भूख
रामदास कृष्णा कामत, हैदराबाद, मो. मो. 7032925521
रोज की तरह मुंबई की 8.38 की लोकल खचाखच भरी हुई थी। गाड़ी का शुरूआती स्टेशन होते हुए भी गाड़ी में
पैर रखने की तो क्या चींटी के जाने जितनी भी जगह नहीं थी। प्लेटफॉर्म पर खड़े कुछ
नौजवान गाड़ी चलने का इंतजार कर रहे थे। गाड़ी चलते ही बंदरों की तरह खिड़की पर या छत
पर चढ़ने की मुद्रा में थे।
“दाने
लो.....खारे दाने.....” बोलता हुआ सात-आठ साल का लड़का किसी
तरह भीड़ में रास्ता बनाता हुआ गाड़ी में घुसा। उसके एक हाथ में मूंगफली के खारे
दाने की 5-7 पुड़ियाँ थीं और दूसरे कंधे पर एक पुराना झोला था,
जिसमें उसी तरह की और पुड़ियाँ भरी हुई थीं। पहनावा बिलकुल साधारण
यानी हाफ पैंट और बुश शर्ट। पर, इतना साफ-सुथरा कि कोई उसे
भिखारी न समझे।
इतने में एक आदमी
गुर्राया- “अबे ओ साले, चल निकल
यहाँ से। बेकार में भीड़ में परेशान करता है। चल निकल जल्दी।” दूसरे किसी का उससे मजाक करने का मन हो गया। कहने लगा, “सुबह-सुबह कौन मूँगफली के दाने खाएगा। शाम को लाना। चकना के काम आएँगे।”
उस भोले लड़के का चेहरा सुस्त हो गया। इस गाड़ी में हमेशा गूँजने वाली
उसकी आवाज आज बहुत मंद थी, क्योंकि उसे जमकर भूख लग रही थी।
रोज सबेरे वह माँ के हाथ की बनी मस्त चाय और उसके साथ दो-तीन टोस्ट खाकर धंधे पर
निकलता था। पर आज चाय और टोस्ट में से कुछ भी नहीं मिला था। छोटी बहन बुखार से तप
रही थी। उसे डॉक्टर को दिखाने लायक पैसे भी नहीं थे तो टोस्ट लाने के लिए पैसे
कहाँ से आते? और माँ ने चाय बनाने के लिए जो दूध संभालकर रखा
था, उसे बिल्ली जमीन पर गिराकर लपालप चाट गई थी। बच्चों की
क्या दुर्दशा होगी, इससे उस बिल्ली को क्या मतलब था। बच्चों
को एक बार की चाय भी न दे पाने की टीस माँ के दिल में उठ रही थी। पर वह बेचारी
क्या करती? शराबी पति ने उसकी दुनिया को तबाह कर दिया था और
जाते-जाते दो बच्चों का भार उस अकेली पर छोड़ गया था। दो-चार घरों में
झाड़ू-पोछा-बर्तन कर वह किसी तरह सबका पेट भर रही थी। ऐसे में अचानक हुए किसी
नुकसान की भरपाई वह कैसे कर सकती थी।
हालात ने उस छोटे से बालक
को बहुत समझदार और बड़ा बना दिया था। सिर्फ आठ साल का होते हुए भी वह घर का
कर्ता-धर्ता बन गया था। स्कूल में पढ़ाई की हैसियत नहीं थी और वैसी हालत भी नहीं
थी। पर, हर रोज मिलते अनुभव से उसका दुनियादारी
का ज्ञान बढ़ता जा रहा था। चकना शब्द ने उसका सिर फेर दिया, क्योंकि
इसका संबंध दारू के साथ था और दारू का संबंध उसके उजड़े हुए परिवार के साथ। उसने एक
नजर गाड़ी में बैठे मुसाफिरों को देखा। इनमें से कोई एकाध मेरा बाप होता और अच्छे से
नौकरी करता होता तो मैं भी हाथों में मूँगफली के दानों की पुड़िया लेकर माथाफोड़ी
करने के बजाय किताब लेकर पढ़ता हुआ दिखाई देता। इन्हीं विचारों में वह खो गया। किसी
के टपली मारने पर उसकी तंद्रा भंग हुई।
“अबे,
आगे खिसक न, क्यों सबेरे से आ जाता है मरने
को।”
“मरने को?
