भीतरी परतें
डॉ. रमाकांत शर्मा, चेम्बूर, मुंबई, मो. 9833443274
दरवाजे पर लगी घंटी मैंने
बजा तो दी, पर दिल जोर-जोर से धड़कने लगा था।
प्रोफेसर हेगड़े के बारे में मैंने बहुत कुछ सुन रखा था। वे अपने सुपरवीजन में
रिसर्च करने वालों से बहुत कड़ाई से पेश आते थे। उन्हें डांटना-डपटना और उनसे निजी
काम कराना उनका शगल कहा जाता था। मैं सचमुच अंदर ही अंदर डरा हुआ था। जिस विषय में
मुझे रिसर्च करनी थी, उस विषय में उनके पास ही जगह खाली थी।
बाकी सभी गाइडों के पास अधिकतम आठ रिसर्चर का कोटा पूरा हो चुका था। इतने सीनियर
प्रोफेसर के पास जगह खाली होना ही इस बात का प्रमाण था कि उनके बारे में जो कुछ
कहा जाता था, उसमें काफी सच्चाई थी। प्रोफेसर सावंत ने मुझे
उनके पास यह कह कर भेजा था कि उनका नाम लेने पर प्रोफेसर हेगड़े मुझे निराश नहीं
करेंगे।
दरवाजा उन्हीं ने खोला
था। बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व था उनका। कुर्ते-पाजामे पर सलीके से एक शॉल ओढ़ा हुआ
था और धुंघराले बाल बेतरतीबी से कंधों पर झूल रहे थे। लंबा कद, गोरा रंग और तीखी नाक किसी को भी सम्मोहित कर सकते थे। भीतर तक भेद जाने
वाली आंखों से घूरते हुए उन्होंने पूछा था - “कौन हो तुम,
क्यों इतनी जोर से सुबह-सुबह घंटी बजाए जा रहे हो?‘‘
मैं कुछ सकपका गया था।
तुरंत झुक कर उन्हें नमस्ते की जिस पर बिना कोई ध्यान दिए उन्होंने अपना प्रश्न
फिर दोहरा दिया।
“जी मुझे
प्रोफेसर सावंत ने आपके पास भेजा है”।
‘‘तो ?‘‘
“जी मैं
आपके अंडर रिसर्च करना चाहता हूं। उन्होंने कहा है कि इस विषय पर आपसे अच्छा कोई
गाइड नहीं मिलेगा‘‘।
“नाम क्या
है तुम्हारा?‘‘
“जी,
कुणाल‘‘।
‘‘कुणाल
क्या?‘‘
‘‘जी कुणाल
मित्तल‘‘।
‘‘देखो,
कुणाल मित्तल, मैं किसी प्रोफेसर सावंत-वावंत
से गाइड नहीं होता हूं। उन्होंने कहा और मैं तुम्हें रिसर्च करा दूंगा, ऐसा कैसे सोच लिया तुमने ?‘‘
‘‘नहीं सर,
ऐसी बात नहीं है। बस, आपकी कृपा चाहिए।
वे थोड़ा मुस्कराए। उनकी
मुस्कान में प्रसन्नता की जगह व्यंग्य साफ दिखाई दे रहा था। बोले - “खुशामद मुझे पसंद नहीं है। मुझे ऐसे लोग पसंद हैं जो काम को गंभीरता से
लेते हैं। रिसर्च कोई हंसी-खेल नहीं है कि बस इधर-उधर से कट-पेस्ट करके डाक्टर बन
जाओ”।
“सर,
मैं सचमुच पूरी गंभीरता से काम करना चाहता हूं। आप मुझे मौका देंगे
तो मैं अपने को प्रूव कर सकूंगा‘‘।
उन्होंने ऊपर से नीचे तक
मेरा जायज़ा लिया और फिर दरवाज़े से हट कर जगह बनाते हुए कहा - ‘‘अंदर आ जाओ”।
ड्राइंग रूम से होते हुए
वे मुझे एक छोटे से कमरे में ले गए। कोने में दीवार से लगी एक मेज़ रखी थी जिस पर
एक टेबल लैंप रखा था और बहुत सारी किताबें फैली हुई थीं। दूसरी तरफ की दीवार से
सटा कर दो कुर्सियां रखी थीं। उन्हीं में से एक पर बैठने का इशारा कर मेज़ से सटी
कुर्सी पर वे स्वयं बैठ गए। शॉल उतार कर मेज पर रखते हुए बोले - “अपने बारे में विस्तार से बताओ”।
मैंने खुद के बारे में, अपने परिवार के बारे में और अपनी सरकारी सेवा के बारे में उन्हें बताया।
‘‘तुम
सरकारी नौकरी करते हो? पीएच.डी. की क्या ज़रूरत है?‘‘
‘‘सर,
नौकरी तो मैं अपना परिवार चलाने के लिए कर रहा हूँ। बाबूजी के जाने
के बाद मेरे सामने और कोई विकल्प ही नहीं बचा था। मेरा अंतिम लक्ष्य लेक्चरार बनना
है। इसीलिए नौकरी के साथ-साथ मैं पढ़ता भी रहा हूं‘‘।
‘‘तो
तुम्हें लगता है, प्राइवेट परीक्षाएं पास करके लेक्चरार
बनोगे? पीएच. डी करने के लिए समय कहां है, तुम्हारे पास? सरकारी नौकरी करोगे या रिसर्च?
