नासिरा शर्मा के लेखन का एक और दिलचस्प पहलू: लाॅकडाउन के दौरान
तन्हाई और तसव्वुर के रिश्तों को पुख्ता करती हुई कविताएँ
प्रकृति का गीत
जब सब परेशान और बेहाल हैं।
उस समय यह कतारों में खड़े चुपचाप दरख़्त!
राहत की लम्बी साँसें खींच,
मुद्दतों के बाद आज वह सब के सब।
फैला कर अपनी हरी शाखाओं के डुपट्टे,
लहरा रहे हैं नीले आसमान की तरफ।
हवा के न्योते पर आईं चिड़ियाएँ,
डाल-डाल पर फुदकती चहचहाती हुई।
उतरतीं हैं सब एक ख्त्रास अदा के साथ,
घास के मख़मली मैदानों पर।
चुगती हैं जाने क्या-क्या,
फिर सब्ज़ टहनी पकड़ झूलती हुई।
लेती हैं पेंगे बादलों के घेरों की तरफ,
बतियाती हैं जाने कहाँ कहाँ के क़िस्से।
कैसा बदला है यह ज़माने का चरखा ?
जब सब बंद हैं, घरों में उदास और फ़िक्रमंद।
मौसम भी हो उठा है अनमना सा,
कभी बारिश, कभी गर्मी, कभी आँधी-धक्कड़।
देख कर बेवक़्त की तड़ातड़ गिरती,
मेंह की बूँदों को।
दरख़्तों ने फुनगी से लेकर जड़ तक,
धो डाली सारी धूल और मिट्टी अपनी।
खिली धूप की पिलाहट में,
झूमते पेड़ों ने झटक कर अपनी,
आकाश की नीली अलगनी पर,
फैला दी अपनी शोख़ पत्तियाँ सारी।
जब अपने-अपने घरों से दूर,
फँसें हैं जहाँ-तहाँ सब लोग।
भूखे हैं, बीमार हैं और निराश।
तो उड़ती हैं चिड़ियाएँ यह कहती हुई,
‘कैसी ताज़ा हवा, न बू न धुआँ, न हार्न का शोर!
मज़ा है अब अपने घोंसले बनाने का,
जब आसमाँ भी अपना और ज़मीन भी अपनी।
दरख़्तों ने सुना, और झूम कर यह कहा,
‘खड़ा हूँ मैं, अरसे से यहाँ।
न समझो ! यह दुनिया अकेली हमारी रहेगी,
जो देखा है वह सब, कल कहानी बनेगी।
हवा में ज़हर
पुरखों से सुना था बचपन में
ख़ुदा के बाद अगर कोई है
जो बचा सकता है जान इन्सानों की
उसे कहते हैं वैद्य, हक़ीम और डाॅक्टर।
उन्हीें में से हैं एक डाॅक्टर कफील
बन गए एकाएक अलादीन के चिराग़
बचा गए सैकड़ों बच्चों की जान
जो मरने वाले थे आॅक्सीज़न के सलेंडरों की कमी से
मिल रही थीं दुआएं हर तरफ़ से, जैसे मिलती हैं डाॅक्टरों को
मिल गई थी क्लीन चिट जब कर दिया था उसे अन्दर
कुछ दिन गुज़रे ही थे
दे दिया फिर से जेल कि भड़का रहा था दंगे और
बक रहा था कथित देशद्रोही जुम्ले
कर दिया मरीज़ों से दूर, छीन लिया उसका आला
जो झुकता था उसके सीने पर, शिव की गर्दन में
लिपटे साँप की तरह
जिस से सुनता था मरीज़ों के दिल की धड़कन वह
और पकड़ता था समय की नब्ज़
वह बैठा है सलाखों के पीछे,
जब देना था कोई पदक या पुरस्कार
जब फैली हो महामारी, मर रहे हैं लाखों मरीज़
जो सेवा करते रहे हैं डाॅक्टर, वह गवाँ रहे हैं जान अपनी
कहता है दिल, यह समय मुनासिब नहीं,
कर लेना ग़िले-शिक़वे दूर अपने,
जब चली जाए महामारी पीठ दिखा।
छोड़ दो, जाने दो, मरीज़ों के बीच, निभाने दो शपथअपनी
आख़िर ख़ुदा के बाद, यही तो हैं, जो बचाते हैं जान हमारी
हमारे पुरखे बताते थे इन फ़रिश्तों का नाम,
वैद्य, हक़ीम और डाॅक्टर।
20-24 जुलाई 2021
ज़ुलैख़ा
न जाने क्यों, मैं उसकी तस्वीर, नेट पर देख कर
महसूस करती हूँ जैसे वह मिस कर रहा है मुझे, बुरी तरह
तन्हा पहाड़ों, मैदानों और वादियों में खड़ा अकेला
लगता है जैसे भेज रहा है सन्देशा मुझे
जगह खाली है तुम्हारी इन फिज़ाओं में
चली आओ धड़कनों के सहारे तुम यहाँ।
जब भी कभी हम मिलते थे आमने सामने
उस में तब न प्यार की आहट थी न कोई तहरीर
न वायदा, न बातें, न थी आँखों से पैग़ाम रसाई
चला गया जब वह मुझ से दूर, तो अंकुरित हुआ यह प्यार
धड़कता है दिल अक्सर, जब तैरती हैं तस्वीरें उसकी
मेरी आँखों के दरीचों में, अहसास की चिलमन बन कर।
क्या हो गया है मुझे, पूछती हूँ ख़ुद अपने से
क्या अचानक सितारों ने बदली है जगहें अपनी
या फिर यह है फितूर मेरे ख़ाली दिमाग़ का
या जी उठी है ज़ुलैख़ा, शताब्दियों बाद मेरे अंदर
यह कैसे हुआ जादू और मैं जान गई सब कुछ जैसे
कि वह क़ुदरत की तन्हाई में, खड़ा कर रहा है मेरा इन्तज़ार।
20 जुन 2020
लाॅकडाउन में कुत्ते
मोहल्ले सूने हैं और घर के दरवाज़े बन्द!
