाँ सुंदर विचार रखती हैं, जो समाज
को नयी दिशा देने को सक्षम है। स्त्रियाँ माँ हैं। ऐसे में उनकी कलम प्रेम ही
बरसायेगी, भटकते पाँवों को राह ही सुझायेगी! एक ऐसी ही माँ
है- सत्या शर्मा ‘कीर्ति’, जिन्होंने
एक किताब की रचना की है-‘तीस पार की नदियाँ’।
‘तीस पार की नदियाँ’ में संग्रहित 57 कविताओं से गुज़रते हुए एक बात स्पष्ट है कि कविताओं की भाषा सरल है,
सहज है, जो पाठकों को अंत तक बाँधे रखती है।
कवयित्री को इन विषयों के लिए भी मगज़मारी नहीं करनी पड़ी है। आस-पास बिखरे पड़े
विषयों और अनुभवों ने मार्ग को प्रशस्त किया है। बकौल सत्या शर्मा ‘कीर्ति’, यह सच है कि मैंने नहीं लिखी हैं कविताएँ,
कविताओं ने लिखा है मुझे।
अब स्त्रियाँ रोती नहीं हैं। वो तो ढूँढती हैं समाधान, तोड़ती हैं पाँवों की बेड़ियाँ। बहती हैं उन्मुक्त भाव से, मुक्त करती हैं रूढ़ियों के बंधन को खुद से। सब्जियों की छौंक के साथ
अनगिनत योजनाएँ बनाती हैं, बच्चों का भविष्य संवारती हैं।
पति के सिर से उड़ा डालती हैं परेशानियों के बादल! स्त्रियाँ चाहती हैं मर्दों के
साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलना, अब पिछलग्गू बनकर नहीं रहना
चाहतीं। नहीं चाहतीं सहानुभूतियों से भरे शब्द को सुनना। वो चाहती हैं खुद भी खिलखिलाना और धरती को भी खिलखिलाते देखना!
स्त्रियाँ अब आत्मनिर्भर हो गयी हैं, इसलिए उनकी आँखें अब
डबडबाती नहीं हैं। कवयित्री ने सच लिखा-
क्योंकि स्त्रियाँ अब रोती / नहीं हैं / वरन ढूँढती हैं समाधान /
समस्याओं का / करती है हल परेशानियों को / और रोपती है आँगन में / खुशियों से
महकती तुलसी।
घर को घर बनाने में पिता का योगदान सर्वोपरि है। हर पिता की यह
ख्वाहिश रहती है कि उनकी औलादें उनसे बेहतर करे। पिता कभी पुत्रों को रोने नहीं
देते हैं। पुत्र की हर चाहत को पिता पूरी करते हैं। पिता के त्याग को, पिता के बलिदान को शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता है। पिता के लिए हर शब्द
बौना है, हर शब्द सामर्थ्यहीन है। पिता के पैरों पर तो हर
शब्द झुक जाते हैं। लेकिन, समय के साथ-साथ शेर की तरह दहाड़ने
वाले पिता ‘मेमना’ क्यों बन जाते हैं?
क्यों खामोश हो जाते हैं? पिता की बेचारगी को
कवयित्री ने महसूस की। यह हर पिता के दिल की दास्ताँ है, जिसे
सत्या जैसी बिटिया ही समझ सकती है-
पापा अब नहीं / करते विरोध / किसी भी बात का / डाँटते भी नहीं / होने
देते हैं / सब कुछ यथावत / शायद डरते हैं / कि कहीं देखना न पड़े / अपने स्वाभिमान
को / टूट कर बिखरते हुए।
पिता होना बहुत मुश्किल है। पिता आँसुओं को पीते हैं, पिता गम को खाते हैं, फिर भी मुस्कुराते रहते हैं।
पिता कभी नहीं करते अपने दुखों का जिक्र औरों से। पिता बीमारियों से हाँफते हैं,
अंदर ही अंदर घूँटते हैं। फिर भी चिंता होती है कैसे घर-गृहस्थी चले?
