साक्षात्कार

‘लेखक अपनी भाषा-परंपरा से प्रभावित भी होता है

और उसका दोहन भी करता है’ - प्रो. तिवारी


 संक्षिप्त परिचय

प्रख्यात विचारक, चिंतक, संपादक, आलोचक एवं साहित्यकार प्रो. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का जन्म सन् 1940 में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद के रायपुर भैंसही-भेड़िहारी गाँव में हुआ। आपने एम.ए., पीएच.डी. तक शिक्षा ग्रहण की। आप लंबे अध्यापन अनुभव सहित गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर के हिंदी विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष पद से 2001 में सेवानिवृत्त हुए हैं। संप्रति आप साहित्य अकादमी (संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार) के 2008-2013 तक उपाध्यक्ष और 2013-2017 अध्यक्ष रहे हैं। सन् 1978 से आप साहित्यिक एवं आलोचनाकर्म को समर्पित प्रतिष्ठित पत्रिका ‘दस्तावेज़’का संपादन कर रहे हैं। आपके उल्लेखनीय रचनात्मक योगदान पर आपको ‘महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार’, ‘व्यास सम्मान’, ‘हिंदी गौरव सम्मान’ एवं ‘साहित्य भूषण सम्मान’ सहित अनेक राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। आपकी चर्चित आलोचना पुस्तकों में शुमार हैं-‘छायावादोत्तर हिंदी गद्य कविता’, ‘रचना के सरोकार’, ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी’, ‘कविता क्या है?’ ‘गद्य के प्रतिमान’, ‘कुबेरनाथ राय’, ‘आलोचना के हाशिए पर: गद्य का परिवेश; कविता संग्रहों में - ‘चीजों को देखकर’, ‘साथ चलते हुए’, ‘बेहतर दुनिया के लिए’, ‘आखर अनंत’, ‘फिर भी कुछ रह जाएगा’; ‘यात्रा-संस्मरणों में’, ‘आत्म की धरती’, ‘अंतहीन आकाश’, ‘अमेरिका और यूरोप में एक भारतीय मन ; डायरी’, ‘दिन-रैन’, आत्मकथा-‘अस्ति और भवति’, साक्षात्कारों में ‘मेरे साक्षात्कार’ तथा ‘बातचीत’ आदि प्रमुख हैं। आपकी रचनाओं पर देश के अनेक विश्वविद्यालयों मंे शोधकार्य संपन्न तथा अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद किया गया है। प्रस्तुत है ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, मनीषी प्रो. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से स्वनामधन्य साहित्यकार, साक्षात्कारों की बेबाकीपन के लिए ख्यात प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिंदी भाषा विज्ञान विभाग, उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार - प्रबंध संपादक


‘लेखक अपनी भाषा-परंपरा से प्रभावित भी होता है और उसका दोहन भी करता है’ - प्रो. तिवारी


प्रो. तिवारी का साक्षात्कार लेते हुए प्रो. दिनेश चमोला ‘शैलेश’


प्रो. चमोला:  तिवारी जी, यूँ तो आपने साहित्य की अनेक विधाओं में लेखन किया है किंतु अनुभूति को अभिव्यक्त करने में आपने अन्य विधाओं की तुलना में कविता में स्वयं को अधिक मुखर पाया है, इसका मुख्य कारण क्या है?

प्रो. तिवारी: चमोला जी, कविता से अधिक मैंने गद्य लिखा है और मेरा शोध प्रबंध अर्थात् मेरी प्रथम पुस्तक भी गद्य साहित्य पर है। मगर यह सही है कि मेरी प्रथम अभिव्यक्ति कविता के रूप में ही हुई है। संवेदनशीलता लिखने के लिए एक संवेदनशील मन जरूरी होता है। संवेदनशीलता ही किसी व्यक्ति को दुनिया के साथ जोड़ती है। फिर वह व्यक्ति भाषा में कुछ रचना चाहता है जो उसकी अभिव्यक्ति कही जाती है। भाषा का सर्जनात्मक रूप सबसे ज्यादा कविता में प्रकट होता है और पहचाना भी जाता है। बाद में कथ्य, विषय और कुछ अन्य अपरिहार्य कारणों से लेखक अन्य विधाओं का सहारा लेता है। इसीलिए दुनिया के अधिकांश लेखकों ने कविता में ही अपनी अभिव्यक्ति का प्रारंभ किया है...... बाद में वे अन्य विधाओं के महान लेखक के रूप में प्रसिद्ध हुए।

प्रो. चमोला:  हिंदी साहित्य में आदिकाल से लेकर आज तक कविता की अनेक धाराएं प्रवाहित होती रही हैं। आप मुख्यतः किस कविता धारा से अधिक प्रभावित हुए और अपनी काव्य-यात्रा में अभिव्यक्ति के स्तर पर आए हुए इस आरोह व अवरोह को एक आलोचक के रूप में आप किस रूप में देखते हैं ?

प्रो. तिवारी: कविता की जिन अनेक धाराओं की चर्चा आप कर रहे हैं, उनमें से किसी एक धारा से मैं अपने को संबद्ध नहीं पाता। हाँ, अपनी काव्य यात्रा में अभिव्यक्ति के स्तर पर आए भाव-शिल्प के बारे में जरूर कुछ बता सकता हूँ। मैंने जब कविता लिखना शुरू किया, वह पिछली शताब्दी का सातवाँ दशक (1960-70) था। इस दशक को हिंदी साहित्य में मोहभंग का काल कहा गया है। इसी दशक में नक्सलवादी आंदोलन हुआ था। यह समय हिन्दी में छोटी पत्रिकाओं और विविध आन्दोलनों का समय है। विशेष रूप से कविता में संघर्ष और युयुत्सा इस समय का प्रमुख स्वर है जो नकार से प्रेरित है। इस समय में एक से एक-तेजाबी कविताएँ लिखी गईं जिनमें-आक्रोश, गुस्सा, क्षोभ और विद्रोही चेतना है। यह विद्रोह न केवल राजनीति के प्रति बल्कि सामाजिक-नैतिक मूल्यों के प्रति भी दिखाई देता है, यहाँ तक की यौन संबंधों पर लिखी गई अनेक कविताओं में स्त्री के प्रति क्रूरता भी लक्षित होती है। मेरा पहला काव्य संग्रह (चीजों को देखकर) 1970 में प्रकाशित हुआ, लेकिन वह सातवें दशक की मुख्य कविता-धारा की उपर्युक्त प्रवृत्तियों से मुक्त है। ऐसा इसलिए कि मैं कविता में उस आक्रामक युयुत्सावादी मुद्रा को व्यापक सामाजिक परिवर्तन के लिए उपयोगी नहीं मानता। युद्ध में भी विजय के लिए उच्छृखल व्यवहार की अपेक्षा संतुलन और अनुशासन जरूरी होता है।

1976 में मेरी कविताओं का दूसरा संग्रह (साथ चलते हुए) छपा। वह भारत में आपातकाल का समय था और कुछ ही वर्ष पूर्व दुनिया के नक्शे पर एक नया देश (बांग्ला देश) उभरा था। मेरे दूसरे कविता संग्रह के केन्द्र में यही दो घटनाएँ प्रमुख हैं। पूर्वी बंगाल में उन दिनों पाकिस्तानी सेना का भीषण अत्याचार हो रहा था। समाचार पत्रों में दिल दहला देने वाली खबरें रोज प्रकाशित हो रही थीं। इसी प्रकार भारत में अपातकाल यहाँ की स्वाधीनता प्रेमी जनता पर बहुत बड़ा प्रहार था। मेरे दूसरे संग्रह की कविताओं में अन्याय और उत्पीड़न का कड़ा प्रतिरोध तथा स्वाधीनता का स्वर मुखर हुआ है। इन कविताओं में सातवें दशक की कविताओं की तरह का गुस्सा, क्षोभ और विद्रोह है। रूस के एक आलोचक श्री अलेक्सांद्र सेंकेविच ने इस संग्रह की कविताओं को धूमिल की कवितओं से अधिक ‘रेडिकल’कहा है। आज इन कविताओं के विद्रोही और क्रांतिकारी स्वर को देखकर मुझे खुद आश्चर्य होता है।

मेरे तीसरे, चौथे, पांचवें और छठे संग्रह ‘बेहतर दुनिया के लिए’, 1985, ‘आखर अनन्त’, 1991,  ‘फिर भी कुछ रह जायेगा’, 2008 और ‘सबने कुछ दिया’, 2019 की कविताओं की जमीन किंचित अलग है पर मैं यहाँ उनका विश्लेषण नहीं करूँगा। यहाँ उनके बारे में सिर्फ यही कहना चाहूँगा कि मेर हर संग्रह अपने पिछले संग्रह से कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर मेरे ‘स्व’ भाव के अधिक निकट है तथा भाषा के प्रति अधिक सचेत और अनुशासित भी।

प्रो. चमोला:  कविता स्वयं को अभिव्यक्त करने का साधन मात्र है अथवा कविता युगीन विद्रूपताओं, विपरीतताओं के विरुद्ध खड़े होकर प्रतिवाद करने वाला एक सशक्त शस्त्र भी? आप कविता को स्वांतः-सुखाय दृष्टि से देखते हैं अथवा शस्त्र की दृष्टि से उस से लड़ते हुए अपने मंतव्य और गंतव्य को स्पष्ट करते हुए ?

प्रो. तिवारी: कविता मूल रूप से अभिवयक्ति का माध्यम ही है। उसमें युगीन विद्रूपताओं, विपरीतताओं का विरोध हो सकता है मगर है वह कविता ही। शस्त्र का रास्ता दूसरा है और कविता के रास्ते से सीधा है। कविता का राजनीतिक उपयोग हो सकता है और हुआ भी है। तुलसीदास ने अपनी जिस कविता को ‘स्वांतःसुखाय’ कहा था, उसका भी उपयोग राजनीतिक शस्त्र के रूप में स्वाधीनता संघर्ष के दिनों में हुआ। बाबा रामचन्द्र दास ने मानस कथा के द्वारा ग्रामीण जनता में स्वाधीनता की लहर पैदा की थी और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा गिरफ्तार भी किये गये थे। महात्मा गांधी ने तुलसीदास के ‘रामराज्य’ को क्या राजनीतिक-सामाजिक हथियार नहीं बनाया ?  कविता को जो शस्त्र बनाता है, वह ‘एक्टिविस्ट’ कहा जाता है। कवि भी एक्टिविस्ट हो सकता है। मगर जब वह कविता लिख रहा होता है, तब कवि ही होता है, अर्थात् भाषा का सर्जनात्मक उपयोग करने वाला। कविता को किसी एक अर्थ तक सीमित नहीं किया जा सकता। विभिन्न कालों और विभिन्न पाठकों में उसकी अर्थ-छायाएं बदलती रहती हैं। कविता में केवल कवि का उद्देश्य निहित नहीं होता। लिख जाने के बाद कविता सार्वजनिक सम्पत्ति हो जाती है। फिर पाठक उससे चाहे जो अर्थ ले  और उसका जैसा उपयोग करें कवि का महत्व केवल लिखने तक है, फिर ‘कविता’ महत्वपूर्ण हो जाती है।

प्रो. चमोला:  आपकी कविताओं में मृत्यु-बोध का स्वर जहां-तहां दिखाई देता है। इसके पीछे क्या कोई विशेष दिशा-दृष्टि है या फिर संसार की विद्रूपताओं से एक कवि के रूप में आपके न भिड़ पाने की असमर्थता ? क्या परोक्ष रूप में यह भावनात्मक असमर्थता अथवा दुर्बलता ही तो कहीं मृत्युबोध की प्रतीति कराती हुई तो नहीं महसूस होती है ?

प्रो. तिवारी: मृत्यु सृष्टि की सबसे बड़ी वास्तविकता है और यह दुनिया भर की कविता के प्रमुख सरोकारों में एक रही है। जैसे स्वाधीनता, प्रकृति और स्त्री मनोवैज्ञानिक सच्चाई तो यह भी है कि कविता और सारा सृजन मृत्यु के ही विरुद्ध मनुष्य की जीवनेच्छा का परिणाम है। मृत्यु बोध केवल उनमें ही नहीं होता जो दुखी, दुर्बल और असहाय हैं। बल्कि उनमें भी होता है जो सुखी, समर्थ और बलवान हैं। गौतम बुद्ध तो हर तरह से सक्षम थे पर दुःख उनके चिंतन और कर्म का प्रेरक बना। इस अद्भुत स्वादमय सृष्टि में वह भी मरना नहीं चाहता जो जीवन में नरक की यातनाएँ भोग रहा है। अमरकान्त की प्रसिद्ध कहानी ‘जिन्दगी और जोंक’ यही सत्य व्यक्त करती है। मेरी कवितओं में मृत्युलोक जागतिक पराजय या भावनात्मक असमर्थता के कारण नहीं है, बल्कि मृत्यु तो एक सर्वशक्तिमान सच्चाई के रूप में सदा से विद्यमान है। उसका अपना अलग अस्तित्व है, बल्कि आप यह भी मान सकते हैं कि वह ईश्वर के अस्तित्व की भी सबसे बड़ी उद्घोषणा है।

प्रो. चमोला:  माँ आपकी कविता यात्रा की एक तरह से आधारशिला सी प्रतीत होती है। बचपन के अबोध क्षणों से लेकर आज तक माँ के ममत्व की उस मार्मिक अनुभूति से आप स्वयं को मुक्त नहीं करा सके हैं। बार-बार आप की कविताएं माँ के स्मृति-सरोवर में डूबती-उतरती प्रतीत होती हैं, इस आसक्ति का कोई विशेष कारण ?

प्रो. तिवारी: जैसे मृत्यु जीवन का हरण करती है वैसे ही माँ जीवन का पोषण करती है, चाहे जिसकी भी माँ हो, पशु-पक्षी सब की। अतः माँ के साथ अनुरक्ति स्वाभाविक है। मैंने माँ की मृत्यु पर सात कविता माँ की स्मृतियों से मुक्त होने के लिए लिखी थीं। यदि वे न लिखी गई होतीं तो आगे कुछ भी लिखना संभव नहीं था। भावों के दबाव से मुक्त हुए बिना रचनाकार आगे का कदम नहीं उठा पाता। उस समय मेरे मन पर भावी का दबाव कुछ ऐसा ही था। बाद में धीरे-धीरे माँ स्त्री के आदर्श मूल्यों में बदल गई। फिर स्त्री के विविध रूपों पर मैंने दर्जनों कविताएँ लिखीं जिसमें स्त्री के प्रति प्रेम और पूज्य भाव भी है तथा समाज में उसकी उपेक्षा, उत्पीड़न, अन्याय आदि के प्रति आक्रोश भी। स्त्री समाज की भी आधारशिला है और कविता की भी।

प्रो. चमोला: आप एक चिंतक, विचारक व आलोचक भी हैं....और उसके साथ-साथ एक भावप्रवण कवि भी। क्या आपका निष्ठुर  आलोचक (नीर-क्षीर विवेकी) भावप्रवण कवि को अपनी निर्मम सैद्धांतिकता से नकेल तो नहीं देता? या फिर आपका कवि इतना समर्थ व ऊर्जावान है कि वह आलोचना अथवा आलोचक की उन सरहदों को तोड़ता हुआ अपने भीतर के कथ्य, संवेदना और सत्य को कहने में किसी भी रूप में हिचकिचाता नहीं, इस पर प्रकाश डालिए।

प्रो. तिवारी: चमोला जी, मन तो एक ही होता है। उसमें भाव, विचार, सिद्धान्त आदि सभी सहचर हैं। हाँ, यह जरूर होता है कि जब कोई कविता लिख रहा होता है तो वह ‘कविता’ ही लिखता है। कविता के साहित्य में अलग-अलग रंग होते हैं। कुछ में कवि आलोचक का रूप दखल दे सकता है। मगर कविता अपनी संवेदना को काव्य-शिल्प में ही व्यक्त करती है। आलोचक के सिद्धान्तों को उसमें प्रवेश नहीं करने देता। मेरे कवि रूप को मेरे आलोचक रूप ने शायद ही कभी क्षतिग्रस्त किया हो, ऐसा मैं महसूस करता हूँ। पाठक क्या महसूस करते हैं, नहीं जानता।

प्रो. चमोला:  कवि और आलोचक का एक साथ रहना जैसे शेर और मैंमने का एक ही साथ, एक ही तालाब में पानी पीना जैसे है। क्या दोनों के एक साथ रहने में अथवा अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य में आपको कोई हस्तक्षेप तो नहीं मालूम होता ?..... क्योंकि जब आप कविता लिख रहे होते हैं तो आपके भीतर का आलोचक पैनी दृष्टि गड़ाए हुए आपके कवि की कमजोरियों को शांत भाव से रेखांकित कर रहा होता है। क्या वह आपके कवि का विश्लेषण अथवा मूल्यांकन उसी पारदर्शिता से करता है जिस पैरामीटर से वह अन्यान्य कवियों की कविताओं के सृजन का मूल्यांकन करता है ?