लेक्चरार बनने का तुम्हारा शौक पूरा करने के लिए मैं तुम्हें रिसर्च
कराऊँ?‘‘ उनके स्वर में तल्ख़ी साफ झलक रही थी।
‘‘सर,
मैंने पढ़ाई को बहुत सीरियसली लिया है। हर साल प्रथम श्रेणी में पास
हुआ हूं। एम.कॉम भी मैंने डिस्टिंक्शन लेकर पास किया है। मैं औपचारिकता के लिए
नहीं, सचमुच रिसर्च करना चाहता हूं‘‘।
‘‘हूं,
देखना पड़ेगा। जिस विषय पर रिसर्च करना चाहते हो उसके सिनोप्सेस बना
कर लाओ। काबिलियत देखने के बाद ही रजिस्ट्रेशन के बारे में बात करेंगे। परसों सुबह
ठीक दस बजे यहां मिलो”। यह कहते हुए वे उठ गए । यह मेरे लिए
चले जाने का इशारा था। में उनका शुक्रिया अदा करता हुआ बाहर निकल आया।
पूरे दो दिन लग कर मैं सिनोप्सेस बनाता रहा और तय समय पर उनके घर जा पहुंचा। वे फिर से मुझे अपने स्टडी रूम में ले गए। उसी कुर्सी पर उन्होंने बैठने का इशारा किया और स्वयं भी उसी कुर्सी पर बैठ गए जहां उस दिन बैठे थे।
“लाओ,
क्या कर कर के लाए हो दिखाओ‘। मैंने अपने बैग
में से कागज निकाल कर उन्हें पकड़ा दिए। कुछ क्षण वे कागज़ों को उलटते-पलटते रहे,
फिर बोले - “ऐसे ही करोगे रिसर्च?‘‘
‘‘सर,
अपनी तरफ से मैंने पूरी कोशिश की है कि ठीक-ठाक बन जाए‘‘।
‘‘इसे
ठीक-ठाक कहते हैं? तुम्हें तो यह भी नहीं पता कि विषय क्या
है और करना क्या है”।
मैं चुपचाप बैठा रहा।
उन्होंने मेज़ से पैन उठाया और कुछ करेक्शन करके कागज मुझे पकड़ा दिए। फिर बोले - “इसे अच्छी तरह देख लो। साफ-सुथरा टाइप कराओ और कल सुबह ग्यारह बजे मुझे
यूनिवर्सिटी में मिलो”।
उनकी डांट से लगता था, मेरी सारी मेहनत बेकार गई थी और फर्स्ट इम्प्रेशन ही गलत हो गया था। कागज
खोल कर देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। मैं जान बची लाखों पाए की कहावत याद करता
हुआ कागज हाथ में लिये ही तुरंत घर से बाहर निकल आया। बाहर निकल कर मैंने उन
कागजों पर नजर डाली तो मुझे यह देख कर हैरत हुई कि उन्होंने कुछ टॉपिक्स का क्रम
बदलने और एक नया टॉपिक जोड़ने के अलावा और कुछ भी नहीं किया था। उनकी इतनी तगड़ी
डांट का अर्थ मैं समझ नहीं पा रहा था। कैसे उनके साथ काम कर पाऊंगा।
रजिस्ट्रेशन होने के बाद
उन्होंने मुझसे साफ-साफ कह दिया था कि सरकारी नौकरी के कारण समय न मिलने का बहाना
नहीं चलेगा। काम तय समय में ही पूरा करना होगा। हर चेप्टर लिखने से पहले उनसे
चर्चा करनी होगी और उनके अनुमोदन के बाद ही आगे बढ़ना होगा।
मैं पहला चेप्टर लिखने से
पहले उनसे चर्चा के लिए समय मांगता रहा, पर शायद
वे व्यस्त थे। काम शुरू करने की ललक लिए रविवार को मैं उनके घर जा पहुंचा। वे बाहर
लॉन में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। स्कूटर रुकने और लॉन के छोटे गेट के खुलने की आवाज