बेरोजगार बेटे को ढाढ़स देने वाले पिता जवान होती बिटिया को देखकर भी
सहज रहते हैं। नाज़-नखरों से पलने वाली बिटिया को अजनबियों के हाथों में सौंप देने
के बाद भी चेहरे पर दर्द के चिह्न उभरने नहीं देते पिता, जबकि
हकीकत है कि वो हृदय को काढ़ देते हैं। लाख विपदा आये, वो
मजबूत-सी छत बनकर रहना चाहते हैं, ताकि फौलाद बाजुओं से रोक
सके तूफान को। संवेदनशील कवयित्री पिता बनकर पिता होने के उस एहसास को पाना चाहती
हैं। उनकी चाहत है-
हाँ, एक बार पिता बन / उनके एहसास को,
/ उनके जज़्बात को, / उनके संस्कार को,
/ उनकी ऊँचाई को, / उनके हृदय की गहराई को/
छूना चाहती हूँ / हाँ, बस एक बार / पिता होना चाहती हूँ।
घर को संभालने में माँ भी बूढ़ी हो जाती हैं। सौंदर्य से कभी दमकता
उनका चेहरा झुर्रियों में ढँक जाता है और लम्बे-काले बाल सफेद हो जाते हैं। माँ घर
को ‘घर’ बनाती हैं। बिना
‘माँ’ के घर तो काटने दौड़ता है। माँ
स्नेह की मूर्ति है। प्रेम की नदियाँ हैं, जो बस बहना जानती
है। चैका-चूल्हा और जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते माँ को अपनी फिक्र भी कहाँ
रहती है? माँ को कवयित्री ने कई बार देखा, हम और आप भी देखते हैं कई बार, लेकिन जब माँ ने
कहा-मुझ पर रचो न कविता, तो पारखी नज़रों से कवयित्री देखती
हैं माँ को, तब महसूस करती हैं माँ की पीड़ा को और लिखती हैं-
कब माँ के मजबूत कंधे / झुक से गए समय के बोझ से?
माँ हमेशा से वंदनीय रही हैं, पूजनीय
रही हैं। माँ के त्याग का कहाँ सीमांत है? कवयित्री लिखती
हैं-
और फिर पलटती हूँ / इतिहास के पन्ने / उसमें दर्ज माँ को पढ़ती हूँ /
तब महसूस होता है / उनके विराट व्यक्तित्व / उनके उच्च संस्कार / उनके बलिदान /
उनकी सादगी और उनके समर्पण से / भरा है हमारा गौरवशाली / इतिहास।
आगे-
स्त्री कभी-कभार चाहती है खुद से बतियाना। खुद से बतियाकर स्त्री को
संतुष्टि मिलती है। पूछती है खुद, कहाँ गयी वो निश्छल
मुस्कुराहटें? कहाँ गयी वो चंचल और अल्हड़पन भरी आहटें?
हर बात को समझने की मासूम-सी ललक? कहाँ गया वो
रूप? चेहरे पर अब इतना तनाव क्यों है? क्यों
चाहतें दब रहीं हैं? क्यों ख्वाहिशें नज़रअंदाज़ हो रहीं हैं?
‘एक ख़त खुद के नाम’ में कवयित्री ने जो प्रश्न
उठाया है, उसका जवाब कौन देगा? कवयित्री
की नसीहत-
चलो फिर से जी लो न / खुद के लिए भी / फिर से मुस्कुरा लो न / अपने
लिए भी।
आत्महत्या बुज़दिल किया करते हैं। महिलाओं का दिल बुज़दिल थोड़े ही है।
महिलाएँ हर स्थितियों में खुद को ढालने की कोशिश करती हैं। महिलाओं के गले में दो
कुलों की मर्यादा बँधी होती हैं। ऐसे में वो आत्महत्या कैसे कर सकती हैं? बचपन में पिता की इज़्जत की अदृश्य डोर से बँधी होती हैं, तो शादी के बाद काले मोतियों में गूँथकर गले में लटकाती हैं ससुराल की
गृहस्थी और इज़्जत की चाभी। कवयित्री ने सच लिखा कि स्त्री हर मान-अपमान को झेलती
है, आजीवन संघर्ष करती है। बावजूद, डटी
रहती हैं जीवन की पथरीली राहों में कभी पति की खातिर, कभी
पुत्र के लिए, तो कभी पिता की इज़्जत की खातिर। हाँ अपनों की
उपेक्षा से महिला रो पड़ती हैं, फिर भी चाहती हैं सबका भला हो,
ताउम्र चाहती हैं बेहतरी!
