नासिरा शर्मा‌‌: मिट्टी और पानी की तासीर पर बात करने का न्योता

चर्चा


   नासिरा शर्मा‌‌ 

भाषा के चहुं ओर जो दीवारें हम से खड़ी हो रही हैं वह कोई साहित्यिक अमल नहीं ‌है। नासिरा शर्मा ने इसे उसकी ग़ैर अदबी अभिव्यक्ति कहा, जो भाषा के पक्ष में नहीं विपक्ष में जाती है।

“न पुरानी मुहब्बत मरती है और न ही पुराने रिश्ते कहीं खोते हैं, वे आपके अन्दर रचे-बसे रहते हैं। और रिश्ता टूटा भी कहां था? टीवी, रेडियों पर लगातार अदबी बहसों, इण्टरव्यू और उर्दू कमेटियों में जाती रही हूं। उर्दू वालों ने मुझे खूब पढ़ रखा है, इसलिए कहीं कोई दूरी तो कभी बनी नहीं।”

नासिरा शर्मा‌‌ हिन्दी-उर्दू की साझा विरासत का नाम है। उन्होंने कुछ साल पहले पटना के एक साहित्यिक उत्सव का ज़िक्र किया, वहां एक नई छिड़ी हुई बहस से उनका साबका पड़ा जिसके अनुभवों का उल्लेख करते हुए लिखा, ‘‘नई बहस थी कि उर्दू की वर्णमाला से कुछ अक्षर निकाल दिए जाएं ताकि ‘जे‘, जुआद, जाल से जैसे अक्षरों का उलझाव खत्म हो, कि जिन्दगी कैसे लिखी जाए, ‘जाल‘ से, या ‘जे‘ से या ‘जोए‘  से। दूसरी पुरानी बहस थी उर्दू की लिपि बदल दी जाए जिस पर गुलज़ार साहब उबले। और अन्य लोगों ने दोनों भाषाओं के एक होने के बावजूद उनके मिज़ाज़ की भिन्नता की ओर संकेत किया और जब मुझसे न रहा गया तो मेरे मुंह से निकल गया कि ‘आख़िर आप दो बहनों के लिए एक शौहर का इसरार क्यों कर रहे हैं?‘

नासिरा शर्मा हिन्दी के कई वरिष्ठ लेखकों के उर्दू भाषा पर बरस चुके गुस्से से आहत हुईं, जिनके शब्द उन्हें कानों में पिघलता सीसा उड़ेलते हुए प्रतीत हुआ। उन्हें एकाएक प्रोफेसर जामिन के नज़्म ‘फरियादे उर्दू‘ की पंक्तियां याद आ जाती हैं।

