बदल गया मौसम

रीयुनियन का आज तीसरा दिन था। सभी दोस्त बचपन, स्कूल, कॉलेज की मस्ती को याद करके कभी जोरदार ठाहके लगा रहे थे, कभी किसी एक को पकड़ कर उसकी जमकर खिंचाई की जा रही थी, कभी किसी टीचर की नकल निकाल रहे थे, कभी चने वाली चाची की लारी पर लिए गए चटकारों को याद कर रहे थे,यादों में कभी झूले थे, कभी चाट, कभी शरारतें, कभी टिफिन की बातें,कभी नकल की यादें तो कभी किताबों में गुलाब छुपाने और लाइन मारने के खत्म न होने वाले मजेदार किस्से....।

बचपन भले ही कभी लौटकर नहीं आता पर बचपन की मस्ती कभी भूलाये भी नहीं भूलती। उम्र चाहे जो भी है जाए पर दिल का एक कौना हमेशा बचपन के नाम सुरक्षित रहता है, मन का बच्चा हमेशा बचपन के दरवाजे पर ही खड़ा रहता है और मौका मिलते ही छुप जाता है उसके पीछे जहां चिंता मुक्त जीवन उसका इंतजार कर रहा होता है। बचपन के खेल, मिट्टी के घर, मनभावन झूले, सपनों को सहलाता गुल्लक, कच्ची-पक्की अमिया, खट्टे- मीठे बेर और चटपटी पानीपुरी हर किसी के जहन में किसी न किसी रूप में होती हैं। पद, पैसा, रुतबा चाहे जो भी हो, शोहरत के चाहे जितने किले फतह कर लें, चेहरे पर चाहे जितनी झुर्रियां पड़ जाए, घूटनों में दर्द हो, दांत टूट जाएं, बालों में चांदी चमकने लगे पर दिल का बच्चा तो हमेशा अटकता रहता है बचपन की गलियों में.... बारिश के पानी और कागज की कश्ती में..... शायद इसीलिए  पहली बार आयोजित हमारे ग्रुप की रि युनियन में पैंतिस दोस्त शामिल हो गये । दूर-दूर रहने और वर्षों तक एक-दूसरे के संपर्क में न रहने के बावजूद सबको फेसबुक के माध्यम से ढ़ूढ निकाला गया था। जो लोग नहीं शामिल हो पाये उन्होंने भी लंबी-लंबी चिठ्ठियां भेजी थीं। बार-बार उनके मैसेज आ रहे थे, सबके फोटोग्राफ व्हाट्सएप पर मंगवाये जा रहे थे।

मस्ती का आलम ये था कि पिछली दो रातों में कोई सोया नहीं था। आज सभी बहुत थक गये थे। तय हुआ आज सभी सो जाते हैं और अगली दो रात फिर जागरण होगा। पांच दिनों के इस तय कार्यक्रम में सब आने वाली जिंदगी के लिए एनर्जी बटोर लेना चहाते थे।

लगभग सभी लोग अपने-अपने पार्टनर के साथ आये थे। नये लोग भी ग्रुप में यूं घुल-मिल गये थे मानो बरसों से जानते हो। वैसे जानते भी थे ....क्योंकि बरसों से साथ रहते हुए सभी ने अपने दोस्तों के बारे में अपने पार्टनर के साथ बहुत कुछ साझा किया था।

मैं अपने ग्रुप में सबसे पहले शादी होने वालोें में से थी। मैं इस री युनियन पार्टी में बिल्कुल भी आना नहीं चाहती थी लेकिन अपनी हमराज अनु की जिद के कारण आना पड़ा। ये संयोग ही था कि पिछले पंद्रह सालों से एक दिन भी पति संजय के बिना अकेले न रहने वाली मैं यहां अकेली आई थी।

