नरेन्द्र मोहन की लंबी कविताएँ: भय के बीच साहस की महागाथाएँ
समीक्षा
डॉ. पी. माणिकयांबा ‘मणि’, हैदराबाद, मो. 09866139120
समकालीन हिंदी साहित्य में नरेन्द्र मोहन की लंबी कविताओं का
अपना एक विशिष्ट स्थान है। लंबी कविताओं
के प्रति आकर्षण के कारण हिंदी की लंबी कविताओं को मैं लगातार पढ़ती आ रही हूँ।
नरेन्द्र मोहन से मिलने से पहले ही दो-तीन राष्ट्रीय संगोष्ठियों में उनकी लंबी
कविताओं की मैंने विशेष चर्चा की थी। किंतु 2008 में
पहली बार मौलाना आज़ाद उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में मिलने
का अवसर मिला। वह बड़ी मुख्तसर-से मुलाक़ात थी। उन्होंने अपना नया संकलन ‘नीले घोड़े का सवार’ मुझे दिया। तब तक उन्होंने मेरा
अनुवाद ‘जलगीत’ (गोपी की लंबी कविता)
पढ़ लिया था। उन्होंने मुझे उस अनुवाद के लिए बधाई दी। फिर मैं चली आयी थी। मगर उस
संक्षिप्त परिचय में ही उनके सौम्य, गंभीर और स्नेहिल
व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया। कविता की कोई भी नयी किताब मिलती है तो मेरी
आदत है कि उसी रात मैं उसे पढ़ना शुरू कर देती हूँ। कविता के प्रति इसी आकर्षण के
कारण उसी रात मैंने संकलन की अंतिम कविता पहले पढ़ी, दोबारा,
तीसरी बार भी पढ़ गयी। लंबी कविता ‘प्रिय बहिणा
.....’ में जैसे मैं डूबती गयी। फिर मैंने क़लम और काग़ज़ लिया।
उसका तेलुगू में अनुवाद किया। घड़ी में रात के दो बज रहे थे। उस दिन उस
अनुवाद-प्रक्रिया की जो अनुभूतिमय यात्रा की उसकी स्मृति से मैं आज भी पुलकित हूँ।
‘एक अग्निकाण्ड जगहें बदलता’, ‘एक अदद
सपने के लिए’ और ‘खरगोश-चित्र और नीला
घोड़ा’ - कविताएँ पाठक के अंतरतम को झकझोरती हैं। कवि की
अनुभूति की सच्चाई और मार्मिकता कविताओं को एक विलक्षण धरातल पर ले जाती है।
‘प्रिय बहिणा, ’’ कविता का कथ्य नरेन्द्र मोहन की
अन्य तीन कविताओं से भिन्न है। इस कविता में विभाजन, मोहभंग,
उग्रवाद, सांप्रदायिक तनाव आदि से अलग
पारिवारिक व्यवस्था एवं पुरुषाहंकार के शिकंजे में फँसी स्त्री का मर्मस्पर्शी
चित्रण हुआ है। महाराष्ट्र की संत कवयित्री बहिणाबाई के जीवनवृत्त को आधार बनाकर
नारी-जीवन की पराधीनता के उन महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को, उनसे
मुक्ति की ज़द्दोजहद का कवि ने प्रभावी चित्रण किया है और चैखट से मुक्ति का द्वार
खोलकर स्वयं बहिणा को बाहर आते हुए दिखाया है। कविता का यह उत्कर्ष आकस्मिक नहीं
है। नरेन्द्र मोहन की इस कविता के कथ्य और शिल्प की पृष्ठभूमि के रूप में ‘खरगोश-चित्र और नीला घोड़ा’, ‘जैसे हम पाते हैं प्रेम’,
‘स्पन्दन’, ‘एक नदी हैं रचना’ आदि कविताओं को देखा जा सकता है।
बहिणाबाई का आत्मालाप कोई काल्पनिक वक्तव्य उनका झेला हुआ भोगा हुआ
यथार्थ ही नहीं हैं, उन कष्टपूर्ण स्थितियों की अभिव्यक्ति भी
है जिनसे वह गुजरी। यहाँ कविता में प्रयुक्त ‘मैं’, बहुआयामी है समस्त स्त्री जाति के अंतर्मन की चेतना से जुड़ा हुआ। इतना ही
नहीं इस कविता का ‘मैं’ सहृदय पाठक को
भी अपने साथ लेकर चलता है।
बाल्यकाल के स्मृति-चित्रों के माध्यम से कविता में रंग भर जाते हंै
और पाठक में स्फूर्ति भर देते हैं: किलकारियाँ भरती एक लड़की / गुड़िया के साथ
गुड़िया बनी एक लड़की / मृग छौनों के पीछे भागती एक मासूम लड़की / मौज में पेड़ों पर
चढ़ती-उतरती / डालों पर झूलती लड़की / अपने में खोयी पत्थरों-चट्टानों पर / चित्र
बनाती लड़की/देखती हूँ उसे / तितलियों के पीछे भागते हुए/बादलों को मुट्ठियों में
भरते हुए / पहाड़ी के पीछे से निकलते सूरज की पहली झलक पाते हुए / फूलों को चटखकर
कुछ कहते और मुस्कुराते हुए
कविता के बीच इन स्मृति-चित्रों के दृश्य-बिंबों में
बहिणा बाई के बचपन की सहज-सरलता और अल्हड़पन भरे सपने, हमारी आँखों के सामने यथार्थ के कठोर धरातल से टकराकर किस प्रकार चूर-चूर हो जाते हैं, कविता में इस ओर अर्थपूर्ण संकेत हैं। सखी से उसका संवाद कविता में नाटकीयता की सृष्टि करता है:
पहले ही दिन भाँप लिया मैंने / उम्मीद नहीं कोई यहाँ / और उदासी
बेपनाह / ‘और सपना?’