प्रो. तिवारी: कवि और आलोचक के लिए शेर और मेमने का उपमान उपयुक्त नहीं है। प्रसिद्ध कवि और आलोचक टी. एस. इलिएट जो दोनों रूपों में मानक माने जाते हैं, ने रचना और आलोचना को समान महत्व दिया है। उनके अनुसार रचना में जो आकर्षित करता है वह उसका आलोचनात्मक विवेक होता है और आलोचना में जो आकर्षित करता है वह उसका रचनात्मक रूप। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

एक आलोचक, जो कवि भी है, अन्य कवियों के सृजन का मूल्यांकन स्वयं अपनी कविता के आधार पर नहीं करता। उसके मूल्यांकन का आधार उस कवि की कविता होती है। श्रेष्ठ आलोचक कृति के साथ चलता है। उदाहरण के लिए राम विलास शर्मा ने भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल और निराला का मूल्यांकन किया। इनमें से कोई मार्क्सवादी नहीं था, जबकि राम विलास शर्मा स्वयं माक्र्सवादी थे। मूल्यांकन का आधार रचना है, आलोचक का सिद्धांत नहीं।

प्रो. चमोलाः  आपका आलोचक, आपके कवि को हिंदी या फिर संसार की अन्य किसी दूसरी भाषा के कवि के समान ही आलोच्य दृष्टि से मूल्यांकन करता है अथवा अपने कवि का मूल्यांकन करते हुए आपके हृदय में आलोचना के कठोर मानदंडों में कहीं शिथिलता का भाव दिखाई देता है या फिर किसी विरोधी धारा के कवि का मूल्यांकन करते हुए उसमें वह स्वर किसी दूसरे रूप अथवा तेवर में दिखाई देता है। आलोचना की यह विवेकी-अविवेकी दृष्टि क्या आपको भी अपने चिंतन में मुखर होती दिखाई देती है?

प्रो. तिवारी: पहली बात तो यह कि मुझे स्वयं अपनी कविता के मूल्यांकन का अधिकार नहीं है। मैं यह तो बता सकता हूँ कि मैंने किन परिस्थितियों में अपनी कविता लिखी, किस उद्देश्य से लिखी, किससे प्रभावित होकर या किसके विरोध में लिखी आदि, पर उस कविता की श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता आदि के बारे में कुछ बोलने का अधिकार मुझे नहीं है। दूसरी बात यह कि अलग अलग भाषाओं की अपनी-अपनी प्रकृति और काव्य-परम्परा होती है। उसे सभी भाषाओं पर थोपना उचित नहीं। तीसरी बात यह कि किसी विरोधी धारा के कवि का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले और मुख्य रूप से उसकी भाषिक सर्जनात्मकता पर विचार किया जाना चाहिए, कि उसमें काव्यानुभव और काव्याभाषा का द्वन्द्व संतुलित रूप में व्यक्त हुआ है या नहीं। फिर इस पर विचार किया जाना चाहिए कि उस कविता की दिशा मानव मंगल की दिशा है या नहीं।

प्रो. चमोला:  कवि होना एक दृष्टि से संत होना है। लेकिन आज के दौर में कवि आत्म प्रचार, सम्मान, पुरस्कार व स्वयं को स्थापित करने के साथ-साथ प्रचारित- प्रसारित करने की जुगाड़ में दिन-प्रतिदिन जुटा हुआ दिखाई देता है। इतनी दीर्घ साधना करते हुए तो अपने रचना-कर्म के प्रति वैराग्य का भाव उसमें उत्पन्न हो जाना चाहिए, किंतु आज भी उनमें किसी नवोदित कवि की तरह ही कुछ पा लेने के अतिशय मोह की छटपटाहट दिखाई देती है। छपास और निरंतर कुछ पाने की वणिकवृत्ति से आखिर वह कब स्वयं को मुक्त कर पाएंगे ?

प्रो. तिवारी: आपने आत्म-प्रचार और सम्मान-पुरस्कार आदि पाने की लालसा का जो आरोप लगाया है, वह कुछ तो स्वाभाविक है। कवि को ऋषि जरूर कहा गया है मगर ऋषि, संत या वैरागी का दर्जा ऊँचा है। व्यावहारिक जीवन में कवि का वहाँ पहुँचना बात की बात है। लेकिन हाँ, एक वरिष्ठ कवि को नवोदित यशःप्रार्थी कवियों की इस प्रवृत्ति से मुक्त होना चाहिए। बहुत से कवि मुक्त होते भी हैं। यह स्वभाव की बात है। वास्तव में कविता ही कवि का परमधन’ होना चाहिए।

प्रो. चमोला:  आपने अभी तक के प्रकाशित काव्य-संग्रहों में आप सबसे उत्तम किसे मानते हैं और इसकी वजह क्या है?

प्रो. तिवारी: कोई अपने काव्य संग्रहों में किसी को उत्तम या अधम नहीं बता सकता। यह कवि का अधिकार भी नहीं है। एक संग्रह में अनेक कविताएँ होती हैं। संभव है जो संग्रह मुझे उत्तम न लगे, उसकी कोई कविता किसी पाठक को मेरी सर्वोत्तम कविता लगे। व्यक्तिगत रूप से मेरे पास इसके कई उदाहरण है। मैंने स्वयं जिन कवितओं को महत्व नहीं दिया, उन्हें अनेक पाठकों ने बहुत अच्छी माना और दूसरी भाषा में उनका अनुवाद किया। एक दिन एक अमेरिकी प्रोफेसर ने फोन करके मेरी एक कविता को अपनी कक्षा में पढ़ाने के लिए अनुमति माँगी, जबकि उस कविता को मैं एकदम भूल चुका था। तो, आपके प्रश्न के उत्तर में मैं यही कहना चाहूँगा कि मैं स्वयं काव्य यात्रा में अपने अनुभव और भाषा के प्रति अधिक सचेत होता गया हूँ। यही मैं कर सकता हूँ। आगे का जिम्मा पाठक पर है।  श्रेष्ठता को निर्धारित करना उसका ही अधिकार है।

प्रो. चमोला: तिवारी जी, आप की आत्मकथा ‘अस्ति और भवति’ प्रकाशन काल से ही बहुत चर्चा में रही है।  साहित्यकार का समूचा जीवन-दर्शन उसकी रचनाओं में खंड-खंड रूप में अभिव्यक्त होता रहता है, ऐसे में आत्मकथा के लिए ऐसी कौन सी सामग्री है जो उसके पास शेष बची रहती है अभिव्यक्त होने के लिए आत्मकथा में ? एक रचनाकार, कितनी सत्यता से अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को पिरोने का प्रयास करता है ? कहीं वह केवल आत्म-प्रशंसा में अपने उजले पक्ष को ही तो नहीं प्रतिबिंबित करना चाहता और कहीं न कहीं अपने विषाद, तमस व अज्ञानता से भरे कमजोर क्षणों को  छुपाने का प्रयास तो नहीं करता है ? अपनी आत्मकथा के संदर्भ में कृपया आप विस्तार से बताएं।

प्रो. तिवारी: चमोला जी, आपने सही कहा कि लेखक का सम्पूर्ण कृतित्व ही उसकी आत्मकथा है और यह भी कि लेखक आत्मकथा में अपने उजले पक्ष को प्रतिबिंबित करता है और कमजोर क्षणों को छुपाने का प्रयास। मगर लेखक के कृतित्व में उसका आत्म इतनी परतों में छिपा होता है कि उस तक पहुँचना कठिन होता है। मेरी आत्मकथा में मेरे पुरखों का जीवन, जो मुझमें भी समया हुआ है, अलग से ही लिखा जा सकता था। फिर कुछ मेरी मनोवैज्ञानिक गुत्थियाँ-मेरा संदेह, मोह, भ्रम, मेरे अन्य मनोविकार आदि अलग से ही व्यक्त हो सकते थे। मेरे आरंभिक जीवन के कुछ संघर्ष और बाद के कुछ अन्य संघर्ष भी। यह तो मेरे पाठक भी मानते हैं कि अपनी आत्मकथा में मैंने कहीं अपना बखान नहीं किया है बल्कि अपनी कमजोरियों को ही व्यक्त किया है। ‘इक आग का दरिया और डूबके जाना’ शीर्षक के अंतर्गत मैंने अपनी आत्मकथा लिखने के कारणों के बारे में कुछ निवेदन किया है। मेरी आत्मकथा में बहुत कुछ ऐसा है जो मेरे अन्य कृतित्व में नहीं मिलेगा।

प्रो. चमोला:  आत्मकथा की माध्यम से एक सशक्त रचनाकार समाज को आखिर क्या संदेश देना चाहता है ?  कोई सशक्त आत्मकथा, जीवन- महासमर की विजय गाथा का घोष अथवा नाद मात्र है या फिर अपने हारे हुए उन कमजोर क्षणों का जीवंत दस्तावेज भी.... जिसने तिल-तिल कर रचनाकार की कृतित्व को मांजकर उसके व्यक्तित्व, लेखन एवं दर्शन को जीवन, शक्ति, ऊर्जा, पहचान और पैनापन  दिया  है ......... क्या आप आत्मकथा के संदर्भ में इन बातों को मानते हैं ?

प्रो. तिवारी: आत्मकथा न तो ‘विजय गाथा का घोष’ होती है न ‘कमजोर क्षणों का दस्तावेज’। अलग-अलग आत्मकथाओं का स्वरूप और उद्देश्य भी अलग होता है। आत्मकथाकार का जैसा जीवन वैसी आत्मकथा। हिन्दी में दलित लेखकों की आत्मकथा में दलित जीवन पर हुए अत्याचार और उत्पीड़न की निर्मम कथा मिलेगी मगर सबकी आत्मकथा में तो ऐसा नहीं हो सकता। डॉ. कर्ण सिंह की आत्मकथा तो वैसी नहीं हो सकती। सभी आत्मकथाकारों का जीवन और परिवेश भिन्न होता है। देखना यह होता है कि आत्मकथाकार अपने परिवेश और परिस्थितियों में कैसे जीता है, कैसी प्रतिक्रियाएँ करता है, कैसे उनमें फँसता और कैसे उनसे मुक्त होता है या कैसे उनसे निकलने का द्वार ढूंढता है। इसी में पाठक को वह संदेश भी मिल जाता है जो आत्मकथा में निहित होता है।

प्रो. चमोला:  एक रचनाकार अपने आदर्शों की गठरी को ढोता हुआ समाज की विद्रूपताओं से आजन्म संघर्ष करता रहता है.....और तब तक अपने हथियार नहीं डालता या घुटने नहीं टेकता जब तक वह इस अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त नहीं कर लेता।  क्या आपका आत्मकथा लेखक स्वयं को आत्मकथा लिखने के बाद किसी बड़े ऋण से उऋण होने का बोध कराता है ? आखिर अपनी समग्र रचनाधर्मिता से इतर आत्मकथा के माध्यम से एक आत्मकथा लेखक क्या कुछ विशिष्ट समाज अथवा अपने पाठकों को देना चाहता है ?

प्रो. तिवारी: चमोला जी, हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि लेखक पाठक को कुछ देने के लिए ही लिखता है। क्या लेखक पाठक का शाश्वत कर्जदार होता है ? क्या वह अपने संतोष के लिए नहीं कुछ लिख सकता ? बल्कि विचारकों द्वारा तो यह कहा जाता है कि लिखते समय लेखक आत्मानुभूत सच लिखता है, वह चाहे किसी के प्रयोजन या उपयोग के लिए हो या न हो। आपने ऋण से उऋण होने की याद दिलाई। यह सही है कि यह आत्मकथा लिख कर मैं अपने पुरखों से कुछ तो ऋणमुक्त हुआ महसूस करता हूँ। वे समय की धार में डूब गये लोग हैं... जिन्हें खींच कर मैं समय के पत्र पर कुछ तो ला सका हूँ। इस आत्मकथा को पढ़कर किसी को कुछ न मिले लेकिन मुझे तो अपनी जिंदगी वापस मिल जाती है। क्या मेरी जिंदगी में कुछ बहुत सारे लोग मौजूद नहीं है- अपनी वेदना, आशंका, भय, संघर्ष, पराजय और जीवनेच्छा के साथ ?

प्रो. चमोला:  जीवन की आपा-धापी में जिस प्रकार उपलब्धियों अथवा सफलता के आरोह- अवरोह निरंतर दिखाई देते रहते हैं, क्या आत्मकथा के बारे में भी यह बात सिद्ध हो सकती है...... क्योंकि ‘अस्ति और भवति‘ आप के आज तक के जीवन-संघर्षों का एक आदर्श चिंतन ग्रंथ है, क्या पाठक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के उत्तरार्ध जीवन की दार्शनिक चिंतनधारा का लेखा- जोखा आत्मकथा के अगले खंड के रूप में देखना के लिए उत्सुक हो सकता है ? क्या इस पर आपकी कोई योजना है ?