रात के बारह बज रहे थे जब अनु मुझे कमरे में अकेला छोड़कर अपने कमरे में गई। सभी अपने-अपने कमरों में आराम कर रहे थे पर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी। मुझे रह रहकर खुद की सोच पर शर्मिन्दगी का अहसास हो रहा था। बीस साल का सुखमय शादी शुदा जीवन भी मेरे मन की चुभती हुई फांस को निकाल पाने में सक्षम नहीं हो सका। मैं आज भी वहीं अटकी थी जब मेरा रिश्ता संजय के साथ पक्का हुआ था।

तब मैनें हायर सेकेण्डरी की परिक्षा दी थी। अभी रिजल्ट भी नहीं आया था कि मामा मेरे लिए किसी का रिश्ता लेकर आये थे। वो कस्बेनुमा गांव आज जैसा विकसित नहीं था। कस्बे की गिनी-चुनी लड़कियां ही पास के शहर में पढ़ने के लिए कॉलेज जा पाती थी। इसलिए जब  शादी का रिश्ता लेकर मामा आये तो कोई आश्चर्य नहीं हुआ पर मेरे सपनों का महल तब चूर-चूर हो गया जब मुझे पता चला कि लड़का मुझसे दस साल बड़ा और दो लड़कियों का पिता है।

मामा ने बताया बहुत पैसे वाले हैं वे लोग, राज करेगी हमारी मोनिका, सास-ससुर, देवर-जेठ का कोई झमेला नहीं है। संजय का बड़ा एक्सपोर्ट-इंपोर्ट का बिजनेस है,  आलीशान बंगला-गाड़ी, नौकर-चाकर, गहनों से लाद देंगे इसे। दो बेटियां हैं जो थोड़े समय बाद शादी करके अपने घर चली जाएगी। मोनिका की शादी वहां हो गई तो बाकी तीन लड़कियों की शादी में आपको दान-दहेज की चिंता नहीं रहेगी। बहन-बहनोई सब देख लेंगे जीजाजी... पापा से कहते हुए मामा की आंखों की चमक देखने लायक थी।

जाने क्या सोचकर मम्मी-पापा ने भी हां कर दी। मुझसे पूछने की जरूरत तक नहीं समझी। दूजवर के पीछे बांधने से पहले कम से कम एक बार पूछ तो लेते। ऐसा कौनसा बोझ था जिससे हल्का करने की इतनी जल्दी थी मम्मी-पापा को.... बहुत रोई थी उस रात मैं.... पर रोने से कोई हल निकल सकता तो शायद दुनिया के हर दुख का हल निकलता पर ऐसा नहीं हुआ....।

मैं जानती थी मम्मी-पापा की मजबूरियां। बेटे के उम्मीद में एक के बाद एक बेटी .... इस तरह हम चार बहनें और सबसे छोटा भाई। भाई तो अभी सिर्फ सात साल का था। पापा स्टॉक एक्सचेंज में शेयर लेने-बेचने का काम करते थे । पापा हम सभी बहनों से प्रेम करते थे। वे हमें पढ़ा-लिखाकर एक अच्छे मुकाम पर देखना चाहते थे पर चाहतें पूरी होने के लिए कहां बनती है। उन दिनों हर्षद मेहता नामक व्यक्ति ने स्टॉक एक्सचेंज में भारी घोटाला किया जिसके कारण शेयर मार्केट औंधे मुंह गिर पड़ा। पापा का सारा पैसा फंस गया। शेर बकरी होकर मिमियाने लगे। इस नुकसान की भरपाई किसी भी तरह संभव नहीं थी। पापा ने काम-काज बंद कर दिया। शुगर, वीपी जैसी बिमारियों की गिरफ्त में आ गये। हम बड़े घर से छोटे से भाड़े के मकान में रहने लगे। जरुरत भर खर्च के अलावा सभी खर्च बंद हो गया था। हमारे कपड़े, पढ़ाई  का पूरा खर्च मामाजी उठा रहे थे। घर में फल-फ्रूट नहीं के बराबर आते थे, दूध-दही में भी कटौती हो गई, घर काम भी अब लोग खुद करने लगे थे। ऐसे में चार बेटियों की शादी और दान-दहेज की बात.... पापा सोचते तो उन्हें चक्कर आने लगते।

