फूल की पत्ती से कट सकता है हीरे का जिगर (नरेन्द्र मोहन: क्यों तेरा राह गुज़र याद आया।)
समीक्षा
डॉ. नरेन्द्र मोहन
आज हम समाज, राजनीति, आर्थिक
चेतना अथवा सांस्कृतिक चेतना के लिए गाँधी जी की कोई बात मानो या न माने (न मानना
ही आसान होता जा रहा है) परंतु हर क्षेत्र में गाँधी की चर्चा ज़रूर करेंगे। उनमें
सत्य के प्रयोग और इसके लिए जोखिम उठाने का आत्मबल था जिसका आरंभ दक्षिण अफ्रीका
से ही हो गया था। भद्र पुरुषों में सेक्सुअलिटी के साथ इनके प्रयोगों की रस सिद्ध
व्याख्या में रस लिया परंतु चंपारण प्रयोग को पीछे रखा।
हिंदी साहित्य के व्यापक विकास क्रम में आलोचना विधा मेंकाफी
जिम्मेदारी से भी काम हुआ परंतु बहुत से मित्र गहरी पैठ में नहीं जाते हुए आलोचना
का अर्थ कटु आलोचना या ‘रगड़ाई’ के रूप में
ही देखते हैं। वहाँ कृति भी ओझल हो जाती है। कृतिकार के व्यक्तिगत संबंध ज्यादा
चर्चा का कारण बनते हैं। अपने सुदीर्घ रचनात्मक सफर में नरेन्द्र मोहन का रचना
कर्म ऐसे हालात के रू-ब-रू नहीं है। यदि यह कहा जाये कि आलोचना में प्रशंसा का भाव
ग़ैरहाजिर होता है/रहता है, तो गलत होगा। आप अगर कृति के
सकारात्मक पहलू की खूबी नहीं बता सकते तो आपको ध्वंस का भी अधिकार नहीं।
कवि, नाटककार, संपादक,
आलोचक- नरेन्द्र मोहन (30 जुलाई 1935) ने दर्जनों पुस्तकें विभिन्न विधाओं में रची हैं। उसी रचनात्मक, संवेदनात्मक अनुभव खंड से आत्मकथा, डायरी और मित्रों
को उनके स्नेह को सहेजा है- ‘क्यों तेरा राह गुज़र याद आया’
पुस्तक अपने समकालीनों के साथ पत्र संवाद है जिसमें 1970 से 2019 तक के काल-खंड के अनेक रचनाकारों के साथ
उनके पत्र-संवाद दर्ज़ है।
पत्रों को दशकों तक संभाल पाना कठिन कार्य है। धूल, काल और विस्मृति उन पर कुप्रभाव छोड़ती है। नरेन्द्र मोहन बखूबी परिचित है।
उनका कहना है: ‘हुआ यह कि पत्रों के घोसलों में मैने जैसे ही
हाथ डाला, कई पत्र हाथ में आते ही भुरभुरा गए, वे इस कदर खस्ता हालात में थे कि कोशिश के बावजूद मैं उन्हें उबार न सका।
काल के लंबे अंतराल में कई पत्र-गुच्छों को अंतिम सांस लेते हुए देखना मेरे लिए
अपनी ही दुनिया के एक हिस्से को अंधेरे में जाते हुए देखना रहा है। पत्रों की
अवसान वेला में जो पत्र बचे रहे उन्हें लेकर ही किताब प्रस्तुत है।
‘पत्रों की अवसान वेला’ एक सिक्का है, जिसके दोनों तरफ़ की इबादत पढ़े जाने की मांग करती है। एक तरफ़ यही है कि एक
अरसे बाद पत्र पीले पड़ कर खंडित होने लगते हैं, दूसरी तरफ़ नई
तकनीक का हावी होना है, जिसमें फोन, मीडिया,
सूचना के विस्फोट की अपनी भूमिका है। आज संदेश सभी कुछ हो गया है
जिसने पत्र-लेखन को ‘ज़हमत’ में बदल
दिया है, ‘आत्म की पुकार’ नहीं रहने
दिया। इस पर तकनीक और बाजारवाद का विषाक्त असर भी है। भ्रामक सूचनाओं का जितना
बाज़ार आज गर्म है, वह पत्र लेखन का हिस्सा कभी नहीं बना।
पत्र में हर बात आत्मिक सौंदर्य से लिप्त होती है।
नरेन्द्र मोहन सिक्के इस पहलू पर कुछ कहे बिना रह नहीं पाये: ‘आप जानते ही हैं कि सूचना-तंत्र, मीडिया, इंटरनेट, मोबाइल और नए अर्थ-तंत्र के उभार के साथ