प्रो. तिवारी: आत्मकथा के अगले खंड की कोई योजना मेरे मन में नहीं है। प्रस्तुत आत्मकथा में 2012 तक की मेरी जीवन-घटनाएँ हैं । यह आत्मकथा उसी दिन समाप्त हो जाती है जिस दिन अर्थात् 18 फरवरी 2013 को, जिस दिन मैं साहित्य अकादमी का अध्यक्ष होता हूँ । 19 फरवरी, 2013 को मेरी भावपूर्ण मनःस्थिति के साथ आत्मकथा का भी समापन हो जाता है। 72 वर्षों का समय कम नहीं होता। अगर विस्तार से लिखा जाय तो यह कई हजार पृष्ठों में फैल सकती थी। मगर मेरा ध्यान घटनाओं से ज्यादा अपने घट के विश्लेषण पर रहा। इस आत्मकथा में मेरा आत्म विश्लेषण और आत्मरूप की खोज प्रमुख है। यह एक विचार प्रधानकृति है जिसमें साहित्य और जीवन तथा जगत के गंभीर प्रश्नों के बारे में मेरा आत्ममंथन है। यह एक अंधकार में घुसने और उससे बाहर निकलने की कोशिश है। आत्मकथा के प्रारंभिक पृष्ठों पर ही मैंने लिखा है ‘‘मैंने आत्म प्रशंसा के लिए लेखनी नहीं उठाई है, यदि कोई प्रयोजन है तो यही कि जिस जमाने में और जिस छोटी सी काया में जिया और धीरे-धीरे मरा तो कैसे और क्या सोचते हुए। मैं नगण्य हूँ, मुझमें किसी की दिलचस्पी नहीं हो सकती पर विचारों के जिस दर्पण में मैंने अपने को देखने और पहचानने का प्रयास किया, उसमें शायद कुछ भी दिलचस्पी हो।“

प्रो. चमोला:  हिंदी आत्मकथा की प्रगति- यात्रा में आप एक सामान्य पाठक के रूप में अपनी आत्मकथा ‘अस्ति और भवति‘ का स्थान कहां पाते हैं  ? हिंदी आत्मकथाओं में आपको सर्वाधिक प्रभावित अथवा उत्प्रेरित करने वाली आत्मकथा कौन सी लगी?....... तथा ऐसे कौन से क्षण, विचार अथवा भावनाएं थीं जिन्होंने आपको आत्मकथा लेखन के लिए प्रेरित किया  था  ? कृपया किसी बड़े रचनाकार से हुए इस विषयक संवाद अथवा उनकी आत्मकथा से प्रेरित होकर इस क्षेत्र में पदार्पण करने की किसी घटना अथवा वृतांत का विस्तार से विवेचन कीजिए ताकि आत्मकथा का ऐसा एक बड़ा फलक पाठकों के ज्ञान का संवर्द्धन कर सके।

प्रो. तिवारी: मैंने हिन्दी ही नहीं, दुनिया भर की बहुत सारी आत्मकथाएँ पढ़ी हैं। उनके बीच मेरी आत्मकथा कहाँ खड़ी होती है, इसका निर्णय पाठकों को ही करना है, मुझे नहीं। मैं इस संबंध में केवल इतना ही कह सकता हूँ कि यदि पाठक अपने पूर्वग्रहों से मुक्त हो कर इस कृति का आस्वादन करें तो उनकी कृपा होगी। जिन्होंने आत्मकथा के अपने कुछ प्रतिमान बना रखे हैं, उनकी कसौटियों पर यह खरी नहीं उतरेगी, क्योंकि आत्मकथा की कसौटियों से बाहर जाने की कोशिश है।

मेरी आत्मकथा पर अब तक सैकड़ों टेलीफोन और पत्र मिले हैं जिसमें से कुछ का कृतज्ञतापूर्वक आभार मैंने अपनी अगली पुस्तक ‘धावमान समय’ (अप्रकाशित) में व्यक्त किया है। उनके अतिरिक्त लगभग बीस लम्बे लेख भी इस पुस्तक पर मिले हैं जिसमें अधिकांश प्रकाशित हैं। लेखों में अधिकांश ने कंचन जी की आत्मकथा की चर्चा की है और कुछ ने गांधी जी की अनूदित आत्मकथा की भी। उन सभी को (अभिनव इमरोज, व्यक्ति विशेष-2, दिल्ली से प्रकाशित) देख कर कुछ अनुमान किया जा सकता है कि हिन्दी आत्मकथाओं में इस आत्मकथा की जगह क्या है ? मुझे इस संबंध में स्वयं कुछ भी नहीं कहना चाहिए। हाँ उपर्युक्त लेखों में एक लेख श्री उदयानु पाण्डेय का है जिन्होंने अनेक देशी-विदेशी श्रेष्ठ आत्मकथाओं का उल्लेख करते हुए इस आत्मकथाओं को विशिष्ठ माना है और इसे एक महाकाव्यात्मक आत्मजीवन चरित कहा है। उनके अनुसार  जीवन के जितने आयाम इसमें देखने को मिलते हैं उतने उन्हें किसी भारतीय अथवा विदेशी आत्मकथा में नहीं मिले। श्री पाण्डेय अंग्रेजी साहित्य के विद्वान हैं और अंग्रेजी के लेखक भी। महत्व उस दृष्टि का होता है जिससे आप किसी कृति को देखते हैं। जहाँ से देखते हैं वैसी ही कृति भी दिखती है। मूल्यांकन का क्षेत्र रचनाकार का नहीं होता, जिसकी रचना होती है।

प्रो. चमोला:  आप की आत्मकथा के दूसरे भाग की विषयवस्तु अथवा रूपरेखा क्या हो सकती है ?  जीवन की इस ऊध्र्वमुखी संघर्ष-यात्रा में कद, पद, प्रतिष्ठा, पुरस्कार व सम्मान की दृष्टि से संभवतः आपने सभी कुछ अर्जित कर लिया है। अब सांसारिक उपलब्धियों से इतर आपकी यह उत्तरार्ध आत्मकथा जीवन के किन दार्शनिक अथवा बौद्धिक प्रतिमानों को प्रतिबिंबित करने का प्रयास करेगी..... कृपया  इस बिंदु पर प्रकाश डालें या इस संबंध में अपनी भावी-योजना से पाठकों को अवगत कराने का कष्ट करें।

प्रो. तिवारी: जैसा कि पीछे कह चुका हूँ, मैं मुझे अपनी आत्मकथा का दूसरा भाग नहीं लिखना है। मैं चाहूँ भी तो लिख नहीं सकता। मेरी प्रकाशित आत्मकथा की एक विशिष्ट संरचना है । उसमें किसी प्रकार का जोड़-तोड़ संभव नहीं है। छोटे-छोटे उनतीस अध्यायों में विभाजित यह आत्मकथा एक भवन की तरह है जो अपने में संपूर्ण है। आप गौर करें तो पायेंगे कि उसमें एक व्यक्ति पैदा होता है, जीवन संग्राम में संलग्न रहता है, कुछ सोचता-विचारता है और अंत में अपने अज्ञान और अपराधों के लिए दुनिया भर से क्षमा याचना करता हुआ हमेशा के लिए विदा हो जाता है। जन्म से मृत्यु तक के इस वृत्तांत में कहीं कोई ऐसा अवकाश नहीं कि उसमें पुनः कुछ जोड़ कर आगे बढ़ाया जाय। अतः आगे मेरी आत्मकथा किसी दूसरे रूप (फार्म) में ही संभव है। अधिक संभावना है कि वह डायरी के रूप में पाठकों के सामने आये।

प्रो. चमोला:  डॉ. साहब, डायरी लेखन से क्या तात्पर्य है? आप डायरी-लेखन के प्रति कब आकर्षित हुए व क्यों आकर्षित हुए.......आपने डायरी लिखना कब प्रारंभ किया.... इसके पीछे आपको कौन सी ऐसी विशेष बात लग रही थी जो आपकी अन्यान्य विधाओं में अनभिव्यक्त हो और वह केवल और केवल डायरी के माध्यम से ही अभिव्यक्त हो सकती थी, इस बारे में कुछ बताने का कष्ट करें।

प्रो. तिवारी:  मुझे ठीक-ठीक याद नहीं पर जहाँ तक स्मरण जाता है, मैंने 1966 के बाद डायरी लिखना शुरु किया था। 1967 से 70 के बीच की लिखी एक रचना ‘डायरी के पाँच पृष्ठ’ शीर्षक से ‘ज्ञानोदय’ में प्रकाशित हुई थी। यह मैं स्मृति के आधार पर लिख रहा हूँ। उस समय ‘ज्ञानोदय’ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा कलकत्ते से प्रकाशित होता था। अन्य विधाओं की अपेक्षा मैंने डायरी ही क्यों लिखी, इसका सीधा उत्तर तो यही है कि रचना अपनी विधा और रूप (फार्म) भीतर से साथ लेकर प्रकट होती है। अक्सर वह स्वयं ही निर्धारित कर देती है कि उसका किस रूप में प्रकट होना उपयुक्त और प्रभावी होगा।

प्रो. चमोला:  युवा काल में आप की डायरी लेखन की शुरुआत कहीं प्रेम, विछोह अथवा स्नेह की खरौंच से तो नहीं हुई  ? युवा काल में आपकी डायरी-लेखन के विषय क्या होते थे .....और कब- कब उन्हें आप लिखना ज्यादा रुचिकर महसूस करते थे ?

प्रो. तिवारी: आपने सही कहा, अब मुझे याद आ रहा है कि ‘ज्ञानोदय’ में प्रकाशित मेरी डायरी का भाव जगत कुछ प्रेम से ही संबंधित था। मगर मैं डायरी नियमित नहीं लिखता था। कभी- कभी कुछ लिख लेता था और उसका विषय भी चिन्तनपरक होता था। जब बांग्लादेश में मुक्ति संग्राम चल रहा था तब मैंने उस घटना पर डायरी के कुछ पृष्ठ लिखे थे। इसी प्रकार जब भारत में आपात्काल लगा था तब उसके बारे में। एक बार जब मेरा पैर टूट गया था और 75 दिनों तक अस्पताल में था, तब उन दिनों डायरी के कुछ पृष्ठ लिखे थे। ये डायरियाँ मेरे संकलन ‘दिनरैन’ में प्रकाशित हैं।

प्रो. चमोला:  क्या डायरी लेखन दिन-भर अथवा समय विशेष की गतिविधियों के लेखे-जोखे का एक दर्पण मात्र तो नहीं......जो समकालीन संदर्भों में भले ही उपयुक्त प्रतीत होता हो किंतु कालखंड बीत जाने के बाद आपके द्वारा लिखी गई बातें ही आपको उनके आउटडेटेड होने का बोध कराती हों........क्या डायरी लेखन को पुस्तकाकार करते हुए आपको इस बात का एहसास होता रहा ? क्या बहुत कुछ अंतरंगता के साथ लिखी गई डायरी के उन भावुक क्षणों को आज भी उतनी ही प्रभविष्णुता या महत्त्व के साथ उद्धृत किया जाता है........ अथवा कहीं-कहीं उनके और अप्रासंगिक विषयों को काट देना अथवा हटा देना ही एकमात्र विकल्प बचा रह जाता है, कृपया इसके बारे में कुछ बताएं।

प्रो तिवारी: डायरी के अनेक रूप दिखते हैं। लेखकों की प्रवृत्ति और उनके स्वभाव के अनुसार। मैंने तात्कालिक महत्व रखने वाली घटनाओं को डायरी का विषय कम बनाया है। घटना या परिस्थिति तो समयबद्ध होगी ही मगर उसकी गूँज सीमित न हो, बल्कि वह आगे के पाठक के लिए प्रासंगिक हो, ऐसी ही कोशिश मेरी रही है। वैसे अतीत भी कभी का जीवित वर्तमान होता है और उसका ऐतिहासिक महत्व होता है। मेरी बांग्लादेश या आपात्काल की डायरी ऐसी है। इसी प्रकार साहित्य चिंतन या अन्य वैचारिक निष्कर्ष भी जो डायरी में आते हैं उनका महत्व व्यापक होता है, किसी एक खास समय के लिए नहीं। डायरी में बहुत छोटी-छोटी, अतिपरिचित और जानी-पहचानी बातों का उल्लेख न हो तो अच्छा। उसमें कुछ तो विशेष होना ही चाहिए जो पाठक को आकर्षित करे या उसे नया लगे।

प्रो. चमोला:  डायरी लेखन के पीछे एक डायरी लेखक का मूलभूत प्रतिपाद्य क्या सन्निहित रहता है ? क्या वह अपनी व्यष्टि चिंतनधारा को समष्टि पर थोपने का प्रयास तो नहीं.. कृपया डायरी लेखन की विशद परंपरा पर प्रकाश डालने का कष्ट करें कि डायरी लेखन ने हिंदी साहित्य में क्या विशिष्ट अवदान दिया है......आपको किसका डायरी-लेखन आज भी प्रभावित करता है और क्यों ?

प्रो. तिवारी: डायरी भी साहित्य की ही विधा है।  अतः उसका प्रतिपाद्य या लक्ष्य साहित्य के व्यापक उद्देश्य से इतर नहीं होगा। यह अगर व्यष्टि चिंतन को समष्टि पर थोपने का प्रयास माना जायेगा तो यह तो सम्पूर्ण साहित्य मात्र के बारे में कहा जा सकता है। सारा साहित्य ही पाठक को प्रभावित करने के लिए ही तो है। डायरी में लेखक की अपनी चिंताएँ, अपना चिंतन और अपनी आँख से देखे गये तथा अनुभव किये गये जीवन का ही वर्णन होता है। पाठक को पढ़कर ऐसा लगना चाहिए कि यह तो उसी का जीवन है जिसे उसने इस ढंग से देखा नहीं था। इस  पर इस दृष्टि से विचार नहीं किया था। हिन्दी में डायरी लेखन की परम्परा पर अलग से ही विचार करना ठीक होगा। वह एक अलग विषय है। फिर भी इस प्रसंग में कहा जा सकता है कि निर्मल वर्मा की डायरियाँ बहुत सर्जनात्मक और चिंतनपरक हैं।

प्रो. चमोला:  तिवारी जी, आपने कविताएँ....और वह भी अच्छी कविताएँ खूब लिखीं...... लेकिन लंबी कविताएं एवं प्रबंधात्मक कविताएं या कहूँ कि खंडकाव्य जैसी कृतियों का लेखन आपने नहीं किया।  इसके पीछे कोई विशेष कारण ? 

प्रो. तिवारी: कुछ दो चार लम्बी कविताएँ तो मैंने लिखी हैं पर खंड काव्य या प्रबंधात्मक कविताएँ नहीं लिखीं, आपका यह कहना सही है। ऐसा लगता है मेरे मन की बनावट और विशेषता वैसी नहीं है। उसकी प्रवृत्ति संक्षिप्ता और सूक्तिपरकता की ओर है, कथात्मकता की ओर नहीं। संभवतः इसीललिए मैं कहानी, उपन्यास आदि विधाओं की ओर नहीं गया। 

प्रो. चमोला:  आपमें कविता के संस्कारों का सूत्रपात अथवा बीजारोपण कब हुआ ? अपने भीतर साहित्यिक संस्कार जगाने का श्रेय आप किसे देना चाहेंगे ?  ग्रामीण माहौल में पलते-बढ़ते हुए आप एकाएक कविता की ओर किस तरह  आकर्षित हुए........क्या आपके  सहपाठी, मित्र, अथवा संबंधी कोई ऐसे थे  जो कविताएं लिखा करते थे अथवा साहित्य में जिनकी गहरी पैठ थी.... कृपया इस बारे में कुछ बताने का कष्ट करें।

प्रो. तिवारी: मेरा कोई सहपाठी, मित्र कविताएँ नहीं लिखता था, न मेरे कोई संबंधी साहित्य में थे। मेरे परिवार में भी वैदुष्य की कोई परम्परा नहीं थी। मैं जिस ग्रामीण माहौल में था, उससे दूर-दूर तक साहित्यिक संस्कार का कोई व्यक्ति नहीं था। अतः मैं यही कहूँगा कि काव्य-रचना के बीज मुझे प्रकृति की देन हैं जिसे बाद में मैंने अर्जित और विकसित किया।  मेरे इण्टरमीडिएट के पाठ्यक्रम में उन दिनों राम नरेश त्रिपाठी का ‘पथिक’ काव्य पढ़ाया जाता था और घर पर ‘रामचरित मानस’ की पोथी थी। इन्हीं को मैं अपनी काव्य-रचना का प्रेरक मानता हूँ। इण्टरमीडिएट में पढ़ते हुए ही मैंने दो कविताएँ लिखी थीं। शुरुआत की रचनाएँ हैं।

प्रो.  चमोला:  इलाहाबाद और बनारस उन दिनों साहित्यिक गतिविधियों के प्रमुख केंद्र थे।  ऐसे में  गोरखपुर में रहकर आपने अपने रचनाकार का लालन-पालन कैसे किया? प्रारम्भ के दिनों में आपकी किन लेखकों  व किन रचनाओं अथवा संगठनों से प्रभावित हुए और आपने लिखना शुरु कर दिया । जिन दिनों आपके साथियों की रोजी-रोटी का संकट चल रहा था तब आप अपनी सृजनात्मकता का मार्ग तराश व तलाश रहे थे । आप क्या बनना चाहते थे, यदि कवि तो आपकी कविता का मूल प्रतिपाद्य क्या था ?