आपसे फरियाद करने आई है उर्दू जबां

ग़र मुनासिब हो तो हज़रत सुन ले इसकी दास्तां

एक बहन हिन्दी है मेरी जिसका अब चमका है भाग

हश्र तक क़ायम रखे परमात्मा उसका सुहाग

क्यों मुखालिफ बनिए उसके कि बहस को क्यों दीजिए तूल

‌लफ़्ज़ जो मानूस हो उसका उसे कीजिए कुबूल

गै़रमुल्की लफ़्ज़ जो जुबानों पर जारी नहीं

इससे तो हिन्दी के आसां लफ़्ज़ बेहतर हैं, कहीं

छोड़िए लिल्लाह, अंग्रेजी का तर्ज़े-बयां

बोलिए जामिन ख़ुदा के वास्ते अपनी ज़बां

तक़रीबन साठ-सत्तर साल पहले, लिखी गई ‘फरियादे उर्दू‘  शीर्षक की इस नज़्म को उद्धृत करते हुए हिन्दी-उर्दू की साहित्यकार नासिरा शर्मा‌‌ ने हिन्दी-उर्दू की साझा विरासत की महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘अदब में बाईं पसली‘ की भूमिका में लिखा है, ‘‘जब भी डाली झुकती है तो पका फल टपकता है। शायद मेरे सब्र का पैमाना भी लबरेज़ हो चुका था। मैं ‘अदब में बाईं पसली‘ नाम से अपने अनुवाद को पुस्तक रूप में दे रही तो ख्याल गुजरा कि क्यों न एक कोशिश से तीन काम को अंजाम दे डालूं। पहला उर्दू कहानियों को उठाऊं, जिसमें खूबसूरत ज़नाना किरदार हैं और उन लेखकों की कहानियां लूं, जिन्हें लोग भूलते जा रहे हैं और इन कहानियों को पाठक तक पहुंचाकर उनसे पूछूं कि क्या इतनी खूबसूरत कहानियां जो हिन्दुस्तानी ज़मीन पर लिखी गई हैं, उस खज़ाने को लुटा दूं?‘‘

नासिरा शर्मा‌‌ अपने उठाए गए सवालों का जवाब तलाशने की जद्दोजहद में एहसास करते हुए उन ग़लतियों से रूबरू होते हुए महसूस करती‌ हैं! ‘‘पहली ग़लती बंटवारा। दूसरी ग़लती यह होगी कि ज़मीन बांटकर भाषा भी बांट दें? हमारे पुराने लेखक यहां पैदा हो कर वहां बसे हैं और उनका लेखन वहां जारी रहा तो वह कैसे उर्दू साहित्य के अकेले वारिस बन गये? अंग्रेजी-अरबी जाने कितने राष्ट्रों में बोली जाती है, जिनके बीच शत्रुता और ज़मीन का बंटवारा भी हुआ, लेकिन भाषा पर कोई तोहमत नहीं लगाई और न उसे लेकर घटिया रणनीति की, बल्कि लेखकों को अवश्य दरबदर किया जो सत्ता विरोधी थे।‘‘

अपनी पुस्तक ‘भारतीय उर्दू कहानियां‘ की भूमिका में नासिरा शर्मा‌‌ में उर्दू कहानियों की ऐतिहासिक धरोहर लिखते हुए सचेत किया, ‘वक़्ती सियासी मुनाफ़े का मोहरा बना कर उनका व्यक्तिगत लाभ हो सकता है, मगर बड़े पैमाने पर हम उर्दू साहित्य का ख़जाना खो बैठेंगे और साथ ही हिन्दी भाषा साहित्य का भी नुकसान करेंगे। अनेक लेखकों की हिन्दी भाषा लिपि में लिखी कहानियों में उर्दू शब्द नगीने की ‌तरह ‌जड़ें नज़र आते हैं, जो भाषा को सौंदर्य देते हैं। उनको हटाकर क्या वहां हिन्दी भाषा के ख़ालिस शब्द लगाने की मुहिम चलाएंगे तो उस गद्य का क्या बनेगा?

नासिरा शर्मा सियासी वजहों से इतर हमारे भाषाओं के दरमियान खाई बढ़ने का एक और बड़ा कारण यह भी चिह्नित करती हैं कि हम अपनी भाषा-बोली से दूर होते‌ जा रहे हैं। गंगा-जमुना के साथ एक तीसरी नदी भी वजूद रखती थी जो लुप्त हो गई वह है अपनी अवधी। इस बारे में हमें याद आ रहा है, बनारस के ‘जन संस्कृति मंच‘ के सम्मेलन से हम लौट रहे थे, रेल मार्ग से, रास्ते में जायस स्टेशन पड़ा, हम लोगों के साथ वीरेन डंगवाल जी थे।‌ जायस स्टेशन पर ट्रेन रुकी। वीरेन जी ने पूछा कौन सा स्टेशन है। मैंने कहा, जायस है। मलिक मोहम्मद जायसी की जन्मभूमि, अवधी के प्रथम महाकाव्य के ‘पद्मावत‘ रचयिता की कर्मभूमि। वीरेन जी कुछ सोच रहे थे, फिर बोले ‘पद्मावत‘, नहीं होता तो ‘रामचरितमानस‘ नहीं होता। वीरेन जी के कथन का तात्पर्य मसनवी‌ शैली (फारसी भाषा का एक छंद) से था जिसमें पद्मावत लिखी गई,  जो आम जन मानस में सरल-सहज काव्य शैली एवं प्रभावी मधुर प्रेमाख्यान के कारण लोकप्रिय हुआ।