सूचना-विस्फोट की जो आँाधी चली है उसमें सदियों पुरानी रिवायतें ढेर हो गयी हैं।
ऐसे में आप ही बताइये, पत्र कैसे बचता ? परंतु जितना बचाया जा सकता है, उतना बचाया जाना
हमारा नागरिक, साहित्यिक फर्ज़ है, जिसे
अंजाम तक ‘क्यों तेरा राह गुज़र याद आया’ में पहुँचाया गया है। ‘सुनने से ज़ियादा लिखना’
लेख में श्रीराम त्रिपाठी ने बखूबी कहा है, ‘रचना
का स्तर जीवन मूल्यों और हालात के मद्देनज़र से न के बराबर होता है। जद्दोजहद की
प्रक्रिया और संरचना ही पाठक को गतिशील करते हैं। इंसान के मन के विकास का मतलब है
मूल्यों और हालात में विकास। हालात का विकास मूल्यों के विलोमानुपात में होता है,
जैसे जैसे मन विकसित होता है, हालात और जटिल
होते जाते हैं। जटिल संरचना श्रेष्ठता की परिचायक है। रचना लगाव का परिणाम है,
(आलोचना, जन-मार्च 2007)
नरेन्द्र मोहन को भी पानी और हवा अपने हालात से मिले हैं, बहुधा उनसे टकराकर। भारत विभाजन के हालात, पंजाब के हालात, असमानता की कार्यशैली, जनता की बात महज सिद्धांत के बूते नहीं, ऐतिहासिक अनुभव के आधार पर तय करना जो उनके नाट्य-कर्म में ज़्यादा स्पष्ट होकर आया है। उनके मन को विकसित करता रहा है जिसका अंकन आत्मीय जन को लिखे पत्रों में बार-बार हुआ है और मित्र गण अक्सर इसे स्वीकार करते रहे हैं क्योंकि रचनाधर्मिता का मुख्य आधार जीवन है और सामाजिक चेतना वाले आत्मीय जनजीवन का एक हिस्सा ही है।
हम परिस्थितिजन्य अवसर पर किसी से मिलते हैं। कुछ देर मिलते रहने पर एक आपसी संपर्क और फिर अधिक गहरा होने पर एक वेवलेंथ बनने लगती है। संवाद का यह सिलसिला मैत्री को एक आधार देता है। ‘सोबती-वैद संवाद’ पुस्तक इसका उदाहरण है जहाँ सर्जनात्मक जमीन, फितरतें, अनुभव, प्रतिबद्धता तथा जुड़ाव-रचाव कुछ आत्मीय प्रसंगों से जुड़कर पाठक को अपनी तरफ जोड़ लेती है। वहाँ पक्षकार ही रहे-कृष्णा सोबती और कृष्ण बलदेव वैद। यहाँ एक तरफ नरेन्द्र मोहन ही हैं दूूसरी तरफ निर्मल विनोद, राजकुमार कुम्भज, राजीव सक्सेना, मन्नू भंडारी, अमरकांत, राजेन्द्र यादव, स्वदेश दीपक, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, शलभ श्रीराम सिंह, राजेश जोशी, सोमदत्त, कीर्ति केसर, अजय शर्मा, तरसेम गुजराल, देवेन्द्र इस्सर, नेमिचंद्र जैन, द्रोणवीर कोहली, मोहन सपरा गिरिजाकुमार माथुर, विष्णु प्रभाकर, रामदरश मिश्र जैसे एकाधिक पीढ़ियों के अनेक विधाओं में काम करने वाले, उपलब्धियों से संपन्न लोग, जो वैशिवक जग की गतिविधियों पर नज़र रखे हुए हैं, उनके साथ बौद्धिक, भावनात्मक, कहीं गिले-शिकवे, कहीं आत्मिक प्रसंगों का ज़िक्र अपनी भूमिका’ का निर्वाह करते हैं। भाभी अनुराधा उनकी जीवन संगिनी के साथ भी रागात्मक संवाद शामिल है।
त्रिलोचन जब ‘उस जनपद का कवि हूँ’ जैसी कविता (साॅनेट) की रचना कर चुके थे उसके दो दशकों के अनंतर संघर्ष करते आदमी की कविता के समानांतर हिंदी की दुनिया में गाली-गलौज़ की हद तक बहस भी देखी गयी। विनोद भारद्वाज ने फेस बुक से विरक्ति ज़ाहिर की भी- ‘मेरा साहित्यक घमासान के योद्धाओं से विनम्र निवेदन है वे खुद ही मुझे अमित्र या ब्लाॅक कर दें। तुम अपने बहिश्त में रहो मुझे मेरे जहुन्नम में छोड़ दो।’