प्रो. तिवारी: उन दिनों इलाहाबाद और बनारस तो जरूर ही साहित्य के प्रमुख केन्द्र थे पर गोरखपुर में भी एक साहित्यिक वातावरण था। यहाँ विद्यानिवास मिश्र थे जिनकी रचनाएँ ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित होती थीं और गोरखपुर में नये कवियों की एक मंडली थीं जिसमें केदारनाथ सिंह, परमानंद श्रीवास्तव आदि थे तथा पुराने कवि भी थे। कवि सम्मेलन और गोष्ठियाँ हुआ करती थीं। यद्यपि उनसे बाद में जुड़ा पर उनका आकर्षण रहता था। उन दिनों साहित्य में संगठन नहीं थे। सभी लेखक एक साथ थे। गोष्ठियों में सब अपनी अपनी रचनाएँ पढते थे और सब के बीच आत्मीयता थी। अवश्य ही मैं कवि और लेखक बनना चाहता था मगर उस समय अपने लेखन का स्वरूप और उसका दायरा बहुत कुछ स्पष्ट नहीं था। क्या बनना है, क्या लिखना है, क्या करना है आदि सब कुछ एक कोहरे में था। अस्पष्ट।

प्रो. चमोला:  तिवारी जी, लगता है जन्म से लेकर आज तक माँ आपके गोया श्वास-श्वास में समायी हुई हों। माँ के साथ के अंतरंग चित्र आपकी अनुभूतियों से लेकर अभिव्यक्तियों तक की यात्रा में यत्र-तत्र दृष्टिगत होते हैं। लगता है 6-7-8 दशकों की जीवन-यात्रा  के बावजूद भी विश्वनाथ प्रसाद का बाल-मन उसी भोलेपन व बाल-सुलभ मांसलता से वशीभूत हो अभी भी माँ की भावनात्मक, दार्शनिक एवं ज्ञानोन्मीलित, ममत्वमयी अंगुली थामे जीवन पथ पर उनके  निर्देशानुसार ही अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहा है । माँ  के इर्द-गिर्द घूमते हुए आपके इस संवेदनात्मक और भावप्रवण काव्यात्मक संसार के अपनत्व की कोई विशेष वजह?

प्रो. तिवारी: चमोला जी, इस प्रश्न का उत्तर आपके पिछले किसी प्रश्न में दे चुका हूँ। मेरे साहित्यिक और रचनात्मक जीवन पर माँ का वैसा कोई प्रभाव नहीं है जिसकी कल्पना आप कर रहे हैं। बल्कि सच कहूँ तो उसका प्रभाव है ही नहीं। मेरी माँ तो सीधी सादी, गाँव की लगभग एक निरक्षर महिला थीं, संवेदनशील और कर्मनिष्ठ। मुझे उसकी संवेदनशीलता और कर्मनिष्ठा तो मिली है पर उसका कोई ज्ञान या दर्शन चिंतन नहीं। अपनी आत्मकथा में मैंने माँ के बारे में आरंभिक अध्यायों में ही लिखा है।

प्रो. चमोला:  प्रो. साहब, आपके संदर्भों में यह उक्ति ‘हर सफल व्यक्ति के पीछे एक तपस्विनी स्त्री का बहुत बड़ा हाथ होता है‘ कितनी सार्थक व व्यावहारिक है ? स्त्री के शक्ति-स्वरूपा रूपों में आपकी पत्नी का क्या स्थान है......आपको साहित्यिक उपलब्धियों के चरम तथा रचनात्मक उदात्तता तक पहुंचाने में अपनी जीवनसंगिनी की भूमिका को आप किस रूप में याद करते हैं ? माँ की ही तरह उनकी गुणात्मक व चारित्रिक विशदता को अपने अपने रचना-कर्म में कहाँ-कहाँ व किन-किन रूपों में याद किया है ?

प्रो. तिवारी: चमोला जी, इस कथन का स्मरण उचित है कि इस सफल व्यक्ति के पीछे एक स्त्री का तप या समर्पण होता है। आपके इस प्रश्न का उत्तर भी मैंने अपनी आत्मकथा के चार-छः पृष्ठों में दिया है, जहाँ अपनी पत्नी के बारे में लिखा है। मेरी पत्नी भी मेरी माँ की तरह ही एक संवेदनशील और कर्मनिष्ठ महिला है। मेरी माँ में 

धार्मिक संस्कार उतने प्रबल नहीं थे जितने कि पत्नी में। या कहूँ कि वे पत्नी में ज्यादा दिखाई देते हैं, पूजा-पाठ, व्रत, कर्मकाण्डों और रूढ़ियों के रूप में। मैं कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करता हूँ कि मेरे जीवन संघर्ष और साहित्यिक सक्रियता में पत्नी का सबसे अधिक योगदान रहा है। उसने हमेशा ही घर की भीतर की जिम्मेदारियों से मुझे मुक्त रखा और स्वयं मौन रह कर अपनी चरम सहनशक्ति का परिचय देते हुए मेरे जीवन पथ को सुगम बनाया। मैंने अपनी रचना-कर्म में जहाँ कहीं स्त्री के बारे में लिखा है मेरी स्मृति में मेरी माँ और पत्नी विशेष रूप से रही हैं।

प्रो. चमोला: तिवारी जी, आप लंबे समय से चर्चित पत्रिका ‘दस्तावेज‘ का संपादन करते आ रहे हैं  । इस दीर्घ कालावधि में आपको रचना, रचनाकार एवं रचनाधर्मिता के मूल्यांकन व विश्लेषण करने का अच्छा अवसर मिला है । तब से अब तक रचना में कितना अंतर स्तरीयता व शिल्प की दृष्टि से दिखाई देता है ? क्या रचना और रचनाकार में अध्ययनशीलता के साथ-साथ सामाजिक जीवन एवं संवेदनशीलता को चित्रित करने की दक्षता के ग्राफ में आपको वृद्धि दिखाई देती है अथवा गांभीर्य के स्थान पर अवसरवादिता  व हलकेपन की अनुगूंज आपको सुनाई देती है..... हिंदी पत्रिकाओं में ‘दस्तावेज‘ का हटकर अलग से अवदान अथवा साहित्यिक सरोकारों के संवर्धन में क्या  भूमिका रही है ......खासकर ऐसे दौर में जब बड़ी व स्तरीय पत्रिकाएं दम तोड़ रहीं हैं व तथाकथित छोटी व नामचीन पत्रिकाएं किसी और के रिमोट से सांस लेने को विवश हों, इस पर दौर में ‘दस्तावेज‘ की भूमिका व पत्रकारिता के परिदृश्य पर प्रकाश डालने का कष्ट करें।

प्रो. तिवारी:  चमोला जी, ‘दस्तावेज’ पत्रिका के बारे में मै समय≤ पर काफी कुछ कह चुका हूँ। जब पत्रिका निकलनी शुरू हुई थी तब समय और दुनिया की परिस्थितियाँ भिन्न थीं। तब दुनियाँ में दो शक्तिकेन्द्र थे, सोवियत संघ का पतन नहीं हुआ था, उत्तर आधुनिकता की आँधी इतनी तेज नहीं हुई थी, भारत में कम्प्यूटर क्रांति नहीं हुई थी, मोबाइल अभी नहीं आया था। अर्थात् विचारों का खुलापन टेक्नोलॉजी का प्रचार अभी उतना नहीं था। आज साहित्य पर इन बदली हुई परिस्थितियों का स्पष्ट प्रभाव लक्षित किया जा सकता है। रचनाओं के वैविध्य, भाव और विचार के विस्तार तथा शिल्प के बदलाव को भी देखा जा सकता है। अवसरवादिता और हल्कापन तो हर युग में रहा है पर जब हम साहित्य की बात करते हैं तो श्रेष्ठ साहित्य की बात करते हैं। हमें स्वसीकार करना चाहिए कि हमारी रचनाशीलता भी समय के साथ रही है।

हिन्दी पत्रिकाओं में ‘दस्तावेज’ की भूमिका या उसके अवदान के बारे में भी पाठक की विचार करें तो उचित हेागा। हाँ, मैं यह कह सकता हूँ कि उसका लक्ष्य साहित्यिक उखाड़-पछाड़  के बीच संतुलन का रहा है, गुटबंदियों से दूर तटस्थ लेखकों को सामने लाने का तथा नई रचनाशीलता को रेखांकित करने का। वह न तो साधन सम्पन पत्रिका का रही, न किसी और के रिमोट से संचालित होने वाली। बल्कि एक भारतीय किसान की तरह अपनी पगडंडी पर धीर धीरे संतुलन बनाकर चलने वाली।

प्रो. चमोला:  तिवारी जी, यह संयोग ही है जिस निष्ठा, समर्पण, त्याग-तपस्या से साहित्यकार अपने जीवनादर्श रूपी कुटिया को सजाता-संवारता और गौरवान्वित करता है......जिज्ञासु खगवृन्द की तरह अपनी खून-पसीने की कमाई से एक एक तिनके के समान पुस्तकों, विचारों, शब्द-चिंतन और लेखन का संग्रह ही नहीं करता है वरन उन वैचारिक तृणों से एक अकल्पनीय वृहद सृजन-महल की संरचना ही कर बैठता है .........निर्माण कर देता है किंतु उस रचनाकार के निर्वाण के बाद उसकी अगली पीढ़ी में न वह समर्पण दिखाई देता है, न वह जिज्ञासा, न संवेदना व  साहित्यिक छटपटाहट....... या भावप्रवण सरोकारों के प्रति इतना अपनत्व ही...... ऐसे में इस वृहद साहित्य-परंपरा की संरक्षण की चिंता क्या आपको भी व्यथित करती है ? या फिर आपके परिवार में इस परंपरा को संभालने-संवारने के लिए......संरक्षित करने के लिए कुछ आशामय क्षितिज  बचा है ? प्रायः देखा जाता है कि साहित्यकार की निर्वाण के पश्चात उसका साहित्यय उसकी उपलब्धियां उसके जीवनादर्श लगभग छिन्न-भिन्न हो कर बिखर जाते हैं...... देश और प्रदेश तो रहा दूर, उसके जनपद अथवा पास- परिवेश में भी उनके महत्त्व, उनके चिंतन एवं उनके विचार-दर्शन की गहराई को समझने वाले जन समूह में कमी दृष्टिगत होती है..... ऐसे में आप अपनी इस विशद परंपरा का क्या भविष्य देखते हैं ?

प्रो.  तिवारी: चमोला जी, कोई व्यक्ति वैसे तो समाज का अंग होता है पर व्यक्ति के रूप में अकेला भी होता है। एक व्यक्ति के विचार, आदर्श, व्यवहार, जीवन-मूल्य दूसरे से भिन्न होते हैं। लेखकों के संदर्भ में तो यह होता ही है कि वह अपने परिवार और समूह में अलग होता है। ऐसा बहुत दुर्लभ है कि एक लेखक की विरासत को अगली पीढ़ी संभाल ले या उसे आगे बढ़ाये। लेखक में अपने लक्ष्य के प्रति भी समर्पण और छटपटाहट होती है वही उसके उत्तराधिकारी में कैसे संभव है जिसका कि लक्ष्य ही दूसरा हो? ऐसे में रचनाकार को अपनी साहित्यिक परम्परा के संरक्षण के लिए बहुत चिंतित नहीं होना चाहिए, न अपने परिवार पर निर्भर रहना चाहिए साहित्य एक सामाजिक व्यापार है। साहित्य का समाज ही उसे संरक्षित भी करेगा। इस संदर्भ में मुझे डॉ. राममनोहर लोहिया का कथन मूल्यवान प्रतीत होता है। आप जानते ही हैं, उन्होंने विवाह नहीं किया था। वे कहते हैं। ‘‘मेरे बेटे मेरे उत्तराधिकारी नहीं होंगे जो मेरे उत्तराधिकारी होंगे, वे मेरे बेटे होंगे।’’

प्रो. चमोला:  जिन मूल उद्देश्यों के साथ आपने ‘दस्तावेज’ का प्रकाशन संपादन प्रारंभ किया था..... आज इतनी लंबी यात्रा करने के पश्चात क्या आपको लगता है कि आप अपने अभीष्ट में सफल हुए हैं ? उस अभीष्ट से शोधार्थियों, विद्यार्थियों एवं जिज्ञासु पाठकों को भी अवगत कराएं कि आखिर पत्रिकाओं की इतनी भीड़ में ‘दस्तावेज’ को निकालने की प्राथमिकता अथवा मंतव्य क्या था ? आजकल प्रायः अपनी विचारधारा या अपनी मित्र-मंडली को प्रसन्न अथवा लाभान्वित करने के उद्देश्य से अधिकांश लोगों द्वारा पत्रिकाओं का संपादन किया जाता है । किंतु पत्रिकाओं की भीड़ में संघर्ष के बावजूद वे  गुणवत्ता व नैरंतर्य के अभाव में अपना अस्तित्व बना पाने में सक्षम नहीं हो पाते हैं। ऐसे में ‘दस्तावेज‘ उन पत्रिकाओं से किस रूप में पृथक है ? अभी तक ‘दस्तावेज‘ के सामान्य अंकों से इतर कौन-कौन से विशेषांक आपने प्रकाशित किए हैं...... जो पाठकों, लेखकों द्वारा खूब सराहे गए हैं... उन विशेषांकों के पीछे आप का मूल प्रतिपाद्य क्या था ? कृपया इस पर भी प्रकाश डालने का कष्ट करें।

प्रो. तिवारी: ‘दस्तावेज’ की इतनी लम्बी यात्रा के बाद मैं यह तो कह ही सकता हूँ कि वह अपने चुने गये रास्ते पर ही चली। उसमें विचारधारा के आधार पर कोई भेद भाव नहीं किया गया। सभी-विचार धाराओं के लेखक प्रकाशित हुए। सबने सहयोग भी किया। नये और कम चर्चित लेखक भी बड़ी संख्या में प्रकाशित हुए। पत्रिका ने कोई गुटबाजी नहीं की। चर्चा में आने के लिए विवादास्पद सामग्री का प्रकाशन नहीं किया। उसका स्वर संतुलित और संयत रहा। हाँ, जब कभी किसी बड़े लेखक पर जानबूझ कर प्रहार होते देखा या किसी अति गंदी सामग्री का दुराग्रह होता देखा तो उसका विरोध भी ‘दस्तावेज’ ने साहसपूर्वक सप्रयास किया। यह सब उसके निकालने के लक्ष्य के अनुरूप ही रहा। 

‘दस्तावेज’ ने समय समय पर बीस-पच्चीस विशेष अंक प्रकाशित किये जो ऐतिहासिक महत्व के हैं। प्रेचन्द, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, राम विलास शर्मा, आठवें दशक की कविता, आठवें दशक की आलोचना, अमृतलाल नागर, निराला, तुलसीदास, महात्मा गांधी, हिन्दी स्वराज और गौतम बुद्ध पर निकले विशेषांक इसी प्रकार हैं।

