भूले-बिसरे कहावतनुमा अश्आर पर शोध
डॉ. कृष्ण भावुक,
प्राचीन संस्कृत और हिन्दी कवियों में सबसे बड़ा गुण यह था कि न तो उनमें अपनी शाइरी की बदौलत अपने लिए नाम-अकाम आदि पाने की बेपनाह चाह आज के शाइरों के समान हुआ करती थी और न ही वे अपने वंश-परिवार आदि का विस्तृत परिचय आदि ही भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ कर जाने की कोई खास तमन्ना अपने दिल में रखते थे। पहली बात से तो उनकी बेनियाजी अर्थात् उदासीनता और हद दर्जे की विनम्रता टपकती थी। गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसी ही मनःस्थिति में अत्यन्त विनम्रतापूर्वक यह घोषित किया था कि ‘कबित्त बिबेक एक नहिं मोरे सत्य कहऊँ लिखि कागद कोरे।(‘श्रीरामचरितमानस‘ 1-9-6)।‘ सो, ऐसे फकीराना स्वभाव के महाकवियों की तुलना में आज के जुगनुओं की तरह नाम मात्र का प्रकाश लेकर नामनिहाद शाइर सरस्वती के संसार में केवल ‘जहँ तहँ परकास‘ ही करते हुए इधर-उधर इतराते फिरते हैं और अपने को ‘आधुनिक कालिदास‘ मानने में ही खुदपसंद अर्थात् आत्ममुग्ध हुए रहते हैं। हमें गर्दन अकड़ाए और सीना तानकर चलने वाले ऐसे कवियों की तुच्छ बुद्धि पर तरस ही आता है। इसी प्रकार अपने वंश-परिवार आदि के बारे में पूर्ण या लगभग मौन साधे रहने वाले प्राचीन लेखकों के जीवन के इत्तिवृत्तों की खोज में दर-दर की खाक छानने वाले आधुनिककालीन शोधार्थियों का पहाड़-सा परिश्रम देख-देख कर साहित्य-साधकों को उन पर भी तरस आ सकता है। इसका कारण भी प्राचीन शब्द साधकों का उदासीन स्वभाव ही उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। फिर भी तरस-तरस में अन्तर तो है ही!
हिन्दी काव्य और अन्य विधाओं की जिस प्रकार कुछ पंक्तियाँ जनता के बीच सुभाषितों, कहावतों या लोकोक्तियों के समान नित्यप्रति की बातचीत या बोलचाल की भाषा, साहित्यिक समीक्षाओं आदि में बार-बार उद्धृत की जाती रही हैं, ठीक उसी प्रकार उर्दू शाइरों के अश्आर के कई मिस्रे भी रोजमर्रा‘ या बोलचाल के हिस्से बनते रहे हैं। ये मिस्रे न जाने कब से जनता के कण्ठहार बने हुए हैं। इनमें कुछेक रचनाकारों के बारे में आज हमें बहुत‘ तो क्या, थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं है। इस आलेख में लोक में कहावतों और लोकोक्तियों की-सी ख्याति और प्रयोगगत बहुप्रचलन पा जाने वाले वाक्यों या पंक्तियों पर विचार करना ही उत्कृष्ट है। यहाँ जो निदर्शन प्रस्तुत किए जा रहे हैं, वे मेरी बरसों की शब्द-साधना का फल हैं। आशा है यह सामग्री और जानकारी बहुत-से साहित्यप्रेमियों और जिज्ञासु शोधार्थियों के लिए विस्मयकारिणी होने के साथ-साथ पर्याप्त ज्ञानवर्दि्धनी भी सिद्ध हो सकेगी। कई बार शाइर किसी मिसे्र को अपने अश्आर में इस तरह से बाँधते हैं कि ऐसा लगता है कि इसी शे‘र विशेष से ही कोई पंक्ति एक कहावत की तरह से ही जनता के भाषिक प्रवाह में बहकर चली गई होगी या फिर पहले से बहती हुई किसी उक्ति को आधार बनाकर शाइर ने उसे अपने शे‘र का अंग बनाकर उसे अमर जीनत अता की होगी।
1. मीर तकी
‘मीर’
उर्दू काव्य में मीर तकी ‘मीर‘ (सन् 1722-1810) का मुकाम
मिर्जा गालिब के बराबर माना जाता रहा है। लोक में अक्सर कहा जाता है कि ‘जोगी भला किसके मीत हुआ करते हैं। ‘अब मीर साहिब का
ही यह शे‘र पढ़ें-‘-..-.