मैनें कई बार पापा को मम्मी से कहते सुना था- ‘‘निर्मला, कैसे होगा सब .... किस तरह करुंगा बेटियों के साथ पीले, अब तो मुझे कोई उधार भी नहीं देगा, क्या करता सोचा था और क्या हो रहा है...‘‘कहते कहते फफक-फफक कर रो पड़ते थे पापा। मम्मी ढांढस देती- ‘‘आप चिंता न करो जी , बेटी आप भागण होती है बाप भागण नहीं....देखते हैं उनका नसीब उन्हें कहां खींच कर ले जाता है‘‘।

‘‘तो क्या मेरे भाग्य में ये दूजवर दुल्हा लिखा है‘‘ उस दिन गुस्से में पांव पटकते हुए पूछा था मम्मी से मैनें। प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए मम्मी ने समझाया था- ‘‘देख मोनिका, सारे सुख किसी के नसीब में नहीं होते, हमें कहीं न कहीं समझौता करना ही होता है‘‘।

‘‘आप मुझे समझौता करने के लिए कह रही हो मम्मी‘‘ मेरी आंखों से अश्रुधारा  फूट पड़ी।

‘‘नहीं...., तूं चाहे तो मना भी कर सकती है पर सोच....तेरे पापा मुझसे पांच साल बड़े हैं और  संजय तुझसे दस साल....।

‘‘पर वो दूजवर है मम्मी और दस साल बड़ा....‘‘ चिल्लाते हुए कहा था मैनें ने।

‘‘जानती हूं, पर आज तेरे पापा की हैसियत नहीं कि दहेज देकर तुम्हारे लिए अच्छा दुल्हा खरीद सके। बिना दहेज इस समाज का कोई भी लड़का कहां तैयार होगा और अगर कोई कम पढ़ा-लिखा, गरीब परिवार का कोई लड़का मिल भी गया तो वो तेरे सपनों में रंग भर पायेगा इसकी क्या गारंटी है बिटिया। संजय से शादी करके तूं सुखी रहेगी। उसकी बेटियां थोड़े सालों में शादी करके अपने घर चली जाएगी, फिर एक छत्र राज करेगी तूं । वैसे अभी भी वे बेटियां हॉस्टल में पढ़ती है। बिना दान-दहेज के इतना योग्य दामाद मिल रहा है हमें। माना कि उम्र में थोड़ा बड़ा है पर एक-आध साल में तूं खुद भी भूल जाएगी ये अंतर।जब मन मिल जाते हैं तो उम्र आड़े नहीं आती मेरी बच्ची....और ये भी तो सोच, तुम्हारे पीछे तीन बहनें और है अगर तुम अच्छे घर में चली गई तो उनके लिए भी तुम्हारी रिश्तेदारी के दरवाजे खुल जाएंगे....‘‘ मां ने और भी बहुत कुछ समझाया,अपना आंचल फैला दिया मेरे सामने .... कुल मिलाकर ऐसी परिस्थितियां थीं कि हां कहने के अलावा कोई चारा नहीं था उसके पास....।

