होली की गुँझियाँ

होली की गुँझियाँ बनाई और बरबस आँख भर आईं

बच्चें बहुत याद आए।

उनका हँसता मुस्कुराता खिल खिल हास्य

रसोई के चक्कर मारना

ख़ुशबू सूँघकर दूर से अंदाजा लगाना

अंदाजे के बाद शर्तें लगाना

फिर हमला बोल हाथ साफ करना

मेरा उन्हें डाँटना

पहले भोग लगे फिर तुम झूठ फैलाना

मायूस चेहरे देख, मेरा पिघल जाना

ये ही तो मेरे माखन चोर घनशयाम है

ये ही मेरी राधा रानी

देवी श्यामा हैं

झट से उन्हें लिपटा गलें से,

मुँह भर मिष्ठान भर दूँ

पर कहॉ हैं वे बाल कृष्ण कहाँ हैं वे राज दुलारी

दुनिया के दूर छोर पर सात समुद्रों पार

चार महाद्वीपों पर जा बसे है

कहीं सूरज उगता पहले

कहीं दोपहर है और कहीं पर रात

घड़ी की सूइयों में उन्हें ढूँढती रहती हूँ ?

होली आई तो अवश्य है पर

आँखें बरबस भर आईं क्यूँ हैं ।


वो वहाँ जेल में

वासुदेव और देवकी

जेल में बंद दरवाजे पर पहरा

क्या तब भी करोना, कोविड आया था ?

होली नहीं खेली उन्होंने मिले नहीं किसी अपने से !

क्या वे भी कवारनटाइन में सह रहे, थे अकेलापन ?

चारों ओर बियाबान सन्नाटा

यह है इक्कीसवीं सदी का जेल।

कृष्ण ने अवतार लिया और माता पिता को

बेड़ियों से आजाद किया

आज बंद है जिस जेल में वहाँ कृष्ण नहीं आयेगें

वहाँ है सरकार के सख़्त नियम

होली नहीं दीवाली नहीं

वे जानते हैं चौदह दिन कवारनटाइन के ! 


 

 मधु सोसि, अहमदाबादमो. 9724303410


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