उसी ने पूछा -
कह दिया तल्खी से / ‘तीस साल
बड़े पति के साथ / तू बता, सपना देखूंगी क्या?’
इन पंक्तियों को पढ़कर मन में टीस ही नहीं उठती, उस सामाजिक विसंगति की कचोट भी पाठक को तिलमिला जाती है।
मेरे अंतरंग से उठती यह जानी-पहचानी आवाज़ ही है जो बचपन से निरंतर
मुझे संभाल रही है। मृत्यु के सामने जीने शक्ति देने वाली उस अभिन्न सखी ने मुझे
झकझोरा - सपना आकाश है देखती रह। सांस लेना मुश्किल है जहाँ वहाँ का जुगनू है सपना, गहन अंधकार में चुटकी भर उजाला है सपना। मैं सोचती रह गयी। यही है जो मुझे
निरंतर सपना देखने के लिए प्रेरित करती है। वह यह जानती है कि मेरे जीवित रहने के
लिए सपना ही सहारा है - वह नन्हीं बहिणा मुझे याद आती रहती है। मुझे समझ में नहीं
आ रहा कि मैं कब तक सपना देखती रहूं?
पर क्या करूँ? किसी की क्रूर हँसी मुझे चारों तरफ़ से
घेरती है, डराती-धमकाती है और मैं काठ-सी हो जाती हूँ। कुछ
सूझता ही नहीं। कमरे से रसोई तक चक्कर काटती रहती हूँ! अचानक एक स्वर सुनायी दिया।
कहाँ से, पता नहीं? किस खिड़की से,
कमरे के कौन से सुराख़ से? ऐसा लगा मुझे ही
बुलाया जा रहा है और मैं उससे खिंचती हुई राधा - जैसी वहीं आ गयी। देखती हूँ -
सामने जयराम स्वामी, तुकाराम के अभंग का कीर्तन कर रहे हैं।
मुझे नहीं पता मैं कब गाती, डोलती, आनंद
में डूबी घर वापस आयी। क्या कहूं उसके बाद की दुगर्ति शरीर और मन की। मुझे मुझमें
ही दफना दिया गया। मैं एक प्रकार से अपाहिज हो गयी। गुलामी को मैं क्यों झेलूं।
परंपरा, रीति रिवाज़, क्यों न मैं उनको
तोड़ डालूँ? फिर अंतरंग से वही पुकार जैसे वह रागिनी मुझे
जीना सिखा रही है। मुझे लगा घर से बाहर आ मैंने घर पा लिया।
इस प्रकार पूरी कविता इस आत्मालाप के साथ अनूठी बन पड़ी है। भावों की
सघनता, सान्द्रता एवं आर्द्रता के कारण कविता
अत्यंत मर्मस्पर्शी है। स्त्री मुक्ति का भावनात्मक धरातल, बिना
किसी नारेबाजी के, वैचारिक धरातल को कैसे झकझोर सकता है - यह
कविता उसका प्रमाण है। महाराष्ट्र की संत कवयित्री बहिणाबाई के जीवन के आधार पर
स्त्री मुक्ति-गाथा का अत्यंत आत्मीयता के साथ चित्रण किया गया है। कविता में कवि
की भावुकता एवं सहृदयता के कारण बिंब इतने मर्मस्पर्शी एवं सजीव बन पड़े है कि कई बार
लगता है जैसे बहिणाबाई स्वयं सजीव रूप में सामने आ खड़ी हुई हो। पुरुषाहंकार के
प्रतिनिधि पति का अमानवीय अत्याचार, स्त्री की असहायता का
चित्रण मन को विचलित करता है। इस सबसे बहिणाबाई की मुक्ति की गाथा यह बताती है कि
मुक्ति लौकिक हो या आध्यात्मिक अपने अंतरंग से और स्वयं की शक्ति से ही प्राप्त की
जा सकती है।
‘नीले घोड़े का सवार’ संकलन में नरेन्द्र मोहन की अन्य
कविताएँ हैं ‘एक अग्निकांड जगहें बदलता’, ‘एक अदद सपने के लिए’ और ‘खरगोश
चित्र और नीला घोड़ा’। इनमें पहली दो कविताएँ देश-विभाजन की
टेªजडी के स्वानुभूत संदर्भों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति हैं।
इसीलिए यह भोगा हुआ यथार्थ मर्मस्पर्शी हो गया है। तीसरी कविता ‘खरगोश-चित्र और नीला घोड़ा’ की काव्य-कला और सृजन
प्रक्रिया बेजोड़ है। स्त्री पुरुष संबंधों में प्रेम की व्यथा से भरी स्थितियाँ,