गोस्वामी तुलसीदास को रामकथा के लिए मसनवी छंद सरल, सुबोध, सुगम्य संप्रेषिणय प्रतीत हुआ होगा और उन्होंने अपने अराध्य राम की कथा के महाकाव्य को मसनवी छंद में रच डाला जो आमतौर पर चैपाई के रूप में जाना जाता है।

तुलसी रचित यह महाकाव्य रचना, ‘रामचरितमानस‘  जनमानस का लोकप्रिय ग्रंथ बन गया।

नासिरा शर्मा‌‌ ‌लिखती हैं, ‘‘1992 से लेकर आज तक उर्दू साहित्यिक पत्रिकाओं की बाढ़-सी आ गई है। बरसों पहले उर्दू पढ़ने और जानने वालों ने रामायण- महाभारत के अलावा हिन्दी संस्कृत के अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का उर्दू में अनुवाद किया और जिन्हें बड़े चाव से पढ़ा गया। पाकिस्तान की पत्रिका ‘आज‘ ने निर्मल वर्मा का पूरा का पूरा उपन्यास उर्दू में छापा।‘‘ हिंदी-उर्दू में एक दूसरे के अदब का अनुवाद या रूपांतर कर बड़े चाव से पढ़ रहे हैं। नासिरा शर्मा‌‌ भाषाई शुद्धता के और दागबेल तो बहुत पहले से ही डाल दी थी।‘‘

इसलिए नासिरा शर्मा के मुताबिक ‘‘भारतीय उर्दू कहानियां‘ के इस संग्रह में संकलित तीन दर्जन कहानियों से गुज़रते हुए जो सिर्फ उर्दू भाषा जानने वालों द्वारा लिखी गई हैं, उनमें हिन्दी शब्दों से परहेज़ नहीं किया गया है, बल्कि जरूरत के अनुसार उसका प्रयोग हिन्दुस्तानी परिवेश का मिला-जुला दृश्य उत्पन्न करता है, जिसे हम ‘दोआबा‘ कहते हैं।

भाषा पर किसी धर्म और विचारधारा की हुकूमत नहीं हो सकती। ऐसा जो सोचते हैं वे अपना ही नहीं अपनी भाषा के विकास का भारी नुक़सान करते हैं। नासिरा शर्मा ने हकीकत बयां करते हुए कहा, ‘‘कुछ पाठकों को अचरज होगा कि आज बहुत से हिन्दी के लेखक जिनकी मादरी जबान उर्दू है, वे उर्दू लिखना, पढ़ना और बोलना नहीं जानते हैं और अपनी धार्मिक पुस्तक को अंग्रेजी लिपि में पढ़ते हैं।‘‘

