पाखी
अन्नदा पाटनी, -यू.एस.ए., email : annada.patni@gmail.com
खुले मैदान में एक बड़े
समारोह का आयोजन था। चारों तरफ हरे भरे पेड़, मनमोहक
महक लिए ठंडी बयार के झोंके और पास में बहती हुई छोटी सी साफ सुथरी नदी। भला इस से
सुंदर स्थल क्या हो सकता था ऐसे आयोजन के लिए जिसका प्रयोजन ही था अपना प्रचार
ताकि स्पर्धा के इस युग में लोगों, विशेषकर प्रभावशाली तबके
के लोगों का ध्यान खींच कर अपनी छवि बना ली जाय।
यह समारोह एक नई एन जी ओ
संस्था का प्रथम प्रयास था। अतः अतिथियों की सूची में मानव संसाधन मंत्री, उच्च पदों पर आसीन आला अफसर, तथा नामी कंपनियों के
मालिकों के अलावा संभ्रात समृद्ध परिवार सम्मिलित थे। निमंत्रण पत्र, हस्तनिर्मित मंहगे कागज पर, किसी कलाकार द्वारा
उद्देश्य को लक्ष्य करता हुआ आधुनिक शैली में रेखांकित चित्र,समारोह में सम्मिलित होने के लिए आकर्षित कर कहा था।
इस एन जी ओ संस्था का नाम
था ‘जनहित’।जैसा कि नाम
से स्पष्ट था, इसका प्रमुख उद्देश्य था समाज के विभिन्न
जरूरतमंद वर्ग की भलाई के लिए कटिबद्ध रहना। सबसे पहले इसके लिए इन्होंने चुना एक
अपंग 16 वर्षीय कन्या पाखी को, जिसका
एक पैर एक दुर्घटना में घुटने के ऊपर से काटना पड़ा था। यह उस समय की बात है जब
भारत में इलेक्ट्रॉनिक क्षेत्र में अधिक विकास नहीं हुआ था। आज की तरह न मोबाइल
फोन थे, न संपर्क के अन्य साधन और ना हीं जल, बिजली के कोई विकल्प।
पाखी बहुत ही कष्टकर जीवन
व्यतीत कर रही थी। दिन भर माँ बाप का कोसना और जिधर से निकलो, लोगों का ‘लँगड़ी लँगड़ी’ कह कर
चिढ़ाना। अपने दैनिक कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना उसे बहुत कचोटता था पर सबसे ज्यादा आहत वह तब होती जब लोग उसे ‘बेचारी‘ कह कर सहानुभूति दिखाते। कुछ दरिंदों ने तो
उसकी लाचारी का फायदा उठाने की कोशिश भी की। कभी निराश क्षणों में दुर्बल हो सोचती
कि इतनी लंबी जिंदगी अपने दम पर कैसे गुजारेगी, इस से तो मर
जाना ही बेहतर है पर फिर हिम्मत बटोर कर कहती,‘‘यह तो कायरों
का काम है और मैं कायर नहीं हूँ।‘‘
तभी सुनने में आया कि
कृत्रिम अंगों के निर्माण का बीड़ा कुछ चिकित्सा संस्थानों ने उठाया है। इसके
अंतर्गत ‘जयपुर फुट’ का बड़ा
नाम हुआ जिसने दिव्यांगो के जीवन में विशेष क्रांति ला दी। ‘जयपुर
फुट’ के कारण पंगु व्यक्ति वे सभी कार्य करने में सक्षम हो
पाया जो दो पैर वाला कर सकता था।
पाखी आर्थिक दृष्टि से कमजोर तो थी ही पर उस से भी अधिक उसके लिए दुखदायी था ‘लँगड़ी‘ नाम से संबोधन। इसलिए जब ‘जनहित’ संस्था ने उस से संपर्क किया तो वह एकदम राजी हो गई। संस्था ने अपने लक्ष्य की शुरुआत पाखी के कृत्रिम पैर लगवाने से की। अपनी साख जमाने के लिए समारोह से बढ़ कर क्या प्रचार साधन हो सकता था। एन. जी. ओ. के पास पैसों की समस्या तो होती नहीं बल्कि समाज सेवा के नाम पर न जाने कितने लोगों को भारी तनख़्वाह, कार, ड्राइवर, पेट्रोल आदि की सुविधा मुहैया कराई जाती है।