संजय शादी से पहले मिलने आये थे।अपने बारे में सब कुछ बता दिया। पत्नी की असमय मौत से टूटे हुए इंसान ने कुछ नहीं छिपाया था मुझसे। मेरे सपनों  को हर हाल में पूरा करने का वादा भी किया और मेरी मर्जी जानने की कोशिश भी की.....पर शायद वे नहीं जानते थे कि कोई भी स्त्री पैदा ही होती है दूसरों की मर्जी से चलने के लिए.....दूसरों की आंखों से दुनिया देखने के लिए.... अगर वो अपनी आंखें, दिल, दिमाग और मन को काम में ले लें तो तुरंत समाज उसे बदचलन,जाहिल,अपराधी के तौर पर देखना शुरू कर देता है। इतना साहस नहीं था मुझमें कि अपने मम्मी-पापा से जवाब तलब कर सकूं, जी सकूं अपनी मर्जी की जिंदगी....मैं तो वो गाय थी जिसका एक खूंटे से बंधना तय था। पहले वो खूंटा पिता का था तो अब पति का.... मैनें चुपचाप  शादी के लिए हामी भर दी।

अपनी सहेलियों में सबसे पहले हुई थी मेरी सगाई और शादी। ससुराल से आये गहने, कपड़े, चॉकलेट, मेकअप का सामान सबके आकर्षण का केंद्र था पर बातों ही बातों में 

धीरे से एक कटाक्ष सबकी जुबान पर था - सारे सुख मिलेंगे हमारी लाडो पर हाय री किस्मत पति दूजवर है, दस साल बड़ा....। पता नहीं ये मेरे मन की कसक थी या सबकी ओर से कहें गये बोल मेरे मन में घर कर गये थे कि मैं कभी अपनी जिंदगी में दूजवर वाली बेचारगी से बाहर नहीं निकल पाई।

कोई कमी नहीं रखी थी संजय ने....। सारे अधिकार दिए, मेरे सारे सपनों में सतरंगी रंग भरा, हर बात कहने से पहले ही पूरी हो जाती, इतनी इज्जत और अपनापन दिया कि परिवार की सभी औरतें मेरे भाग्य से खुल्लमखुल्ला ईष्र्या करती थी। मुझमें भी पूरी महारानी वाली ठसक आ गई थी। ऐश आराम की जिंदगी और सुख की नींद ने मेरे साधारण चेहरे को असाधारण बना दिया था। बनाव-श्रृंगार और नित नए परिधानों के कारण मैं जिधर से भी गुजरती सबकी निगाहें ठहर जाती थी। संजय खुद भी कम स्मार्ट नहीं थे। गठीला बदन, चमकदार कपड़े, सूट-बूट, टाई पहने फुर्तीला व्यक्तित्व जो अपने बिजनेस के लिए जितना समर्पित था उतना ही समर्पित था अपने रिश्तों के लिए।

हमारी शादी के पश्चात मेरे परिवार की पूरी जिम्मेदारी उन्होंने अपने कांधों पर उठा ली। तीनों बहनों की शादियां संजय की वजह से अच्छे घरों में हो गई। भाई को रेडिमेड कपड़ों की दुकान खुलवा दी ताकि आराम से गुजर-बसर हो सके।

मैनें भी संजय की दोनों बेटियों को अपना लिया था। प्यार और अपनापन देना मैनें भी संजय से ही सीखा था। यूं तो दोनों बाहर पढ़ती थी पर जब भी आती मैं खूब लाड लडाती, उन्होंने ने भी इज्जत देने में कोई कमी नहीं रखी। हमारा रिश्ता भले ही मां-बेटी का था पर हम सहेलियों जैसे ही रहते थे। उनकी शादियां भी समय पर सम्मपन्न  हो गई। हमारी कोई संतान नहीं हुई। कारण क्या था न डॉक्टरों की समझ में आया न हमारी समझ में....। मेरी उदासी को देखकर संजय बच्चे को गोद लेने की सलाह भी देते पर मैं इसके लिए तैयार नहीं थी।

मुझे तो सारा दोष  संजय के दूजवर होने में ही दिखाई देता था। हालांकि जब शादी हुई तब इतनी भी उम्र नहीं थी कि बच्चा न हो सके पर सातों सुख के बीच दुख का एक काला टीका भगवान ने लगा रखा था ताकि किसी की नजर न लगे। मैनें प्रत्यक्ष कभी कहा नहीं, कभी अपने कर्त्तव्यों में कमी नहीं आने दी पर दूजवर की दहलीज मैं कभी पार नहीं कर पाई।