उनके प्रति धार्मिक शक्तियों का विरोध और टकराव, चित्र के फ्रेम को तोड़ कर खरगोशों का बाहर आ जाना - इसके द्वारा रचनाकार
ने प्रेम की स्वाधीनता का जयघोष किया है। ‘एक अग्निकांड
जगहें बदलता’ जैसी लंबी कविता में भारत-विभाजन की टेªजडी, भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्वप्न-भंग
का चित्रण हुआ है। स्वतंत्रता आंदोलन के दर्मियान भारत की जनता ने दो प्रमुख सपने
संजोये थे - 1. जाति, धर्म, भाषा आदि विषमताओं से रहित एक सुखी समाज 2. हर आदमी
के लिए अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के अवसर, हर नागरिक को
आगे बढाने के लिए समुचित सामाजिक वातावरण, न्याय व्यवस्था जो
हर नागरिक की सुरक्षा के लिए हो। किंतु ये सपने चकनाचूर हो गये। इससे स्वतंत्रता
ही खंडित नहीं हुई, स्वतंत्रता आंदोलन के मूलभूत मूल्यों को
भी मिट्टी में मिला दिया गया। अहिंसा, करुणा और सद्भावना
जैसे मूल्यों का हनन हो गया।
देश में भयंकर अग्निकांड, हत्याएं,
लूटपाट आदि का ताण्डव नृत्य देखने को मिला। अपनी आँखों के सामने
अपने घर को धराशायी होते देख अपार दुख में डूब जाना और मानसिक संतुलन खो देना कोई
आश्चर्य की बात नहीं है। इस कविता में युसूफ इन सारे अनुभवों का प्रतिनिधि होकर भी
विशिष्ट व्यक्ति लगता है। अपनी जन्मभूमि, आत्मीय अनुभूतियों
से भरा अपना घर, वहाँ के नदी पेड़-पौधों से जबरदस्ती हटा दिए
जाने की युसूफ की प्राणघातक पीड़ा की अनुभूति कविता में कई स्तरों पर फैलती नज़र आती
हैं।
सहानुभूति के लिए तरसता वह स्वयं जब अपनी जन्मभूमि जाता है तो देखता
है घर-परिवार के लोगों की हत्या, ध्वस्त मकान और
साथियों का अमानवीय व्यवहार। उसे लगता है कि वह किसी अपरिचित प्रांत में क्रूर
जानवरों के बीच एकाकी खड़ा है। विभाजन के नाम पर कांप जाना, किसी
भी चीज़ को दो भागों में देखकर बेचैन हो जाना, बार बार रावी
नदी की ओर दौड़ना, पेड़ों से लिपट जाना आदि उन्माद के लक्षण
दिखायी देते है। धार्मिक सहिष्णुता, सौहार्द्र के जलसे,
भाषण आदि उसे अर्थरहित लगते हैं। उसकी आँखों में हरा-भरा, फूलों से भरा, तूफानों की लपेट में समूल उखड़ जाने
वाला चित्र ही है और युग-युगों से जिन पुलों से वे चलते रहे थे उनका ढह जाना जैसे
चित्र संवेदनशील व्यक्तित्व का निरंतर पीछा करते रहते हैं। आज़ादी की लड़ाई के दौरान
जो सीना तान कर बंदूक की गोलियों को फूलों की तरह झेलने का साहस रखता था वह आज
पागल की हँसी के साथ मानसिक अस्थिरता को ढोये फिर रहा है। अनेक प्रतीकों के साथ
कवि ने अपनी निजी अनुभूतियों और तत्कालीन भारत की सामाजिक, राजनीतिक
स्थितियों के संदर्भों के साथ मार्मिक चित्रण किया है। इसमें बड़ी शिद्दत के साथ
विभाजन की ट्रेजडी साकार करता हुआ मानो यूसुफ ही हमारे सामने हैं।
‘एक अदद सपने के लिए’ का नेपथ्य भी देश-विभाजन ही है।
एक अदद आदमी आज़ादी के बारे में सपना देखता है। उन सपनों का दिवास्वप्न के रूप में
ही नहीं बुरे सपने जैसा लगना फलैश बैक शैली में चित्रित है। समरजीत को पिता याद
आते हैं, उनके साथ ही दादा और जालियांवाला बाग़ का नरसंहार,
सिख उग्रवाद विविध रूपों में प्रत्यक्ष हो जाता हैं। बीच में गुलाब
के फूलों की बाड़ी उगाने वाला संतवन्त बन्दूक की गोलियाँ दागने वाला कब बन गया?