से उन्होंने मुंह के सामने से अखबार हटा कर मुझे देखा। मैंने नमस्ते की तो
उन्होंने पूछा - “क्या है?‘‘
“सर,
वो मैं पहला चेप्टर लिखने से पहले आपसे चर्चा के लिए आया था‘‘।
उन्होंने हाथ का अखबार
नीचे घास पर पटक दिया और गुस्से में बोले - ‘‘कभी भी
मुंह उठाए चले आओगे? क्या मैं तुम्हारे लिए हर समय खाली बैठा
रहता हूं‘‘।
‘‘सर,
आज रविवार था, इसलिए ...........!‘‘
“रविवार है
तो क्या हुआ। गुलाम हूं मैं तुम्हारा?‘‘
मुझसे कुछ बोलते नहीं बन
पड़ रहा था। उनसे बिना पूछे नहीं आना चाहिए था मुझे? मैं “सॉरी‘‘ बोल कर तुरंत ही वहां से निकल लिया। मेरे
स्कूटर स्टार्ट करने तक उन्होंने फिर से अखबार उठाकर पढ़ना शुरू कर दिया था।
कुछ दिन बाद मैंने हिम्मत
करके उन्हें फोन किया और आने के लिए इजाजत मांगी। उन्होंने अगले दिन आने के लिए
कहा तो मेरी सांस में सांस आई।
मैं पहले चेप्टर की
रूपरेखा बना कर ले गया था। उन्हें इस बात पर भी ऐतराज था कि उनसे चर्चा किए बिना
मैंने रूपरेखा तैयार कर ली थी। अनमने ढंग से उन्होंने उसे देखा था और कहा था -
वैसे तो ठीक ही है, पर इसमें रिसर्च मैथॉडोलोजी भी जोड़ दो।
मैंने विनम्रता से कहा - सर, मैं सोच रहा था, उसे दूसरे चेप्टर में शामिल करूं क्योंकि.... “ठीक है तो फिर सोचते रहो। मेरे पास क्यों आए हो?‘‘ यह कह कर कागज उन्होंने जोर से मेज पर पटक दिये।
“नहीं सर,
मैं सिर्फ यह बता रहा था कि उसे दूसरे चेप्टर में रखने का मेरा
प्रस्ताव क्यों है?‘‘
वे एकदम उठ कर खड़े हो गए
थे-- “सैकड़ों पीएच.डी करा दी मैंने। अब तुम
सिखाओगे मुझे?‘‘
मैं एकदम सहम गया था।
उनका गुस्सा और बात संभालने की गरज से मैंने कहा था - ‘‘आप ठीक कह रहे हैं सर, मैं तो यूं ही अपनी अक्ल लगा
रहा था। आप जो कहेंगे वही होगा, सर‘‘।
‘‘ठीक है,
आगे से इस बात का ख्याल रखना‘‘।
मैंने तय कर लिया था कि
अपनी तरफ से अब कोई सुझाव नहीं दूंगा। बस पूरी मेहनत करूंगा और फिर जैसा हेगड़े सर
कहेंगे वैसा करता रहूंगा।
मेरी इस नीति ने अपना काम
करना शुरू कर दिया था। वे जैसा कहते, मैं
चुपचाप मान लेता। हां, वे अपनी तरफ से डांटने-फटकारने का कोई
अवसर हाथ से नहीं जाने देते।
धीरे-धीरे मैं भी इस सब
का आदी हो चला था और अपने काम को आगे बढ़ाता रहा था।
तभी कुछ ऐसा हुआ जिसकी
मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मेरा ट्रांसफर एक ऐसे शहर में कर दिया गया था जो यहां
से काफी दूर था। जब मैंने यह बात हेगड़े साहब को बताई तो उन्होंने कहा - “मैंने पहले ही कहा था, सरकारी नौकरी के साथ रिसर्च
करना कोई आसान काम नहीं है। अब हो चुकी तुम्हारी रिसर्च‘‘।
मैंने कहा - “सर, आधा काम तो हो चुका है। नई जगह जाकर व्यवस्थित
होने में थोड़ा समय तो लगेगा, पर मैं समय पर इस काम को पूरा