मन ही मन एक कसक थी कि मुझे दूजवर पति मिला है। एक ही पलंग पर सोते हुए, जागते हुए मैं भूल नहीं पाती कि संजय दूजवर है। मैं हर कार्य अपना कर्तव्य मानकर कर रही थी। संजय से प्रेम भी उसी का हिस्सा था। उनका प्रेम, प्रेम था पर मेरा प्रेम सिर्फ और सिर्फ दिखावा...., अहसानों के बोझ को कम करने की कोशिश.....अपने कर्त्तव्यों को निभाने की दिली कोशिश,.....पर प्रेम नहीं था वहां...।

संजय ने मुझे कभी अकेला नहीं छोङा, जहां भी जाते साथ ले जाते, यहां तक कि पीहर भी साथ जाते और दो दिन बाद साथ ही लिवा लाते। बेइंतहा प्यार करते मुझसे, घर में रहते तो हर थोड़ी देर बाद आवाज देते, बाहर से आते तो सारे दिन की कहानी मेरे साथ शेयर करते। बात चाहे परिवार की हो या बिजनेस की हर बात मुझे बताते, बिना इसकी परवाह किए कि मुझे कितनी समझ में आ रही है और कितनी नहीं....। 

पूरी दुनिया घूम ली मैनें उनके साथ। हर साल हमारी एनिवर्सरी दुनिया के किसी खूबसूरत देश में होती। मुझे भी ताज्जुब होता अपने पति पर। इतना कामयाब इंसान अपनी पत्नी और परिवार के प्रति इतना समर्पित कैसे हो सकता है।

 शुरुआत के दो चार-साल हमारी उम्र का फर्क महसूस किया जा सकता था पर इन सालों में वह भी नदारद हो गया। शादी के बीस साल बाद भी संजय एकदम फिट और तंदुरुस्त थे। इस बात का मुझे अहसास था पर जाने क्या था मेरी नजरों में कि वहां से मुझे सिर्फ दूजवर की छवि दिखाई देती थी, जाने कौन-सी कुंठा थी मेरे मन में कि हर रोज मैं दूजवर को ब्याही गई लड़की की पीड़ा से रूबरू होती थी, बिस्तर पर उनके साथ होती पर बाथरूम में शावर के नीचे शरीर का एक-एक अंग रगड़-रगड़कर साफ करती मानों शरीर पर कोई कैंचुली चढ़ी हो....।

जब रि युनियन में जाने की बात कही अनु ने मैनें साफ मना कर दिया था। इतने सालों में अनु के आलावा किसी सहेली या क्लासमेट से मेरा कोई संपर्क नहीं था। मैं नहीं चाहती थी कि मैं संजय के साथ वहां जाऊं और सब लोग मेरे पीठ पीछे मेरी दूजवर की जोड़ी का मखौल बनाये..। अनु मेरी प्रिय सहेली थी और मेरे ही शहर में थी। उससे मिलना-जुलना होता रहता था पर दूसरे दोस्तों की नजरों का सामना करने की मुझमें हिम्मत नहीं थी।

अनु नहीं मानी और उसकी जिद पर मुझे इस रि युनियन के कार्यक्रम में आना पड़ा। संजय को भी इसी समय कोई बिजनेस कॉन्फ्रेंस में जाना था तो यह तय हुआ कि संजय अपनी तीन दिन की कॉन्फ्रेंस खत्म करके हमें ज्वाइन कर लेंगे।