प्रो. चमोलाः  आपके एक प्रतिष्ठित कवि के साथ-साथ आलोचक भी हैं..... क्या आप आज की आलोचना-पद्धति, चाहे वह साहित्य की किसी भी विधा यानी - कविता, कहानी, नाटक अथवा अन्यान्य गद्य विधाओं में क्यों न हो, से संतुष्ट हैं ?  कहीं ऐसा तो नहीं आलोचकों की अलग-अलग कोटियां अपने अलग अलग विचारधारा, मत, संप्रदाय अथवा श्रेणी के रचनाकार विशेष का  सृजन मूल्यांकन करते हुए अन्यों के प्रति अपेक्षा का भाव ओढ़े हुए हैं ....एक सक्षम व समर्थ आलोचक का मूल धर्म क्या है ?  विभिन्न वादों- यथा छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद से होती हुई कविता आज जिस मुकाम पर है, उसमें एक आलोचक के रूप में कविता की गुणवत्ता अथवा मूल्यहीनता के संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे ......कविता विकास की सीढ़ियों पर आरूढ़ हुई है अथवा अपने मूल मंतव्य व गंतव्य से भटक गई है......कृपया वास्तव में साहित्य क्या है और कविता क्या है....इस विषय पर विस्तार से  प्रकाश डालने का कष्ट करें।

प्रो. तिवारी: आप का यह प्रश्न बहुत बड़ा है जिसका उत्तर देने में पूरा साहित्येतिहास समा जायेगा। संक्षेप में कहूँ और सीधे कहूँ तो आज की साहित्य-विधाओं में सबसे कमजोर है आलोचना। मैं आज की आलोचना से संतुष्ट नहीं हूँ। वह विचारधारा के आग्रहवश साहित्य और साहित्यकारों का संतुलित तथा समुचित मूल्यांकन करने में असफल रही है। एक सक्षम व समर्थ आलोचना का मूलधर्म पूर्वग्रह युक्त होकर श्रेष्ठ साहित्य को रेखांकित करना है। गुणवत्ता के आधार पर, साहित्य की व्यापक समावेशी सृष्टि के आधार पर आधुनिक हिन्दी कविता अपनी विकास-यात्रा में अनेक उतार-चढ़ावों और मोड़ों से होकर गुजरी है। हर दौर में उसमें उल्लेखनीय कवि रहे हैं। आज भी अनेक कवि अच्छी कविताएँ लिख रहे हैं। कविता अपने कर्तव्य से भटकती तब है जब चारों ओर लहराते जग जीवन समुद्र से उसका रिश्ता टूट जाता है। अब वह कलावाद और मतवाद के भँवर में फंस जाती है। जब-जीवन की वेदना, उसकी आशा-आकांक्षा, उसका सुख-दुःख और उसका स्वयं ही कवि का आधार है। यही आधार सम्पूर्ण साहित्य का भी है।

प्रो.  चमोला:  आप अपनी कविता यात्रा के बारे में कुछ बताएं कि आप के काव्य-गुरु कौन हैं ? किन से प्रेरित होकर आपने कविता के इस उर्ध्वमुखी पथ की ओर बढ़ना प्रारंभ किया... एक आलोचक अथवा पाठक के रूप में आप अपनी कविता यात्रा को कितने सोपानों में विभाजित करेंगे ? आप एक संवेदनशील कवि रहे हैं......तो आपका यह संवेदनशील हृदय, संवेदनशील कहानीकार अथवा उपन्यासकार क्यों नहीं बन सका...... कृपया उन उन विधाओं में, जिनमें आपने कुछ नहीं लिखा अथवा लिखना नहीं चाहा या फिर लिख नहीं सके, के बारे में अपनी बेबाक राय दें। आपकी कविताओं पर लिखने वाले आलोचकों ने आपको इस काव्य-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी अथवा आपको अपने मूल मंतव्य से हतोत्साहित करने या भटकाने का प्रयास किया ?

प्रो. तिवारी: चमोला जी, आपके इस प्रश्न के अधिकांश का उत्तर मैं पिछले एक दो प्रसंगों में दे चुका हूँ। मेरा कवि बनना कोई पूर्व नियोजित घटना नहीं है, यह बस यों ही घटित हो गया एक प्रसंग है। मेरे न कोई काव्य-गुरु हैं, न कोई पथ प्रदर्शक, न कोई प्रेरक। एक अनाथ बालक की तरह जीवन के मेले में भटकते हुए मैंने स्वयं इसे हासिल किया है। मेरी कविता के कोई इतने रूप नहीं है कि उसके वर्गीकरण आदि में जाऊँ। वह प्रकृति, प्रेम, जीवन, मृत्यु और मनुष्य से विविध भावों तथा समय के दबाने के बीच लिखी जाती रही है। मैंने कथा साहित्य नहीं लिखा, शायद इसलिए कि लिख नहीं सकता था। सभी लेखक सभी कुछ कहाँ लिख पाते हैं। मुझ पर लिखने वाले आलोचकों ने मुझे आगे बढ़ने की ही प्रेरणा दी, भटकाने का प्रयास नहीं किया। यदि उन्होंने कुछ आलोचना की तो वह भी मेरे लिए पथ-प्रदर्शक ही साबित हुई।

प्रो. चमोलाः तिवारी जी, जिस दौर में आपने कविताएँ लिखना प्रारंभ किया था ....वह दौर कविता की आंदोलनों का दौर था, विशेषकर नई कविता और अकविता या फिर अति क्रांतिकारी कविता का .....तो उस दौर  के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे.....तब आप अपनी कविताओं की भाव-भूमि के बारे में अधिक चिंतित रहते थे अथवा उस काल के कविता आंदोलनों के फॉर्मेट के बारे में....... क्या आपको कविता को उन आंदोलनों के अनुरूप लिखने की विवशता थी अथवा आप वही लिखते थे जो भीतर से नैसर्गिक रूप से स्फुरित होकर कागज पर आ उतरती थी ?

प्रो. तिवारीः चमोला जी, रचनाएँ अपनी भाषा-परम्परा में हुआ करती है। लेखक अपनी भाषा-परम्परा से प्रभावित भी होता है और उसका दोहन भी करता है। मैंने जिस दौर में कविता लिखना शुरू किया उसके पहले भी हिन्दी में कविताएँ लिखी जाती रही हैं। अतः मेरी कविताओं पर पूरी काव्य-परम्परा का प्रभाव लक्ष्य किया जा सकता है। हाँ, मेरे समय में नये काव्यान्दोलन भी थे और नयी भावभूमि भी। मैंने अपनी कविता उनके अनुरूप लिखने की कोशिश नहीं की। उनका परोक्ष प्रभाव तो रहा पर लिखा मैंने वही, जैसा स्वयं महसूस किया। एक खास देश-काल में अनुभव का एक खास स्तर तो दिखता ही है पर किसी एक विशेष आन्दोलन से जुड़ना अलग बात है। वह मैंने नहीं किया।

प्रो. चमोला: लंबी कविताओं एवं खंड-काव्यात्मक कृतियों  के लेखन की ओर आप क्यों नहीं आकर्षित हुए.... जबकि आप चाहते तो आप स्तरीय प्रबंध-काव्यों का प्रणयन कर सकते थे?

प्रो. तिवारीः इस प्रश्न का उत्तर मैं पिछले किसी प्रश्न के संदर्भ में दे चुका हूँ। यहाँ सिर्फ यही कहना है कि हम लोग जिस समय में लिख रहे हैं उस समय का वातावरण ही खंड-काव्य और महाकाव्य के अनुकूल नहीं है। इसीलिए इस पूरे समय में आप को प्रबंध काव्यों की कमी खलेगी। दूसरी बात यह कि सभी कवियों की प्रकृति एक जैसी नहीं होती। मैं अगर लिख सकता तो अवश्य ही कोई बड़ा प्रबंधकाव्य या महाकाव्य लिखता, मगर शायद मैं लिख नहीं सकता था या कहें कि ऐसा लिखने के बारे में मैन नहीं सोचा, न प्रयास किया। लघु आकार वाली मुक्त रचनाओं में भी महाकाव्यात्मक गरिमा हो सकती है।

प्रो. चमोलाः कविता, अकविता, नई कविता आंदोलनों के समानांतर ही नवगीत विधा भी पूरे जोरों से पल्लवित-पुष्पित हो रही थी तो आपके कवि ने नवगीत की ओर क्यों नहीं रुख किया ?  साठोत्तरी नवगीत व नवगीतकारों पर एक आलोचक के रूप में आप क्या समीक्षात्मक टिप्पणी करना चाहेंगे?

प्रो. तिवारी: गीत विधा बहुत प्राचीन है। उसकी काव्य-परम्परा भी प्राचीन है। मगर सच यही है हमारे समय का मिजाज गीत-विधा के अनुकूल नहीं है। समाज के जिस नग्न यथार्थ और यांत्रिक परिवेश में हम साँस ले रहे हैं उसमें भाषा और भाव दोनों का क्षुब्ध, अनगढ़ और आक्रामक होना स्वाभाविक है। साठोत्तरी नवगीतकारों ने अपने समय की विसंगतियों और कुरुपताओं-विकृतियों का अच्छा चित्रण किया है, उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। मैंने स्वयं अपनी पत्रिका ‘दस्तावेज’ का एक विशेष अंक इन पर केन्द्रित किया है। मगर नयी कविता की आँधी ने इन्हें हाशिए पर कर दिया। अपने समय के दहाड़ते यथार्थ और हाहाकार की चुनौती से संघर्ष करने में गीत-विधा का शिल्प शायद नयी कविता की तुलना में उतना समर्थ नहीं रहा।

प्रो. चमोला: आप एक कवि के साथ-साथ सफल आलोचक भी हैं.....आपकी दृष्टि में हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष कौन हैं और किस आधार पर आप उन्हें......अन्य समकालीन आलोचकों की आलोचना दृष्टि के निकष पर हिंदी आलोचना का शिखर- पुरुष मानते हैं ?  कृपया इसकी ऐतिहासिकता पर विहंगम दृष्टि डालने का कष्ट करें ।

प्रो. तिवारी: हिन्दी आलोचना में अनेक विद्वानों ने काम किया है और उनकी अपनी-अपनी उपलब्धियाँ भी हैं। किसी ने किसी काल विशेष पर, किसी ने किसी विधा विशेष या व्यक्ति विशेष पर लिखा है जिसका महत्त्व स्वीकार करना चाहिए। पर आप शिखर आलोचक के बारे में पूछ रहे हैं तो थोड़ा पहले चलें तो रामचन्द्र शुक्ल को ही हिंदी आलोचना का शिखर-पुरुष कहना उचित होगा। कारण यह कि आलोचना लिखते हुए उनके समक्ष सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य था। हर लेखक और प्रवृत्ति का उन्होंने सारगर्भित मूल्यांकन किया। बाद के आलोचकों में डॉ. रामविलास शर्मा का नाम इसलिए लेना चाहूँगा कि यद्यपि वे मार्क्सवादी थे फिर भी उन्होंने सम्पूर्ण 

आधुनिक साहित्य का सहृदय मूल्यांकन किया। भारतेंदु हरिचन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, निराला, प्रेमचन्द पर लिखी उनकी पुस्तकें आज भी मानक हैं । आप लक्ष्य करेंगे कि इन लेखकों में कोई माक्र्सवादी नहीं था लेकिन ये बड़े लेखक थे। रामविलास जी ने अपनी साहित्यिक परम्परा का मूल्यांकन तटस्थ भाव से किया।

प्रो. चमोला: डायरी और पत्र-साहित्य हिंदी में पुरानी विधाएं हैं.... इनके बारे में आपका क्या कहना है ?  क्या रचनाकार के मूल लेखन के समानांतर ही इन विधाओं में भी उसका व्यक्तित्व एवं चिंतन उसी प्रभविष्णुता के साथ मुखरित होता है ?  आपने दोनों में ही लेखन किया है......कृपया इस पर विस्तार से प्रकाश डालिए ।

प्रो. तिवारी: डायरी ने अब एक स्वतंत्र गद्य विधा का रूप ले लिया है। लेखक की प्रकृति के अनुसार डायरी के भी विविध रूप हो सकते हैं और होते ही हैं। मगर वही डायरियाँ साहित्यिक और रचनात्मक होती हैं जिसमें पाठक दिलचस्पी लें या कि उन्हें भी कुछ मिले। यह साहित्य के बारे में भी यही कहा जा सकता है। अन्य विधाओं की तरह ही इन विधाओं में भी लेखक का व्यक्तित्व, चिंतन और उसकी रचनात्मकता व्यक्त होती है। दुनिया भर के साहित्य में इन विधाओं में पर्याप्त लेखन हुआ है और उन्हें ख्याति भी मिली है। अंग्रेजी और फ्रेंच साहित्य में अनेक प्रसिद्ध लेखकों की डायरियों और उनके पत्रों के महत्वपूर्ण संकलन प्रकाशित हैं। भारतीय भाषाओं में उर्दू और बांग्ला में पत्रों के अनेक संग्रह उल्लेखनीय हैं। जैसे गालिब, इकबाल, रवीन्द्रनाथ टैगोर और शरतचन्द्र आदि के पत्र । इन विधाओं में जो महत्वपूर्ण लेखन हुआ वह किसी भी माने में उपन्यास, कहानी आदि से कमतर नहीं है।

प्रो. चमोला: आपने अनेक देशों का भ्रमण किया है ऐसे में आपने रिपोर्ताज, संस्मरण एवं रेखाचित्र जैसी विधाओं में अन्य की तुलना में कितना लेखन किया है ?