बासी रोटी उछालते हुए, लात मारते
सभी चेहरे रूपोश हैं
कुत्ते बहुत उदास हैं।
सड़कों पर दौड़ते वाहनों के आगे
तन कर खड़े होने वाले
न दिखने वाली चीज़ों को ताड़ने वाले
बात बे बात पर, भौंक पड़ने वाले
कुत्ते बहुत उदास हैं।
बाज़ारों की चहल पहल
पकवानों की लहराती सुगन्ध
ख़ाते पीते, चलते फिरते
कहाँ गए हमें भगाने वाले
बच्चों से भरी बसें, कारों से उतरती औरतें
मोटर साईकलों पर फर्राटे भरते लड़के
आख़िर कहाँ जा उड़े जो दिखते नहीं
बरसों हो गए हैं किसी वाहन के पीछे
भौंकते हुए दौड़े नहीं
कुत्ते बहुत उदास हैं।
गलियों की बौछारें, कोसने देने वाले
जा मर कुत्ते की मौत तू
यूँ बात बात हमें याद करने वाले
कहाँ चले गए यूँ रातों रात,
कुत्ते बहुत उदास!
जो पीटते थे अपना समझ
अब देखते नहीं हमारी तरफ
सब कुछ उलट पलट रहा है
कुत्ते बहुत उदास हैं।
बनते मकानों में ईंटा जोड़
खाना पकाते वे सब लोग
रोज़ पुड़ियों में राशन बंधवाने
जो दुकानों पर भीड़ बनते थे
आख़िर चले गए वह अचानक कहाँ
कुत्ते बहुत उदास हैं।
यह कौन है जो रोटी बांटने आता है यहाँ
भीड़ जुटती है फिर बिखरती है
लौट जाते हैं बहुत से खाली हाथ हिलाते हुए
फिर वही ख़ामोशी, वही लुका छुपी
रात का रहस्यमय अन्धेरा डराता है
कुत्ते बहुत उदास हैं।
क्यों सपने आते हैं बार-बार
रतजगों व टूटती नीदों के बीच
जो कहते थे चल हट सामने से
कर गया नासपीटा, गंदगी यहाँ
भौंक भौंक कर रात भर सोने न दिया
यह कुत्ते हैं निर्लज जल्द टलेंगे नहीं
पड़ेगा डंडा तो यहाँ आना भूलेंगे
दिखते हैं उन चेहरों में से कुछ चेहरे
जो कभी दुलारते और फटकारते थे
उनकी आँखों में कोई पहचान नहीं
थके हारे से मुँह छुपाए वह सब
कुत्ते बहुत उदास हैं।
धूरे साफ हैं और कुड़ेदान खाली
जहाँ हर घर के पकवानों का लेते थे मज़ा
भूख प्यास से हम बेहाल हैं कितने
भूल गए वह सब हमें
बिना कहे, करते थे हम रखवाली।
कोई नहीं आता हमें पुचकारने, फटकारने
न कोई दुलार से पुकारता है कालू, झबड़े, काने, लंगड़े
प्यार व नफरत का वह खट्टामीठा रिश्ता
टूट गया जाने किस बात पर
अब होता नहीं संवाद कोई
कुत्ते बहुत उदास हैं।
ख़ुदा हाफ़िज़ सद्दाम हुसैन!
पौ फटने से पहले 30 दिसम्बर 2006 की सुबह संगीत की देवी ने अपना ग़मग़ीन राग बजाया
याद है
दो नदियों के इस देश में
बहा था ख़ून अफवाहों पर
न मिला वह द्रव न मिले वह सबूत
जिसके लिए पीटे गए थे नगाड़े हर रोज़
मचाता शोर, बिखेरता आदम-बस्तियों को,
दूहता उसके स्रोतों को
अविकसित, विकासशील देशों को,
निचोड़ता अंगूर के ख़ोशों की तरह
उस दिन जब गिरा था बेबिलान की धरती पर,
राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का बुत!
गिराए थे कलस्टर बम,
छूटे थे बारूदों के अनार बेशुमार!
काँप उठी थी क़ब्रिस्तानों की ज़मीनें,
थर्रा उठे थे सारे खण्डहर
लूटे गए संग्राहालय, लूटे गए पुस्तकालय,
मारे गए बेगुनाह!
लोकतंत्र के झूठे नारों में,
चढ़ा दिया सूली पर फिर एक इन्सान को
घिर आई थीं वह सारी आत्माएं,
महलों व किलों के महाराबों और दरीचों से
प्रश्न नहीं था उनके सामने कि
सद्दाम हुसैन बुरा शासक था या अच्छा!
वह द्रवित हो उठे थे इस अपमान भरे सुलूक से,
जब गै़र देशों ने
कसा था उन्हें अपने सियासी शिकंजे में
आक्रमणकारी की तरह!
मानव-समाज की जिस धरती ने दी थी संस्कृति
और एजाद किया था बहुत कुछ!
सभ्यता के उन्हीं गलियारों को भर दिया साजिशों से
किसी अहसान फरामोशों की तरह!
भर लिया अंक में बेबिलान ने उसे,
जो झुका नहीं टूटा नहीं!
हवाओं ने उसे छूकर,
दिया बोसों की अंतिम बिदाई और
गाया तब संगीत की देवी ने, वही गीत ग़मगीन!
अलविदा! अलविदा! अलविदा!