‘अजब नहीं
है, न जाने जो मीर‘ चाह की रीत,
सुना नहीं है, मगर ये है कि जोगी किसके मीत!
इसी तरह लोक में बड़े-बुजुर्गों
आदि के श्रीमुख से पचासों बार यह वाक्य कहा और सुना जाता रहा है कि ‘जान है, तो जहान है!‘ यह भी
वास्तव में आजीवन निर्धनता में ही जीवन बिता देने वाले अज़ीम शाइर और दिल से अमीर ‘मीर‘ साहिब के ही एक शे‘र का
दूसरा मिस्रा हैः ‘मीर अम्दन भी कोई मरता है/जान है, तो जहान है प्यारे !‘
इसी शे‘र पर टिप्पणी करते हुए श्री बाबूराम शर्मा ‘किशोर‘
का कथन है, ‘‘इस शे‘र के
अन्तिम शब्द तो ऐसी लोकोक्ति बनकर रह गये हैं, कि समाज के
प्रत्येक वर्ग के लोग समय≤ पर इन
शब्दों को कहते-सुनते चले आये हैं।‘‘-(ग्रन्थ ‘महाकवि मीर तकी ‘मीर‘ व्यक्तित्व एवं काव्यकला‘, श्री नारायणी, प्रकाशन, सत्य सदन, गाजियाबाद,
प्रथम संस्करण सन् 1980)।
इस शेर के पहले वाक्य में
अम्दन‘ शब्द का अर्थ है-जान-बूझकर। दूसरे मिस्र
में ‘प्यारे‘ शब्द को बड़े प्यार से
दरकिनार करके जनसाधारण ने ‘जान है, तो
जहान है‘ इस वाक्यांश को बतौर एक कहावत के इस्तेमाल करना
शुरू कर दिया था। कबसे इस वाक्यनुमा कहावत का प्रचलन प्रारम्भ किया गया, यह किसी को पता नहीं है। ठीक यही स्थिति मीर के अगले दो शेरो में कहावत बन
जाने वाले दूसरे पूरे-के-पूरे वाक्यों की कही जा सकती है
इब्तिदाए-इश्क है रोता है
क्या/आगे आगे देखिए होता है क्या?
श्री बाबूराम ‘किशोर‘ के मतानुसार यही शे‘र
निम्नलिखित रूप में भी पढ़ने को मिलता है, परन्तु इस शेर का
पहला रूप ही अधिक लोकप्रिय और प्रामाणिक प्रतीत होता है
राहे-दूरे इश्क से रोता
है क्या, आगे-आगे देखिये होता है क्या।
मरीजे-इश्क पर रहमत खुदा
की/मर्ज बढ़ता गया जूं जूं दवा की।
इस शे‘र का दूसरा मिस्रा सुभाषित अर्थात् कहावत या लोकोक्ति का दर्जा ग्रहण कर
चुका है।
2. ‘जौक’
इनका पूरा नाम शेख
मुहम्मद इब्राहीम ‘जौक‘ (सन् 1779-1854)
था। किसी औरत के बेपनाह रूप-सौन्दर्य को देख कर आम लोगों की जुबान
पर अक्सर इनका ही यह शे‘र आ जाया करता हैं किः-‘अच्छी सूरत भी क्या बुरी शै है, जिसने डाली बुरी नजर
डाली।‘
इसी मक़बूल शाइर का यह शे‘र तो शराब ही नहीं, किसी भी दूसरी चीज की निरन्तर लत
लग जाने पर लोगों को शे‘र के दूसरे मिस्रे का प्रयोग करने का
सुनहरा अवसर प्रदान करता आया है। पूरा शे‘र इस तरह हैः--- .