उर्दू भाषा का जन्म हिन्दुस्तान में हुआ है। नासिरा शर्मा के शब्दों में, ‘मातृभाषा जो भी हो मगर लिखने वाले उर्दू में लिखते रहे। इसलिए जहां उर्दू का विस्तार हुआ, वहीं पर उसके पढ़ने वालों की दिमाग़ी फ़िज़ा भी रौशन और खुली बनी।‘ वहीं भाषा ज्ञान में दिलचस्पी के लिए कुछ ऐसे विद्वानों और विविध भाषाओं के प्रेमी जनों का भी ज़िक्र करती हैं कि है जो मातृभाषा हिन्दी होने के बावजूद उर्दू पर केवल महारत ही नहीं रखते हैं बल्कि संस्कृत और अरबी का भी ज्ञान रखते हैं और दोनों भाषाओं में कहानियां लिखते हैं। ऐसे भाषा विद् जो अन्य भाषाओं के साहित्य और अकादमिक ज्ञान, दर्शन, अध्यात्म,विज्ञान,मानविकी विषयों के वांग्मय अनुशासन से हमारा  परिचय सम्भव होता है। ऐसे भाषा विज्ञ जनों के श्रम और प्रयास का इस्तिकबाल करते हुए नासिरा शर्मा उस सोच की आलोचना करती हैं जो यह सवाल करते हैं, उर्दू वाले हिन्दी में क्यों लिखते हैं केवल पुरस्कार या लोकप्रियता के कारण ही तो? इस सोच को बचकानी बातें कहते हुए उन्होंने कहा, ‘‘इन छोटी बातों से हमें निकलना होगा क्योंकि भाषा की सियासत में लेखक को नहीं पड़ना चाहिए। लेखक के लिए जज़्बात की अक्कासी महत्वपूर्ण होती है, अभिव्यक्ति की भाषा जो भी हो।

भाषा के चहुं ओर जो दीवारें हमसे खड़ी हो रही हैं वह कोई साहित्यिक अमल नहीं ‌है। नासिरा शर्मा ने इसे उसकी ग़ैर अदबी अभिव्यक्ति कहा, जो भाषा के पक्ष में नहीं विपक्ष में जाती है। ‘‘कहानी की अपनी भाषा होती है। आम बोलचाल की भाषा, जिसमें कंकड़ की तरह दूसरे शब्दों को निकाल फेंकना ज़रूरी नहीं है, क्योंकि आप दाल नहीं घोंट रहे हैं, बल्कि आम आदमी की संवेदना से जुड़ी इबारत लिख रहे हैं जो उसी की भाषा- बोली में होनी चाहिए।‘‘

नासिरा शर्मा ने अपनी भूमिका ‘आओ बात करें मिट्टी और पानी की तासीर की‘ अपनी कई कहानियों का स्वयं परिचयात्मक समीक्षा बहुत ही सलीके से की है, आत्ममुग्ध हुए बगैर! उदाहरण स्वरुप इस्मत चुगताई की कहानी, ‘नन्ही की नानी‘,  क़ुर्रतुल ऐन हैदर की ‘हसब नसब‘, रसीद जहां की ‘वह‘, ख्वाजा अहमद अब्बास की, ‘बारह घण्टे‘, राशिदुलखैरी की ‘नसीर और खदीजा‘, सुहैल अजीमाबादी की ‘भाभीजान‘, हयात उल्लाह अंसारी की ‘भरे बाजार में‘ ये सभी कहानियां समाज और व्यक्ति से जुड़ी संवेदनाओं-भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं। उनकी सामाजिकी और आर्थिकी की पड़ताल करती हैं, ये ऐसी कहानियां हैं जो बेचैनी और शर्मिन्दगी के बोध के साथ लाचार परिस्थितियों को अनिश्चयता के अंधेरे को अधिक गहन कर देती हैं।

जिन्दगी की असलियत और तल्खियों से रूबरू कराती, संग्रह की कई कहानियां हैं जिसमें हमारा पूरा हिंदुस्तानी समाज जद्दोजहद करता हुआ, अपनी तकलीफों से पार पाने में खुद्दारी के साथ जुटा‌ रहता है। अपने मनमाफिक़ सपनों के मुताबिक़ जीवन को गढ़ने के कठिन मेहनत करते हुए परदेस में रहते हुए, अपने प्यार‌ को संजोए हुए, अपनी बीवी और बच्चों की ख़ैरियत, खोज-खबर को लेकर अपने दिल की बातें, खतनबीस से लिखवाता है, ‘‘समसू की मां को मालूम हो के हम खैरियत से हैं और तुम लोगों का ख़ैरियत नेक चाहता हूं। अब्बा की तरफ से समसू को बहुत दुआ, और जरूरी बात यह है कि सुभान मियां का बेटा इस्लाम के हाथ चालीस रुपए भेज दिया है जो मिला होगा। बाड़ी वाला का किराया दे दो और मुन्नी को डागदर को देखा के दवा खिलाओ। उसका बीमारी का हाल सुनकर हम परेशान हैं। कम लिखने को जासती समझो। हम कोशिश कर रहे हैं कि इंतजाम करके भी रुपया भेज दें।