महीनों नहीं गूँजती / आवाज / ‘माँ’
/ पर वो करती है / घण्टों इंतजार / उसकी आँखें लगाती हैं / टकटकी
देहरी पर / सांझ का दीया जला / करती है प्रार्थना, / करती है
अनेक उपवास।
स्त्री ही स्त्री के दर्द को समझ सकती हैं। कवयित्री ने एक ऐसी
स्त्री की व्यथा को कलमबद्ध की, जो माँ नहीं बन
सकती। हर स्त्री की यह ख्वाहिश होती है कि वह नौ माह कोख में शिशु की परवरिश करे,
उसे दुलारे, उसे पुचकारे। यह भी सच है कि हर
स्त्री ‘माँ’ नहीं बन सकती, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि उनमें ममत्व नहीं है? स्त्री चाहती हैं बच्चों के नन्हें कोमल स्पर्श को अपने मन, अपनी आत्मा और अपने शरीर पर महसूस करना, लेकिन
बहुतेरी स्त्रियाँ ममत्व सुख से वंचित हो जाती हैं। स्त्रियाँ चाहती हैं माँ बनना,
कोमल एहसास को पाना।
लोग कहते हैं बहुत कष्टकारी होते हैं प्रसव के पल / मैं उस सुखद पल
के कष्ट को झेलना चाहती हूँ / मैं माँ नहीं हूँ / पर माँ बनना चाहती हूँ।
हाशिये पर हैं किन्नर? कहाँ कोई
किन्नर की सुध लेता है? किसी को चिंता भी नहीं है? किन्नर को तकलीफ है सरकार से, समाज से। किन्नर को
कविता का विषय बनाना बड़ी बात है। जहाँ समाज किन्नर से कन्नी काट लिया है, वहीं कवयित्री की कलम ने उनकी परेशानियों को आवाज दी। समाज से किन्नर की
क्या ख्वाहिश है, देखिए-
देखो न, हँसते चेहरे मेरे / रोती आँखें भी /
तुम-सी ही / हृदय स्पंदित होता तुम-सा / साँसें और धड़कन भी एक-सी / बस अंतर है तो
/ कुछ जैविक संरचना का / हाँ मत दो कोई भाषण / बस दो अपनत्व भरा अपनापन।
हवाओं के संग तेजी से उड़ने वाली लड़कियों की भी चाहत होती है कि कोई
हौसलों से आकर थक चुके पंख को सहलाये। तीस पार की लड़कियाँ जो चाहती हैं, उनके दिल में जो अरमान हैं, उसे ही कवयित्री ने
कलमबद्ध की है। तीस पार की लड़कियों में अल्हड़पन कम हो जाता है। वो डरती हैं,
घबराती हैं, भयभीत रहती हैं, इसलिए वो आहिस्ते-आहिस्ते कदम बढ़ाती हैं बहुत सोच-विचार कर। कवयित्री ने
कहा कि तीस पार की लड़कियाँ बँधना चाहती हैं मजबूत बंधन में। प्रस्तुत कविता का
शीर्षक ‘तीस पार की नदियाँ’ है। यहाँ
नदियों का सीधा मतलब नारी है, क्योंकि यह वह उम्र है,
जहाँ लड़कियाँ ठहराव चाहती हैं।
हाँ, उसके अंदर की नदी / स्थिर होना चाहती है
/ किसी मजबूत बाँध संग / बँध जाना चाहती है।
कवयित्री शुरू से ही कविता गढ़ती रहीं हैं। महज सोलह साल की उम्र में
कविता लिखी थी-आईना। यह कविता किशोरी की आप-बीती है। किशोरियों को शब्द बाणों से
जूझना पड़ता है, अश्लील उपनामों के तीर से लहूलुहान होना
पड़ता है। जाने-अनजाने जवान होती बेटियाँ पिता के लिए चिंता की वजह बन जाती है।
सौंदर्य और गुण पर हावी हो जाता है पैसा। कवयित्री समाज से पूछती हैं-
तो क्या? / मेरा सौंदर्य सिर्फ सड़कों और पर्दों का
है? / क्या आज कोई कृष्ण नहीं / जो मोर पंख को ड्राइंगरूम की
/ सजावट की जगह माथे पर लगाये?