अनेक काव्यांदोलनों का साक्षी हुए नरेन्द्र मोहन ने कविता के वेग केा संभाले रखा, संयमित रहे, उत्तेजना के ताप में अपने भीतर-बाहर की दुनिया में मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक संबंधों में आश्वतिपरक संतुलन बनाये रखा। ‘विचार कविता’ को लेकर निर्मल विनोद को (10 अगस्त 1973 के पत्र में लिखा) ‘विचार कविता में विचार बाहर से आरोपित नहीं है, कविता के भीतरी रचाव के हिस्से के तौर पर है। विनोद जी, हमारा मकसद तो कविता में संवेदना के साथ विचार की स्थिति को रेखांकित करना है यानी दोनों साथ-साथ। कविता में विचार को ख़ारिज़ कहने वाले भाववादी और विचार की सक्रियता को खत्म कर उसे विचारवाद में ढालने वाले इसे अपना सिरदर्द बना लें तो क्या किया जा सकता है ?
कविता का मशीन बनना उन्हें क़तई नापसंद रहा है। ललित शुक्ल को 18-04-1974 के एक पत्र में जगदीश गुप्त के लेखक पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा ‘यों यदि किसी तरह सिद्ध हो गया कि कविता में विचार ही सब कुछ है तो कविता को मशीन बनते देर नहीं लगेगी।’ उनकी अन्य आलोचनागत दुविधा पर टिप्पणी की- ‘कविता की नई से नई धारणा, काव्य प्रवृत्ति और आंदोलन का ज़िक्र तो वे करते हैं जैसे ‘साठोत्तरी कविता’, ‘युवा कविता’, ‘विचार कविता’ मगर यह नयी कविता के नज़रिए से ही और यही एक बात उनके विश्लेषणों को, कविता संबंधी समझ को धुंधलती और एकपक्षीय बना देती है।’
सच्चा साहित्य साहित्य के सतही, पतनशील संस्कृति के रूप की तरफ़ बढ़ने का साहित्य नहीं होता। दायित्वपूर्ण ढंग से साहित्य रचना का काम कई बार उस दीवार को तोड़ने का भी होगा जो निरकुंश होती व्यवस्था, कविता या फिर नाटक के सामने खड़ी की जा सकती है तब जेनुइन लेखक की प्रतिरोधक क्षमता उसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति का सौंदर्य हो जाती है। इसे देखते हुए नरेन्द्र मोहन के सात खून माफ किये जा सकते हैं (हालाँकि शायद ही कभी कोई मच्छर तक मारा हो)।
कविताकार राजकुमार कुंभज ने 22 नवंबर 1975 को अपने एक दुखद अनुभव के बारे में लिखा- जब 15-17 पुलिसवाले वायरलैस जीपें लेकर आये। उनके कमरे की तलाशी ली और पकड़ कर थाने ले गये। रात भर उन्हें थाने में रखा गया। 2.12.75 को नरेन्द्र मोहन ने इसके उत्तर में लिखा कि उनहें ब्रेख्त की सतरें याद आ रही हैं ‘यह कैसा जमाना है कि पेड़ों के बारे में बातचीत भी लगभग जुर्म है क्योंकि इनमें बहुत सारे कुकर्मों के बारे में चुप्पी भी शामिल है’ ...लेखन में ही खटकना और खतरनाक दिखना क्या काफी है? लेखनी से निकलने वाले परिणामों को कितने लेखक झेल पाते हैं? झेलने के लिए तैयार हैं ? मुझे नहीं पता तुम्हारी सचमुच कितनी तैयारी है ? हमारे यहाँ लेखक कितनी जल्दी समझौते और समर्थन की भाषा बोलने लगते हैं। क्या हमारे लेखक-बुद्धिजीवी जोख़िम उठाने को तैयार हैं ?’