प्रो. तिवारी: मैंने संपूर्ण भारत और लगभग सोलह अन्य देशों का भ्रमण किया लेकिन उनके यात्रावृत्त बहुत विस्तार से नहीं लिखे। भारत यात्रा के मेरे संस्मरण ‘भारत की धरती’ नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित हैं। विदेश-यात्राओं पर लिखी मेरी तीन पुस्तकें हैं- ‘अन्तहीन आकाश’, ‘अमेरिका और यूरप में एक भारतीय मन’ तथा ‘पतझड़ में यूरप तथा अन्य यात्राएँ’। मेरे यात्रा संस्मरणों में, मैं जहाँ भी गया, एक भारतीय मन सर्वत्र विद्यमान मिलेगा। मेरे यात्रा संस्मरण मेरे अन्य लेखन की तुलना में कम जरूर हैं मगर मैं उन्हें कम महत्व नहीं देता। उन्हें पढ़ते हुए मैं अपने विस्मृत या धुंधले हो रहे समय को पुनः पा लेता हूँ। और पाठकों के लिए भी पर्याप्त सामग्री है- वहाँ का भूगोल, इतिहास, प्रकृति, परिवेश और जीवन की धड़कन।

प्रो. चमोला: हिंदी के स्वनामधन्य साहित्यकारों, लेखकों, विचारकों से एक संपादक के रूप में, एक लेखक के रूप में आपका मिलने का सिलसिला बहुत पुराना रहा है.....आप अपनी स्मृति-यात्रा में किस लेखक से हुई मुलाकात को इतने वर्षों बाद अपने लिए मार्ग-दृष्टि अथवा ऐसी घटना या वृत्तांत के रूप में याद करना चाहेंगे जिसने आपकी जीवन व चिंतन को नई दिशा व दृष्टि प्रदान की हो।

प्रो. तिवारी: चमोला जी, मेरे समय के बहुत ही कम ऐसे लेखक होंगे, जिनसे मेरी मुलाकात न हुई हो। कभी मैं जाकर मिला, कभी उन्होंने ही आकर मिलने की कृपा की, कभी संगोष्ठियों आदि में मिलना हुआ, आदि। जब किसी से मिलना हुआ तो बातें भी हुईं, सार्थक विमर्श भी हुए और उनसे कुछ न कुछ ऐसा मिला भी जिससे मुझे सोचने-समझने की दिशा और दृष्टि मिली। मेरे नवीनतम कविता संग्रह का शीर्षक ही है- ‘सबने कुछ दिया’। चाहे लेखक हो या सामान्य आदमी, सबसे कुछ न कुछ मिला है। उनका ऋण मैं कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करता हूँ। हाँ, कुछ लेखकों से अधिकाधिक बार मिलना हुआ, उनके साथ ज्यादा समय रहने का अवसर मिला, उनके साथ यात्राओं का भी संयोग बना। जैसे अज्ञेय, विद्यानिवास मिश्र, विष्णुकांत शास्त्री, मनोहरश्याम जोशी, शिव प्रसाद सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, अमृतलाल नागर, आदि। आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं कि इन लेखकों से कितना कुछ मिला होगा। लेकिन उन सब का विवरण देना संभव नहीं है। इन लेखकों के बारे में मेरी दो संस्मरण-पुस्तकें प्रकाशित हैं- ‘एक नाव के यात्री’ और ‘समय की स्मृति’। दूसरी पुस्तक तो अभी इसी वर्ष (2021) प्रकाशित हुई है।

प्रो. चमोला: हिंदी आत्मकथा में आपको किसकी आत्मकथा ने सर्वाधिक प्रभावित किया तथा अपनी आत्मकथा लिखने के लिए प्रेरित किया ? कृपया आत्मकथा साहित्य के बारे में एक समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत करने का कष्ट करें।

प्रो. तिवारी: मैंने आत्मकथाएँ बहुत पढ़ी हैं- भारतीय भी और विदेशी भी। हर आत्मकथा की अपनी कुछ खूबियां हैं। लेकिन जब आप हिन्दी आत्मकथाओं की बात करते हैं तो मुझे इस समय राहुल सांकृत्यायन की ‘मेरी जीवन यात्रा’ (चार खंड) और हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा (चार खंड) का स्मरण आ रहा है। मुझे सभी आत्मकथाओं ने कम या कुछ अधिक प्रभावित किया है, इसे स्वीकार करना चाहिए। मगर सच्ची बात यह है कि आत्मकथा लिखने की प्रेरणा मुझे स्वयं अपने भीतर से ही मिली, किसी आत्मकथा को पढ़ने के बाद नहीं। इसीलिए मेरी आत्मकथा सबसे अलग है, बल्कि कहूँ कि वह आत्मकथा के प्रचलित चैखटे के बाहर हैं।

प्रो. चमोला: आपका रचना संसार इतना व्यापक है....लेकिन अभी भी वह ग्रंथावली के रूप में प्रकाशित नहीं हुआ है..... इस पर आपका क्या कहना है ? अपने साहित्य पर हुई शोध-कार्यों के संदर्भ में आप कुछ कहना चाहेंगे ?

प्रो. तिवारी: मेरी संपूर्ण रचनाएँ किसी एक ग्रंथावली में नहीं आई हैं, इस बारे में कुछ और मित्रों ने याद दिलाया है। मैंने इस बारे में अभी विचार नहीं किया। किसी अच्छे प्रकाशक से बात हो जाय और छप जाये तो ठीक ही है। सारा लेखन एक जगह उपलब्ध हो जायेगा। जहाँ तक मेरे लेखन पर शोध कार्य की बात है, आप विश्वविद्यालय सेवा से सम्बद्ध हैं, अतः जानते हैं कि कितने स्तरहीन शोध कार्य होते हैं। शोध छात्रों को डिग्री से मतलब होता है, अपने शोध की गुणवत्ता से नहीं। मेरे लेखन पर लगभग दस पी.एच.डी के शोध हो चुके हैं । और भी हुए होंगे जिनकी सूचना मुझे नहीं है। इन शोध प्रबंधों से बेहतर है कोई व्यक्ति दो-चार अच्छे लेख लिख दे।

प्रो. चमोला: साहित्य अकादमी के साथ आपका लंबा एवं अंतरंग नाता रहा है ।  साहित्य अकादमी के सदस्य से लेकर संयोजक, उपाध्यक्ष एवं अध्यक्ष के रूप में अपने अनुभवों को आप कैसे याद करना चाहेंगे ? संभवतः अध्यक्षीय गरिमा  व परंपरा की इतनी दीर्घ शृंखला में पहली बार किसी हिंदी विद्वान को इतना लंबा सान्निध्य मिला.... अकादमी से अपनी इस दीर्घ मैत्री पर अपनी प्रतिक्रिया आप किस प्रकार व्यक्त करना चाहेंगे ?

प्रो. तिवारी: आपने सही कहा है कि साहित्य अकादमी के साथ मेरा लम्बा अंतरंग नाता रहा है। 2008 से 2017 तक मैं साहित्य अकादमी के सभी पदों- हिंदी भाषा का संयोजक, उपाध्यक्ष और अध्यक्ष- पर रहा। इन दस वर्षों को अपने जीवन के सर्वोत्तम वर्ष मानता हूँ। मेरा अकादमी कार्यकाल अधिकार का नहीं, प्रेम का था। मैंने कभी महसूस नहीं किया कि मैं अकादमी का अध्यक्ष हूँ, बल्कि उसे अपने परिवार की तरह माना। अनेक संकट आये, जिसमें ‘पुरस्कार वापसी’ भी था, मैंने लेखकों की इस मातृ संस्था को अपने से ऊपर रख कर, इसकी गरिमा को धूमिल नहीं होने दी। मुझे संतोष है कि अपनी क्षमता भर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह किया। अपने मुंह से इतना कहना उचित नहीं, आप को अकादमी के कर्मचारियों से इस बारे में पूछना चाहिए। 

प्रो. चमोला: कविता आपके लिए अभिव्यक्ति की छटपटाहट मात्र थी अथवा समय की क्रूरताओं, विपरीतताओं व विसंगतियों से दो-चार होने का एक सशक्त शस्त्र? कविता का भवन कल्पना व यथार्थ के किन घटकों से विनिर्मित होता है? या यूँ कहें आपके लिए कविता की प्रसूति का संघर्ष क्या है?... अथवा आपके काव्य-सृजन की पृष्ठभूमि क्या है? आप कविता को भीतरी बेचैनियों का विस्फोट मानते हैं अथवा बाहरी विस्फोटों की प्रतिबिंब हैं भीतरी बेचैनियां? आपकी कविता की संरचना की कच्ची सामग्री (Row Material) अथवा आधारशिला क्या है?

प्रो. तिवारी: चमोला जी, आपका पहला और दूसरा प्रश्न लगभग एक-सा है। आप यह पूछना चाहते हैं कि कवि का समय और उसका काव्य-संसार कविता में महत्त्वपूर्ण होता है या कि कवि की अभिव्यक्ति की छटपटाहट और उसकी भीतरी बेचैनी? देखिए, कवि के भीतर और बाहर की दुनिया अलग-अलग नहीं है। प्रसिद्ध आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि संसार-सागर के रूप-तरंगों से ही कवि अपनी काव्य-सामग्री प्राप्त करता है। हाँ, जैसा कि टी.एस. एलिएट ने लक्ष्य किया है, इस काव्य-निर्मिति की प्रक्रिया वैसी होती है, जैसी मधुमक्खी द्वारा फूलों से मधु बनाने की प्रक्रिया। कवि में जो अभिव्यक्ति की छटपटाहट होती है, वह अपने समय की क्रूरताओं को ही महसूस करके केवल ‘क्रूरता’ न कहिए, अपने समय की सुंदरता और तरलता भी उसमें अभिव्यक्ति की छटपटाहट पैदा करती है। रवींद्रनाथ टैगोर की कविता में अपने चारों ओर का नैसर्गिक और मानवीय सौंदर्य लबालब भरा है। ‘बाह्य विस्फोट’ और बाह्य रूपायन दोनों ही भीतरी बेचैनियों को जन्म देते हैं। मुक्तिबोध ने अपनी अनेक कविताओं में बाह्य और आभ्यंतर के द्वंद्व का चित्रण और वर्णन किया है। उनकी कविता की वास्तविक ज़मीन ही यही है। बाह्य संसार तब तक सच्ची कविता नहीं बन सकता, जब तक वह कवि की भीतरी बेचैनी न बन जाए। जो व्यक्ति जितना ही संवेदनशील होता है, उसमें बेचैनी भी उतनी ही जल्दी और गहरी होती है। बाह्य को बिना अपनी भीतरी बेचैनी बनाए जो कविता लिखी जाती है, वह प्राणहीन तथा निर्जीव होती है। बाबरी मस्ज़िद के ध्वंस पर कई सौ कविताएँ लिखीं गईं मगर आज आपको उनमें से एक की भी स्मृति नहीं होगी। कारण यही है, दूसरों के दुःख को अपना बना लेना, बहुत गहरी संवेदनशीलता की माँग करता है। श्रीकांत वर्मा ने एक कविता में कहा भी है कि दूसरों के दुःख को अपना बनाने की कोशिश बहुत की, मगर न हुआ। तो चमोला जी, कवि का अपना समय और बाह्य संसार तथा उसका आभ्यंतर और उसकी गहराई दोनों ही काव्य-सृजन का आधार है। कविता में बाह्य संसार कवि के भीतर की भट्टी में पिघल कर व्यक्त होता है, क्यांेकि हर कवि की यह भट्टी एक नहीं होती। अतः अलग-अलग कवियों की कविताएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं।

प्रो. चमोला: कविता अथवा लेखन मानवता के तात्कालिक सवालों का प्रतिफलन है अथवा अनुभूति व अभिव्यक्ति के द्वंद्वात्मक संघर्ष का प्रतिफलन? आखिर किससे प्रेरित होकर लेखक, लेखन के लिए उत्प्रेरित-उद्वेलित होता है?

प्रो. तिवारी: लेखन मानवता के तात्कालिक सवालों का प्रतिफलन नहीं है। उसमें मानवता के शाश्वत प्रश्न भी होते हैं। संत-भक्त कवियों का काव्य इसी प्रकार का है। दुनिया का बहुत सारा महान् कालजयी लेखन इसी प्रकार का है। तात्कालिक सवालों पर किए गए लेखन में यदि व्यापक फलक और गहरी अंतर्दृष्टि नहीं है तो वह भी तात्कालिक हो जाता है। अनुभूति और अभिव्यक्ति का द्वंद्वात्मक संघर्ष भाषा में प्रकट होता है। रचनाकार बराबर महसूस करता है कि वह जो महसूस कर रहा है, उसे ठीक-ठीक व्यक्त नहीं कर पा रहा है। उसे हमेशा उपयुक्ततम शब्द की तलाश होती है। जो ऐसा कर लेता है, वही श्रेष्ठ रचनाकार होता है। प्रसिद्ध कवि-आलोचक कोलरिज ने कहा है कि अनुभव तो सभी करते हैं, पर सब उसे व्यक्त नहीं कर पाते। रचनाकार इसी अर्थ में रचनाकार है कि वह उसे ठीक-ठीक व्यक्त कर लेता है।

प्रो. चमोला: आपकी कविता व लेखन की लहलहाती खेती में ग्राम्य-संस्कृति खाद का कार्य करती रही है। आपकी उत्तरवर्ती रचना-यात्रा में ग्राम्य-संस्कारों की रक्षा आप कहाँ तक कर सके हैं? बदलते समय व परिवेश में भी इसका संरक्षण आपके लिए क्यों आवश्यक रहा? कृपया इस संबंध में कुछ बताएँ। महानगरीय सुविधायुक्त जीवन-शैली के बावज़ूद  गोरखपुरी परिवेश क्यों आपको बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता रहता है? इसके पीछे कोई विशेष दिशा-दृष्टि अथवा जीवन-दर्शन?

प्रो. तिवारी: मेरी कविता में ग्राम-संस्कृति का होना स्वाभाविक है। मेरे जीवन के आरंभिक 18-20 वर्ष गाँव में ही बीते हैं और मैं आज भी गाँव से जुड़ा हूँ तथा गाँव जाता हूँ। मेरे संस्कार गाँव के ही हैं। मेरी उत्तरकालीन रचनाओं में भी ग्रामीण संस्कृति की रक्षा हुई है। ग्रामीण संस्कृति का संरक्षण इसलिए आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति मूलतः ग्राम्य-संस्कृति है। ‘हिंद स्वराज’ में गांधीजी ने जिन मूल्यों के आधार पर भारत की संस्कृति को यूरोपीय सभ्यता से श्रेष्ठ कहा था, वे भारतीय ग्रामीण जीवन के ही मूल्य थे। हालाँकि पश्चिमी आधुनिक सभ्यता और अंग्रेज़ी भाषा के प्रभाव से भारत के गाँव अब बदल गए हैं, पर अभी भी कुछ पुराने लोगों और स्त्रियों में ग्राम-संस्कृति के मूल्य देखे जा सकते हैं।

गोरखपुर का परिवेश मुझे इसलिए आकृष्ट करता है कि यह छोटा नगर है। महानगर की तुलना में यहाँ जीवन स्थिर है। यहाँ के लोगों के पास दूसरों के लिए भी कुछ समय है और सबसे बड़ी बात यह कि यहाँ मेरा पुस्तकालय है, मेरा कमरा है, जिसमें बैठकर पढ़ने-लिखने का मैं अभ्यस्त हूँ। इसलिए दिल्ली में अपने काम के बाद मैं एक दिन भी अधिक नहीं रुकता हूँ और सीधे गोरखपुर चल देता हूँ।

प्रो. चमोला: मानवता की मुक्ति का संघर्ष आपकी कविता का मुख्य प्रतिपाद्य है। इससे आप विश्व (कविता) को क्या संदेश देना चाहते हैं?

प्रो. तिवारी:  आपने सही लक्ष्य किया है कि मानवमुक्ति मेरी कविता का मुख्य प्रतिपाद्य है। व्यक्तिगत रूप से मैं जाति, धर्म, रंग, नस्ल और यहाँ तक कि देश की सीमाओं में भी विश्वास नहीं करता। मेरी कविताओं में यह भाव व्यक्त हुआ है। बहुत पहले मैंने एक कविता लिखी थी, ‘‘एक अविस्मरणीय सपना।’ उस कविता में अखंड पृथ्वी का मेरा स्वप्न देखा जा सकता है। विश्व कविता को मेरा कोई संदेश नहीं है। यदि कुछ है तो यही कि वह राष्ट्रों की सीमाओं से मुक्त हो।

प्रो. चमोला: क्या भुक्त (अनुभूत) यथार्थ का सीधा प्रतिबिंब है कविता अथवा लेखन? या फिर अप्रत्याशित अथवा यथार्थरहित तथ्यों की काल्पनिक अतिशयोक्तिपूर्ण अभिव्यक्ति मात्र? यथार्थ व कल्पना का किस अनुपात में निर्धारण होता है आपके रचनात्मक लेखन में? कौन सा तत्त्व साहित्य की शाश्वतता के लिए कितना आवश्यक है?

प्रो. तिवारी: रचनात्मक लेखन में यथार्थ और कल्पना दोनों का ही योग होता है। दोनों में से किसी एक के बिना रचना संभव नहीं है। अलग-अलग साहित्य रूपों में इनकी मात्रा अलग-अलग होती है। उदाहरण के लिए उपन्यास और कहानी अर्थात् कथा-साहित्य में कल्पना का अधिक इस्तेमाल होता है तो कथेतर गद्य अर्थात् जीवनी, आत्मकथा, यात्रावृत्त आदि में यथार्थ का। मैंने कथा-साहित्य नहीं लिखा है, कथेतर गद्य ही लिखा है। अतः उसमें कल्पना से अधिक यथार्थ है। वैसे भी मेरे संपूर्ण लेखन में कल्पना की तुलना में यथार्थ अधिक है।

प्रो. चमोला: ‘बाह्य व भीतरी संसार के द्वंद्व-मंथन की परिणति है सृजनकर्म’... इस बात से आप कहाँ तक सहमत हैं... सप्रमाण पुष्ट करें...?