समारोह स्थल शहर से दूर
छोटी जगह पर था परंतु रमणीक था। अतः भारी संख्या में अतिथियों ने भाग लिया। जैसा
अक्सर होता है, इन में से अधिकतर की रुचि मनोरंजन और
बढ़िया खाने की ओर रहती है। कहने की जरूरत नहीं कि यूनिफॉर्म में लैस अनेक वेटर
ट्रे में तरह तरह की मंहगी शराब से भरे गिलास लिए वेज और नॉन वेज स्टार्टर लिए
चक्कर लगा रहे थे। कार्यक्रम विलंब से शुरू होने की घोषणा लगातार हो रही थी
क्योंकि मुख्य अतिथि व्यस्तता के कारण समय पर नहीं पहुँच पा रहे थे। फोटोग्राफर भी
उन्हीं के साथ थे पर लोगों को इस से कोई सरोकार नहीं था। खाने पीने में जो मशगूल
थे। एक आदमी मामूली सा कैमरा लिए घूम रहा था और नौसिखिए की तरह फोटो ले रहा था।
देर होने के कारण अंधेरा सा होने लगा था। पता नहीं बिना फ्लैश के वह क्या खींच पा
रहा होगा। तभी उद्घोषणा हुई कि मंत्री जी की गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई है अतः उनका व फोटोग्राफरों का आना संभव नहीं हो
पायेगा। जो कार्यक्रम दिन में चार बजे शुरू होकर छः बजे तक समाप्त होने वाला था वह
मंत्री जी के चक्कर में साढ़े छः तक शुरू ही नहीं हो सका।
अंधेरे ने पूरे पैर पसार
दिए। रोशनी के नाम पर आसपास के मिट्टी के घरों में जलती हुई लालटेनों की टिमटिमाती
रोशनी ही थी। कार्यक्रम तो छोड़ो पब्लिसिटी के लिए ख़बर के साथ फोटो तो बहुत जरूरी थीं। मोबाइल तो थे नहीं और
उस एक नौसिखिए का कैमरा बिना फ्लैश के क्या खींच पाता। तभी एक सज्जन ने सुझाव दिया
कि वह अपनी मर्सिडीज मैदान में लाकर उसकी हैड लाइट्स ऑन कर देंगे ताकि फोटो तो
खींची जा सकें। हुआ भी वही।
अब पाखी को कार से कुछ
दूर खड़ा कर उस पर फुल लाइट्स ऑन कर दी गईं। बेचारी अपने ऊपर इतनी तेज रोशनी में बहुत ही अटपटा महसूस कर रही
थी। ऊपर से उसे सलवार ऊँची कर नकली टाँग दिखाने को कहा जा रहा था। सलवार को थोड़ा
और,थोड़ा और ऊपर करो की पुकार मचती रही। सबको उसकी टाँग
देखने की पड़ी थी, किसी को इस बात से लेना देना नहीं था कि उस
जवान पाखी पर क्या बीत रही थी। जब सलवार जाँघ से भी ऊपर खींचने को कहा गया तो एकदम
से जोर से चिल्लाती पाखी की आवाज गूँज उठी,” बंद करो,
बंद करो। नहीं चाहिए मुझे यह टाँग, नहीं
खिंचवानी फोटो मुझे। “ इतना कह कर उसने वह नक़ली टाँग उतार कर
फेंक दी “खींचो अब जितनी फोटो खींचनी है।”
कोई कुछ समझे उस से पहले
अपने माता पिता का सहारा लेकर लँगड़ाती हुई वह वहाँ से चल दी। सब सन्नाटे में आकर
सकपका गए। पाखी की चीत्कार और उसके चंडी रूप के आगे ‘जनहित’ वालों की एक न चली। फिर जो अपेक्षित था,वही हुआ,कार्यक्रम एकदम असफल, निहित
स्वार्थ योजनाएँ निष्फल पर समाचार पत्र पाखी के साहस की ख़बरों से भरे पड़े थे।
