टुलु की प्रेमकथा
लघुकथा
डॉ. निशा नंदिनी भारतीय, तिनसुकिया, असम, मो. 9435533394
यह प्रेम कथा है.. असम के
आदिवासी परिवार में जन्मी एक सोलह वर्षीय लड़की टुलुमुनि की। जिसको प्यार से सब
टुलु कहते थे।
एक सीधा साधा आदिवासी
असमिया परिवार कोकराझार के एक छोटे से गांव में रहता था। चार बच्चों सहित छह लोगों
का यह परिवार दिहाड़ी मजदूरी करता था।
टुलु इस परिवार की सबसे
बड़ी बेटी थी।
बंडल नामक एक लड़का जो
टुलु के ही गांव में रहता था... दोनों एक साथ दिहाड़ी मजदूरी करते थे। बंडल की उम्र
लगभग अट्ठारह वर्ष की थी। किशोरावस्था से ही दोनों एक दूसरे की तरफ आकर्षित हो गए
थे।
इन आदिवासियों में भी
कुनबे परिवार व उपजातियां होती हैं...
इसलिए टुलु के परिवार को
उनकी बेटी का बंडल से मिलना बिल्कुल पसंद नहीं था। वह टुलु से कह चुके थे कि..तुम
बंडल से मिलना- जुलना छोड़ दो...क्योंकि वह हमारे कुनबे का नहीं है...लेकिन उन
दोनों के ऊपर परिवार की बातों का कोई असर नहीं था।
वह पहले की भांति ही ढींग
नदी पर रोज शाम को मिलते और घंटों बातें करते...तथा हर सुख-दुख में एक दूसरे का
साथ निभाने की कसमें लेते थे। दोनों का आत्मिक प्यार दिन प्रतिदिन गहराता जा रहा था।
इस तरह सच्चे प्यार में
पगे दोनों को दो वर्ष हो गए थे। अब टुलु अट्ठारह वर्ष की और बंडल बीस वर्ष का हो
चुका था। जल्दी दोनों विवाह के बंधन में बंधना चाहते थे...पर दोनों के परिवार का
रवैया आड़े आ रहा था।
टुलु के परिवार वालों ने
कह दिया था कि... अगर तुम बंडल के साथ गईं तो... हम तुम्हें कभी स्वीकार नहीं
करेंगे...पर टुलु ने उनकी बातों को हवा में उड़ा दिया। प्रतिपल उन दोनों का प्यार
हवा में खुशबू की तरह घुल मिल रहा था। उन दोनों का प्यार जाति के भेदभाव से दूर
निस्वार्थ था।
समुद्र की गहराई नापी जा
सकती थी पर... उन दोनों का प्रेम मापा नहीं जा सकता था। उनका सच्चा प्रेम
हीर-रांझा, लैला-मजनू और रोमियो-जूलियट की तरह परवान
चढ़ रहा था। दोनों एक दूसरे से कभी अलग ना होने की कसमें खा चुके थे।
जिस तरह सुख के बाद दुख
और दुख के बाद सुख का आना निश्चित है। उसी तरह टुलु के सुखी जीवन में भी दुख का
पहाड़ टूट पड़ा।
अचानक एक बड़ा हादसा हुआ।
दोनों एक बड़ी सी इमारत पर
दिहाड़ी का काम कर रहे थे कि... यकायक तीसरी मंजिल से बंडल का पैर फिसल गया...और वह
नीचे गिर पड़ा।
ठेकेदार बंडल को तुरंत
एंबुलेंस में डालकर अस्पताल ले गया। बंडल बच तो गया पर...उसके पेट में बहुत गहरी
चोट लगी थी। वह डिब्रूगढ़ के मेडिकल कॉलेज में भर्ती था। टुलु को गहरा सदमा लगा। वह
सब कुछ भूल कर रात दिन उसकी सेवा में लग गई। वह पूरी-पूरी रात जाग कर अस्पताल में
उसकी सेवा करती थी।
बंडल के परिवार वाले भी
उसकी देखभाल कर रहे थे...लेकिन सबसे ज्यादा बंडल की सेवा में टुलु का योगदान था।
जब टुलु के घर वालों को इस बात का पता चला...तो उन्होंने टुलु को घर से हमेशा
हमेशा के लिए तिलांजलि दे दी।
टुलु को अपने परिवार
द्वारा छोड़ दिए जाने की लेश मात्र भी चिंता नहीं थी। वह तो सिर्फ...बंडल को पूरी
तरह ठीक देखना चाहती थी।
अब बंडल को अस्पताल में
पड़े हुए...लगभग दो माह हो चुके थे। वैसे तो बंडल पूरी तरह ठीक था... बात भी कर रहा
