पापा, आप-सा कोई नहीं
संस्मरण :
प्रिय पापा,
आज आपको पत्र लिखते हुए
एक सवाल जो मन में तीर की तरह चुभ रहा है, संतानें
माता-पिता के जीते जी उनके प्रति अपने प्रेम को शब्दों में व्यक्त क्यों नहीं कर
पाते? मैंने आपको बेइंतहा चाहा, पापा।
काश! आप के रहते मैं कभी कह पाती, ‘पापा आप सा कोई नहीं!’
आप न केवल अपने व्यवहार से बल्कि शब्दों से भी हम संतानों के प्रति
अपना प्यार जताते रहे। आप हमारी शक्ति के स्त्रोत बने रहे, हमारे
विश्वास को बल देते रहे। हमारे सफल जीवन की कामना करते रहे। हम चार भाई-बहनों में
से शायद ही कोई आप से यह कह पाया कि हम भी आप से उतना ही प्यार करते हैं, जितना आप हमसे करते हैं! आज जब मेरे जीवन में आपकी भूमिका के बारे में
सोचती हूँ, तो मुझे लगता है कि मुझे आपको हर पल धन्यवाद देना
चाहिए था। आपने हमारी खुशियों की खातिर अपना जीवन न्योछावर किया। हर परिस्थिति में
हमारा मनोबल बढ़ाते हुए, हमारे साथ चलते रहे। क्या लिखूं,
क्या याद करूँ पापा? ऐसा कहा जाता है कि लगभग
चार वर्ष की आयु से, बच्चों के मन में घटनाएँ अंकित होने
लगती हैं। मुझे लगता है, तीन वर्ष की आयु से ही मेरे स्मृति
पटल पर यादें अंकित होनी शुरू हो गई थीं। शुरू में धुंधली हो सकती हैं, पर फिर स्पष्ट रूप से अंकित होने लगी थीं।
देश विभाजन के
परिणामस्वरूप, आपकी जन्मभूमि पूर्वी बंगाल, पाकिस्तान के हिस्से में चला गया और आपको किशोरावस्था में ही अपनी
जन्मभूमि छोड़कर हिन्दुस्तान के पश्चिम बंगाल में आना पड़ा। पश्चिम रेलवे के बड़ौदा
डिवीजन में नौकरी पाने के बाद आप पश्चिम बंगाल से गुजरात (तब बॉम्बे स्टेट) आए।
माँ का परिवार भी पूर्वी बंगाल से आया था,
लेकिन माँ मैमनसिंह जिले के रायजान गाँव के ज़मींदार की बेटी थीं।
माँ की परवरिश आलिशान ढंग से हुई थी। ताऊजी और नानी माँ के परिवार को जानने वाले
एक गृहस्थ ही आपके लिए यह रिश्ता लेकर नानी माँ के पास पहुँचे थे। उन्होंने कहा था,
‘लड़का मेट्रिक पास है, बॉम्बे स्टेट के रेलवे
विभाग में काम करता है, सुशील है और सुन्दर भी है, बस रंग
थोडा साँवला है। उसे कोई दहेज नहीं चाहिए।’ शादी के बाद माँ
भी यहाँ आई थीं। ये सारी बातें मैंने नानी माँ से, माँ से और
आपसे ही सुनी थीं।
जो घटनाएँ मन पर गहरा असर
छोड़ती हैं, उन्हें भुलाया नहीं जाता, पापा! आपकी यादों से जुड़ी कई घटनाएँ आज भी स्मृति पटल पर ठीक वैसे ही
अंकित है, जैसे घटी थीं। आपसे जुड़ी मेरी यादें गुजरात के
छोटा उदयपुर जिले के ‘तेजगढ़’ गाँव से
शुरू होती हैं। वह छोटा गाँव जहाँ आदिवासी आबादी बड़ी संख्या में थी। वह छोटा सा
रेलवे स्टेशन, जहाँ आपकी पोस्टिंग थी। बड़ौदा-छोटा उदयपुर,
नैरोगेज रेलवे लाइन पर, एक ट्रेन सुबह बड़ौदा
से छोटा उदयपुर तक आती थी और शाम को वही ट्रेन बड़ौदा लौट जाती। रेलवे कवार्टर से
स्टेशन कुछ ही दूरी पर था। मेरी उम्र तीन-साढ़े तीन साल होगी। शायद आप मुझे यही
सोचकर अपने साथ स्टेशन ले जाते कि माँ को थोड़ा आराम मिलेगा। मैं स्टेशन के बाहर
खुली जगह में खेलती रहती। ट्रेन के समय के अलावा वहाँ कोई भी इन्सान न दीखता। कभी
आप एक छोटी सी मशीन पर टक टक आवाज करते, मुझे गोदमें उठाकर