बिटिया दो कुलों को संभालती है। मसलन, बिटिया
दो कुलों की नाज है। यह सत्य है कि बिटिया को एक-न-एक दिन पिता के आँगन को छोड़ना
ही पड़ता है। जिस आँगन में पली-बढ़ी, उसे छोड़कर पिया के आँगन
में बिटिया को जाना ही होता है। बिटिया पिया के आँगन में खुशियाँ माँगती हैं। सास
और ससुर में माँ और पिता का रूप देखती हैं, ननद में बहन का।
फिर भी जिस आँगन में उसका बचपन बीता, उसे कैसे बिसार दे?
मायके की चैखट की याद आ ही जाती है। बिटिया याद करती है खेत को,
अमरूद के पेड़ की छाँव को। बेलपत्र की डाली और गुड़हल की लाली को। याद
करती हैं, चैखट को, खिड़की को, ड्योढ़ी को। उम्र के ढलान के साथ यादेें और गहरी होती जाती हैं। स्त्री मन
पूछती है-
बहुत पुकारता है मुझे / तेरा वो घर-आँगन / क्या अब भी तकते हैं राह /
मेरे लौट आने का?
कवयित्री प्रेम कविता भी रचती हैं। प्रेम बिना तो जीवन ही अधूरा है।
स्त्री प्रेम करती हैं, प्रेम सिखलाती हैं। प्रेम में कोई दिखावा
नहीं है। चाहे पुत्र के साथ का प्यार हो या फिर पति के साथ का प्रेम। नारी मन
पूछती है-‘तुम्हारे मन के किवाड़ पर दस्तक होती होगी ना’। सच में हर याद में पत्नी का आना लाज़िमी है, क्योंकि
वह पति में ऐसे जुड़ जाती हैं जैसे सब्जी से जुड़ता है गर्म-मसाला। इसलिए कवयित्री
चाहती हैं-
कि हाँ, अब सोचती हूँ / लौट भी आऊँ / कि इस बार
की सर्दी में बर्फ न बन जाये / हमारे रिश्तों की / गुनगुनी-सी गर्माहट।
मतलब, रिश्ते निभाने वाली होती हैं स्त्री! हर
रिश्ते में खुद को ढाल लेती हैं। वो नहीं चाहती प्रियतम से दूर होना, उनके बगैर एक पल भी रहना मुश्किल होता है प्रियतमा को। थकते पाँवों को
सहलाना चाहती है स्त्री, मन की पीड़ा को हरना चाहती है। वह
चाहती है कि बस आवाज दें ‘वो’।
हाँ, पुकार लेना मुझको / मैं आ जाऊँगी लौट कर
/ हाँ, बस एक बार पुकार लेना मुझको।
पौ फटने से पहले उठकर स्त्री समेटती हैं सारे काम। बिना थके ढलती हैं
सबकी जरूरतों में। बच्चों के लिए लंच तैयार करती हैं, पति को आॅफिस छोड़ने के लिए बालकोनी तक आती हैं, फिर
लौटने के इंतजार में खड़ी हो जाती हैं सज-धजकर और ताकती हैं घर की तरफ आती सड़क को।
स्त्री चाहती है कि वह साजन की ‘सजनी’ कहलाती
रहे, उनकी खातिर जूड़ा बाँधे, धुली साड़ी
पहने।
तुम्हारे सामीप्य को / समेट लेना चाहती है खुद में / तुम्हारी
प्रतीक्षारत आँखों में / खुद को विलीन कर / निहाल हो जाना चाहती है।
कवयित्री ने पुरुष के मन को भी टटोलने की भरसक कोशिश की है। एक पुरुष
चाहता है कि वो अपनी प्रियतमा को वो सारी खुशियाँ दे, जो वो चाहती हैं। पुरुष चाहता है अनकही ख्वाहिशों के अधूरे गीतों को पूरा
करना, इसलिए वो रोपना चाहता है अक्षर। ताकि, प्रियतमा सावन में झूले डालकर गा सके हरियाली गीत! महिला रचनाकार हमेशा
पुरुष को कटघरे में खड़ी करती हैं, लेकिन सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ जैसी रचनाकार पुरुष मन को टटोलती हैं। पुरुष