पाखी सुबुक सुबुक कर रोती
हुई घर पहुँची तो रास्ते भर अपने गुस्से पर क़ाबू किए माँ बाप उस पर फूट पड़े और
उसकी जम कर पिटाई करने लगे। पीटते रहे और कहते रहे,” सोचा था
तेरी जिंदगी तो सुधर ही जायेगी, हमें भी रुपये पैसे की मदद
मिलती रहेगी। पर बहादुरी की औलाद, सारा गुडगोबर कर हमें सबके
सामने शर्मिंदा कर दिया।इतने पैसे ले लिए
हैं पर तेरी इस हरकत से अब हम क्या मुँह दिखायेंगे ‘जनहित’वालों को। “
इस पर तो मानो पाखी पागल
ही हो गई, बदहवास सी चिंघाड़ने लगी,” मार लो जितना मारना है, तब तुम्हारी शरम कहाँ चली गई
थी जब इतने आदमियों के सामने तुम्हारी जवान लड़की को नंगा कर रहे थे। तब शर्मिंदगी
महसूस नहीं हुई ? पैसे के सामने अपनी बेटी की इज्जत उतरवाने
में तुम्हें लाज नहीं आई ?”
माँ बाप गुस्से से पागल
थे,” अब सारी जिंदगी हमारी छाती पर मूँग दलेगी। लँगड़ी से
कौन तो शादी करेगा, हमारे पास पैसे नहीं हैं तुझे बैठ कर
खिलाने को और तेरी सेवा करने को। इस से तो मर ही जाती।”
सब दुखी होकर लुढ़क गए पर
पाखी की आँखों में नींद का नाम नहीं था। सोचा था टाँग लग जाने से वह आगे की पढ़ाई
के साथ कुछ कमाने का जरिया ढूँढ लेगी पर उसका वह सपना तो चूर चूर हो गया।सच तो है
माँ बाप कब तक उसका भार उठाएँगे। दुविधा में थी पर उसे लगा कि मर गई तो सब
समस्याओं से मुक्ति मिल जायेगी, उसे भी और घरवालों
को भी। शायद रोऐं पर शायद राहत की साँस लें।
चुपके से उठी और बिना आहट
किए घर से निकल पड़ी। उसे खुद नहीं मालूम था कि कहाँ जा रही थी। चलते चलते रेल की
पटरियाँ भी साथ हो लीं मानो कह रही हों कि जिंदगी समाप्त करनी है तो आ जाओ हमारी
शरण में। लगा यह भी एक विकल्प हो सकता है। तभी उसे किसी व्यक्ति के कराहने की एक
आवाज सुनाई दी। सोचा उसके जैसा कोई और
दुखी भी है। इसी बात ने हिम्मत दिलाई और वह पटरी के पास पड़े आदमी की ओर चल दी। पास
जाकर देखा अधेड़ उम्र का था। एकदम सीधे ही पूछ बैठी,” मर भी
नहीं पाए ?”
“अरे मरने
कौन गया था, यह तो कोई मार कर चलता बना। चलो मुझे अस्पताल
पहुँचाओ।
“अरे,
मैं कैसे ले जाऊँ, मैं खुद हैरान हूँ। “
पर पाखी का मन नहीं माना। एक ऑटो वाले को रोका और उसी की सहायता से उस व्यक्ति को अस्पताल ले आई। ख़ास घायल नहीं था। कुछ घंटों बाद उसे छुट्टी भी मिल गई। वह चलने को हुई तो उस व्यक्ति ने कहा,” अधूरा काम मत छोड़ो। अब घर भी छोड़ दो।”
वह जिंदगी से इतनी विरक्त
हो गई थी कि भय और शंका भी उसे डरा न पाए। हाँ यह सोच कर उसे तसल्ली मिली कि किसी
के लिए कुछ कर पाई। पता लगा वह व्यक्ति अकेला रहता है। क्या वह सही कर रही है
अकेले घर में अनजान व्यक्ति के साथ रह कर। पूरी रात गुजर गई इसी ऊहापोह में और
सवेरा हो चला। चाय बनाने के लिए पाखी को हिदायत दी गई। चाय पीते पीते वह आदमी हंस
कर बोला,” मरने की बात तुम्हारे मन में आई कैसे ?