प्रो. तिवारी: मैं आपके कथन से सहमत हूँ कि सृजन कर्म बाह्य और भीतरी मंथन की परिणति है। जितना ही गहरा यह मंथन होता है, सृजन कर्म उतना ही प्रामाणिक बनता है।

प्रो. चमोला: विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की कविता मानवता के प्रेम की कविता है। क्या आपने वास्तविक जीवन में प्रेम किया है? यदि हाँ तो उस प्रेम की यथार्थता को शाश्वतता व अमरत्व प्रदान करने के लिए कच्ची सामग्री के रूप में उसका कहाँ-कहाँ व किस-किस रूप में आपने उपयोग किया है? साहित्यकार अथवा कवि अपने भोगे हुए यथार्थ का कितना प्रतिशत सार्वजनिक करता है... तथा कितना स्वयं व समाज से छिपा देता है? प्रेम-प्रसंगों के विशेष संदर्भ में इसे पाठकों की जिज्ञासा के लिए खुलकर बताने का कष्ट करें।

प्रो. तिवारी: प्रेम एक भाव है जो सबके भीतर प्रकृति प्रदत्त है। क्या ऐसा भी कोई होगा जिसमें प्रेम न हो या जिसने प्रेम न किया हो। राक्षसी वृत्ति का व्यक्ति भी अपने बच्चे और स्त्री से तो प्रेम करता ही है। यह प्रश्न बहुत प्रासंगिक और वस्तुपरक नहीं है कि मैंने किसी से प्रेम किया या नहीं, या कितना छिपाया और कितना व्यक्त किया। प्रासंगिक यह है कि मेरी रचनाओं में प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है या नहीं। आपका कहना सही है कि मेरी कविता में मानव प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है। प्रेम एक अत्यंत पवित्र भाव है जो एक-दूसरे से जोड़ता है। व्यक्तिगत प्रेम ही मानव प्रेम की सीढ़ी भी है।

प्रो. चमोला: ‘रचनात्मक असंतोष सृजनात्मक यात्रा के विस्तार की आधारशिला है’ इससे आप किस हद तक सहमत हैं? कविता की अन्यान्य विधाओं की ओर अग्रसर होने के पीछे कोई खास वजह? कविता के राजमार्ग को छोड़कर आप निबंध, संस्मरण, समीक्षा व दूसरी-दूसरी विधाआंे के लेखन की ओर क्यांे प्रवृत्त हुए? क्या एक रचनाकार एक ही विधा को जीकर आजीवन उसी में स्वयं को प्रतिबद्ध नहीं रख सकता? वह अपनी सृजन विधा का मार्ग समाज की शर्तों पर बदलता है अथवा अपनी किंचित असमर्थता पर?

प्रो. तिवारी: रचनाकार का असंतोष सृजनात्मक यात्रा के विस्तार का आधार है। मैं आपके इस कथन से सहमत हूँ। असंतोष न हो तो भीतरी बैचेनी नहीं होगी और फिर सृजन भी नहीं होगा। कोई रचनाकार आजीवन एक ही विधा में रचना कर सकता है। इसके उदाहरण भी हैं। पर एक ही विधा में अन्य विधाओं की आवाजाही होती रहती है। कविता में भी कथा के तत्व होते हैं। यदि कोई लेखक सृजन की विधा बदलता है तो इसमें उसकी असमर्थता इस अर्थ में होती है कि वह उस विधा को अपनी अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त नहीं पाता। कहा जाता है कि अभिव्यक्ति की बेचैनी अपनी विधा भीतर से स्वयं तय कर लेती है। मैं स्वयं कविता के अलावा अन्य विधाओं में इसलिए गया क्योंकि कविता में ही मैं सब कुछ व्यक्त नहीं कर सकता था। यही मेरी असमर्थता थी। एक बार 1973 में मैं एक कविता लिखना चाहता था मगर उसने कहानी का रूप ले लिया। कहानी मैंने कभी नहीं लिखी थी पर जब वह कहानी पूरी हुई तो मैं स्वयं चकित हो गया। मेरी वह पहली ही कहानी उस वर्ष की श्रेष्ठ कहानियों में चुनी गई। उसे कमलेश्वर जी ने ‘सारिका’ में छापा। बाद में ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ में भी छपी। यदि कोई लेखक किसी अंचल के भूगोल, इतिहास, संस्कृति आदि का विस्तार से चित्रण करना चाहता है तो उसे उपन्यास लिखना ही पडे़गा। कविता में ही लिखना चाहे, तो वह महाकाव्य होगा।

प्रो. चमोला: आप पहले कवि हैं अथवा समीक्षक? यदि आप पहले कवि हैं तो कहीं आपने अपने ‘कवि’ व ‘कविता’ के संरक्षण के लिए तो ‘समीक्षक’ बनना नहीं चुना? समीक्षक बनना आपको अपनी कविता के समीक्षकों के प्रतिवाद ने उकसाया अथवा समीक्षा के क्षेत्र में आपकी कोई विशेष जीवन दृष्टि थी... जो आपको तत्कालीन परिवेश में नहीं दिखाई देती... जो आप पाठक-वर्ग को देना चाहते थे। यदि आप समीक्षक न होते तो आपकी कविता अथवा हिंदी कविता कितनी अचर्चित व अमूल्यांकित होती? आखिर ऐसी कौन-सी रिक्तता तत्कालीन समीक्षा व आलोचना में आपको लगी... जिसकी पूर्ति केवल और केवल आपका समीक्षक  आलोचक ही कर सकता था? उपस्थित आलोचकों के आलोचनाकर्म से क्या कुछ नवीन आपने हिंदी समीक्षा व आलोचना को दिया? कृपया सप्रमाण इस पर प्रकाश डालें।

प्रो. तिवारी: मैं अपने को पहले कवि मानता हूँ और हूँ भी। ‘कवि’ शब्द को थोड़ा व्यापक रूप देकर आप ‘रचनाकार’ कह सकते हैं। मैंने सर्जनात्मक गद्य भी काफी लिखा है। अपनी कविता के संरक्षण के लिए मैं समीक्षक नहीं बना। न मेरी कविता के समीक्षकों ने मुझे समीक्षा लिखने को उकसाया। सच्ची बात तो यह है कि कोई समीक्षा लिखकर अपनी कविता का संरक्षण नहीं कर सकता। हाँ, सैद्धांतिक आलोचना लिखने के लिए मुझे अपने समय के आलोचकों ने जरूर उकसाया। उन्हें तर्कों के आधार पर मैंने चुनौतियाँ भी दीं। यदि मैं समीक्षक न होता तो भी हिंदी कविता अचर्चित नहीं रहती। कविता अपनी शक्ति से चर्चित होती है। समीक्षक उसे चर्चित नहीं कर सकता। समीक्षा में मेरा क्या अवदान है, इसके बारे में मैं स्वयं कुछ कहने का अधिकारी नहीं। मेरे पाठक और आलोचक ही कुछ कहें, तो उचित होगा।

प्रो. चमोला: आज आलोचना में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, डाॅ. श्यामसुंदर दास प्रभृति विद्वानों की व्यापक व सम्यक आलोचना-दृष्टि की अपेक्षा व्यक्ति व पार्टी केंद्रित पूर्वाग्रह-प्रतिबद्धता अधिक दिखाई देता है। लगता है कि आज की आलोचना कुछ तथाकथित के रचनाकर्म की पीठ थपथपाकर अपना उल्लू सीधा कर रही है। इससे समग्रतः साहित्य का बहुत अहित हो रहा है। आप मेरी इस बात से कितना सहमत हैं?

प्रो. तिवारी: मैं आपसे सहमत हूँ कि आज की आलोचना के आदर्श आचार्य, शुक्ल या हजारीप्रसाद द्विवेदी नहीं हैं। इससे भी सहमत हूँ कि आज की आलोचना पार्टी केंद्रित और पूर्वाग्रह ग्रस्त है। इस बारे में मैं बहुत लिख चुका हूँ। यहाँ उसी को दुहराना ठीक नहीं।

प्रो. चमोला: क्या साहित्य से तात्कालिक समस्याओं का समाधान संभव है? व्यष्टि से समष्टि तक का, अनुभूतियों से अभिव्यक्ति तक का सफर समाज के निर्माण, उत्थान, उन्नयन अथवा मार्गदर्शन में क्या और कितनी भूमिका निभाता है? सत्साहित्य के सरोकार एक अधिक बौद्धिक व सांस्कृतिक दृष्टि से सुसंपन्न समाज की संरचना में किस प्रकार सहायक सिद्ध हो सकता है?

प्रो. तिवारी: साहित्य से तात्कालिक समस्याओं का समाधान एक सीमा तक ही संभव है। फिर भी समाज के उत्थान और निर्माण में साहित्य की महती भूमिका है। भारत के लोगों की मानसिक बनावट और नैतिक मूल्य जो कुछ भी हैं, उसमें हमारे महाकाव्यों- ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ का बहुत बड़ा योगदान है। यदि वे दोनों महाकाव्य न होते तो हम वह न होते जैसे कि आज हैं। इसी प्रकार कमोबेश हर श्रेष्ठ साहित्य का योगदान हुआ करता है। साहित्य केवल समाज का दर्पण मात्र नहीं है, वह समाज का निर्माता भी है।

प्रो. चमोला: लेखन में गुटबंदी आज की मानक शब्दावली में कहूँ तो क्या प्रामाणिकता का पर्याय हो गई है? बिना किसी गुट विशेष का ठप्पा लगे क्या कोई शब्द-साधक निर्दलीय सर्जक के रूप में अपनी रचना-यात्रा की ऊंचाइयाँ नहीं छू सकता? गुटबंदी की चारदीवारी अथवा संरक्षण में पनपते साहित्य का भविष्य क्या है? क्या गुटबंदी अपने खेमे के लेखकों व लेखन को आगे निकाल या उत्कृष्ट करार देने की एक जबरदस्त होड़ है? अथवा दूसरे साहित्य व साहित्यकारों को कमज़ोर करने का षड्यंत्र मात्र?

प्रो. तिवारी: लेखन में गुटबंदी अनावश्यक है। इसका प्रभाव तात्कालिक होता है। अंत में साहित्य ही बच रहता है। गुटबंदियों से दूर रह कर भी लेखक अपनी ऊँचाई प्राप्त कर सकता है। हाँ, उसे थोड़ा धीरज रखना पड़ता है और अधिक ऊर्जा के साथ खड़ा होना पड़ता है।

प्रो. चमोला: आपने अपनी आत्मकथा में कहीं लिखा कि, ‘‘कोई भी लेखक जब से स्वाधीन होकर सोचना शुरू करता है तभी से वह लेखक होता है।’’ इतनी लंबी रचना-यात्रा के उपरांत इस उक्ति पर आप स्वयं को कितना खरा पाते हैं? यह स्वाधीन सोच, चिंतन व भौतिकता के निकष पर पहुँचने-पहुँचने तक लेखक को कितना लेखक बने रहने लायक छोड़ती है?

डाॅ. तिवारी: मैंने सही लिखा है कि लेखक जब स्वाधीन होकर लिखता है, तभी वह लेखक है। जब तक वह दूसरों का अनुकरण करता रहता है, उसके लेखन का प्रभाव नहीं होता। लेखन एक स्वाधीन क्रिया है। अपनी रचना-यात्रा में मैंने इसे महसूस किया है। स्वाधीन सोच ही लेखक को लेखक बने रहने लायक रखती है। उसके समक्ष कठिनाइयाँ और चुनौतियाँ ज़रूर आती हैं, मगर उन्हीं से उसे बल मिलता है। दलित लेखन भी इसका एक उदाहरण माना जा सकता है। छायावाद में ‘कामायनी’ इसका एक उदाहरण है। अज्ञेय और निर्मल वर्मा के गद्य में इसका साक्ष्य मिल जाएगा।

प्रो. चमोला: प्रो. साहब, आज के संदर्भों में यदि बात करूँ तो बड़े-बड़े पद, बड़े-बड़े कद निजी स्वार्थों से प्रेरित हो अपने व अपनों का उल्लू सीधा करने के पयार्य बन गए हैं। उस पर आसीन होकर या वे स्वयं उपकृत हुए हैं अथवा जी भरकर उन्होंने अपनों को उपकृत किया है। आप स्वयं को अपने रचनाकार व व्यक्ति के रूप में किस हद तक पृथक, संलग्न अथवा तटस्थ पाते हैं। बड़े पद, मात्र स्वार्थों के विनिमय के रंगमंच हैं अथवा कुछ स्मरणीय, ऐतिहासिक व अनुकरणीय आदर्शों के राष्ट्रीय प्रतिमान भी?

प्रो. तिवारी: तटस्थ होना न तो यथार्थ से पलायन है, न परिस्थितियों से आँख मूँदना। यह एक संतुलन है जो न्याय व्यवस्था के लिए अनिवार्य है। यदि आप पक्षकार हैं तो निर्णायक नहीं हो सकते। न न्याय कर सकते हैं। इसलिए न्याय की मूर्ति के दोनों आँखों पर पट्टी बँधी होती है। तटस्थ का अर्थ है तट पर स्थित होना। यदि आप तट पर स्थित नहीं हैं तो प्रवाह को नहीं देख सकते। प्रवाह में होकर आप सिर्फ बह सकते हैं या फिर आत्मरक्षा के लिए छटपटा सकते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘संतुलन’ शब्द की व्याख्या करते हुए इसे दोनों अतियों से बचने की कोशिश कहा है। एक व्यक्ति और रचनाकार के रूप में मैं तटस्थ और संतुलित होने की कोशिश करता हूँ। यह कोशिश मेरी तब भी रही है जब किसी पद पर नहीं था। पद पर पहुँचने के बाद तो यह और भी कठिन तथा चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

प्रो. चमोला: लेखक अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से सैदव अपने भीतर के सच को सच समझकर समाज पर लादना चाहता है। जबकि बहुत बार समाज का असली सच, जो लेखक के सच से कई-कई गुणा अधिक शाश्वत, दीर्घजीवी व अकाट्य होता है, लेखक के सच के समक्ष अदृष्ट अथवा बौना सिद्ध होता जाता है। ऐसे में लेखक का अपरिपक्व व खंड रूप में प्रस्तुत सत्य क्या समाज व युगबोध के नेतृत्व का दम भर सकता है... क्या लेखन मात्र व्यष्टि के दर्शन का प्रदर्शन है?