. .
ऐ जौक दुख्तरे-रिज को न
मुँह लगा,
छुटती नहीं है मुँह से ये
काफिर लगी हुई।
(‘उर्दू के
लोकप्रिय शायर‘ः जौक, सं. प्रकाश
पण्डित, पृष्ठ 112) यहाँ दुख्तरे-रिज
का अर्थ है अंगूर की बेटी अर्थात् शराब। इसी शाइर का एक और शे‘र है जिसका दूसरा वाक्या लोगों की जिह्वा पर आम चढ़ा रहता है और वे किसी
व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति के काम में अपनी टाँग अड़ाने और अनुचित हस्तक्षेप
करने से रोकने के लिए इसका ही प्रायः प्रयोग करते देखे-सुने जाते रहे हैं। पूरा शे‘र यो हैः
रिंदे-ख़राबहाल को जाहिद
न छेड़ तू,
तुझको पराई क्या पड़ी, अपनी नबेड़ तू।
3. मिर्जा
गालिब
शाइर आज़म माने जाने वाले
मिर्जा गालिब (सन् 1797-1896) का कलाम गम्भीर और दार्शनिक
विचारों की जानदार और शानदार अभिव्यक्ति के लिए विश्व भर में बेमिसाल रहा है। इनके
कुछ अश्आर अपने मित्रों के कहावतें (या लोकोक्तियाँ) बन जाने की सलाहियत रखते हैं।
यहाँ अपने मित्रों आदि से यह कहना हमें याद आता है कि ‘खुशी
से मर न जाते, अगर ऐतिबार होता‘। यह भी
गालिब के अग्रलिखित शे‘र का दूसरा मिस्रा ही है
तिरे वादे पर जीए हम तो
ये जान झूठ जाना,
कि खुशी से मर जाते अगर
ऐतिबार होता।
(संपादक
विश्वनाथ, ‘दीवान-ए-गालिब‘, पृष्ठ 25)
इसी तरह ‘बहुत निकले मेरे अरमान...‘
कथन वाला पूरा शे‘र यह है
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि
हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अर्मान
लेकिन फिर भी कम निकले। .
(वही,
वही, पृष्ठ 187)
और इनका यह शेर तो
थोड़े-बहुत शब्दों के हेर-फेर से शिक्षित-अशिक्षित जन सभी किसी आत्मीय व्यक्ति के
बहुत दिनों बाद अपने घर पधारने पर कहा करते हैंः
वो आएँ घर में हमारे ख़ुदा
की कुदरत है,
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं। (वही, वही पृष्ठ 91)
इसी तरह ‘तन्दुरुस्ती हजार नेमत है‘ वाक्य भी हिन्दी-उर्दू
भाषाभाषी बिना किसी भाषिक भेद-भाव के अधिकतर दूसरा मिस्रा ही प्रयुक्त करते सुने
जाते हैं। वैसे पूरा शेरइस तरह हैः-‘‘तंगदस्ती अगर न हो ‘गालिब‘, तन्दुरुस्ती हजार नेमत है।‘‘
इसी तरह अगले शे‘र का दूसरा मिस्रा भी लोक में आम बोलचाल का अंग रहता आया है
सादिक हूँ अपने कौल में ‘गालिब‘ खुदा गवाह,
कहता हूँ सच कि झूठ की
आदत नहीं मुझे!
