ग़ज़ल



धनसिंह खोबा सुधाकर’, नई दिल्लीमो. 9810765061


मैं किसी का नहीं मुंतज़र1 हूँ

मुंतज़िर2 हूँ मैं ख़ुद बेख़बर हूँ

जो नहीं ख़त्म होगा कभी भी

वो मुसल्सल मैं लम्बा सफ़र हूँ

जो भी जाती है मंजिल की जानिब

वादिए-उम्र3 की रहगुज़र हूँ

काट देता नज़र को नज़र से

इक ग़जब का वो दिलकश हुनर हूँ

अर्श4 पर उड़ते सब पंछियों के

पर, परखने में अह्ले नज़र5 हूँ

यूँ तो शबनम-सा लगता हूँ ठंडा

इक निहाँ6 शोला-सा मैं शरर7 हूँ

ताप पीकर भी दूँ ठंडी छाया

रहगुज़र में खड़ा इक शजर8 हूँ

ढूँढता ख़ुद को मैं अपने घर में

क्या कहूँ अब कहाँ मैं किधर हूँ

इश्क में जल चुका है जो लौ पर

मैं वही इक पतंगा अमर हूँ

ख़ुद को समझूँ अनल्हक’9 ‘सुधाकर

लोग कहते मैं आशुफ्ताः सर10 हूँ

     

1. प्रतिक्षित (जिसका इंतजार हो), 2. प्रतिक्षा करने वाला, 3. आयु की टेढ़ी-मेढ़ी घाटी, 4. आकाश, 5. पारखी, 6. छुपा हुआ, 7. चिंगारी, 8. पेड़, 9. मैं ब्रह्म हूँ, 10. सिर फिरा पागल

साभार: बोलतीं खामोशियाँ अब (प्रकाशनाधीन)

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