हँसी की डोर
वक़्त आ गया है कि वह आए
मुझे बग़लगीर करती हुई
धीमे से कहे...
‘बहुत हो
गया जीना-मरना, लिखना-पढ़ना
अब छोड़ो भी यह साज़
पुराना
इससे पहले कि मैं साज को
झाड़ता-पोंछता
वह ठीक मेरे सामने थी
हँसती हुई...
वक़्त की नब्ज पर हाथ रखे
मुझे बुलाती... ‘चलो’
और मैं उस की हँसी की डोर
में लिपटा
हँसते-हँसते
उसके साथ हो लिया
बेहिचक!
साभार: ‘किरदार निभारते हुए’, नरेन्द्र मोहन का नवीनतम
प्रकाशन