मैं कैसे हँसू (कहानी संग्रह) कठिन समय का दस्तावेज
समीक्षा
सुषमा मुनीन्द्र
सुशांत सुप्रियसुपरिचित रचनाकार सुशांत सुप्रिय के सद्यः प्रकाशित कहानी
संग्रह ‘मैं कैसे हॅंसू’ में
याद रखने लायक पच्चीस कहानियाँ हैं। सुशांत अपनी पुस्तकों में भूमिका या आत्मकथ्य
प्रायः नहीं लिखते। शायद इनका मानना है जो कहना है कहानियों में कह दिया है जिसका
मूल्यांकन पाठक कर लेंगे। सचमुच। पुस्तक में मूल्यांकन करने के लिये बहुत कुछ है।
इतने विषय, प्रसंग, स्थितियाँ, घटनायें, सूत्र हैं कि एक वृहत्तर समय की मौजूदगी
दर्ज होती है। सुशांत सुप्रिय एक खबर या विचार मात्र पर किस्सागोई शैली में ऐसी
सुदृढ़ बुनावट-बनावट के साथ कहानी रच देते हैं कि स्थिति-परिस्थिति-मनःस्थिति के
कारण और कारक दोनों स्पष्ट हो जाते हैं। कहानियों का फैलाव गाँव, कस्बे, नगर, महानगर, ब्रम्हाण्ड तक जाता है। कहानियों में उस अतीत का वैभव है जब जमींदार होते
थे, लाट साहब, राय बहादुर जैसी
उपाधियाँ होती थीं, पेड़, पुष्प,
पवन, पानी, पर्यावरण
(शुद्ध) की प्रचुरता होती थी, तो आज का वह कठिन समय भी है जब
जालसाजी, मक्कारी, करोड़ों के घपले,
बदनियत, बदहाल कानून और व्यवस्था, असामाजिक तत्वों के उपद्रव, आतंकवादी हमले विचार और
कर्म में आ गये फर्क के कारण असुरक्षा और भय का माहौल है। ‘‘यह
इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक था जब देश के अय्याश वर्ग के पास अथाह सम्पत्ति थी,
वह ऐश कर रहा था जबकि मेहनतकश वर्ग भूखा मर रहा था (कहानी - मैं
कैसे हॅंसू)।’’ जैसी स्थिति सुशांत सुप्रिय को अधीर करती है।
वे बहुत कुछ हड़पने वाले साधन सम्पन्न लोगों और देसीपन लिये साधनहीन लोगों के मध्य
ऐसी आवाजाही बनाना चाहते हैं जब उभय पक्ष को उनका प्राप्य मिले। हम जानते हैं
चापलूसी, चाटुकारिता उत्कर्ष पर है। रिश्ते-नाते स्वार्थ से
प्रेरित हैं। धन और पद का दुरुपयोग हो रहा है। राजनीति और धर्म में फरेब आ गया है।
ऐसी मनुष्यविरोधी चेष्टाओें और खतरनाक इरादों ने नींद में खलल और सपनों में भय भर
दिया है ‘‘अक्सर सपनों में मुझे चिथड़ों में लिपटा एक बीमार
भिखारी नजर आता है जिसके बदन पर कई घाव होते हैं, जो बेतहाशा
खाँस रहा होता है ........ देखते ही देखते वह बीमार भिखारी मेरे देश के नक्शे में
बदल जाता है (कहा नी - मैं कैसे हॅंसू)।’’ ये पंक्तियाँ
भयावह पटल नहीं बनाना चाहतीं बल्कि लेसन देती हैं कि यदि चाह लें तो अब भी
प्रतिबद्ध सोच और संवेदना का पुनर्जागरण हो सकता है। रोबोट में बदलते जा रहे लोगों
को कर्तव्य की ओर उन्मुख किया जा सकता है।
संग्रह की अधिकांश कहानियाँ प्रथम पुरुष में लिखी गई हैं। जो बिना
लाग लपेट के इस सहजता से आरम्भ होती हैं मानो बतकही की जा रही है ‘‘रेलगाड़ी के इस डिब्बे में वे चार हैं जबकि मैं अकेला हूँ। वे हट्टे-कट्टे
हैं, मैं कमजोर सा। वे लम्बे-तगड़े हैं, मैं औसत कद-काठी का ..........(कहानी - वे)।’’ इसी
सहजता से हमारी दैनन्दिनी में आता जा रहा विरोध, अवरोध,
प्रतिरोध व्यक्त हुआ है ‘‘गाँधी जी के विचारों
को लोग नहीं अपनाना चाहते। उनकी तस्वीर जरूर हर नेता, अधिकारी