वो आवाज भी सुनाते। मेरी समझ में कुछ न आता। उस समय मुझे कहाँ पता था कि रेलवे
विभाग में बात करने का माध्यम टेलिग्राफ था! माँ के लिए आपका प्यार भी अपने आप में
एक मिसाल था, पापा। नौकरी के साथ-साथ आप घर के कामों में भी
माँ की मदद करते।
मुझे याद है,
23 मार्च 1963 को, जब
मैं सिर्फ साढ़े छह वर्ष की थी, घर पर ही मेरे छोटे भाई का
जन्म हुआ था। हम तीन भाई-बहन बड़े खुश थे। एक सप्ताह ही हुआ था कि मुझे तेज बुखार
हो गया। शुष्क कफ के साथ सिरदर्द और समस्या हुई, फिर पूरे
शरीर में लाल पानी से भरे दाने उभर आए। आपने डभोई स्थित रेलवे विभाग के हॉस्पिटल
से डॉ. दास को बुलाया, जो आपके करीबी दोस्त भी थे। मेरी जाँच
करते हुए, दास अंकल ने कहा कि मुझे चिकन-पॉक्स का प्रकोप है।
उन्होंने आपको हिदायत दी कि घर में नवजात शिशु भी है, बच्ची
को घर के अन्य लोगों से दूर रखें। ध्यान रखें, बच्ची इन
फोड़ों को खरोंचे नहीं, वरना ये अधिक फैल सकते हैं। दर्द बढ़
सकता है।
रेलवे क्वार्टर में केवल
दो कमरे थे। एक कमरे में, नवजात भाई के साथ माँ का बिछौना था,
दूसरे कमरे में मेरा बिछौना एक चौकी पर लगाया गया था। माँ मेरे पास
बिलकुल नहीं आ सकती थी। आपके सर पर दोहरी जिम्मेदारी थी पापा! हम सबके लिए खाना
बनाना, हम तीनों भाई-बहनों का ख्याल रखना, जिनमें मैं एक ऐसी मरीज थी कि कोई भी मेरे पास नहीं आ सकता। गाँव के लोग
बहुत मिलनसार थे। उन्होंने मदद की। मेरे बिस्तर के चारों ओर रखने के लिए वे नीम की
नाजुक टहनियाँ ले आए। बिस्तर के नीचे भी नीम की पत्तियाँ बिछा दी गई। मेरे पूरे
शरीर पर फफोले पड़ गए थे। डॉक्टर अंकल के आदेशों का पालन करते हुए, आपने मेरी दोनों हथेलियों को सफेद मुलायम कपडे में लपेटकर, उन्हें हलके से बाँध दिया था ताकि मैं फोड़ों को खरोंच न सकूँ। तेज खुजली
आती। मैं रातभर चिल्लाती रहती और खांसती रहती।
आज याद करती हूँ तो मेरी आँखे छलकने लगती है, पापा। आप कितने स्नेह से ‘आमार सोना मेये’ (मेरी प्यारी बिटिया) संबोधित करते हुए नीम की नाजुक टहनियों से बनाये गये गुच्छे से मेरे शरीर को सहलाते रहते ताकि मुझे आराम मिले। गाँव में बिजली भी तो नहीं थी। रात भर मेरे सिरहाने बैठे, हाथ पंखा झेलते रहते कि मुझे गरमी न लगे। मुझे ये भी समझाते रहते कि फफोलों को खरोंचने से दर्द और भी बढ़ सकता है। आपके धैर्य की मिसाल नहीं पापा! करीब इक्कीस दिनों के बाद, पानी में नीम की पत्तों को उबालकर, उस पानी से मुझे नहलाया गया। फिर घर पर ही नाई को बुलाकर, पिछले आँगन में खड़े जुड़वाँ आम्रवृक्षों के तले बिठाकर मेरे बाल मुंडवाए गए।
हमारे मुर्गे मोती को
कैसे भूल सकती हूँ, पापा! हमें ताजा अंडे मिल सकें, इसलिए आपने कुछ मुर्गियाँ पाल रखी थीं। एक रंगबिरंगी पंखोवाला निहायत
खूबसूरत मुर्गा, ‘मोती’ मेरा पक्का
दोस्त था। स्कूल से आते ही मैं उसे गोद में उठा लेती। देर तक उसके सिर को सहलाती
और वो आँखें मूंदे चुपचाप बैठा रहता। एक बार स्कूल में समर वेकेशन के चलते,
आपके दोस्त शैलेन चौधरी अंकल सपरिवार हमारे मेहमान बने। मोती को
देखते ही वे आपसे बोले, ‘अरे भौमिक, यह
मुर्गा तो बड़ा सुन्दर है और तगड़ा भी है। क्यों न आज शाम इसकी मिजबानी की जाए?’