हमारा बुखार उतर गया है मगर खांसी से परेशान हैं। अब्बा के तरफ से छोटी और मुन्नी को बहुत बहुत‌ दुआ। बाड़ी वाला को सलाम। मुहल्ला वालन को भी सलाम कह दो। जल्दी से जवाब दो। सलाम दुआ के साथ।

मुहम्मद कलीम उर्फ कलूट मियां- कलकत्ता से। लिखने वाले की तरफ से पढ़ने वाले को सलाम। (‘किस्सा-बिन्त-ए-जुलेखा, लेखकः सय्यद शफीउज़्जमा मशहदी) यह उस मुहल्ले की कहानी है जहां के अधिकांश लोग गरीब और अनपढ़ हैं। एक हवेली के पीछे एक पतली-सी गली, जिसके दोनों किनारों पर खपरैल, कच्चे मकानों का एक सिलसिला था। गली इतनी पतली थी कि इसके दोनों ओर बने मकानों की ओल्तियां आपस में अंकवार करती हुई लगती थीं। गली में धूप तक नही आती। गली के बीचोंबीच एक नाली बनी थी जो गहरी होगी किन्तु गंदगी से भरी थी, जिसके कारण उसका पानी ऊपर गली में बहता था। मुर्गियां उसमें फुदकती थीं।

यह नाली बच्चों के लिए पयखाना था और बड़ो के लिए पेशाब खाना के बतौर भी इस्तेमाल होती रहीं। हवेली के ठीक पीछे गली में म्युनिसिपैलिटी का नल था। जिसमें सबेरे-सांझ पानी आता था।   

दर्जी, राज मिस्त्री और बीड़ी बनाने वालो का यह मोहल्ला एक भरा-पूरा परिवार था जिसके अधिकांश मर्द कलकत्ता (कोलकाता), झरिया तथा अन्य शहरों में  काम करते थे एवं औरतें और बच्चे यहां मिट्टी की कोठरियों में रहते थे। ईद और मुहर्रम के मौके पर जब यह लोग घर आते तो गली में बहार आ जाती। नये-नये कपड़े, प्लास्टिक के चप्पल पहने, बालों में तेल पोते, रंग-बिरंगे रिबन लगाए लड़कियां और चारखाने की लुंगियां पहने मर्द हर दरवाज़े पर दिखाई पड़ते हैं। इन मर्दों को लोग कलकतिया कहा करते थे। उनकी कुछ भाषा भी लोगों से कुछ अलग हो गई थी। बंगाली, मगही और खड़ी बोली के मिश्रण से एक नई शहरी भाषा का जन्म हुआ जिसको कोई नाम नहीं दिया गया किन्तु है रोचक।

बावजूद कलकत्ता में इस बोली के बांग्ला उच्चारण में चहचहाती और पुरबिया लहज़े में अपनापन जताती और हिन्दी को कलकतिया हिन्दी कहा जा सकता है। आखिर कोलकाता में कमा रहे, नौकरी कर रहे हिन्दुस्तानी मानुष अपने मुलूक कलकतिया बाबू ही तो कहे जाते हैं तो उनके द्वारा रची गई फैलाई गई ‘हिन्दी की बोली की शैली को ‘कलकतिया हिन्दी‘ कहा जाना सही माना जाएगा। जाना उसको उचित सम्बोधन देना है।