करूंगा। आप अगर इज़ाजत देंगे तो मैं कुरियर से आपको चेप्टर भेजता रहूंगा”।
उनके माथे पर बल पड़ गए थे
- “देखो कुणाल, मैं फालतू नहीं
बैठा हूं। तुम क्या समझते हो, देखने के बाद चेप्टर तुम्हें
वापस भेजने के लिए मैं अपना समय बरबाद करता रहूंगा। इतना समय नहीं है मेरे पास।
तुम बीच-बीच में यहां आते रहो और अपना काम मुझे दिखाते रहो। समझ गए न?‘‘
जैसा मैं सोच रहा था उसके
उलट नए शहर में मुझे काफी समय मिलने लगा क्योंकि ऑफिस से लगी हुई सरकारी कॉलोनी
में मुझे फ्लैट मिल गया था और ऑफिस जाने-आने में लगने वाला समय पूरा का पूरा बच
गया था। फिर, ऑफिस से छूटने के बाद करने को कुछ खास
नहीं बचता था, इसलिए रिसर्च का मेरा काम बहुत तेजी से होने
लगा। बीच-बीच में शनिवार-रविवार मिला कर मैं अपने पुराने शहर चला जाता और हेगड़े
साहब को काम दिखा लाता। हमेशा की तरह वे बहुत मीनमेख निकालते और उनके सुझाव मैं
नोट कर लाता। हां, वे यह अहसान जताना नहीं भूलते थे कि मेरे
आने पर उन्हें मेरे लिए जबरदस्ती समय निकालना पड़ता था।
थीसिस सबमिट करने का समय
बिलकुल नजदीक आ चुका था। हेगड़े साहब ने साफ कह दिया था कि और समय बढ़ाने के लिए
यूनिवर्सिटी को नहीं लिखेंगे, हर हाल में तय समय
पर थीसिस जमा करानी होगी।
मेरा काम लगभग पूरा हो ही
चला था। हेगड़े साहब के सभी सुझावों को शामिल करके उसे अंतिम रूप देने के लिए मैं
शीघ्र ही उन्हें दिखा लेना चाहता था। पर, इसी बीच
ऑफिस में कुछ ऐसा काम आ गया कि कई दिन तक मुझे ओवरटाइम करना पड़ा। ऑफिस की व्यस्तता
खत्म होते ही मैं थीसिस का काम पूरा करने बैठ गया। नियत तारीख बहुत पास आ चुकी थी।
मुझे अपने पुराने शहर जाकर हेगड़े साहब से मिलना, उनके नए
सुझावों को थीसिस में शामिल करना, फाइनल प्रतियां तैयार करना
और अन्य सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उन्हें यूनिवर्सिटी में जमा कराना पहाड़
जैसा लगने लगा था। रात-दिन लगा कर मैंने अपने हिसाब से काम पूरा किया और अपने
पुराने शहर जाने के लिए ट्रेन में बैठ गया। हां, जल्दबाजी
में अपने आने की खबर हेगड़े साहब को नहीं दे पाया था। मुझे पता था, इस देरी के लिए और उन्हें सूचना दिए बिना पहुंचने के लिए उनसे भरपूर डांट
खानी पड़ेगी। रास्ते भर मैं अपने-आपको इसके लिए मानसिक रूप से तैयार करता रहा।
पूरी रात के सफर के बाद
गाड़ी सुबह ही सुबह वहां पहुंच गई थी। दोस्त के घर पहुंचने के बाद कुछ देर थकान
उतारता रहा। नाश्ता करने और फिर तैयार होने के बाद घड़ी पर नज़र डाली। सुबह के
ग्यारह बजने को थे। हेगड़े साहब से मिलने का यह ठीक समय था। हेगड़े साहब को फोन करने
की हिम्मत नहीं हो रही थी। मैंने लगभग चार सौ पृष्ठों की अपनी थीसिस उठाई और भगवान