मैं पास ही में खेल रही थी। सुनकर मेरा दिल कितनी जोर से धड़क उठा था,
पापा! उसी पल आपने मेरी ओर देखा था, आपकी
निगाहों में मुझे एक भरोसा दिखाई दिया था। आप जानते थे कि मुझे मोती से बेहद लगाव
है। आपने अंकल को कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मोती के कत्ल होने के डर से मेरा मन
छटपटा रहा था। मैंने पेट दर्द का बहाना बनाया। सारा दिन सोई रही। आप पर मुझे पूरा
भरोसा था, लेकिन अंकल पर जरा भी नहीं था। जैसे जैसे दिन ढलने
लगा, मेरे मन को गहरे विषाद ने घेर लिया।
मोती को बचाने के लिए मैं
जोर-जोर से रोने लगी। माँ बहुत गभरा गई, लेकिन आप
समझ गए थे। आपने मेरे सिर पर हाथ रखा, प्यार से पूछा, 'बताओ क्या हुआ, बेटा।' मेरी हिचकी के बीच से निकलने वाली आवाज थी, 'मोती ...' बाकी शब्द गले में अटक गए थे। आपके वो शब्द अभी भी मेरे कानों में
गूंजते हैं पापा, ‘अरे! तुमि आमार सोना मेये, आमि आछी तो। किछु होबेना, मोती तोमारइ थाकबे।’
(मेरी प्यारी बिटिया, मैं हूँ ना! मोती को कुछ
न होगा, वह तुम्हारा ही रहेगा।) मैं चुप हो गई। सोने का अभिनय करने लगी। चौधरी
अंकल को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई। वे बोले, ‘तुमने बच्ची
को लाड़ प्यार से बिगाड़ा है।’ आप चुप रहे।
मुझे नींद नहीं आ रही थी।
मैं सोने का नाटक कर रही थी। घर के बाकी लोग बातें कर रहे थे, करीब आधे घंटे बाद मुझे अंकल की आवाज सुनाई दी, ‘भौमिक,
अब तेरी बेटी सो गई है, क्यों न इस मौके का
फायदा उठाया जाए?’ मेरी उम्र इतनी छोटी थी कि विरोध जताने की
मेरी क्षमता न के बराबर थी। आपका जवाब सुनने को मन अधीर हो उठा। आपने कहा,
‘शैलेन, मैं अपनी बेटी को दुखी नहीं देख सकता।
वह सो गई है तो क्या हुआ, सुबह आँख खुलते ही वह मोती को
ढूंढेगी। बुरा मत मानना दोस्त, मैं कतई तुम्हारी बात नहीं
मान सकता। मैंने उसे वचन दिया है।’ न जाने फिर भी मैं कितनी
देर तक जागती रही! पौ फटने से पहले ही मोती की बांग सुनाई दी, मैं दौड़कर उसके पास पहुँच गई। आपने अपना वायदा निभाया था, पापा। आप मेरे हीरो बन गए।
आपने परोक्ष रूप से
नीतिमत्ता के सारे पाठ भी हमें बचपन में ही पढ़ाए। तेजगढ़ में ही, आपने स्टेशन मास्टर प्राणलाल जोशी की चोरी पकड़ी थी और उनकी शिकायत रेलवे
प्राधिकरण को भेजने की पूरी तैयारी कर ली। मुझे नहीं पता था कि चोरी क्या थी,
लेकिन जोशी अंकल इतना डर गए थे कि उन्होंने अपनी पत्नी के साथ
आत्महत्या करने की योजना बनाई। मुझे अच्छी तरह से याद है जब पोर्टर ने आकर आपको
सूचित किया कि जोशी साहब और उनकी पत्नी कटोरे में जहर लेकर बैठे हैं, आप और माँ लगभग दौड़ते हुए उनके घर पहुँचे और उन्हें जहर खाने से रोका।
आपके सामने दोनों बहुत रोए थे और बच्चों की कसम खाकर इस बार के लिए उन्हें माफ
करने का अनुरोध भी किया था। जोशी अंकल ने यह भी कहा था कि वे अपनी गलती कभी नहीं
दोहराएंगे। उनके किशोरवय के दोनों बेटों के बारे में सोचते हुए, आपने उन्हें माफ कर दिया था पापा। ‘चोरी’, ‘जिंदगी’, ‘मौत’, ‘आत्महत्या’,