क्या तुम इसी इरादे से पटरियों पर आई थीं ? जिंदगी
लेने का हक हमें थोड़े ही है, जिसने दी है उसे है।”
पाखी की पूरी कहानी उसने
गौर से सुनी। हंस कर बोला,” तुमने मेरी जान बचाई और मैने तुम्हारी।
अब एक काम करो, घर तो तुम जाने से रहीं, मुझे घर की देखभाल के लिए कोई चाहिए। तुम यह काम संभाल लो। तुम्हें महीने
की पगार मिलेगी। इसलिए सबसे पहले,वही जयपुर फुट लगवा लो। पैसे का हिसाब रखूँगा और अपना बहीखाता चलता रहेगा।
पाखी तीखी आवाज में बोली,”मुफ्त में मुझे भी कुछ नहीं चाहिए और हमदर्दी तो बिल्कुल ही नहीं।” घर का सब काम काज समझ कर पाखी ने कमान संभाल ली। बार बार मन में कल की घटना घूम रही थी। सोच रही थी कि अच्छा हुआ जो कुछ उसके साथ हुआ, नहीं तो जिंदगी भर दूसरों की दया पर ही निर्भर रहती और दीन बनी रहती। अब सबसे नाता तो टूट गया पर अपनी लड़ाई लड़ने का जो हौंसला और उत्साह उसके अंदर जाग उठा है वह उसे कोई भी उड़ान भरने के लिए तैयार कर रहा है।
भगवान की शुक्रगुजार थी
कि मनमोहन जैसे व्यक्ति से मिलने का संयोग दिलवाया। आज के युग में इतने नेक इंसान
का मिलना असंभव था। कुछ दिनों बाद उसे पता चला कि उनकी पत्नी कैंसर से पीड़ित हो चल
बसीं थीं। दरवाजे के पीछे रखी एक छड़ी जब मनमोहन जी ने उसे लाकर दी और कहा,”जब तक तुम्हारे टाँग नहीं लग जाती इस छड़ी से काम चला लो “ तो बहुत संक्षेप में उन्होंने बताया कि यह उनकी दिवंगत बेटी की है,
जिसकी टाँग गैंगरीन के कारण काटनी पड़ी और कुछ दिन बाद वह नहीं रही।
पूरे शरीर में गैंगरीन फैल चुका था। उसका मन दुखी तो बहुत हुआ पर यह सब छोड़ आगे जो
बढ़ना था।
सबसे पहले पाखी ने पता
लगा कर कृत्रिम अंग के लिए संपर्क किया और उनकी शाखा में जा कर लिखा पढ़ी के बाद
उसके टाँग लगा दी गई। वह बहुत खुश थी अपनी ख़ुद्दारी पर। बारहवीं पास कर चुकी थी पर
सर्टिफिकेट कहाँ थे अतः प्राइवेट से दोबारा बारहवीं की परीक्षा दी जिसमें उसके 90 प्रतिशत अंक आए। इस से उसका हौसला और आत्म विश्वास और बढ़ा।
असली समस्या तो अब विषय
चुन ने की थी। उसका मन था वह डॉक्टर बने। मनमोहन जी ने उसका समर्थन कर हिम्मत
दिलाई। न जाने कितने कितने पापड़ बेलने पड़े। कभी ये टैस्ट, कभी वो टैस्ट, सबसे कठिन था एंट्रेंस टैस्ट। सारा
दारोमदार इसी पर निर्भर था। उसे अपनी योग्यता पर दृढ़ विश्वास था पर स्पर्धा बहुत
तगड़ी थी। धड़कते दिल से परिणाम वाले दिन मनमोहन जी को देखने को भेजा। डर रही थी कि
उड़ान भरने के पहले फिसल गई तो।
मनमोहन जी को आने में
जितनी देर हो रही थी उतनी उसकी उतावली बढ़ रही थी। थोड़ी देर में घंटी बजने पर
दरवाजे पर उतरा मुँह लेकर मनमोहन जी को खड़ा देखा। उसके नीचे से तो जैसे जमीन खिसक