4. मियाँ
दादख़ाँ ‘सय्याह’
कहते हैं ये मिर्जा गालिब
के ही शागिर्द थे, तभी इनर्की शाइरी में इनके उस्ताद का रंग
गाह-बगाह नुमायाँ रहा है। जब भी जीवन या जगत् में कहीं-दो सहरुचियों वाले व्यक्ति
आपस में मिल-बैठते हैं, तो उनके मुख से, सुशिक्षित होने या न होने पर भी, जो एक फिकरा निकल
जाया करता है, वह इसी महान् शाइर के इस शेर का ही दूसरा
मिस्रा है
कैस जंगल में अकेला है, मुझे जाने दो,
खूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे
दीवाने दो।
5. नवाब
वाजिदअली शाह अख़्तर
अवध के इन नवाब का शाइरी
का तखल्लुस ‘अख़्तर‘ (1827-1887) था।
इनका यह शे‘र ख़ासा मकबूल रहा है
दरो दीवार पे हस्रत की
नजर करते हैं,
रुख्सत ऐ अह्ले-वतन हम तो
सफर करते हैं।
(मुकद्दमा ‘शेरी जर्बुलमिसाल‘, पृष्ठ 27)
इस शे‘र के दूसरे मिस्रे का एक अन्य और अपेक्षाकृत
अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध
रूप यह है- ‘खुश रहो अले-वतन‘ हम
तो सफर करते हैं। स्वयं मुहम्मद शम्सुलहक ने अपने आलेख‘आवारागर्द
अश्आरः तहक़ीक़ की रोशनी में‘ (उर्दू पत्रिका ‘शाइर‘ अंक दिसम्बर सन् 2009, पृष्ठ
28) के आरम्भ में ही यह आत्मस्वीकार किया है कि इस शे‘र को वाजिदअली शाह अख़्तर‘ ने पूर्वोक्त रूप में ही
कहा होगा, किन्तु बाद में रुख़्सत ऐ अहले-वतन‘ शब्दों के स्थान पर ‘खुश रहो अह्ले-वतन‘ यह वाक्यांश बहुप्रचलित हो गया होगा। (ग्रन्थ ‘जाने-आलम‘
वाजिदअली शाह के मटिया बुर्ज के हालात‘), संपादक
मौलाना अब्दुलहलीम शरर, इदारा फुरोगे-उर्दू, लाहौर, सन् 1951, पृष्ठ 73,
6. दाग़
देहलवी
नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ ‘दाग़‘ (सन् 1831-1905) की शाइरी
सरल, स्पष्ट, जीवन और जगत् के
कार्यकलाप और लोकव्यवहार की इतनी यथार्थपरक अक्कासी करने वाली मानी जाती है कि
उनके कितने ही शागिर्द शाइरों ने दुनिया भर में अपनी शाइरी से नाम कमाया है।
अल्लामा इक़बाल तक दाग़ के ही शागिर्द माने जाते रहे हैं। दाग़ के नाम से उर्दू।
शाइरी का एक स्कूल ही आज तक चलता रहा है। इनके शे‘र का
अधिकतर पहला भाग अर्थात् मिस्रा ‘इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ
खुदा‘ ही लोगों के द्वारा प्रयुक्त किया जाता है। इस
अग्रलिखित शे‘र तो शाइर गोया किसी सरलताप्रिया नारी या युवती
की सुन्दरता से कहीं अधिक उसकी स्वभावगत सादगी की प्रशंसा में मानों कोई कसीदा
(प्रशंसात्मक वचन) पढ़ता या सुनाता जान पड़ता हैः
इस सादगी पे कौन न मर जाए
ऐ खुदा,
लड़ते हैं और हाथ में
तलवार भी नहीं।
दाग़ के ही एक शेर के
दूसरे मिस्र में कुछेक-शब्दों को बदल कर अल्लाह करे जोरे-कलम और ज्यादा‘ को ही प्रचलित कर दिया गया है। वास्तव में ‘जोरे-कलम‘