और महिला का साथ जब तक नहीं होगा, धरा पर मुश्किल है हँसी और
रौनक। पति और पत्नी का अटूट रिश्ता है। यह बंधन केवल एक जन्म भर का नहीं है।
कवयित्री ने पुरुष के मनोभाव को कुछ यूँ रखने की कोशिश की है-
हाँ, कि अब मैं / सोचता हूँ / कभी किसी क्षण /
बन ही जाऊँ कवि / और दोहों में टाँक दूँ / तुम्हारी उन्मुक्त हँसी / छंदों में
समेट लूँ / तुम्हारी अनकही / अनगिनत खुशी।
एक स्त्री की मौजूदगी कहाँ-कहाँ नहीं है? घर के हर कोने में स्त्री की मौजूदगी है। इसलिए प्रियतम कहते हैं कि जब
रूठ कर जाना, तो सभी चीजें लेकर चली जाना साथ, ताकि ये सारी चीजें याद न दिलाये। ले जाना वो गीतों के धुन। ले जाना खाने
का स्वाद। ले जाना अपनी खुशबू, जिससे महसूस करता था चाय सँग
अखबार की खबरों को पढ़ने में। कदमों की आहटें, जो गूँजती है
घर-आँगन में, उसे समेट लेना, ताकि
मौजूदगी सताये नहीं। हालाँकि पुरुष की कामना है-
सुनो या यूँ करना मुझे भी / समेट चल देना / तुम अपने ही सँग / जहाँ
कभी फिर जुदा / न हो पाएं हम-दोनों...
प्रेम का लिखना जरूरी है। जब पाँव थक जाये, मन बीमार पड़ जाये, तो प्रेम ही है, जो उत्साह भरता है जीवन में। जीवन में आशाओं का संचार करता है प्रेम।
कवयित्री का मानना है कि अभी विकट घड़ी है, रोज आशाएँ टूट
रहीं हैं। विश्वास का बिखरना जारी है, मृत्यु का तांडव शवाब
पर है। मौत की गिनती करते-करते देश थक सा गया है, आँखें
असहाय-सी हो गयी हंै। घनघोर अँधेरे को दूर करने के लिए दीपक जलाना ज़रूरी है। नफ़रत,
डर और विषाक्त वातावरण के बीच ज़रूरी है प्रेम उगाना, प्रेम बाँटना। कवयित्री की कलम प्रेम को रचती है, इसलिए
वो फेसबुक वाॅल पर प्रेम से पगी कविताएँ चिपकाती हैं। लिखती हैं-
जैसे छोटा बच्चा लड़कर, / हार कर,
गिरकर, थक कर / माँ के आँचल में आ ढूँढता है /
सुकून के क्षण / वैसे ही जब कभी तुम्हें / जरूरत हो / सुकून और शांति के पलों की /
तुम आ सको मेरी वाॅल पर / सुस्ताने कुछ क्षण।
कवयित्री बुद्ध होना चाहती हैं। वह बचपन, यौवन और बुढ़ापे के चक्र को समझना चाहती हैं। सत्य, अहिंसा,
शील और ज्ञान की असीमित बातों को जानना चाहती हैं। चाहती हैं
जन्म-मृत्यु के रहस्यों की ज्ञानमयी बातें। लेकिन, उनसे
मोह-माया की जंजीरें टूट नहीं पाती। सांसारिक मृगतृष्णा आकर्षित करती है। यह
प्रतीकात्मक कविता है। ऐसा ही तो अब हो रहा है समाज में? हम
चाहते हैं बदलाव, लेकिन खुद को बदल पाने में कमज़ोर हैं।
मनुष्य चाहता है कि सच का वातावरण हो, लेकिन उसे सच कहने से
संकोच है। हद है मनुष्य की सोच! हम जो सोचते हैं, उसे मूर्त
रूप देने में पीछे क्यों हट जाते हैं। माना सांसारिक सुखों से ऊबकर मन वितृष्णा से
भर उठता है, मगर कमजोर मन क्षणिक सुखों के पीछे ही चल पड़ता
है कदम-दर-कदम। मनुष्य के मिजाज को इन कविताओं से जाना जा सकता है कि उसकी चाहतें