गई। पर मनमोहन जी पीछे हाथ करे क्या छुपा रहे थे ? देखा तो
मिठाई का डिब्बा था। फिर क्या था, ठहाका मार कर मनमोहन जी ने
पहली बार उसे गले ले लगाया। बोले,‘‘मेरी बेटी फेल कैसे हो
सकती थी। ‘‘
कुछ दिन बाद
इंटरव्यू कॉल भी आ गई। इंटरव्यू के लिए
जाते जाते बहुत घबराहट हो रही थी। मनमोहन जी ने हिम्मत दिलाई कि डरने की कोई बात
ही नहीं है। अंक अच्छे हैं और योग्यता में कोई कमी नहीं है तो फिर क्यों घबराना।
मनमोहन जी ने साथ चलने को बहुत आग्रह किया पर वह न मानी और अकेली ही चल पड़ी।
एक बड़े से हॉलनुमा कमरे
में इंटरव्यू के लिए आए लड़के लड़कियाँ बैठे थे। पाखी भी एक कुर्सी पर जा बैठी। किसी
से बात करने का मन नहीं कर रहा था। वह भाँप गई थी कि कुछ कैंडिडेट्स काफी अमीर घर
के लग रहे थे। कुछ लड़कियाँ बनी ठनी अपनी डींगे मार रही थी। बार बार पाखी के मन में
आ रहा था कि इनके आगे वह क्या टिक पायेगी। पर साहस बटोर रही थी कि योग्यता में तो
उसे पछाड़ना आसान नहीं होगा। अंग्रेजी भी बोल लेती है पर इन लोगों की तरह एक्सेंट
मार कर इतराते हुए नहीं। ठीक है जो होगा सो होगा, जिंदगी
ख़त्म तो नहीं हो रही और मौक़े आयेंगे। पर यह नेगेटिव सोच क्यों? तभी उसका नाम पुकारा गया।
वह अपनी पूरी फाइलें और
पेपर संभालते हुए अंदर गई। चिकित्सा से संबंधित कई प्रश्न उस से किए गए। उसने देखा
कि इंटर्रव्यू लेने वाले उसके उत्तरों से काफी संतुष्ट नजर आ रहे थे। इस से उसका
मनोबल बढ़ा। अंतिम प्रश्न पूछा गया कि चिकित्सा के किस क्षेत्र में वह जाना चाहेगी तो उसने तपाक से उत्तर दिया
‘ऑर्थोपिडिक्स (हड्डी विभाग)में।‘ कारण पूछा गया तो उसे अपनी कहानी याद आ गई। पर उसे दुखद कहानी सुना कर
सहानुभूति के बल पर नहीं बल्कि योग्यता के बल पर दाख़िला चाहिए था। उसने उत्तर दिया
कि वह इस विभाग में विशेष योग्यता हासिल कर गरीबों को निःशुल्क चिकित्सा देना
चाहेगी ताकि पैसों के कारण उन्हें जलील न किया जाय और वे इलाज न करवा पाएँ। सबके
चेहरों पर उसने मुस्कराहट देखी तो उसे लगा कि उसने उन्हें संतुष्ट कर दिया है।
नमस्कार कर वह बाहर आई तो ख़ुश थी। उसे लगा कि उसका चयन हो जायेगा।
इसी विश्वास को लेकर वह
घर लौटी। मनमोहन जी बड़ी अधीरता से उसका इंतजार कर रहे थे। उसका प्रफुल्लित चेहरा
देख कर समझ गए कि इंटरव्यू बहुत अच्छा हो गया है। पाखी ने पूरे ब्यौरे से बताया कि
क्या क्या पूछा गया और उसने क्या क्या उत्तर दिए। दोनों ने चैन की साँस ली।
दो तीन दिन बाद पाखी को
डाक से इत्तिला दी गई कि उसका दाख़िला हो गया है और उसे नियत समय पर कॉलेज में कुछ
औपचारिकता पूरी करने को बुलाया गया है।
औपचारिकता पूरी करने के
बाद उसे कक्षा में बैठने की स्वीकृति मिल गई। अब वह नियमित रूप से कॉलेज जाने लगी।