था...पर पेट के दर्द से कराहता रहता था। टुलु उसका सारा काम बिस्तर पर ही करती थी।
वह छोटी सी अट्ठारह वर्ष की टुलु दो माह में ही सयानी हो चुकी थी। वह रात-दिन अपने
डांगरिया बाबा से बंडल के ठीक होने की प्रार्थना करती थी।
असम के आदिवासी लोग खोकन
पेड़ या अन्य किसी पेड़ पर डांगरिया बाबा यानी शिव का वास मानकर उसकी तन मन से पूजा
करते हैं...और मनोवांछित फल की कामना करते हैं। रानी माया ने भी साल वृक्ष के नीचे
ही महात्मा बुद्ध को जन्म दिया था।
वैसे भी हिंदू धर्म में
विभिन्न वृक्षों की पूजा की जाती है...क्योंकि यह वृक्ष हमें जीवन की सांसे देते
हैं।
डांगरिया बाबा ने टुलु की
प्रार्थना स्वीकार नहीं की। बंडल के पेट की सर्जरी नाकामयाब रही और उसके सांसो की
डोर टूट गई।
टुलु की आंखों के आगे
अंधेरा छा गया। उसे चारों तरफ काला गहन अंधकार दिखाई दे रहा था। वह अपने जिस सच्चे
प्रेमी की रात दिन एक कर के सेवा कर रही थी...भविष्य के रंगीन स्वप्न देख रही थी।
वह अचानक उसे रोता बिलखता छोड़ कर चला गया।
बंडल के परिवार में सिर्फ
उसका बूढ़ा पिता था। मां नहीं थी.. और बहनों की शादी हो चुकी थी। पिता को भी बुढ़ापे की बीमारी थी और...वह बिस्तर
पकड़ चुका था।
टुलु ने मृत्यु शैया पर
पड़े बंडल से अपनी मांग में सिंदूर भरवा लिया था...इसलिए बंडल का सब क्रिया कर्म भी
टुलु ने ही किया।
जैसे तैसे पंद्रह दिन तो
टुलु को बंडल के घर में शोक करते हुए बीत चुके थे। बंडल के पिता ने कहा...अब बेटा
नहीं रहा...तो तुम यहां कैसे रह सकती हो ? कुनबे के
लोग क्या कहेंगे तुम्हारी तो विधिवत शादी भी नहीं हुई है। अब तुम अपने घर वापस चली
जाओ।
यह बात सुनते ही टुलु को
बहुत जोर का झटका लगा...उसे काटो तो खून नहीं...क्योंकि उसके परिवार वालों ने तो
पहले ही उसे घर से निकाल दिया था। अब बंडल का परिवार भी घर से निकाल रहा था...वह
कहां जाएगी।
उसने बंडल के परिवार के
आगे हाथ जोड़कर कहा...उसे तब तक यहां रहने दिया जाए...जब तक उसका कहीं रहने का
ठिकाना नहीं हो जाता है। उसने बीमार बूढ़े पिता के पैर छूकर कहा...मुझे कुछ समय के
लिए रख लीजिए। मैं आपकी सेवा करुंगी...पर उसका आदिवासी समाज इस बात की अनुमति नहीं
दे रहा था।
आदिवासी समाज की पंचायत
बैठी...और यह निर्णय लिया गया कि अब इस लड़की को यहां से जाना होगा...क्योंकि इसका
ब्याह बंडल के साथ नहीं हुआ है।
अब टुलु को घर से खदेड़ दिया गया। वह दुखी मन से अपने पिता के घर गई। वहां पर भी सभी लोगों ने उसको घृणा की दृष्टि से देखा...
और उसका तिरस्कार करके
भगा दिया।
वह परेशान होकर इधर-उधर
भटकने लगी। काम तो उसे दिहाड़ी का मिल जाता था...पर सर छिपाने की जगह नहीं थी।
थक-हार कर
टुलु को रेलवे स्टेशन पर पटरियों के किनारे शरण लेनी पड़ी।
टुलु को वहां रहते हुए कुछ समय ही बीता होगा कि...एक दिन उसको विक्षिप्त अवस्था में...फटेहाल सड़क पर चिल्लाते हुए देखा गया।
टुलु के सच्चे आत्मिक प्रेम ने उसे मृत्यु तो नहीं दी...लेकिन मतिभ्रष्ट करके दर-दर भटकने के लिए मजबूर कर दिया। जब तक समाज से जाति-भेद की अमानवीयता का कोढ़ दूर नहीं होगा तब तक न जाने कितनी टुलु बावली सी इधर-उधर भटकती रहेंगी।