अभिशप्त कहानी
अभिशप्त कहानी ‘निरंजन सिंहा, तूं की कमाया, एवें जान खपायी, लोकां ने मक्सीकियां व्याइयां, गोरियां बसाइयां, पुतकुड़ियां जने-व्याहे। तूँ कलमकल्ला (अकेला) खाली-दा-खाली। भाई-भतीजे ही आरे लांदा रया। फिर आप-से-आप एक लंबी उसांस भर वह कुर्सी से उठ खिड़की के पास खड़ा हो जाता है, पर्दा हटा बाहर देखने लगता है, बाहर लॉन पर कोई पानी की नाली खुली छोड़ गया है और सारी सड़क पर पानी इकट्ठा होता जा रहा है। कोई और वक्त होता, तो आवाज दे देता। बस आज एकटक आसमान की ओर देखता रहता है, चिड़ियों का एक झुंड चांव-चांव करता आसमान से गुजर गया है। वह मन-ही-मन गुनगुनाता है, ‘पंछी चले रैन-बसेरे।‘ फिर जोर से गुनगुनाता--‘पंछी चले रैन बसेरे।‘ फिर एकाएक चुप हो जाता है। एक उसांस भर भरता है, और ‘निरंजना, तेरा रैन बसेरा बी हुण छेती आ जायेगा।‘ फ्रिज तक जाते हुए घुटने का दर्द और तेज हो जाता है। वह बीयर पीते हुए अखबार की सुखियां पढ़ना शुरू कर देता है। इधर नजर इतनी जाती रही है कि मोटी छपाई के अलावा कुछ पढ़ ही नहीं पाता। मास्टर भी तो कई दिनों से नहीं आया। उसके शहर के जान-पहचानवाले का दोहता है, जब से आया है, मास्टर की सारी जिम्मेदारी अपने प