तीन कविताएँ
1.
हमारे बीच घना प्रेम था
बड़ा भुतहा !
जैसे कोई वीरान खंडहर हवेली !
हम घुप्प अँधेरों में प्रवेश करते
अपने ही कदमों की
डरावनी आहटों को संतुलित करते हुए
और सन्नाटों की भूतीया गूंज से सुन्न
धड़कनों को बचाये रखने की कोशिश में
एक दूसरे को ढूँढ़ते हुए
लेकिन बगैर कभी एक दूसरे से कहीं भी मिले !
हमारे साथ एक दूसरे की
परछाईं होती
जिस्म नहीं और
चमगादड़ों और मकड़ी के जालों से अटे
एकांत कोनों से होते हुए
हम निरंतर काँपती रूह के साथ
एक दूसरे को पार कर रहे होते
बगैर एक दूसरे को स्पर्श किये !
अँधेरे में चींखती
अँगारों सी दहकती दो सुर्ख आँखें
और हम पसीने से लतपत
भयाक्रांत
नींद टूटते ही
फिर बिछड़ जाते !
2.
बचपन में
छुपा छुपाई खेलते वक़्त
छुप जाता था मैं
उस जगह जहाँ कोई भी मुझे
ढूँढ़ ही नहीं पाता था !
उस रोज
दिन भर का थका हुआ मैं !
तो आँख लग गयी !
और मैं छुपा रह गया तुम से
हमेशा के लिए !
नींद जब टूटी
तो रात गहरा चुकी थी !
3.
पकड़ में नहीं आ रहा
कुछ भी !
और छूटा जा रहा है
फिर भी कुछ न कुछ !
घूमते हुए लुप्त हुई जा रही है
पृथ्वी
और अंतरिक्ष में छिटक कर
दूर होता जा रहा हूँ मैं !
दोबारा मिलने पर
पृथ्वी से
शायद...
न मिले
मन के भीतर कोई भी रंग !
न मिले
साँसों में कोई भी कोमलता !
न मिले
प्यास की कोई भी गंध !
न मिले
सपनों का कोई भी वातायन !
न मिले
शब्दों में कोई भी स्पर्श !
तो क्या करूंगा इस
बंजर पृथ्वी का !
कृष्ण सुकुमार, रुड़की, मो. 991788819