कक्षा में उसे अपने गाँव की एक लड़की सुकन्या मिली। पर उसने उस से सीधे मुँह बात
नहीं की क्योंकि गाँव में पाखी के भाग जाने से उसके परिवार से, उसके नाम से सब नफरत करने लगे थे।
एक दिन वह कॉलेज पहुँची
तो उसे बताया गया कि उसका दाख़िला रद्द कर दिया गया है।पाखी को तो जैसे काटो तो ख़ून
नहीं। वह दौड़ी दौड़ी रजिस्ट्रार के पास गई और दाख़िला रद्द करने का कारण पूछा।उसने
बताया कि पाखी ने कुछ बातें छुपाई हैं, फॉर्म में कुछ कॉलम छोड़ दिए हैं और कुछ गलत भी भरा है। पाखी ने कागज और
फॉर्म को ध्यान से देखा। माँ बाप के कॉलम में उसने मृत लिखा था। पिता के कॉलम में
मनमोहन जी का नाम लिखा था। कोई बीमारी या शारीरिक कष्ट के बारे में उसने लाइन खींच
रखी थी।
कॉलेज के प्रबंधन ने उसके
इस झूठ और छल के कारण उसका प्रवेश ख़ारिज कर दिया था। पाखी समझ नहीं पा रही थी कि
जो तथ्य केवल वह और मनमोहन जी ही जानते थे, वह कॉलेज
प्रशासन के पास कैसे पहुँचे। ओह ! तभी उसका माथा ठनका कि जरूर यह उसके गाँव की
सुकन्या का काम है। सिर्फ वही नहीं उसके पिता भी आकर उसके बारे में उल्टा पुल्टा
बोल कर गए होंगे। तभी प्रबंधन को अनुशासन के अंतर्गत यह कार्रवाई करनी पड़ी है।
सुकन्या से जाकर लड़ने का
कोई फायदा नहीं था। लेकिन हार मान कर चुपचाप बैठने वालों में से वह नहीं थी। जलालत
और कष्ट की इतनी लंबी यात्रा पूरी करके
मंजिल को कैसे फिसल जाने दे सकती थी।
घर आकर मनमोहन जी को
रुआंसी होकर सारी बात बताई। उन्होंने उसे ढाँढस बँधाया और कॉलेज के अधिकारियों से
बात करने का आश्वासन दिलाया।
अगले दिन पाखी जाने को
तैयार हुई तो मनमोहन जी भी साथ चलने को तैयार हो गये। पाखी ने उन्हें मना किया पर
वे इस कठिन समय में उसे अकेले नहीं जाने देना चाहते थे। पाखी ने कहा अब तक उसने
अपनी लड़ाई स्वयं लड़ी है और अभी भी कोई और उसकी पैरवी नहीं करेगा। मनमोहन जी पाखी
की जिद को जानते थे अतः उसकी यह शर्त मान गए कि वह बाहर बैठे रहेंगे, उसके साथ बात करने अंदर नहीं जाएँगे।
कॉलेज पहुँच कर प्रशासन
अधिकारी को पाखी ने संदेश पहुँचाया। उन्होंने कहलवाया कि उनके पास केवल पंद्रह
मिनट का समय है। पाखी कमरे में गई तो अधिकारी ने काफी बेरुख़ी और नाराजगी से
सख़्त आवाज में कहा,” जानती हैं प्रशासन को अंधेरे में रखने, झूठे बयान
देने और तथ्यों को छुपाने का क्या परिणाम होता है ? आपके पास
कोई आधार है अपने आपको सही सिद्ध करने का। क्या गारंटी है कि अभी भी आप सच ही
बोलेंगी।”
पाखी ने बड़ी विनम्रता से
कहा,” मैं आपकी बात मानती हूँ। उतना कह सकती
हूँ कि मेरे साथ जो घटा है यदि वह किसी और लड़की के साथ होता तो वह कब की मर गई
होती।” फिर उसने विस्तार से उन्हें सब कुछ बताया। इस पर वह