ब्रह्म साधना की है, मगर सांसारिक सुख को भी छोड़ना नहीं
चाहता। कवयित्री चंचल मन को लौट आने को कहती है। मन को माया में ज्ञान, संबंधों में विराग, ममता में अनुराग, गति में एकाग्रता, अंधकार में प्रकाश, मिथ्या में जगत, मृत्यु में नव अंकुरण, गृहस्थी में ईश्वर, नफरत में प्रेम और ईर्ष्या में
स्नेह ढूँढने का अनुरोध करती हैं और कहती हैं-
इसलिए लौट आओ / बाह्य प्रकाश से आत्म प्रकाश की ओर / क्योंकि भागना
मुक्ति नहीं है / ठहरना और गति में स्थिरता / ढूँढना ही मोक्ष है।
क्या हो गया है समाज को? कहाँ खो
गयी है इंसानियत? समाज में हैवानों का बोल-बाला हो गया है।
बलात्कार जैसी घटनाएँ आम हो गयी हैं। नन्ही चिड़िया को बाज हर पल दबोच लेना चाहता
है? उसके पर को कुतरना चाहता है? करना
चाहता है उसे लहूलुहान? कवयित्री ने बलात्कार पीड़ित बच्ची के
पिता के दर्द को समेटने की कोशिश की है। वैसे पिता को यह दर्द देखना न पड़े काश! एक
पिता को कितनी तकलीफ होती है, जब फूल-सी बच्ची को गुमसुम
देखता है, जिसकी चंचलता से आँगन गुलज़ार था कभी। पिता के लिए
यह वज्रपात से कम नहीं है। वह पुत्री को देखकर सिहर उठता है। वह बाँध लेता है
मुट्ठी कसकर। पिता के ओंठ कंपकंपाने लगते हैं। फूल सी बच्ची कई रात तक चिल्लाती है,
चीखती है। तब पिता की चाहत रहती है कि उसकी बच्ची फिर से खिलखिलाये,
फिर से गुनगुनाये। फिर से खेले-कूदे। पिता की चाहत-
मैं भाग जाना चाहता हूँ / छुपा कर / अपनी नन्ही-सी गुड़िया को / जमाने
की आँखों से दूर / हर होठों की सीमा से दूर / हर कटाक्षों की परिधि से दूर / हर
स्मृतियों से दूर।
कवयित्री को भरोसा है लेखनी
पर। वो कविता को तैयार रहने को कहती है, ताकि
विचारों की क्रांति आ पाये, सूखे ओंठों पर खुशियाँ लौट आयें।
इसलिए कवयित्री कहती हैं-
बस, मुझे तुम्हारा साथ चाहिए / पन्नों में
नया इतिहास चाहिए / बदलाव की बयार चाहिए / अब तो बोलो कविता / क्या तुम तैयार
हो...???
आये दिन अखबारों में खबरें छपती हैं कि झाड़ियों में कपड़े में लिपटा
मिला नवजात का अल्पविकसित शरीर! नवजात के शव को कुत्ते ने नोच खाया। हम कहाँ
उद्वेलित हो पाते हैं? घंटे-दो घंटे हम बस चर्चाएँ करते हैं,
फिर अपनी दुनिया में मस्त हो जाते हैं। कवयित्री को ऐसी घटनाओं ने
सोचने को विवश किया। आखिर माँ जो ठहरी! कैसे उद्वेलित नहीं होती? उस नवजात का क्या दोष? अभी तो साँस ही लेना सीख रहा
था? जी-भरकर आँखें भी कहाँ खुल पायी थी और उसे सुला दिया गया
मौत की नींद। इस पूरे घटनाक्रम में ‘माँ’ की भी भूमिका संदिग्ध है। आखिर कैसे उसने इजाज़त दे दी नवजात को फेंक देने
की? ‘नवजात’ की पुकार’ को कविता का विषय बनाते हुए कवयित्री लिखती हैं कि तेरे ही गर्भनाल से
जुड़ा था, तेरे ही रक्त से सिंचित था, फिर
भी तेरी प्रेम की कलियाँ क्यों अविकसित रह गयी माँ? नवजात की