उसके बाद तो वह पागल ही हो गया।
कथावाचक समरजीत और सतवंत - तीनों जिस दिन स्वतंत्रता मिली, उसी दिन पैदा हुए। मगर तीनों के रास्ते अलग हो गये। चारों तरफ़ बंदूक की
गोलियों का चलना और शवों के ढेर। जो जीवित भी है वह भी चेतना रहित। शहर वीरान हो
गये। उग्रवाद और अराजकता के हालात के प्रतीकात्मक वर्णन के साथ रचनाकार की पीड़ा,
बेबसी व्यथा जुड़ी है जिस से वह गुलाब के पौधे की टहनी को बंदूक में
बदलता देखता है। भय और साहस के अनेक रूप यहाँ उभरते दिखते हैं।
‘खरगोश चित्र और नीला घोड़ा’ लंबी कविता में सृजनात्मकता के संघर्ष की सार्थक अभिव्यक्ति हुई है। इस कविता के अनेक चित्रों में उस संघर्ष का नाटकीय ढंग से चित्रण हुआ है जो कवि के अद्भुत शैली-शिल्प का परिचय देते हैं। ये चित्र अपने आप प्रस्तुत होकर सामाजिक यथार्थों को सार्थक रूप में अभिव्यक्त करते हैं। सृजनात्मकता, जीवन रागिनी , धार्मिक अवरोध, अंतरंग संघर्ष, भय और हिंसा से भरा सामाजिक व्यवस्था का फ्रेम, खरगोश का फ्रेम तोड़कर बाहर आना, सामाजिक बदलाव को अनेक प्रतीकार्थि को अपने में समाहित किए हुए है। इस कविता के पात्र, घटनाएँ जो स्मृति पटल पर अंकित थे उन्हें कवि ने अपनी वैचारिकता के कारण एक सूत्र में पिरोकर, एकात्मकता और तारतम्य को बखूबी निभाया है। उस वैचारिकता के कारण कविता में संवेदना की प्रगाढ़ता को कोई नुकसान नहीं हुआ, बल्कि भावाकुलता, संवेदना, संवेग और वैचारिकता एवं भाषा को सहज सरलता के कारण कविता में विलक्षणता आ गयी है। लंबी कविता के शिल्प का यह विशिष्ट उदाहरण है।
नरेन्द्र मोहन की इन लंबी कविताओं में इतिहास के प्रति उनकी प्रगाढ़ स्पृहा दिखाई देती है। कवि ने ऐतिहासिक घटनाओं का परिप्रेक्ष्य ग्रहण करते हुए इतिहास के उस काल-खण्ड में साधारण जन समुदाय के जीवन संघर्ष की घटनाओं को, और मन में बेतरतीब फैली स्मृतियों को अपने रचनात्मक कौशल द्वारा कालातीत बना दिया है। यहाँ इतिहास की क्रूरता के साथ मानवीय चित्र जुड़े हुए हैं - मानचित्र में न होने के बावजूद, स्मृति में रावी के होने के चित्र नेरेटर को ही नहीं पाठक को भी बुरी तरह झकझोर देते हैं। इन कविताओं को पढ़ना एक आर्द्र अनुभूति है।
इन कविताओं ने मुझे भी झकझोर दिया। इसीलिए मैंने तेलुगु में इनका अनुवाद किया। 2010 में इन कविताओं का संकलन हैदराबाद से प्रकाशित हुआ। तेलुगु साहित्य समाज ने मेरे अनुवादों को सराहा भी।