प्रो. तिवारी: लेखक का सच और समाज का सच प्रायः एक होते हैं। लेकिन इनमें कभी-कभी विरोध की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है। इसीलिए तुलसीदास ने कहा है, ‘‘कहब लोकमत साधुमत’’ अर्थात् लोकमत और साधुमत दोनों में किंचित विरोध भी होता है। आज की ग्राम पंचायतें प्रेमी-प्रेमिकाओं के गले रेत देती हैं। यह साधुमत नहीं है। लेखक अपने सच को समाज पर लादना नहीं चाहता। वह जिसे सच समझता है उसे पाठकों के पुनर्विचार के लिए छोड़ देता है। यही आदर्श स्थिति है। जो लेखक अपने सच को पाठकों पर लादना चाहता है, वह अपने दायित्व का पालन नहीं करता। सच्चा लेखक व्यक्ति के दर्शन का प्रदर्शन नहीं करता। हाँ, कभी-कभी समाज का सच ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। तब लेखक को उसी से प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिए।

प्रो. चमोला: अपनी आत्मकथा ‘अस्ति और भवति’ लिखते हुए आपने विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को अपने फोटोग्राफर रूपी लेखक से कितनी बार छुपाया है... अथवा विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के माध्यम से लेखक की अनुभूतियों के सत्य को उसके पास पहुँचाया है... जहाँ आपको लेखक व लेखन में पारदर्षिता अथवा एकरूपता दिखाई दी हो...? इतना कुछ लिख देने के बाद भी कहीं आपको यह भाव तो नहीं बेचैन किए रहता कि उस घटना अथवा तथ्य की जगह ‘वह’ नहीं, बल्कि ‘यह भाव’ अधिक उपयुक्त व सटीक होता? लेखक के चरित्र व जीवन के सत्य का किस हद तक सत्य-निरूपण करती है आपकी यह आत्मकथा? यह सद्गुणों के लेखे-जोखे का गुलदस्ता होता है अथवा अपने अवगुणों के क्रमिक अध्ययन के चरणबद्ध विश्लेषण का एक ईमानदार प्रयास...? आत्मकथा के उत्तरार्ध की आपकी क्या योजना है?

प्रो. तिवारी: आत्मकथा किसी लेखक के गुणों और अवगुणों का लेखा-जोखा नहीं होती। वह लेखक का गहन आत्मविश्लेषण है। अवश्य ही वह लेखकों की प्रकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न होगी, जैसे कि रचनाएँ भिन्न-भिन्न हुआ करती हैं। मगर उसे लेखक का ही नहीं, उस समय का भी प्रामाणिक दस्तावेज़ होना चाहिए जिस समय में लेखक साँस लेता रहा। मेरी आत्मकथा में फरवरी 2013 तक का मेरा जीवन चित्रित है। अभी इसका उत्तरार्ध लिखने की कोई योजना नहीं है। कुछ वर्षों बाद इस पर सोचा जा सकता है।

प्रो. चमोला: आत्मकथा में ही आपने स्वीकार किया कि ‘‘मुझे किसी भी गुट में शामिल नहीं होना है अपनी एक स्वाधीन संतुलित दृष्टि पाने का प्रयत्न करना है।’’ लेकिन कुछ प्रबुद्धजन आपमें वामपंथी विचारों का प्रभाव देखते हैं व कुछ-कुछ और। यह केवल उनका भ्रम मात्र है... अथवा आप भी इसे किसी हद तक अपनी रचनाधर्मिता अथवा चिंतन में स्वीकारते हैं?... या दूसरे शब्दों में कहूँ कि किसी गुट में शामिल न होने का संकल्प अथवा प्रतिबद्धता कितने अंशों तक आज भी खरी है आपके भीतर?

प्रो. तिवारी: आपका कहना सही है कि दक्षिण पंथी मुझे वामपंथी मानते हैं और वामपंथी दक्षिण पंथ का। इस स्थिति पर मुझे इकबाल का एक शे’र याद आ गया है:

ज़ाहिदेतंगनज़र ने मुझे काफिर जाना

और काफिर ये समझता है मुसलमां हूँ मैं।

मैं एक लेखक के रूप में स्वाधीनता का बड़ा मूल्य मानता हूँ और अपने स्वाधीन विवेक से ही विचार करता तथा लिखता हूँ। किसी भी राजनीतिक पार्टी या लेखक संगठन से मेरा कोई संबंध नहीं है। मेरी प्रतिबद्धता जन के साथ है।

प्रो. चमोला: प्रो. साहब, इसी परिपे्रक्ष्य में फिर एक विचार कौंध रहा है मेरे भीतर... कि एक विचारोत्तेजक अथवा समर्थ लेखक को किसी एक विशेष खूँटे पर बँधकर उनकी पालतू गाय बनकर रहना उसके लेखक व लेखन के लिए कितनी सुखद व दुर्भाग्यपूर्ण है? दूसरे अर्थों में यह उसके लेखन की असमर्थता है अथवा उसके पौरुष की अविश्वसनीयता की पराकाष्ठा?

प्रो. तिवारी: आप सही कहते हैं कि लेखक का किसी एक खँूटे से बँधना एक दुःखद स्थिति है। किसी दल से बँध जाने के बाद लेखक उस दल की आलोचना करने से अपने नैतिक अधिकार से वंचित हो जाता है। यह स्थिति क्या लेखक के मर जाने जैसी नहीं है?

प्रो. चमोला: चिंतन, संशयों के संशयों का संशयात्मक निरूपण का एक प्रयास मात्र है। कोई भी वाद, विचारधारा अथवा सिद्धांत अपने क्षेत्र के चिंतन की पराकाष्ठा... अथवा इतिश्री नहीं है... यानी उसमें अपने में निरंतर परिवर्तन, परिवर्धन करने की पर्याप्त गुंजाइश समाहित रहती है।... आखिर, साहित्य ऐसे ऊहापोहों, संशयों अथवा आकुलताओं का गुणनफल/ विस्तार मात्र है, अथवा इन दिग्भ्रमित करते बौद्धिक ऊहापोहों से समाज को उबारने का एक सशक्त माध्यम व समाधान भी...? इस पर आपका क्या विचार है?

प्रो. तिवारी: रचना और चिंतन मूलतः तो अपने ही संशयों से संघर्ष और उनसे मुक्ति का प्रयास है। लेकिन उसी में लेखक अपने लिए समाधान भी पाता है। तुलसीदास ने रामचरित मानस के शुरू में ही लिखा है:

निज संदेह, मोह, भ्रम हरनी।

कहहुँ कथा भवसागर तरनी।

प्रो. चमोला: काव्य-सृजन की इतनी लंबी अवधि में कविता का कौन सा दौर सबसे अच्छा लगा और क्यों?

प्रो. तिवारी: मेरे समय में कविता का वह दौर प्रीतिकर था जिसमें लेखकों के बीच परस्पर आत्मीय संबंध बने हुए थे। सभी लेखक बिना किसी भेदभाव के खुले हृदय से साथ बैठते थे, अपनी रचनाएँ पढ़ते थे और एक-दूसरे पर अपनी राय जाहिर करते थे। अब तो लेखकों के बीच रिश्ते जहरीले हो गए हैं। ईष्र्या, द्वेष, कटुता, बैर-भाव और कपटपूर्ण आचरण।

प्रो. चमोला: आज बाज़ारीकरण का दौर है। कविता व अन्य विधाओं के पाठकों की अभिरुचि में ह्रास तत्त्व की कमी दिखाई दे रही है। आपने फिर भी कविताएँ लिखना व छपाना नहीं छोड़ा है। कवि की कविता केवल आत्मतोष व स्वांतः सुखाय तक सीमित है अथवा पाठकीय प्रतिक्रिया पर घटती-बढ़ती रहती है। प्रकाशकों ने कविता के प्रकाशन पर नाक-भौं सिकोड़ने प्रारंभ कर दिए हैं... ऐसे में आपको कविता का भविष्य दिखाई देता है?

प्रो. तिवारी: बाज़ारीकरण के दौर में कविता के पाठकों में कमी आई है, कविता संकलनों के प्रकाशन पर भी संकट है, फिर भी कविताओं का लिखा जाना कम नहीं हुआ। लिखकर लेखक को आत्मतोष तो होता ही है। पाठकों की प्रतिक्रिया का तो हर लेखक को सीमित ही पता चलता है पर उनकी प्रतिक्रिया के अनुसार उसका लेखन घटता-बढ़ता नहीं रहता। कवि को लिखना है तो वह लिखेगा। उसके भीतर जो कुछ व्यक्त होने के लिए छटपटाता है, उसे वह अभिव्यक्ति देगा ही, चाहे कोई पढ़े या न पढे़।

प्रो. चमोला: हिंदी साहित्य में कविताओं से अनेक ‘वाद’ जुड़े रहे तथा ‘छायावाद’, ‘प्रगतिवाद’ अथवा ‘रहस्यवाद’ आदि। क्या उस निर्धारित कालावधि के बाद इन खास विचारधाराओं से संबंधित रचनाएँ हिंदी कवियों द्वारा लिखनी बंद हो गईं? यदि नहीं तो उनका उल्लेख आज क्यों नहीं किया जाता?... अथवा यह आलोचकों के विवेक पर  निर्भर करता है... कि अपनी सुविधानुसार वे किसी विचारधारा विशेष को चर्चा में रखें अथवा खारिज़ कर दें?

प्रो. तिवारी: कविता में अनेक वाद आए और आते रहते हैं। एक प्रवृत्ति के समाप्त होने के बाद भी उस प्रवृत्ति की कविताएँ लिखी जाती रहती हैं, जैसे आज भी कुछ लोग छायावादी कविताएँ लिख रहे होंगे। मगर उनकी संख्या अल्प होगी। आलोचक किसी कालावधि की मुख्य धारा की कविताओं की ही चर्चा करते हैं। एक खास समय में अनुभव का एक खास स्तर और शिल्प का भी एक प्रचलित रूप सामने आता है। आलोचक उसी पर ध्यान देते हैं। जहाँ तक विचारधारा की बात है तो आलोचक अपनी विचारधारा की रचना को स्वाभाविक रूप से रेखांकित करेगा ही।

प्रो. चमोला: आपकी कविता की रचना प्रक्रिया क्या है? क्या कुछ कथ्य केवल कविता तक ही सीमित होते हैं?... अथवा उसमें अभिव्यक्ति का असंतोष दूसरी विधाओं तक की यात्रा करता है? कविता का चुनाव कोई इसलिए करता है कि यह अन्य फारमेटों की तुलना में आसान पड़ता है?

प्रो. तिवारी: मेरी काव्य रचना प्रक्रिया कुछ विशिष्ट और अद्भुत नहीं है। कभी कोई घटना, कोई परिस्थिति, कभी चिंतन का कोई क्षण, कोई बिंदु, कभी पढ़ते हुए कोई चिन्गारी मेरे अंतःकरण के तार को झनझनाती है और मैं लिखता हूँ। दुनिया बहुत बड़ी है, घटनाओं का विस्तार भी बहुत ज्यादा है, मगर इनमें जो मेरे भीतर को उद्वेलित करता है, वही मेरी रचना का स्रोत बनता है। कथ्य एक कविता से दूसरी कविता तक और एक विधा से दूसरी विधा तक यात्रा करता रहता है। अभिव्यक्ति की आकुलता बची रहती है। तभी तो रचनाकार अन्य रचनाओं में प्रवृत्त होता है। कविता का चुनाव कोई इसलिए नहीं करता कि वह अन्य विधाओं में आसान है, बल्कि अच्छी कविता लिखना तो सबसे मुश्किल व्यापार है। कविता ही वह विधा है जिसमें शब्द का कम से कम प्रयोग होता है। थोड़े में बहुत कुछ कहना क्या आसान है?

प्रो. चमोला: प्रो. साहब, आपकी कविताओं की विकास यात्रा पर दृष्टिपात करते हुए ज्ञात होता है कि इधर आपकी कविताएँ अंतर्मुखी अधिक होने लगी हैं... उनमें भौतिकता से अधिक दर्शन व अध्यात्म का संस्पर्श दिखाई देने लगा है। क्या स्वयं भी यह परिवर्तन अनुभव किया है? यदि हाँ तो इसका कोई विशेष कारण?

प्रो. तिवारी: आपने सही लक्ष्य किया है कि मेरी परवर्ती कविताओं में वैचारिक गहराई अधिक है। कवि जैसे-जैसे प्रौढ़ होता है, वह शब्दों की गहराई में पहुँचता है और चिंतन की भी। बहुत बार कही गई बातों पर भी वह पुनर्विचार करता है। अपने ही भीतर के अंधकार में घुसना और कोई प्रकाश की किरण पाने की कोशिश करता है। इस प्रयास में ही वह दर्शन की भावभूमि का स्पर्श करता है। मगर मेरी परवर्ती कविताओं में लोक का रंग भी बहुत गाढ़ा है। वह भौतिक की नींव पर ही स्थित है।

प्रो. चमोला: आप कवि अथवा समीक्षक दोनों में से किस रूप में जीना चाहेंगे? क्या आपका समीक्षक आपके कवि के लिए किसी ‘गाॅड फादर’ की तरह तो नहीं है... जिनका संरक्षण उसके अस्तित्व को बल देता हो?

प्रो. तिवारी: मैं अपने को मूलतः कवि मानता हूँ। कवि की संवेदनशीलता ही मुझे जगत से जोड़ती है। मेरा समीक्षक मेरे कवि के लिए ‘गाॅड फादर’ नहीं। कविता लिखते हुए तो अपने समीक्षक का ध्यान भी नहीं रहता। हाँ, कविता लिखते हुए चिंतन प्रक्रिया सक्रिय रहती है। दोनों में कोई विरोध नहीं, न एक को दूसरे से श्रेष्ठ कहा जा सकता। भाव और विचार दोनों का संयुक्त रूप है कविता।

प्रो. चमोला: तिवारी जी, क्या लेखन अपने भीतर के प्रति पनपे असंतोष की पुनव्र्याख्या है अथवा बाहर (दृष्य जगत) की विदू्रपताओं के प्रति विद्रोह?

प्रो. तिवारी: लेखन अपने भीतर के असंतोष की अभिव्यक्ति भी है, उसकी रचनात्मक व्याख्या भी और उस असंतोष की पीड़ा से उबरने की कोशिश भी। वह बाह्य जगत की विदू्रपता के प्रति विद्रोह भी है। इन सबमें कोई विरोध की स्थिति नहीं है।

प्रो. चमोला: आपको अपने अनेक रूपों में कौन सा रूप सबसे अच्छा लगता है और क्यों?

प्रो. तिवारी: हर काव्यरूप का अपना महत्त्व है और उसके हर रूप में जो श्रेष्ठ पढ़ने को मिलता है, मुझे अच्छा लगता है। मैं कविता, उपन्यास, कहानी, नाटक और कथेतर गद्य की सभी विधाएँ पढ़ता हूँ।      

देहरादून, मो. 09411173339


डाॅ. तिवारी के साथ संपादक डाॅ. दिनेश चमोला ‘शैलेश’ व संपादक देवेंद्र कुमार बहल


लालन साह फकीर गीत के पुस्तक लोकार्पण में 03 जून, 2017 तिवारी जी राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी एवं वरिष्ठ राजनितिज्ञ मुरली मनोहर जोशी के साथ राष्ट्रपति भवन के कलचरल सेंटर में


‘.....सपने अधिक वे देखते हैं जिनकी इच्छाएँ अतृप्त होती हैं। जो भूत या भविष्यजीवी होते हैं। जो वर्तमान को मुक्त होकर भोग नहीं पाते हैं। मैं ऐसा ही आदमी हूँ। भविष्य सदा मेरे सिर पर नंगी तलवार की तरह लटकता रहता है। आदमी मैं सेल्फ-कांसस हूँ। मेरा ‘होना’ सदा साथ रहता है। भविष्य की चिंताओं और योजनाओं में मेरा वर्तमान मुझसे छीन लिया है। मृत्यु का भय मुझमें इसलिए कि जीना चाहता हूँ। लेकिन क्यों जीना चाहता? जो जीना चाहता है, ‘किसी के लिए’। अन्यथा आत्महत्या के बहुत से रास्ते हैं। सामान्य आदमी मृत्यु को तब महसूस करता है जब वह उस पर आक्रमण कर देती है मगर एक रचनाकार उसके खौफनाक पंजों को निरंतर महसूस करता है।.....’’    विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

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