अंतर्वेदना-
पता नहीं कैसी होती होगी- / माँ की ममता भरी गोद? /
पर बहुत ही चुभ रही है, / धरती माँ की सख्त-सी
गोद।
कितनी अजीब इच्छाएँ पाल रखी हैं कवयित्री ने। वो चाहती हैं कि जिंदगी
में केवल प्रकाश ही प्रकाश हो, इसलिए चाहत है कि
सूरज अपनी रोशनी की चादर को लंबी कर दे और रात की गहरी कालिमा को उजाले से भर दे।
वो चाहती हैं कि कोई प्यासा न रहे धरती पर, इसलिए चाहत है कि
बादल ढेर सारा पानी धरती मैया पर उडेल दे। वो चाहती हैं कि कंपकंपाती रातें किसी
की जान न ले, इसलिए चाहत है कि ठिठुरती रातें अपनी सर्द
हवाओं को गर्म खूँटे से बाँध ले। काश! पूरी हो जाये कवयित्री की चाहत। देखिए,
कवयित्री की चाहत-
हाँ, मेरी तमाम जीवित / इच्छाओं के बीच ये भी
है / कि इसे मैं होते हुए / देखना चाहती हूँ।
लाॅक डाउन ने कई की जिंदगी तबाह कर दी। रोज़ी-रोज़गार का संकट गहराया।
कई रातों की नींद खोकर मजदूर पैदल ही चल पड़े अपने गाँव की ओर, अपनी मड़ई में सुकून तलाशने। बहुतेरे ऐसे अभागे रहें, जो अपनी मड़ई तक नहीं पहुँच पाये सही-सलामत। रेल पटरी और सड़क उनकी मौत की
वजह बनी। अभागे लोग गाँव नहीं पहुँचे, बल्कि पहुँची उनकी मौत
की खबर! आखिरकार कौन जवाबदेह है? लाॅक डाउन में घर आने के
दरम्यान मजदूरों की मौतें हुईं, कितना ख़ौफ़नाक मंज़र रहा होगा?
सड़कों पर या फिर रेल पटरियों पर बिखरे पड़े सामान, सत्तु की पोटली, रोटी के टुकड़े व्यवस्था पर तमाचा
मारने को काफी था। कवयित्री लिखती हैं-
हाँ, सिसक रही हैं रोटियाँ / क्योंकि वो जानती
हैं / इन मज़दूरों की नज़र में / अपनी इज़्जत / रोटियाँ जानती हैं उन्हें पाने के
लिए / मज़दूरों की अथक मेहनत / रोटियाँ पहचानती हैं अपने प्रेमी को / आज सच में
विधवा / हो गयी रोटियाँ / पर, इनकी सुबकियाँ की गूँज दूर तक
/ पीछा करती रहेंगी / मेरा, तुम्हारा / हम सभी का।
मज़दूर विषय पर कविताएँ लिखी जाती रही हैं, लेकिन हक़ीकत़ है कि आज भी मज़दूर ‘मजबूर’ हैं। धरती पर खुशियाली लाने के लिए मज़दूर अपनी खुशियाँ बेचते हैं और अपनी
नींद। धरती के आँचल पर जो हरे, लाल, पीले
पेड़-पौधों के गोटे हैं, उन्हें मज़दूर ही टाँकते हैं। मजदूर
पहाड़ का सीना नाप सकते हैं, नदियों को मोड़ सकते हैं खेत की
ओर। सच कहती हैं कवयित्री-
सुनो! / यह जो तुम कहते हो / कि धरती घूमती रहती है / दरअसल मैं ही
धरती को / अपने कँधे पर रख / लगाता हूँ / रोज एक चक्कर।
सेल्समैन लंबी कविता है। सेल्समैन की जिंदगी को कवयित्री ने झाँककर
एक बेहतरीन कविता रची है। एक सेल्समैन क्या-क्या नहीं झेलता, वह उम्मीद की गठरी को पीठ पर लादकर दरवाजे-दरवाजे जाता है, यह सोचकर कि किस्मत बदलेगी? वह जानता है कि दरवाजे़
खुलेंगे, बंद होंगे। वह मायूस होगा, लेकिन
उसकी उम्मीदें नहीं टूटेंगी। सेल्समैन की शाम उदासी में गुज़र जाती है। बेचारा
सेल्समैन, बच्चों की माँग को भी कहाँ पूरा कर पाता है?