‘कसम’, ‘माफी’ इन शब्दों
का अर्थ कहाँ पता था? आपकी और माँ की बातों से जितना पता चला
था, आप मेरे आदर्श बन गए थे।
मैं कैसे भूल सकती हूँ, आपने ही मुझे साहित्य-जगत से जोड़ा है! माँ अपने विवाह में उपहार के रूप
में मिली सारी किताबें अपने साथ लाई थीं। जब मैं आपसे बांग्ला सीख रही थी, तो आपने सबसे पहले मुझे कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलवाया। उनके
काव्य-संग्रह ‘संचयिता‘ में से आप
कितनी कविताएँ मुझे गाकर सुनाईं, कविता के अर्थ भी बताये।
भारतीय समाज में प्रचलित कुप्रथाओं पर प्रहार करती कविता, ‘माँ
केंदे कॉय, मंजुलि मोर ओई तो कोचि मेये।‘ आज तक याद है। मेरी हिन्दी लेखन यात्रा भी कविगुरु की कविता ‘सागर संगमेर मेला‘ के हिन्दी अनुवाद से हुई! आप चाहे
हमें अधिक भौतिक सुख-सुविधा न दे पाए, लेकिन हमें अपने
जीवनानुभवों के माध्यम से, साहित्य के माध्यम से मानव धर्म
का पालन करने की नैतिक शिक्षा दी।
1972-73
में रेलवे क्वार्टर न मिलने के कारण, हम बारेजड़ी गाँव में
पेपर मिल के क्वार्टर में रह रहे थे। बारिश के मौसम में, गाँव
का तालाब भारी बारिश के कारण फट गया था और हमारा इलाका तालाब के लेवल से कहीं नीचा
होने के कारण जलमग्न हो गया था। क्वार्टर्स की 3 सीढ़ियां तक
डूब गई थी! अलसुबह सभी को अपना क्वार्टर छोड़कर आश्रय के लिए पेपर मिल के मालिक के
बंगले में जाना पड़ा। जल स्तर और बढ़ने की संभावना थी। उस दिन को कैसे भूल सकती हूँ
पापा कि सारा इलाका एक बड़े तालाब में तब्दील हो गया था, फिर
भी आप घर पर ही रुके रहे थे! आपने कहा था, ‘मुझे हमारी बकरी
और उसके दो बच्चों का ध्यान रखना पड़ेगा। मुझे तैरना आता है, इसलिए
चिंता की कोई बात नहीं है।’ आपने उन्हें रसोईघर में रखकर,
पुराने कपड़ों को लगाकर दरवाजे को कस कर बंद कर दिया ताकि पानी
रसोईघर में प्रवेश न करे। उन निरीह प्राणियों की जान की खातिर आप दिन-रात वहीं
रुके रहे। जल स्तर में वृद्धि के कारण, घर के भीतर भी पानी
एक फुट की ऊँचाई तक घुस गया था, लेकिन हमारी बकरियों को आपने
सुरक्षित रखा।
अहमदाबाद की भवन्स कॉलेज
से बी.ए. करने के बाद जब मैंने एम. ए. करना चाहा, तब इतने
आर्थिक संकट के चलते भी आपने मुझे आगे पढ़ने की अनुमति दी। आप कितने खुश हुए थे
पापा, गुजराती मीडियम की स्नातक होते हुए भी मैंने अंग्रेजी
माध्यम से अर्थशास्त्र में एम.ए. किया, वह भी स्कूल मेरिट
स्कॉलरशिप के साथ! सिर्फ पढ़ाई में ही नहीं, आपने हमारी दूसरी
खुशियों का भी कितना खयाल रखा! अहमदाबाद के सरदार पटेल स्टेडियम, नवरंगपुरा में ‘रफी नाइट’ का
आयोजन किया गया था, जब मेरी एम.ए. पार्ट 2 की परीक्षा चल रही थी। अंतिम पेपर दो दिन बाद दिया जाना था। मैंने दो
सहेलियों के साथ इस कार्यक्रम देखने की योजना बनाई और डरते हुए आपसे पूछा। आप मेरी
फाइनल एग्जाम को लेकर चिंतित थे लेकिन जैसे ही मैंने कहा, ‘पापा
मैं आपसे वादा करती हूँ कि मैं परीक्षा में भी अच्छा ही करूंगी।’ आप तुरंत मान गए। आपने टिकट का दाम पूछा। स्टेडियम की गैलेरी में बैठने का