का नाम लेकर हेगड़े साहब के घर चल दिया।
मैं घंटी पर घंटी बजाए जा
रहा था, पर कोई दरवाजा नहीं खोल रहा था। मुझे
बेहद आश्चर्य हुआ क्योंकि अकसर वे एक ही घंटी में दरवाजा खोल दिया करते थे। उनके
अलावा उनके घर में सिर्फ उनकी पत्नी ही रहती थीं। इकलौता बेटा अमरीका में सैटल हो
गया था। मैं यह सोच कर ही परेशान हो गया कि अगर वे शहर से बाहर विशेषकर बेटे के
पास अमरीका चले गए होंगे तो मेरा सारा काम अटक जाएगा। उन्हें बिना बताए आने का
परिणाम यह भी हो सकता है, यह तो मैंने सोचा भी नहीं था।
मैं बदहवास खड़ा था और समझ
नहीं पा रहा था कि क्या करूं। तभी उनके पड़ोसी की नजर मुझ पर पड़ी। वह अपनी खिड़की से
ही चिल्ला कर बोला - “कौन है, क्या चाहिए?‘‘
“वो मुझे
हेगड़े सर से मिलना था। मैं सूरत से आया हूं। इतनी देर से घंटी बजा रहा हूं,
कोई खोल ही नहीं रहा।
“अच्छा
-अच्छा तुम बाहर से आए हो, तभी तुम्हें नहीं पता कि हेगड़े
साहब का तो एक्सीडेंट हो गया। उनकी टांग में कई फ्रेक्चर हुए हैं। तीन दिन से वे
सिटी अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में भर्ती हैं। उनका आपरेशन तो हो चुका है,
पर प्लास्टर कटने में दस दिन लगेंगे। तब तक वे अस्पताल में ही
रहेंगे‘‘।
यह खबर मुझे स्तब्ध कर गई
थी। अपने काम को छोड़ हेगड़े साहब के स्वास्थ्य की चिंता सताने लगी । इतने दिन से
उनके संपर्क में था। उनकी बात-बेबात की डांट-फटकार खाने के बाद भी उनके प्रति मेरे
दिल में एक सम्मान का भाव था। फिर, मेरे पास
तो कुल मिला कर एक हफ्ता ही बचा था। दस दिन वे अस्पताल में रहने वाले थे। फिर उसके
बाद भी क्या मैं तुरंत ही उनसे थीसिस देखने के लिए कह सकूँगा। मैंने तय किया कि
मैं फिलहाल थीसिस को बिलकुल भूल जाऊंगा। इसके सिवाय मेरे पास कोई चारा था भी नहीं।
उनसे मिलने के बाद मुझे वापस सूरत लौट जाना चाहिए। छुट्टियां खराब करने का भी कोई
मतलब नहीं। दोबारा आऊंगा तो काम आ जाएंगी।
वे प्राइवेट वार्ड में
थे। उनसे मिलने कभी भी जाया जा सकता था। पर, मैं
चिंता, भय और संकोच से भरा था। वे जख्मी हालत में अस्पताल
में पड़े थे। पता नहीं, मुझे यहां देख कर कैसी प्रतिक्रिया
देंगे। वे यह अंदाजा आसानी से लगा सकते थे कि मैं यहां क्यों आया होऊंगा।
बहुत हिम्मत संजो कर मैं
अस्पताल पहुंचा। उनके कमरे में घुसा तो उनकी हालत देख कर मुझे वाकई बहुत कष्ट हुआ।
उनकी पूरी दाहिनी टांग में प्लास्टर बंधा हुआ था और वह छत से लटकी एक रस्सी के साथ
बंधी अधर में झूल रही थी। वे एक ऊंचे तकिए के सहारे पलंग पर सीधे लेटे थे और उनकी
पत्नी उन्हें जूस पिला रही थीं। मुझ पर नजर पड़ते ही हेगड़े साहब ने जूस के गिलास को
हाथ से परे कर दिया और बोले - “आओ कुणाल, यहां आकर मेरे पास कुर्सी पर बैठ जाओ”।
‘‘सर,