के कक्ष और सरकारी संस्थानों में लगी रहती है। (कहानी - हे राम)।’’ कहानी ‘हे राम’ के भागीरथ
प्रसाद और कहानी ‘कबीरदास’ के कबीरदास
टोले-मोहल्ले में फैले कूड़े-करकट को तो हटाते ही हैं, वैचारिक
प्रदूषण को भी खत्म करना चाहते हैं लेकिन लोग इनसे प्रेरित नहीं होते वरन इन्हें
पागल और सिरफिरा मान कर क्रूर उपहास करते हैं कि इनके लिये पागलखाना उपयुक्त स्थान
है। विडम्बना है लोग स्वयं निष्क्रीय बने रहते हैं, यदि कोई
सामाजिक हित में कर्तव्य करे तो उसे हताश करते हैं। इसीलिये दंगे, उपद्रव, अशांति, आगजनी,
आतंकवादी गतिविधियाँ इस तरह बढ़ती जा रही हैं कि तृतीय विश्व युद्ध
का ख्याल आने लगा है। वस्तुतः कोई भी काल खण्ड दंगों से मुक्त नहीं रहा। ‘‘श्रीकांत जिस दिन अठारह साल का हुआ उन्मादियों ने अयोध्या में बाबरी
मस्जिद गिरा दी। देश में दंगे होने लगे। ........... उसके पिता जब अठारह साल के थे
1975 में देश में इमरजेंसी लगी। दंगे होने लगे। ............
1947 के दंगों में दादा अठारह के थे। परदादा ने 1919 में हुआ जलियाँ वाला हत्याकांड देखा।’’ विरासत,
दाग, हत्यारे और फिर अंधेरा आदि कहानियों में
दंगों के कारण और कारक स्पष्ट होते चलते हैं। ‘दाग’ का खालिस्तान का मूवमेंट चला रहा जसवीर, सुरिंदर को
अपने समूह में भर्ती कर लेता है। सुरिंदर (पुलिस का मुखबिर है) की सूचना पर जसवीर
और कई सरदारों को मुठभेड़ में पुलिस मार गिराती है। सुरिंदर की आत्मा उसे जीवन भर
धिक्कारती है कि जिस जसवीर ने कभी उसकी जान बचाई थी उसने उस जसवीर के साथ गद्दारी
की। ‘हत्यारे’ के राकेश शर्मा को रजत
शर्मा समझ कर गुंडे मारते-पीटते हैं। यह वस्तुतः राकेश शर्मा है ज्ञात होने पर उसे
धमका कर चले जाते हैं। देश और देश के बाहर बनती ऐसी हिंसक स्थितियों से तृतीय
विश्व युद्ध की आशंका को बल मिलता है। ‘‘इतने दिनों से यहाँ
सूरज नहीं उगा। चारों ओर घुप्प अंधेरा है। सूरज की गर्मी के बिना ठंड बढ़ती जा रही
है। ........... परमाणु युद्ध की वजह से धरती पर बहुत समय के लिये न्यूक्लियर
विंटर आ जोयगी। सारे जीव-जंतु, पेड़-पौधे नष्ट हो जायेंगे।
............. हवा जहरीली होती जा रही है। चारों ओर कड़वा धुँआ फैला हुआ है। पीने
का पानी बदबूदार हो गया है। उबालकर पीने के बावजूद हमें उल्टी हो रही है
.......... मेरी मम्मी ने मरे हुये बच्चे को जन्म दिया। उसके हाथ-पैर नहीं थे
........... यह परमाणु हथियारों के इस्तेमाल से होने वाले रेडिएशन की वजह से हुआ
..............।’’ यदि शांति की ओर वापसी न की गई तो कोई गजब
नहीं कहानी ‘और फिर अॅंधेरा’ की चकित
बल्कि आक्रांत करती यह विभीषिका भविष्य की व्याख्या बन जाये। वस्तुतः संग्रह का
विषय वैविध्य चकित करता है। कहानी ‘एक दिन अचानक’ का कथा नायक और ‘लौटना’ की कथा
नायिका लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर हैं लेकिन मृत्यु को पराजित कर जीवन में लौटते हैं। ‘भूकम्प’ की मलबे में दबी ग्यारह साल की मीता मृत्यु
को पराजित नहीं कर पाती। तीन दिन तक क्रेन की प्रतीक्षा कर दम तोड़ देती है। ‘एक उदास सिम्फनी’ और ‘इंडियन
काफ्का’ में घर-बाहर उपेक्षा और मानसिक प्रताड़ना से गुजरते
बेरोजगार युवकों की अस्थिरता, छटपटाहट, हताशा इस तरह व्यक्त हुई है ‘‘समय मुझे बिताता जा
