ऐ ज़िंदगी
कितने पन्नो से गुज़रती रही है ज़िंदगी
अफसाने लिखते लिखते
खुद जीना भूल गई है ज़िंदगी...
जब थक जाती है
तब
उन्ही अफसानों में
अपने आप को ढूंढती है ज़िंदगी......
खुद से बेखबर हो कर
खुद तक आना
यह आचरज भरी राह तय करती है ज़िंदगी...
वह तो भटकती है
जज़बातों से ठोकरे खाती है
कई बार मुझसे ही गुम हो जाती है जिं़दगी..
फिर भी बडे रौब से
दुसरों को नसीहत देती है जिं़दगी
कभी वादा किया था बहुत प्यार करूंगी तुझसे
रंग भरूंगी तुझमें ... ज़िंदगी....!
आज प्यार के नाम से ही
डर रही है ज़िंदगी.
‘‘नज़्म’’
बेहूदे समय ..रात में
एक नज्म आती है
लौ लेकर....
मेरी ऊंघती आंखो को जगाती हुई
थके दिमाग को ललकारती हुई
मैं उसे रोक नहीं पाती
क्यों की मै उसके इंतजार में होती हूं
वह समय की कच्ची
रात बेरात से नासमझ
वह लडखपन से मुझे निहारती है
मुस्कुराकर मटकती है....
कलम हाथ में लेने को मजबूर करती है
मेरी उंगली पकड़ कर कलम थमा देती है
नज़्म कागज़ के पलने में जन्म लेकर
झूलने लगती है
और मै तो नई नवेली मां की तरह
आसमान में टहलने लगती हूं....
नज़्म पुरी होने पर
मुस्कुराते हुए चली जाती है...
मैं नींद गंवा कर सुबह तक के पल
गिनती रहती हूं....
ऐसी कई नीदों की प्रतीक्षा में
नसीब
इस आधे अधूरे नसीब को साथ लेकर
ज़िंदगी आज तक परेशान सी चलती आई है
नसीब...
जैसे सिरपर बोझ लिये माँ की गोद मे लटकता
हुआ
रोता हुआ बच्चा
पता नही किस की नज़र लग गई की काला
टीका पुरे चेहरे पर फैल गया...
सिर्फ सपनो की आंखे टिमटिमाती रहीं...
हर खुशी का लम्हा
आंसू की छांव साथ लेके आया। भीड़ में
तनहाई ....
हर मौसम की रुसवाई.....
ऐसी बेमौसम राह
सालों से काटती है ज़िंदगी.. अपने ही चमकते
सायों से
ठोकर खाई हुई
अपनी असली पहचान ढूंढते ढूंढते
थक गई है ज़िंदगी
जब चलने की उम्मीद थी
तब राह का पता नही था अब
राह मिली तो
मंजिल ही आ धमकी
अब पंख सिमट गए है...
क्षितीज मीट चुका है
वह रोता बिलखता
गोद में लटकता बच्चा
खिजाते हुए हंस रहा है
‘‘काश’’
मैंने सोंपा एक कागज तुम्हें
तुमने कहा ‘‘यह कोरा है‘‘
शायद तुमने उसे फेंक भी दिया हो
तब से
उससे लिपटी हुई मेरी तन्हाई
तडप रही है....
तुम्हें तो पता ही नहीं की
तनहाई के शब्द नहीं होते...
होती है केवल तडप......
और साथ वे सूखे फूल
जो मेरी उम्र के साथ मुरझाते गए......
वे भी कहीं तितर बितर
मेरे गुजरे सालों की तरह ....
कागज की कुछ लकीरें
बलखाई सी
मिटीमिटी सी
मेरे अनबहे आंसुओं से
कुछ ओझल ओझल सी......।
मेरा हर एक पल तुम्हे ढूँढते-ढूँढते
मुझसे ही होते गया लापता
और मैं बे समय सी
न भूत न भविष्य
इकहरी, बिना छांव की
मेरे रंगों से उभरी थी वह जगह
आकाश और ज़मीन जहां मिलते थे
आज उसी झूटी लकीर पर
मैं डगमगाती
अंधेरों की चादर हर दिशा से ओढ़ कर
दिशाहीन सी
कभी हो सके तो तुम ही चले आना
सुरज की रौशनी लेकर
चांद की चांदनी लेकर
और ओढ़ा देना मेरे हस्ती पर
या फिर अर्थी पर.........
कुदरत और मैं
मेरी ही तो आंखों में
उतर आया था सूरज
बडे ही प्यार से.....
मेरे ही तो बदन पर
बरसा था पानी
इकरार से...
मुझसे ही तो लिपटी थी हवा
बेकरार सी.....
मेरी ही छांव के लिये
तरसती है ज़मीन
बेसब्र सी......
ये सब मुझमें इतने एकजान
होकर बसते है
‘‘मुझसे प्यार है...प्यार है...प्यार है‘‘
वे कहते है.......
‘‘मैं प्यार में हूं...प्यारमें हुं..प्यारमें हुं‘‘ कहती हुं
मैं.....
मैं बाहें उठा लेती हूं उन्हे समेटने.
मेरे तनमन पर वे छा जाते है..
....आवेग से....
अब सोचती हैं
थोड़ी धुप मल लूं तन पर
चांदनी छिड़क लूं आंखों में
बारिश रिस जाए बदन में
और रगरग खिल उठे
कुदरती रंगों में...
मैं ‘‘मै‘‘ ना रहूं
हो जाऊँ आत्मसात
भले ही एक हरा भरा तिनका....
कुदरत का।
रेखा बैजल, महाराष्ट्र, मो. 9850347252
मराठी में 35 किताबें..कहानी, उपन्यास नाटक, कविता, हिंदी भाषा में चार किताबें, कुल 37 पुरस्कार, छह राज्य पुरस्कार, म. राज्य हिंदी साहित्य अकादमीका पुरस्कार, ‘‘मौत से जिंदगी की ओर’’, इस उपन्यास को। तीन Ph.d मेरे साहित्य पर T.V. पर कथा कथन, साक्षात्कार, फिल्म, विश्व विद्यालय के अभ्यासक्रम में, कहानी तथा उपन्यास