इन दो शब्दों के स्थान पर ‘हुस्ने-रकम‘
शब्द ही होने चाहिएँ। दाग के शे‘र का सही मूल
रूप इस प्रकार है
खत उनका बहुत खूब, इबारत बहुत अच्छी,
अल्लाह करे हुस्ने रक़म और
ज्यादा।
(‘गुलज़ारे-दाग़‘,
मिर्ज़ा दाग़, नैयर प्रैस, पटना-4, लखनऊ, सन् 1296 हिजरी, पृ. 186)
किसी कारण से संसार में ‘हुस्ने रक़म‘ के स्थान पर ‘जोरे-कलम‘
ही मशहूर हो गया है।
7. ‘जिगर’
मुरादाबादी
पूरा नाम है अली सिकन्दर ‘जिगर‘ मुरादाबादी (सन् 1890-1961)। इनका यह शेर प्रेम-पंथ की कठिनाइयों के बारे में जिस तरह से रूपक अलंकार
के द्वारा लाफानी और लासानी अभिव्यक्ति करने वाला बन पड़ा है, वह केवल ‘जिगर‘ जैसे रोमांटिक
और सुमधुर शाइरी करने वाले रचनाकार का ही हिस्सा हो सकता था। वे कहते हैंः
ये इश्क नहीं आसाँ इतना
ही समझ लीजे,
इक आग का दरिया है और डूब
के जाना है।
(‘जिगर
मुरादाबादी‘ः मुहब्बतों का शायर, संपादक
निदा फाजली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
द्वितीय संस्करण सन् 2004, पृष्ठ 37)
इस शे‘र के केवल उत्तरार्द्ध अर्थात् दूसरे मिसे्र को ही आधार बनाकर उर्दू
साहित्य की मशहूर नावल-लेखिका कुरतुल-ऐन-हैदर ने भारत-पाक-विभाजन की विषय-वस्तु पर
अपने विश्वविख्यात उपन्यास का नाम ही रखा था ‘आग का दर्या‘
(प्रकाशक, मक्तबः जदीद, लाहौर,
प्रथम संस्करण सन् 1956)। आम लोगों के द्वारा
और फिल्मी अभिनेताओं के संवादों में यह पूरा शे‘र ही सुनाया
जाता रहा है।
8. ‘मस्त’
कलकतवी
उर्दू के कुछ कहावतनुमा
ऐसे अश्आर भी हैं, जिनके रचनाकारों की लोकप्रियता तो उतनी
नहीं है, परन्तु लोक में लोगों के द्वारा उनके चन्द मिस्रों
का प्रयोग या व्यवहार लाखों बार देखा-सुना जाता रहा है। प्रिय-प्रियाओं के
प्रेमपत्रों में इनके इस शे‘र का चन्द शब्दों के हेर-फेर से
प्रयुक्त होना ही इस शे‘र की लोकप्रियता का प्रमाण है। जहाँ
संस्कृत काव्यशास्त्र में विवेचित प्रसाद और माधुर्य गुणों से इस शे‘र को लैस माना जाएगा, वहाँ इसकी शब्द-योजना लाखों
दिलों को मोहती रही है। यह शे‘र इस तरह हैः
‘हकीकत छुप
नहीं सकती, बनवट के उसूलों से,
कि खुशबू आ नहीं सकती कभी
कागज़ के फूलों से।
इसी तरह इनका यह मक़बूल शे‘र पुरुषार्थवाद पर ‘भाग्यवाद‘ की
जीत को नस्ब करने वाला माना जाता रहा है और विश्व भर में न्यायपालिका के सन्दर्भ
में लाखों बार उद्धृत करने का शरफ (श्रेय) भी प्राप्त करता रहा हैः
मुद्दई गर लाख बुरा चाहे
तो क्या होता है,
वही होता है, जो मंजूरे-खुदा होता है।
9. माधो
राम जौहर
उर्दू शाइरी के समकालीन
इतिहास में इन्हें विशेष रूप से रेखांकित किया जाता रहा है। इनका यह शे‘र काबिले दाद माना जाता रहा है