आपको इस हालत में देख कर बहुत बुरा लग रहा है। कैसे हुआ यह सब?‘‘
एक पीड़ा भरी मुस्कान उनके
होठों पर खेल गई- “अठारह साल की उम्र से स्कूटर चला रहा हूं,
कभी पत्थर से भी नहीं टकराया। उस दिन तो खाली सड़क थी, पता नहीं कहां से अचानक एक साइकिल सवार सामने आ गया और उसे बचाने के चक्कर
में मैं गिर गया और स्कूटर का सारा भार दाहिने पैर पर आ गया।
‘‘मुझे
सचमुच अफसोस हो रहा है, सर। आप जल्दी से ठीक हो जाएं”।
वे बहुत जोर से हंसे- “बहुत जल्दी तो कुछ नहीं होने वाला है। समय लगेगा इसमें। तुम्हारी थीसिस
सबमिट करने का समय तो निकल ही जाएगा‘‘।
“आप इसकी
चिंता बिलकुल न करें सर। समय बढ़ाने के लिए यूनिवर्सिटी को लिख देंगे। मेरी थीसिस
से ज़्यादा जरूरी आपका स्वस्थ होना है”।
मेरी बात को नज़रअंदाज़
करते हुए उन्होंने कहा - ‘‘तुम फाइनल ड्राफ्ट बना कर ले आए हो न?
ऐसा करो उसे मुझे यहां दे जाओ”।
‘‘कैसी
बातें कर रहे हैं, सर। जब तक आप पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते,
मैं इस बारे में सोचूंगा भी नहीं। यह मुझसे नहीं हो सकेगा सर‘‘।
‘‘कुणाल मित्तल, मेरे पैर में चोट लगी है। आंखें और हाथ दोनों सलामत हैं। मैं यहां पड़ा-पड़ा कर क्या रहा हूं, टांग अधर में लटकाए या तो खिड़की से बाहर देखता रहता हूं या फिर टी.वी.पर नज़रें गड़ाए रखता हूं। सच कहूं, मेरी सोच के विपरीत सरकारी नौकरी में होते हुए भी तुमने बहुत तेजी से और बहुत अच्छा काम किया है। जब सबकुछ तैयार है तो फिर देर क्यों करें।
मैं अवाक सा उन्हें देख
रहा था। मुझे असमंजस में देख कर उन्होंने कहा - ‘‘सुना
नहीं, मैंने क्या कहा है। लगता है तुम्हें मेरी डांट खाने की
आदत पड़ गई है। मेरी डांट सुन कर ही उठोगे क्या‘‘।
मन न मानते हुए भी मैंने
उन्हें थीसिस लाकर दे दी थी। लेटे-लेटे दो दिन में ही उन्होंने उसे पढ़ डाला था।
एक-दो जगह पैंसिल से कुछ करेक्शन भी किए थे, जिन्हें
मैंने फाइनल ड्राफ्ट में शामिल करके उन्हें दिखा दिया था।
थीसिस समय पर जमा हो गई
थी। हेगड़े साहब को यह सूचना देने में अस्पताल गया तो वे काफी खुश नज़र आए। बोले - “वाइवा की तैयारी शुरू कर दो।
मैं उनके पैर छूना चाहता
था, पर उनका एक घायल पैर तो अधर में लटका हुआ था। रुंधे
गले से इतना ही कह पाया - जल्दी स्वस्थ हो जाएं सर। मेरी कोई भी जरूरत हो तो
निस्संकोच बुला लें। मैं तुरंत आ जाऊँगा। उनके चेहरे की मुस्कान में ऐसा कुछ था,
जिसने मुझे अपनेपन से भर दिया था।
सूरत जाने के लिए गाड़ी में बैठ चुका हूं। गाड़ी धीरे-धीरे स्टेशन छोड़ रही है और मैं सोच रहा हूं कि हर व्यतित्व के भीतर कितनी ही तो परतें छुपी रहती हैं। कब कोई नई परत खुल कर आपको चैंका दे. इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।