अगर मरना ही होता तो कभी का गाड़ी के नीचे आकर मर गया होता। गाड़ी में
आया हूँ तो खुद जीने के लिए और अपनी माँ और बहन को जिंदा रखने के लिए।” वह मन ही मन सोचने लगा। पर गरीबों का कोई रखवाला नहीं होता और गरीबों की
आवाज को दबा देने में ही दूसरे लोग बहादुरी समझते हैं, इतना
उसे पता चल चुका था। वह “दाने...खारे दाने...दो रुपये में”
बोलता हुआ आगे खिसक गया।
आज सबेरे से यह दूसरी
गाड़ी थी। फिर भी बोनी (पहली बिक्री) नहीं हुई थी। घर से निकलते समय माँ ने उसे
अपने सीने से लगा लिया था। उसकी आँखें भीगी हुई थीं। “बोनी होते ही नाश्ता कर लेने” की इजाज़त माँ ने दी
थी। वह सोच रहा था कि दो-तीन पुड़िया बिकते ही वह एक वड़ा-पाव और कट चाय का मजा
लेगा। रोज की चाय-टोस्ट के बजाय कुछ ज्यादा स्वादिष्ट नाश्ता मिलेगा सोचकर खुश भी
हो रहा था। सोच-सोचकर ही उसकी भूख बेकाबू हो रही थी। पर...अब खूब निराश हो गया था।
वो एक डिब्बे से दूसरे
में फिरता रहा। किसी डिब्बे में एक ग्रुप की पार्टी चल रही थी। समोसे की गंध पूरे
डिब्बे में फैल रही थी। भूख से बिलबिलाते उसके मन में आया कि हाथ में रखी हुई
पुड़ियाँ वापस झोले में डालकर हाथ फैलाकर भीख ही माँग ले। किसी फिल्मी गाने की लाइन
“ये जीना भी क्या जीना है लल्लू!” उसके दिमाग में कौंध गई। पर उसके स्वाभिमानी मन को भीख माँगना गँवारा नहीं
था। भूख और भीख दोनों शब्दों में कितनी समानता है न? इसी बीच
किसी ने एक पुड़िया ले ली और दस रुपये का नोट आगे बढ़ाया।
“साब,
खुल्ले पैसे दो न, आपसे ही बोनी हो रही है”,
उसने हताशा में कहा।
“धंधे पर निकलते हो और खुल्ले पैसे नहीं रखते। ये लो” कहते हुए उसने दो रुपये का सिक्का दिया। लड़के का चेहरा खिल-खिल गया। चलो बोनी तो हुई। भूख जमकर लग रही थी। पर दो रुपये में क्या मिलेगा? दाने की पुड़िया खाकर चाय पी लेने का विचार उसके मन में आया। पर सिर्फ दाने से क्या भूख मिटेगी? जो भी हो, उन दो रुपयो ने उसकी उम्मीदें जगा दी थीं। उसकी मरी आवाज में कुछ जान आ गई थी। वह पूरे जोश से आवाज लगाने लगा था- “दाने...खारे दाने...दो रुपये में” वह उस स्टेशन से अगले स्टेशन तक ही जाता था। अगले स्टेशन से वह वापस आने वाली गाड़ी पकड़ लेता था। माँ ने उसे ज्यादा दूर जाने से मना किया हुआ था। माँ को उसकी चिंता बनी रहती थी। स्टेशन जैसे-जैसे पास आ रहा था, वह फिर निराश हो रहा था, क्योंकि वापस आने वाली गाड़ी इस गाड़ी के मुकाबले बहुत खाली रहती थी। उसमें क्या बिक्री होगी, यही शंका उसके मन में थी। भूख के मारे पेट में मरोड़ उठ रही थी। स्टाल से आती गंध ने मानो भूख की आग में घी का काम किया। वड़ा-पाव की उम्मीद पर ही तो उसकी कमज़ोर काया और आवाज़ किसी तरह टिकी हुई थी।