रहा है। मैं यूँ ही व्यतीत हो रहा हूँ। मेरा होना भी जैसे एक नहींपन में बदलता जा
रहा है ........... सिगरेट मुझे कश-कश पी रही है ............. जीवन के कैलेण्डर
के एक और दिन ने मुझे खर्च कर लिया है।’’ ‘छुई मुई’ में उच्च व निम्न वर्ग का आदिम विभेद है। पारिवारिक-सामाजिक दबाव के
वशीभूत कथा नायक बचपन में निम्न वर्ग के बच्चों की मदद नहीं कर पाता पर बड़ा होकर
एन0जी0ओ0 स्थापित
कर उनके उत्थान का यत्न करता है। ‘चिकन’ का बड़ी रुचि से चिकन खरीदने आया जिंदर कत्ल होने जा रहे मुर्गे की आँखों
में कातरता अैर जीने की चाह (भले ही वह दड़बे का जीवन है) को देख कर चिकन खरीदना
स्थगित कर देता है। ‘बाध’ का सूरज
मल्टिपल पर्सनालिटी डिसआर्डर से पीड़ित है। दिन में सभ्य व्यक्ति, रात में बाघ की भाँति आचरण करता है। सूरज मनोचिकित्सक से उपचार करा रहा है
तथापि उसके आचरण से प्रेमिका भ्रमित है उससे विवाह करे अथवा नहीं। कहानी में पाँच
अंत दिये गये हैं कि पाठक किस अंत को सर्वाधिक उचित समझते हैं। मेरी राय में पाठक ‘‘मनोचिकित्सक की दी गई दवाईयों की वजह से सूरज बिल्कुल ठीक हो जाता है।
निशि के साथ सुखमय जीवन व्यतीत करने लगता है ............. (105)।’’ जैसे धनात्मक अंत की अनुशंसा कर उस
पारिवारिक-सामाजिक-मानवीय मूल्यों को मजबूत करना चाहेंगे जिनको इस संग्रह की
कहानियाँ बचाये रखना चाहती हैं।
हमला, स्पर्श, उड़न तश्तरी,
किताबों की आल्मारियाँ, पूर्वज और पिता आदि
आभासी संसार की कहानियाँ हैं। इनका फंतासी शिल्प देखने जेसा है। कहानियाँ काल्पनिक
हैं पर किस्सागोई शैली में कथ्य-कल्पना की जो संगति बैठाई गई है वह कहानियों को
रोचक बना देती है। ‘किताबों की आल्मारियाँ ...........’
में उन आल्मारियों में आग लग जाती है जिसमें पुस्तक प्रेमी पिता की
पुस्तकें और पाण्डुलिपियाँ रखी हैं। आग बुझाते हुये पिता अदृश्य हो जाते हैं। फिर
कभी दिखाई नहीं देते ‘‘क्या आल्मारियों में आग लगने पर वहाँ
समय में कोई गुप्त पोर्टल, कोई रहस्यमय कपाट खुल गया था
जिनसे होकर पिता अपनी विरल किताबों और पाण्डुलिपियों समेत पूर्वजों की दुनिया और
समय में सुरक्षित चले गये ? (109)।’’ जैसी
जबरदस्त फंतासी और भी कहानियों में है पर समीक्षा की एक स्थान सीमा होती है। सभी
की चर्चा सम्भव नहीं है। इतना जरूर कहूँगी सुशांत सुप्रिय कम शब्दों में सम्पूर्ण
ध्येय को व्यक्त कर देते हैं। इसीलिये कहानियाँ आकार में छोटी हैं पर प्रयोजन बड़े
हैं। कम शब्दों में ध्येय स्पष्ट करने के लिये जो तराश और करीना अपरिहार्य है उसे
सुशांत अच्छी तरह समझते हैं। यह उनका अपना ढंग है। अपनी व्याख्या है।
आशा है यह कहानी संग्रह कथा जगत को समृद्ध करेगा।
-सुषमा मुनीन्द्र, मो. 8269895950
द्वारा श्री एम. के. मिश्र (एडवोकेट)
जीवन विहार अपार्टमेन्ट्स
द्वितीय तल, फ्लैट नं0 7,
महेश्वरी स्वीट्स के पीछे
रीवा रोड, सतना (म.प्र.) -485001
पुस्तक - मैं कैसे हँसू
(कहानी संग्रह)
लेखक - सुशांत सुप्रिय
प्रकाशक - अंतिका प्रकाशन प्रा. लि.
सी.-56/यू.जी.एफ.-प्ट
शालीमार गार्डेन, एक्सटेंशन- प्प्
गाजियाबाद - 201005
प्रकाशन वर्ष - 2019