नाला-ए बुलबुले-शैदा तो
सुना हँस हँस कर
जिगर अब थाम के बैठो कि
मिरी बारी आई।
एक दूसरे मिस्र को मंचों
आदि पर अहंवादी लेखकों आदि के मुख से बारहा सुना जाता रहा है।
10. महताब
राय ‘ताबाँ’
लोक में अपने ही किसी
बन्धु-बान्धव के कारण हुई हानि के लिए लोगों द्वारा प्रायः यह शे‘र भी कटाक्ष और व्यंग्य की चाशनी में डुबो कर कहा जाता रहा है, किन्तु रचनाकारों ने इसके अशुद्ध स्वरूप को सही करने की कभी ज़हमत नहीं की
है। शे‘र का प्रचलित, किन्तु अशुद्ध
स्वरूप इस प्रकार है
दिल के फफोले जल उठे सीने
के दाग़ से
इस घर को आग लग गई घर के
चिराग से।
उर्दू साहित्य के
सुप्रसिद्ध शोधकर्ता विद्वान श्री कालिदास गुप्ता ‘रिजा‘
की शोध के . अनुसार महताब राय ‘ताबा‘ साहिब के इसी शे‘र का मूल और अस्ल रूप इस तरह हैः
शोला भड़क उठा मिरे इस दिल
के दाग़ से,
आख़िर को आग लग गई घर के
चिराग़ से।
(कालिदास
गुप्ता ‘रिजा‘, ‘सह्वो-सुराग‘, संपादक साबिर दत्त, इदारा फन और शख्सियत, मुंबई, जनवरी सन् 1980, पृष्ठ 130-31)
11. ज़हरुद्दीन
‘ज़हीर’
यह मिस्रा-बहुत
लोकप्रचलित रहा है। प्रेम के सिवा इसके लाक्षणिक अर्थ में- कभी-कभार व्यापार आदि
दूसरे क्षेत्रों के सन्दर्भ में भी इसी कहावत दोनों तरफ हो आग बराबर लगी हुई‘ बन चुके वाक्य का प्रयोग किया जा सकता है। यह शे‘र
या तो अज्ञात शाइर का बता दिया जाता रहा है या फिर महबूब अली आसीफ या फिर इस्माइल
मेरठी के नाम से मंसूब कर दिया जाता रहा हैः
उल्फत का जब मजा है कि
दोनों हों बेकरार,
दोनों तरफ हो आग बराबर
लगी हुई!
मुहम्मद शम्सुलहक के
उर्दू आलेख‘आवारागर्द अशआरः तहकीक की रोशनी में‘
के अन्तर्ग कहा गया है कि वास्तव में यह शेर ज़हीरुद्दीन ज़हीर का है
और इसके पहले मिस्त्रे की अस्ल शक्ल यह है
चाहत का जब मजा है कि वो भी हों बेकरार...
(‘दीवाने-ज़हीर‘,
पृष्ठ-31, उद्धृत ‘गुलिस्ताने-सुखन‘,
मुफीद-आम प्रेस आगरा, पृ. 235 एवं पत्रिका ‘शायर‘, अंक
दिसम्बर 2009, आलेख ‘आवारागर्द अश्आरः
तहकीक की रोशनी में‘ पृ. 29)
12. मज़हर
अला अमीर‘ः
‘अमीर‘
लखनवी के नाम से मंसूब यह शे‘र भी लोकप्रचलित
रहा हैं। वैसे इसका मूल और अस्ल रूप यह नहीं हैंः
ख़ुदा जाने ये दुनिया
जल्वागाहे-नाज़ है किसकी,
हजारों उठ गए लेकिन वही
रौनक है मज्लिस की।
कुछ अन्य पाठान्तरों में
भी यही शे‘र विशेष परिवर्तन के साथ यों पाया गया हैः
ख़ुदा जाने ये दुनिया
जल्वागाहे-नाज़ है किसकी, हजारों उठ गए फिर भी वही रौनक है मज्लिस
की।
खुदा जाने ये किसकी जल्वागाहे-नाज़ है दुनिया,
बहुत आगे गए रौनक वही
बाक़ी है मज्लिस की।
इस शेर का भी मूल और
अस्ली रूपाकार आगे प्रस्तुत हैः-.
खुदा जाने ये किसकी
जल्वागाहे-नाज़ है दुनिया ....