स्टेशन आते ही वह उतर
गया। अगली गाड़ी आने में 5-10 मिनिट की देर थी। उतने में स्टेशन पर
ही कुछ बिक्री हो जाए, इसकी कोशिश करने लगा। घर से निकले डेढ़
घंटा हो गया था और कमाई सिर्फ दो रुपये हुई थी। भूख के कारण उसके शरीर में जैसे
जान ही नहीं बची थी।
प्लेटफॉर्म पर एक परिवार
खड़ा था। पति-पत्नी और दो-तीन साल का लड़का। छोटा बच्चा दिखते ही कोई भी फेरीवाला
वहाँ ज्यादा ही चक्कर लगाता है। बच्चे जिद करेंगे और उनकी कुछ बिक्री हो जाएगी, यह उम्मीद वे करते हैं। इसलिए वह भी उस परिवार के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने
लगा। भूख के मारे आवाज नहीं निकल रही थी, फिर भी उसने पुड़िया
बच्चे की ओर बढ़ाते हुए चिरौरी की, “दाने ले लो साब”। उसकी उम्मीद के अनुसार बच्चे ने जिद भी की। इससे उसकी उम्मीद फिर जागी।
पर पता नहीं आज सबेरे-सबेरे किसका मुँह देखा था। वो आदमी उस छोटे बच्चे को बोला,
“... बेकार की जिद मत कर। हम कुछ दूसरी अच्छी चीज लेंगे।” यह कहते हुए उसने पास के स्टाल पर जाकर दस रुपये के कुरकुरे लिए। अच्छे और
कुरकुरे के बीच के संबंध को तो वह नहीं समझ पाया, पर अब उसकी
सहनशक्ति जवाब दे रही थी। पेट में भूख की मरोड़ उठ रही थी और जेब में थे सिर्फ दो
रुपये। खिन्न मन से उसने वापस जाने वाली गाड़ी पकड़ी। गाड़ी काफी हद तक खाली थी। हाथ
में पुड़िया लेकर वो वैसे ही एक सीट पर बैठ गया। उसे लगने लगा कि वह गिर पड़ेगा।
किसी तरह अपना भार संभाले बैठा था।
सामने बैठा हुआ एक
मुसाफिर उसे देख रहा था। उसे उस पर दया आ गई। उसने पूछा, “भूख लगी है क्या? कुछ धंधा नहीं हुआ क्या?” दोनों सवालों के जवाब उसने गरदन हिलाकर दे दिए, क्योंकि
अब बोलने की ताकत भी नहीं रही थी। उस आदमी ने पाँच रुपये बढ़ाते हुए कहा, “ये लो और कुछ खा लो।” वह झोले से तीन पुड़ियाँ
निकालकर उस आदमी को देने लगा।
“अरे,
मुझे यह नहीं चाहिए। मैंने तो ऐसे ही तुम्हें पैसे दिए थे।” लड़के ने पाँच रुपये वापस देने की कोशिश की, क्योंकि
चाहे कितनी भूख लगी हो, भीख लेना उसे मंजूर नहीं था। मुसाफिर
शायद उसके मन की बात समझ गया। उसने कहा, “अच्छा बाबा,
ठीक है। इसे मैं ले लेता हूँ। तुम्हारा यह अंदाज हमें पसंद आया। ये
लो दस रुपये और पाँच पुड़ियाँ दे दो।” यह कहकर उसने पाँच
पुड़ियाँ ले ली। जैसे ही यह संजीवनी मिली, उसमें जान आ गई। अब
और धंधे की बात बाद में सोचेंगे। पहले पेट की आग बुझाएँगे, यह
सोचते हुए वह बेसब्री से स्टेशन आने की राह देखने लगा। स्टेशन आते ही गाड़ी रुकने
के पहले उतरकर स्टॉल की ओर दौड़ने लगा। वहाँ वड़ा-पाव उसे बुला रहे थे। मगर