कहाँ ला पाता है कंबल? कहाँ जुटा पाता है
पत्नी की हँसी? पत्नी को इंतज़ार रहता है, बच्चे टकटकी लगाये रहते हैं, मगर हँसी तो चाँद पर
है! आखिरकार, थका-मारा सेल्समैन मौत से उम्मीद लगा लेता है
कि हो जायेगा इक दिन इस सफर के भी सफर का अंत।
और मै / अपनी पीठ पर बैताल-सा सवार / अपने सेल्सबैग को उतार / लूँगा
एक गहरी लम्बी नींद / कि सच में अब सो जाना चाहता हूँ / इस शरीर की परिधि से अलग
एक सुकून की नींद...।
हाँ, एक बार फिर आई थी गौरैया, देखने आसमान छूते विशाल से अपार्टमेंट को, पर नहीं
दिखा उसे उसके हिस्से का आकाश। वो डर गई, फिर कभी नहीं आई
मिलने मुझसे मेरी गौरैया। यह दर्द भरी पंक्ति है। यह दर्द केवल कवयित्री का ही
नहीं है। हर संजीदा इंसान डरा-सहमा सा है। इंसानी मिजाज से सृष्टि दुबक गयी है।
फूलों से भरी लताएँ मुरझा गयीं हैं। रेत और धुएँ की उमस से नदी पथरीली हो गयी है,
जो बुझाया करती थी कभी पथिक की प्यास। हरियाली क्यारियों में मनुष्य
ने कंक्रीटों का बाज़ार सजा लिया है। तरक्की के फेर में अपनी हदें भूल रहा है
इंसान। कवयित्री ने सच लिखा-
तरक्की का मुखौटा ओढ़े / झुंड के झुंड मनुष्य / किसी न किसी की पीठ पर
चढ़े / खींच रहे हैं दूसरे के हिस्से के / आसमान को।
पतित पावन गंगा / अपनी पवित्रता के किस्से / अपने आँचल में समाए कीचड़
को /सुना रही थी।
कविता गढ़ना इतना आसान नहीं है। कविता यूँ नहीं जनमती, यूँ ही नहीं फलती-फुलती, उसे सींचना पड़ता है। कविता
का जन्म लेना किसी गर्भ पीड़ा से कम नहीं है। कविता विपरीत स्थितियों में भी शब्द
ढूँढ लेती है। शब्दों से कविताएँ आकार पाती हैं। आकार पायी कविताएँ राह सुझाती है।
वह चाहती है कि समाज को सही राह मिले, अशांत और एकांत हृदय
को शांति। सच है कवयित्री की यह पंक्ति-
ढूँढती रहती है कविता / अक्सर कोई ऐसा आसरा / जहाँ उसे सँवारा जाए, /
उसे पढ़ा जाए और गहन वेदना में / डूबे उसके शब्दों को / महसूस किया
जाए।
सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ समाज
शास्त्र से स्नातकोत्तर हैं। मतलब, मानव समाज का अध्ययन कर
चुकी हैं। ऐसे में सामाजिक समस्याओं को प्रमुखता से उठाना कवयित्री का धर्म था,
जिसका निर्वहण कवयित्री द्वारा किया गया है। यह वही समाज है,
जहाँ एक ओर नारी को पूजनीय माना गया है, तो
दूसरी ओर बलात्कार-दहेज हत्या का दंश नारियों को झेलना पड़ रहा है। यह वही समाज है,
जहाँ सूर्य की रोशनी के बाद भी अँधेरा है। यह वही समाज है, जहाँ विकास हो रहा है, लेकिन गौरैया से उसका घर छिना
जा रहा है। माना समाज में द्वेष है, भेदभाव है, आकाश छिनने की आपाधापी है, मगर सत्या की कलम को आज
भी उम्मीद है-
चलो भरते हैं हम भी / अपने तिक्ततम समाज में / मिठासयुक्त मधुर भाव।
आगे-
शायद एक बार पुनः / विलुप्त हो गयी सरस्वती / बहने लगेगी हमारे दिलों
में / और सिंचित कर देगी / मन के उस मरुस्थल को / जहाँ मनुष्यता के बीज अंकुरित हो
/करेंगे श्रृंगार / अपनी धरती के हर एक कोने का।
कृति: तीस पार की नदियाँ
कृतिकार: सत्या शर्मा ‘कीर्ति’, झारखंड, रांची,
मो. 7717765690
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर,
पृष्ठ: 156
मू: 150/-
समी. मुकेश कुमार सिन्हा, कोयली पोखर, गया (बिहार)
मो. 9304632536