अधिकारी बोले तो क्या तुम वही लड़की हो जिसके बारे में कुछ वर्ष पहले अख़बार की
सुर्ख़ियों में खबर छपी थी और उसके हौसले की भूरि भूरि प्रशंसा की गई थी कि कैसे
उसने अपने साथ हुई बदसलूकी का मुँहतोड़ जवाब दिया था ?” पाखी
की जान में जान आई और हल्की सी मुस्कुराते हुए बोली,”जी सर।”
वह अधिकारी उठा और पाखी के पास आकर उसके कंधे थपथपाते हुए कहा,” तुम्हारे हौसले की दाद दूँगा। तुम्हारी जमीन से आकाश तक की उड़ान में तुम्हें कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा यह एक मिसाल है। हमें कॉलेज के नियम कानून से चलना पड़ता है पर मानवीय आधार पर इन्हें अनदेखा करने का प्रावधान भी है। मैं समझता हूँ कि तुम जैसी जाँबाज विद्यार्थी को जगह दे कर हमारे कॉलेज का गौरव बढ़ेगा और अन्य कॉलेजों को प्रेरणा मिलेगी। बस एक बात जानना चाहता हूँ कि वह फरिश्ता कौन है जिसने तुम्हें अपने घर में शरण दी।”
पाखी को लगा अब वह मनमोहन
जी को अंदर बुला सकती है। उनका श्रेय तो उन्हें मिलना ही चाहिए। मनमोहन जी को
देखते ही वह अधिकारी अपनी कुर्सी से उठा और तपाक से बड़ी गर्मजोशी से उनसे हाथ मिला
कर बोला,” अरे सर, अगर मुझे
पहले पता लग जाता तो पाखी को परेशानी में नहीं डालता।” मनमोहन
जी मुस्कराये, बोले,” यह तो झाँसी की
रानी है, अपनी लड़ाई खुद लड़ती है। इसके हौसले का क्या कहूँ।
बड़ी खुद्दार लड़की है।”
उसके बाद पाखी ने पढ़ाई
जारी रखी, ऑर्थोपीडिक्स सर्जन बनी और कितने निर्धन
ग्रामवासियों,लड़कियों और लड़कों का मुफ्त इलाज किया और
स्कॉलरशिप दे कर अनेक बच्चों को अपने पैरों पर खड़ा होने योग्य बनाया।
एक दिन अचानक कुछ लोग
मिलने आए। वे पाखी का सम्मान करना चाहते थे। पाखी ने बहुत मना किया पर वे नहीं
माने। बोले आप तो मिसाल हैं और प्रेरणा भी। आप को लोगों के सामने आना ही होगा।”
बड़ी मुश्किल से पाखी ने
हामी भरी।
समारोह वाले दिन जब पाखी, मनमोहन जी के साथ पहुँची तो हैरान रह गई। यह तो वही स्थान था जहाँ की एक
घटना ने उसका पूरा जीवन ही बदल कर रख दिया था। जिस स्थान पर उसकी इतनी बेइज्जती
हुई थी, आज उसी जगह उसका सम्मान किया जा रहा है।
समारोह अच्छी तरह संपन्न
हुआ। अंत में पाखी ने सबको संबोधित करते हुए कहा,” प्रत्येक
व्यक्ति के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब सब तरफ से हताश होकर उसका हौसला पस्त हो
जाता है परंतु एक क्षण ऐसा भी आता है जब यही हौसला उम्मीद के पंखों पर बैठ ऊँची
उड़ान भर कर गंतव्य पर पहुँचा देता है। जरूरत है दृढ इच्छाशक्ति और धैर्य की।”
तालियों की गड़गड़ाहटों के बीच पाखी ने हाथ जोड़ कर सबसे बिदा ली। अगले दिनसब समाचार पत्रों की सुर्खियों में पाखी के हौसले की उड़ान का जिक्र छाया हुआ था।