बदकिस्मती ने उसका पीछा नहीं छोड़ा था। हमेशा की तरह गाड़ी के प्लेटफॉर्म पर रुकने
के पहले ही जैसे ही वह डिब्बे से उतरा, इतने में एक
पुलिसवाले ने उसका कॉलर पकड़ लिया।
“साले,
गाड़ी में धंधा करता है हमारी इजाजत के बगैर। चल पैसा निकाल।”
वो एकदम रोने जैसा हो गया। उस समय उसके जेब में पड़े बारह रुपये उसे
बारह लाख जैसे लग रहे थे। वो पुलिस वाले के हाथ-पैर जोड़ने लगा। दहाड़े मारकर रोने
लगा।
“कुछ धंधा
नहीं हुआ साब। बहुत भूख लगी है। प्लीज मुझे छोड़ दो साब।” बहुत
चिरौरी कर रहा था। बहुत मिन्नतें करने पर पुलिसवाले ने उसके हाथ से दो-तीन पुड़ियाँ
छीनकर उसे जाने दिया।
वो हुश्श करते हुए स्टाल
की ओर भागा। दस रुपये का वड़ा-पाव और दो रुपये की चाय। मजा आ जाएगा। कितने दिन से
वह वड़ा-पाव खाने की सोच रहा था। मुँह में पानी आने लगा।
“एक
वड़ा-पाव और एक चाय दो, जल्दी, फटाफट।”
बड़े रौब से उसने स्टालवाले को बोला।
जैसे ही वड़ा-पाव उसके हाथ
में आया और वह पहला कौर खाने ही वाला था कि उसे माँ की याद आ गई। अरे, अपने को सीने से लगाकर “बोनी होने पर नाश्ता कर लेना”
कहनेवाली माँ ने भी तो कुछ खाया नहीं होगा। बीमार बहन अब कैसी होगी? धंधे की धुन और भूख की अकुलाहट
ने सारी बातों को भुला दिया था। माँ के भूखे रहते मैं कैसे खा सकता हूँ? पल भर के लिए वह अपनी भूख भूल गया।
“भैया,
चाय मत दो। एक वड़ा-पाव और एक दो रुपये वाला चाकलेट दो।”
“पहले से
नहीं बोलना चाहिए”, स्टालवाला उस पर झल्लाया। पर उसके शब्द
सुनने की उसे कहाँ फुरसत थी। कंधे पर रखे झोले में वड़ा-पाव और जेब में चाकलेट
डालकर उसने रेल लाइन के पास बनी बस्ती में अपने घर की ओर दौड़ लगाई। सुबह से कमाए
हुए सारे पैसे खर्च कर दिए, इसका उसे भान नहीं था। कोई परवाह
भी नहीं थी। घर आते ही उसने छोटी बहन को चाकलेट दिया। उसके खिले हुए चेहरे को
देखकर उसे कितना संतोष हुआ।
“अरे,
आज इतनी जल्दी वापस आ गया?” पूछने पर उसने
वड़ा-पाव निकालकर माँ के सामने रख दिया।
“तूने खाया
कि नहीं”
“मेरी माँ
के भूखे रहते मैं कैसे खा सकता हूँ। पहले तू खा, फिर मैं
खाऊँगा। मुझे भी बहुत भूख लगी है।”
माँ ने उसे अपने सीने से
लगा लिया। उसके मुँह को कई बार चूमा। उसकी आँखों से आँसू बरस रहे थे।
“कितना
सयाना बच्चा है मेरा। खा, पहले तू खा। तुझे बहुत भूख लगी है
न”, ऐसा कहते हुए उसने वड़ा-पाव का एक टुकड़ा उसके मुँह में रख
दिया। माँ-बेटे ने मिलकर किसी मिठाई की तरह वड़ा-पाव का आनंद लिया।
“माँ, अब मुझे जाना चाहिए। आज मुझे बहुत सारा धंधा करना है। वो दो-तीन पुड़ियाँ के नुकसान की भरपाई भी करना है।” यह कहते हुए वह फिर स्टेशन की ओर मुड़ गया।