टिकट रु. 15 का था, लेकिन हमें
ग्राउन्ड में बिछी कुर्सियों पर बैठना था ताकि हम रफी साहब को करीब से देख सकें।
उस सीट का टिकट रु. 30 का था। उस जमाने में यह बड़ी रकम थी,
फिर भी आपने मुझे रु. 50 दिए। आपने मेरे बहुत
पसंदीदा गायक रफी साहब को सुनने का मौका दिया। मैं अपने जीवन की इन अनमोल घड़ियों को आज तक नहीं भूल पाई हूँ।
एक और बात का जिक्र करना
भी उतना ही जरूरी है, पापा। मैंने आपसे वादा किया था कि मैं
परीक्षा में भी अच्छा करुँगी, लेकिन रातभर रफी साहब का
कार्यक्रम देखने के बाद परीक्षा के लिए एक ही दिन मिला था। मैं देर रात तक पढ़ती
रही। बारेजड़ी रेलवे स्टेशन से पौने पाँच बजे की ट्रेन से अहमदाबाद जाना था। भोर
पौने चार बजे का अलार्म सेट किया गया। एलार्म बजते ही मैंने उठना चाहा, पर ये क्या? पल में ही मैं बिस्तर पर गिर पड़ी। मेरे
सिरमें कुछ धूमता-सा लग रहा था। एक बार और उठने की कोशिश की, पर सफलता न मिली। माँ के साथ आप भी जाग गए थे। गाँव के डॉक्टर को बुलाया
गया। उन्होंने दवाइयाँ, इंजेक्शन दिए। परीक्षा ग्यारह बजे
शुरू होने वाली थी। थोडा ठीक लग रहा था। नौ बजे की लोकल ट्रेन से आप भी मेरे साथ
हो लिए। परीक्षा हॉल के बाहर, एक पेड़ के नीचे तीन घंटे तक
खड़े रहकर, हॉल की खिड़की से मुझे देखते रहे कि मैं ठीक तो
हूँ! एक बार भी मुझे यह नहीं कहा कि मुझे ‘रफी नाइट’ नहीं देखना चाहिए था!
हमारे पास जीवन की हर
कठिन परिस्थिति से लड़ने की शक्ति हो, इसीलिए
आप हमें अच्छी शिक्षा देना चाहते थे। आप ही ने मुझे बताया था कि चूल्हे के धुएं के
कारण आपकी दादी की आँखें चली गई थीं क्योंकि विधवा दादी के लिए बने अलग रसोईघर में
एक खिड़की भी नहीं थी! आप बेटों के साथ बेटियों को भी खुशहाल जिंदगी देना चाहते थे।
जब भी माँ मुझे डाँटती कि मैं घर का काम नहीं सीख रही हूँ, तो
आप माँ को भी प्यार से समझा देते कि जब शादी होगी और ससुराल जाएगी, तो सारे काम खुद ही सीख जाएगी, अब बेटियों की पढ़ने
की उम्र है, उन्हें पढ़ने दो।
क्या लिखूं, कितना लिखूं पापा? आप की यादों से जुड़ी असंख्या
घटनाएँ हैं, जो मुझे आपसे एक अनोखे बंधन में जोड़ती है। पिता
के साथ बेटी का रिश्ता, स्नेह का रिश्ता। आप कुछ अलग ही
मिट्टी के बने थे। आपने स्वयं अपार कठिनाइयों का सामना किया। संघर्षपूर्ण जीवन
जीते हुए भी हमें एक अच्छी जिंदगी देने की चाह रखी। देश विभाजन की त्रासदी को सहकर
भी अपने जीवन को बचाए रखने में कामयाब रहे। हमें भी इस काबिल बनाया कि हम अपने
जीवन में सफलता हासिल कर सकें। आप एक योद्धा थे जिन्हें असामयिक मृत्यु ने हरा
दिया। जो कार्य आप खुद नहीं कर पाए, उसे अगली पीढ़ी के लिए
छोड़ गए। आज मुझे कहने दीजिए-
दौलत भी है, शोहरत भी है, पर वो मीठे बोल कहाँ है,
पापा तुमसे बढ़कर जग में
एक रतन अनमोल कहाँ है!
आप सुन रहे हैं न, पापा? मेरा यह पत्र आप तक अवश्य पहुँचेगा। आप
मुस्कुराते हुए बोल उठेंगे, ‘आमार सोना मेये...केमोन आछो?’