अपनी फैसला लेने की क्षमता और विचार पर प्रश्न-चिह्न लगते ही ‘संचेतना’ पत्रिका से किनारा कर लेने का फैसला कर
लिया था। एक पत्र डॉ. महीप सिंह को लिखते हुए कहा - ‘आप
जानते ही हो कि संचेतना के साथ मैं किस तरह जुड़ा कि मेरी संबद्धता गहराती ही गयी,
लेकिन इस बार शिद्दत से महसूस हुआ कि अगर संपादकीय निर्णयों में
मेरी समान भागीदारी नहीं है तो यों ही चिपके रहने का कोई मतलब नहीं है। यही सोच कर
मैं बड़े दुःख और मायूसी से ‘संचेतना’ के
संपादन से अलग हूँ। कृपया अगले अंक में मेरा नाम न दें।’
विभाजन अंतर्विभाजन ने मनुष्य और तदनुसार साहित्य को गहरे तक प्रभावित किया। राज्य प्रायोजित दंगों ने बुद्धिजीवियों को सोचने पर विवश किया। उनकी कविता ‘एक अग्निकांड जगहें बदलता’ में हिंदू-मुस्लिम सांप्रादायिक वैमनस्य की आग में धधकते पंजाब में यूसुफ का घायल होकर भागना, अमानवीयता का दंश ही है। विश्वंभरनाथ उपाध्याय ने 13.4.1981 के पत्र में उन्हें लिखा - अमानवीयता का दंश, सीमा से अधिक होने पर करुणा उन्माद की सृष्टि करता है। आदमी, एक पूरी कौम की धर्मान्धता को देखकर और स्वयं उसका आखेट बनकर पागल हो जाता है। पागल होकर ही अस्तित्व, अपने स्नावयिक हार्दिक पीड़ा की मार से बच सकता है। अतः युसूफ पगला सा हो जाता है।’
तरसेम गुजराल के पत्र में इसी कविता की चर्चा है। मंटों द्वारा व्यक्त विभाजन के दर्द की बाबत कहा - भारतीय उपमहाद्वीप के रचनाकारों में मंटो की अपनी जगह है। मंटो को आप जानते-समझते हैं। नहीं तो मंटो की कहानियाँ (1990), मंटो के नाटक (1991) पुस्तकों का संपादन क्यों करते ? मंटो अपनी बेबाकी, शानदार, रचनाधर्मिता के कारण मुझे भी पसंद है। मैं मंटो को कहते हुए सुन पा रहा हूँ- ग़लत राजनीति के कारण देश का बंटवारा और उस मौके का फायदा उठा, एक दिन में ही मैं अमीर बन जाऊँ, इतना नीचे गिरना मेरे लिए मुमकिन न था। चारों तरफ इतनी उलझन मैंने कभी नहीं देखी थी। किसी के चेहरे पर हँसी न कोई हताशा में डूबा हुआ था। किसी के जिंदा रहने की कीमत किसी की मौत थी।’ (दोजखनामा उपन्यास)।
10.11.1983 को कीर्ति केसर ने पत्र में लिखा- अब पंजाब की आबोहवा बहुत बदल गयी है-
आने वाले समय बहुत ही डरावना दिख रहा है। शाम को छः बजे बाज़ार बंद हो जाता है।
सूनी सड़कों पर रात को कुत्ते रोने लगते हैं। किसी बड़े अनिष्ट की आहटें भी स्वतः ही
सुनायी देती है। ... पंजाब के हालात बहुत तेजी से विस्फोटक होते जा रहे हैं। डॉ.
रमेश कुंतल मेघ ने भी इन्हें लिखा- मैंने 14 जून को आपके पास
आना था। नहीं आ पाया। कैसे आता ? 3 जून से 10 जून तक यहाँ की नाकेबंदी से बचकर कुत्ते और बिल्ली भी नहीं आ सकते थे....
