कविता
बड़ी रात हो गई,
बस्ती भी सो गई।
कोई मुझको भी सुलाए,
बड़ी नींद आ रही है।
वो जो शाम तक था पूरा,
वही चन्द्रमा अधूरा,
सागर बजा रहा है
लहरों का तानपुरा।
ऐसे तो है हजारों
जो मुझको मानते हैं,
पर ऐसे लोग कम हैं
जो मुझको जानते हैं।
पूछो नहीं क्या हूँ,
पर खुश नहीं जहाँ हूँ!
होना जहाँ नहीं था
मैं आजकल वहाँ हूँ
मन्फियों के जोड़ से बनते
हैं मनसफे...
तुम भी दो बार कह दो नहीं
नहीं।
अतुल तलवार, नई दिल्ली, मो. 9810139131