हजारों उठ गए, क़सरत वही बाक़ी है महफिल की।
मुहम्मद शम्सुल हक ने
पूर्वोक्त लेख में अपने मत की पुष्टि में इन तीन ग्रन्थों के सन्दर्भ दिए हैं।
(1.‘दीवाने-अमीर‘,
मज्हर अली ‘अमीर‘, प्रकाशित
नवलकिशोर, लखनऊ, सन् 1870, पृष्ठ 432, 2. ‘जवाहरे-सुखन‘, संपादक
मौलवी मुहम्मद मुबैयन कैफी चिरियाकोटी, हिन्दुस्तानी अकेडमी,
इलाहाबाद, पृष्ठ 364/3.‘तलामिजा
मुस्हफी‘, संपादक अफ्सर सिद्दीकी अमरोही, मक्तबा नया दौर, कराची, सन् 1979,
पृष्ठ 34)।
प्रस्तुत शे‘र के चैथे स्वरूप में पहले मिस्त्रे के अन्तिम शब्द ‘दुनिया‘ के स्थान पर ‘दिल्ली‘
शब्द का प्रयोग भी यात्रा-साहित्य, विशेषतः
दिल्ली के संबंध में रचित पुस्तकों में देखने को मिलता रहा है।
13. ‘बज़्म’
अकबराबादी
लोक में बहुप्रचलित यह शे‘र पहले ‘बज़्म‘ अकबराबादी का
बताया जाता रहा है और इस अग्रलिखित रूप में ही इसे उद्धृत करने की परम्परा रही हैः
चन्द तस्वीरे-बुताँ, चन्द हसीनों के खतूत,
बाद मरने के मिरे घर से
ये सामाँ निकला।
‘बाद मरने
के मिरे घर से ये सामाँ निकला‘ इस वाक्यांश का प्रयोग एक
कहावत की तरह से भी देखा गया है। वास्तव में प्रख्यात शाइर ‘बज्म‘
अकबराबादी के शे‘र का मूल रूप इस प्रकार है
एक तस्वीर किसी शोख़ की
और नामे चन्द,
घर से आशिक के पसे-मर्ग
से सामाँ निकला!
बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी
के उर्दू विभाग में रीडर के रूप में जनाब हनीफ नक्वी ने अपने ग्रन्थ ‘गालिबः अह्वाल-व-आसार‘ (नुस्र पब्लिशर्ज, सन् 1990) में इस शे‘र के बारे
में लिखा है कि किसी सुरुचिसम्पन्न व्यक्ति ने बिना किसी इरादे के इस शे‘र को गालिब के शे‘री मिजाज से हमआहंग (एकसुर) करके
इस शे‘र के रचनाकार को प्रसिद्धि देने की चेष्टा की है। अतः
जब तक यही शे‘र किसी दूसरे शाइर के कलाम में प्राप्त न हो
जाए, तब तक इसे (‘बज्म‘ अकबराबादी के दूसरी बार उद्धृत शे‘र को) पहली बार
उद्धृत शे‘र का ही एक परिवर्तित रूप मान लिया जाए।
इस संक्षिप्त-से लेख में मैंने केवल चन्द अश्आर को आधार बनाकर उर्दू शाइरी की लोकप्रियता और असंख्य आयामों से सम्पन्न होने की विशेषताओं की ओर एक संकेत मात्र ही किया है। आशा है, उर्दू शाइरी के भावी शोधार्थियों और काव्यप्रेमियों की जिज्ञासाओं और शोधमूला पिपासाओं को शान्त करने के प्रयोजन से उर्दू साहित्य, विशेषतः काव्य के हजारों प्रेमी, अध्यापक और शोध-छात्रादि इसी दिशा में आगे और भी कार्य करने की चेष्टाएँ करते रहेंगे। ऐसा करने से उर्दू भाषा और साहित्य का तो विकास होगा ही, इसके साथ ही हिन्दी भाषा और साहित्य के ज्ञानी और प्रेमी जन भी अपनी भाषा और लोकसाहित्य के क्षेत्र में कार्य करने के व्यापक प्रयोजन से ऐसी शोधों से.लाभान्वित होते रहेंगे।