संपादकीय

   प्रो. दिनेश चमोला ‘शैलेश’

जीवनयात्रा के समानांतर ही भावयात्रा का प्रवाह भी नैसर्गिक गति से चलता रहता है। यदि वह बहिर्मुखी होता है तो समाज के हित-चिंतन से लेकर सृजन व वैचारिक सशक्तता का ध्वज वाहक बन, एक नई चिंतनशील दिशा व दृष्टि की ओर शुद्ध चित्तवृत्ति से समाज का नेतृत्व करता है...और अंतर्मुखी होता है तो मौलिक सृजन व चिंतन के गांभीर्य को धार दे, भावानुभूति को परिपक्वता प्रदान कर गहन रचनाकर्म हेतु उकसाता है।

रचनाकार, युग की विद्रूपताओं के गरल का अनंतकाल तक अपने वैचारिक व लोकोन्मुखी गर्भ में पल्लवन-पुष्पन व मंथन करता है और आत्मतुष्टि होने पर ही चिंतन की उस बिखरी हुई भाव-राशि को एक अनमोल कृति के रूप में समाज को सौंप, व्यष्टिपरक से समष्टिपरक होने की सुखानुभूति से प्रमुदित होता है।

लेखक, समाज का सजग प्रहरी होता है। अपने चिंतन के निकष पर वह एक स्वस्थ व समुन्नत समाज के निर्माण की कल्पना करता है। जिन विसंगतियों से वह दो-चार होना चाहता है उसके मानचित्रण में अपनी मेधा का संपूर्ण उत्कर्ष लगा देता है। अपनी विचारदृष्टि के हर आयाम से वह अपने अभीष्ट के लिए कृत-संकल्प रहता है। चिंतनानुरूप क्रमशः अभिव्यक्ति पथ पर अग्रसर हो सफल हो पाने का सुख रचनाकार के लिए अनिर्वचनीय होता है।

साहित्य की विभिन्न विधाओं में अबाध रूप में सृजनरत, नासिरा जी का लेखन बहुआयामी है। उनके पास एक संवेदनशील रचनाकार के साथ-साथ एक अन्वेषी पत्रकार का पड़तालिया भावुक मन भी है। संवेदनाओं व विषय-वस्तु की सटीकता को महत्त्व देते हुए उन्होंने देशकाल व इतिहास-भूगोल से इतर भी अपने कथातत्व के उर्वरा संयोजन हेतु सृजनभूमि को तलाशा है। वे नारी-मन के आवेगों-उद्वेगों के ताने-बाने को इतनी महीनता व सूक्ष्मता से बुनती हैं कि उस संस्कृतित्त्व समाज की परिवेशगत अवसरंचना में विसंगतियों से उभरते प्रश्न व व्यथा-कथा के महीन सूत्र स्वतः ही संवाद करने लगते हैं। उनके चिंतन के फलक का वैविध्य उनकी रचनाओं में दृष्टिगत होता है। वे हर उस स्त्री के संघर्ष व सरोकारों को अपने कथाशिल्प में ढालने का प्रयास करती हैं, जहाँ भी उन्हें कुछ उल्लेखनीय, मूल्यपरक व न्यायोचित दृष्टिगत होता है। उनका रचनात्मक लेखन इस बात का प्रमाण है।

साक्षात्कारों के बंधे-बंधाए प्रश्नों का उत्तर देना उनका प्रथम अनुभव नहीं, बल्कि साक्षात्कार में समग्र को समेट पाने के संकल्प के वैविध्य का आशय, उन्हें अवश्य मुग्ध करने वाला लगा होगा, जिसमें न प्रश्नकर्ता ने अपनी जिज्ञासाओं का संकुचन किया है, न उत्तरदाता ने ही संवाद सूत्रों का लोपन। खुलकर उन्होंने साक्षात्कार के हर प्रश्न को नए व प्रभावी तरीके से विश्लेषित किया......बल्कि इस वय में भी, प्रत्येक प्रश्न को स्वयं अपने हाथों से लिखकर दत्त-चित्त हो, डूबकर उत्तर लिखे हैं, यह अधिक उत्साहित व प्रेरित करने वाला प्रसंग है।

पूर्व अंकों की तरह यह अंक भी समर्पित है साक्षात्कार की उसी अटूट विचार-कड़ी को, जिसमें रचनाकार का व्यक्तित्व, जिज्ञासाओं व प्रश्नों की वीथियों से बिना किसी लाग-लपेट के अभिव्यक्त होता हुआ अपने चिंतन व दर्शन के कुहासे से पाठकों को अंतरंगता से जोड़ने का प्रयास करता दिखाई दे सकता है। लेखकीय जीवन-वाटिका के वे नितांत मौलिक अनुभव अवश्य पाठकों की भाव-चेतना को झंकृत करने में सहायक होते होंगे, ऐसी आशा है। 

बहरहाल, बहल जी के बाल सुलभ वृद्ध-किशोर मन में कौतूहल के आवेग-उद्वेग उठते ही रहते हैं कि इस अपूर्व शृंखला का अगला मनीषि कौन ? यह उन्हें तब विश्वसनीय लगता है जब साक्षात्कार की पूरी सामग्री पूरे तेवर व कलेवर के साथ उनके पास जा पहुंचती है। उनके भीतर के शिशु से नित्यप्रति उत्साही युवक में बदल रही इस ऊध्र्वमुखी उत्सुकता को नमन, जो उन्हें सदैव कुछ हटकर करने के लिए प्रेरणा दिए रहता है। इस अंक की सामग्री नासिरा जी के चिंतन-लेखन को अनेक कोणों से विश्लेषित करेगी। फिर अगले विशेष अंक में किसी और नवीन अभिव्यक्ति-शृंखला के साथ,

सद्भाव सहित,

आपका,

प्रोफेसर (डॉ.) दिनेश चमोला ‘शैलेश,‘’, डीन,  आधुनिक  ज्ञान  विज्ञान संकाय एवं अध्यक्ष,  

भाषा एवं आधुनिक ज्ञान विज्ञान विभाग, उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार

*23, गढ़ विहार,  फेज -1, मोहकमपुर, देहरादून -248005, मो. 09411173339

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