यह पहली बार था कि मैं अकेली थी। इन तीन दिनों में  मैं संजय की कमी को साफ-साफ महसूस कर रही थी। सहेलियों के पतियों से मिली तो लगा संजय के मुकाबले कोई नहीं ठहर सकता। न सादगी में, न फिटनेस में, न बिजनेस में और न ही सेंस आॉफ हृयूमर में....। किसी की निकली हुई तोंद, किसी की  गंजी खोपड़ी, किसी की बात-बात पर चिक-चिक की आदत, किसी का बेहूदा पहनावा देखकर ऊबकाई सी आने लगी थी मुझे। वहीं वे लड़के जो अपने जमाने में स्कूल के हीरो थे आज साधारण सा बिजनेस या नौकरी में ही संतुष्ट थे। कितनों ने तो अपने बिजनेस या नौकरी के लिए संजय से सिफारिश की मांग तक कर डाली। आज सचमुच मेरा मन हो रहा था कि अपने भाग्य पर इठलाऊं.... दूजवर है तो क्या हुआ.... है सबसे स्मार्ट, सुंदर और सलीकेदार ।

जब भी गेम खेलते, डांस करते, गाने गाते मुझे हर पल संजय याद आते। काश! वे मेरे साथ होते तो मैं एक भी बार नहीं हारती, उनके साथ मेरे डिस्को का मुकाबला भी कहां कोई कर पाता। अब मुझे अहसास हो रहा था उन्होंने मुझे क्या से क्या बनाया है। संगीत, डांस, इग्लिश सब में पारंगत करके मुझे वहां खड़ा कर दिया था जहां मेरे आस-पास कोई नहीं ठहर सकता था। मेरे कपड़े, गहने, मेरा मेकअप, मेरा स्टाइल सबके लिए आकर्षण का केंद्र था। आज सब सहेलियों, दोस्तों से मिलकर अहसास हो रहा था कि जो मेरे पास है वो किसी के पास नहीं। इसी पूर्णता के अहसास ने मेरे मन से दूजवर की कालिख को साफ कर दिया था। जो काम बरसों तक हमारा मिलन नहीं कर पाया वो विरह ने कर दिखाया। ये तीन दिन मेरे लिए तीन जन्म बनकर उपस्थित हुए थे। जिस प्रेम का फूल बरसों पास रहने से नहीं खिला वो इस दूरी ने खिला दिया था।

कितना अजीब है ये मन जो नहीं मिलता उसकी कीमत आंकता है पर जो मिल जाता है उसकी कद्र नहीं कर पाता। मैं अपने आप पर शर्मिन्दा थी, अपनी छोटी सोच पर मुझे ग्लानि हो रही थी। मैं इस समय अपने कमरे में संजय के बिना मछली सी तङफ रही थी। मेरे तन- मन को संजय का इंतजार था। मेरा बिस्तर ही नहीं रोम-रोम संजय को पुकार रहा था। पूरी रात बेचैन रही, सुबह छह बजे के आस पास संजय आ जाएंगे, इस अहसास ने मुझे रोमांचित कर दिया। घड़ी देखी, पांच बज रहे थे .... मैं नहा ली, दर्पण में खुद को संवारने लगी तो मेरी जगह मुझे संजय नजर आ रहे थे। पहली बार हुआ था ये जादू.... पहली बार मेरी नजर खुद से शरमा गई थी.....पहली बार मैं सिंदूर लगाते हुए मुस्कुरा रही थी....होंठ हौले से गुनगुना उठे- पहली-पहली बार है..... पहला पहला प्यार है.....। तभी मेरे कमरे पर दस्तक हुई..... मैनें दौङकर दरवाजा खोला, सामने संजय थे ,मैं उनकी बांहों में झूल गई.... मेरी आंखों से गंगा-जमुना बह निकली.... । संजय से फिर कभी अकेला नहीं छोड़कर जाने को वादा लेते हुए मुझे लग रहा था मेरे मन का मौसम बरसों बाद बदल गया है वो भी हमेशा हमेशा के लिए। 






डाॅ. पूनम गुजरानी, सूरत, email: poonamgujrani@gmail.com

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