पिछले चैबीस सालों में सन् 83-84 ही ऐसे काले वर्ष रहे हैं
जब सांप्रदायिकता का काला नाग फूंकारता रहा.... ‘‘नरेन्द्र
मोहन ने अपने एक पत्र में अपनी ‘खून की भाषा में’ कविता का उल्लेख किया- मैं डर क्यों रहा हूँ/ मैंने हत्या नहीं की/मैं
कांप क्यों रहा हूँ/मैंने पिस्तौल नहीं चलायी।
रंगनाथ तिवारी को 6 नवंबर 1984 के पत्र में कहा ‘लूटपाट, आगजनी
और मारकाट की भयावह घटनाएँ हो रही हैं। क्या यह इंदिरा गाँधी की हत्या का बदला है।
नरेन्द्र मोहन के रचना-व्यक्तित्व का एक बड़ा हिस्सा उनके नाटकों के रूप में सामने है। ‘कहै कबीर सुनो भाई साधो’ (1988), ‘सींगधारी’ (1988), ‘कलन्दर’ (1991), ना मैंस लैंड’ (1994), ‘मि. जिन्ना’ (2005), ‘हद हो गयी यारो’ (2009), मंच अंधेरे में (2010), ‘मलिक अंबर’ (2012), अपने रचनात्मक तनाव तथा नाटक के शिल्प का हिस्सा बनने तक के अनेक तनाव-बिंदु भी ज़ाहिर है कि पत्रों में अभिव्यक्त हुए हैं। नेमिचंद्र जैन, दीपक जोशी, नरेन्द्र मोहन के कुछ पत्र नाटकों की तैयारी और मंचन संबंधी इस किताब में शामिल हैं। निदेशक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के नाम एक पत्र में ‘अभंग गाथा’ नाटक की रचना प्रक्रिया पर लिखते हैं- इन दिनों में एक नये नाटक अभंग पर काम कर रहा हूँ। यह नाटक संत तुकाराम की जीवनी और वाणी को लेकर है। युवावस्था में ये भयावह अकाल और महामारी की गिरफ़्त में आ गये थे। भूख से बेहाल होकर उनकी पत्नी और पुत्र चल बसे थे। आक्रमणकारियों द्वारा उनका गाँव पददलित था। ब्राह्मणों और उच्च जातियों के अन्याय और दमन वे बचपन से सहते चले आ रहे थे। स्थितियाँ हद से तब गुजरी गयीं जब संस्कृत के पक्षपाती पंडितों ने लोकभाषा और लोक-संगीत में रचित उनके अभंगों को नदी में डूबोने और गाँव से बहिष्कृत करने का आदेश दिया। अंततः सच के प्रति उनकी निष्ठा के सामने विरोधी टिक न सके।
लेखन में निरंतर सक्रिय रहने पर भी नरेन्द्र मोहन निकट के संबधों के
प्रति संवेदनशील रहे हैं। पत्नी अनुराधा के नाम एक पत्र में कहा - ‘तुम जानती हो कहीं भी जाने से पहले मैं दुविधा में रहता हूँ कि जाऊँ न
जाऊँ और फिर दुविधा में ही चला जाता हूँ। इस बार तुम्हारी सेहत को लेकर मुझे चिंता,
घेरती रही। तुम ने कहा कि आप जरा भी चिन्ता न करें। पति के रूप में
चिन्ता पत्नी के रूप में आश्वासन गृहस्थ जीवन का सौंदर्य है।
अजय शर्मा को उसके उपन्यास पर 02.02.09
को पत्र लिखा - इराक, बेहरीन, सउदी अरब,
पाकिस्तान जैसे देशों की आंतरिक स्थितियों और वहाँ अमेरिका के
हस्तक्षेप और अपने देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जाल और बाजारवाद को लेकर आपने
जो ढांचा खड़ा किया है, उसी में तुम पिरो ले गए हो
कसकती-दुखती खौलती कथाएं- उपकथाएं।’’
‘क्यों तेरा राह गुज़र याद आया’, नरेन्द्र मोहन के अंतरंग अविभाज्य अंतर्मन को खोलती किताब है जिसमें बाहरी तनाव से बच पाना असंभव सा हो गया। संवाद को उन्होंने सारा महत्व दिया है। मोहन सपरा की काव्य पुस्तक काले पृष्ठों पर उकरे शब्द पर बात करते हुए उनकी कविता ‘संवाद गाथा’ और अंत तक संवाद की चर्चा की है। संवादों का रचाव इनमें अपूर्व है। आज के विकट समय में संवाद को कायम रखते हुए विचारों और विसंगतियों को नज़रअंदाज़ न करना कविता की विश्वसनीयता को बचाए रखना है। कभी रामधारी सिंह दिनकर के लिए हरिवंशराय बच्चन ने कहा था- दिनकर को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिंदी सेवा के लिए अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिए। नरेन्द्र मोहन की कविता, आलोचना, नाटक, लेखक और अंतरंग साहित्य (आत्मकथा, डायरी, पत्र-संवाद) का अलग अलग मूल्यांकन होना चाहिए।