कलकत्ता कमा रहे ये कामगार जन अपने शहर को ‘मुलूक‘ अर्थात मुल्क कहते हैं। वे बात बात में कोलकाता की भी बड़ाई करते रहते हैं। स्वाभाविक है कि कोलकाता ने अपनी धरती पर उन्हें ‌काम दिया, उनके श्रम को सम्मान दिया। उनके काम को दाम दिया। बेगार के काम से मुक्ति का विकल्प मिला, उन्हें एक मज़दूर के रूप में अपनी माली हालत को बेहतर बनाने का मौक़ा मिला। यह और बात है कि छुट्टी खत्म होने पर जब उन्हें वापस जाने किराया न बचा होता‌ न वह अपने पड़ोसियों को कोलकाता से लायी चीजें आधे दामों पर बेच कर जाते थे। कुछ मोहल्ले वाले तो इंतज़ार में रहते थे कि कोई कलकतिया आए तो आधे दामों पर छाता, लुंगी और जूते खरीदे जाएं।

‘बंद दरवाज़े‘, करतार सिंह दुग्गल की लिखी एक छोटी सी कहानी है जो आज़ादी की लड़ाई और हिंदुस्तान के त्रासद विभाजन पर आधारित है। इस विभाजन की राजनीति से कितने साफ मन एवं सहृदयी जन भ्रमित हुए और उस डगर पर चल पड़े जो उनका वास्तविक मिजाज़ नहीं था।  ‘‘दुरदाना को यह सोच कर  नशा चढ़ जाता, क़ायदे आज़म की दीवानी थी। कॉलेज के जमाने से वह मुस्लिम लीग की वालंटियर में भर्ती हो गई थी। रात-दिन पाकिस्तान के लिए चंदा जमा करने, क़ायदे आज़म ज़िंदाबाद नारे लगा लगा कर उसका गला बैठ जाता। जाने कितनी बार नमकीन गुनगुने पानी के गरारे करती। सारा-सारा गली-मोहल्लों में घूम घूम कर मुस्लिम लीग के पैग़ाम को घर-घर पहुंचाती। थकी हारी घर पहुंचती दिन पड़ोसी के डॉक्टर अशोक से गोलियां ले ले कर खाती रहती और वह भली-चंगी  हो जाती।

दुरदाना खुबसूरत भी बहुत थी। एक बच्चे की मां बनने के बाद वह और भी खूबसूरत लगने लगी थी।            

‘‘हमारी बेटी की शक्ल हू-ब-हू डॉक्टर अशोक पर है।‘‘ एक दिन अपनी बच्ची को गोद में लेकर उसको प्यार करते हुए दुरदाना के शौहर ने कहा।....... ‘‘क्या मतलब‘‘ चैंक गई दूरदाना।  ‘‘उसी की तरह कोमल रंग, गोरी-गोरी पान जैसा मुखड़ा, वैसी ही बिल्ली जैसी आंखें।‘‘ दुरदाना कुछ और न सोचने लगे इसलिए बेटी के जन्म काल में व्यक्त किये गये विश्वास को दुहराया,‘‘अगर मुझे इस बच्ची की आस हमारे उस फ्लैट में आने से कई महीने पिंडी में न लगी होती।‘‘......  

डॉक्टर अशोक सचमुच दुरदाना के बहुत नजदीक था। आम औरतों की तरह वह उसे भाई साहब नहीं कहती थी। डॉक्टर अशोक की हर जरूरत का ध्यान रखती थी। दुनिया भर की टॉनिक ला कर अशोक उसे और उसकी बच्ची को पिलाता रहता। दुरदाना की बच्ची अशोक के ही फ्लैट में ही रहती। एक अकेला नवजवान जब उसे फुरसत होती बेबी को बुला कर उसके साथ खेलने लगता। इसे मानव स्वभाव की द्वैत अभिव्यक्ति ही मानी जाएगी कि हिन्दुओं की इजारेदारी खत्म करने के लिए पाकिस्तान आंदोलन का जबरदस्त समर्थन करने वाली दुरदाना कई बार हिन्दू कौम के खिलाफ बोल रही होती और उसकी नजरें डॉक्टर अशोक पर पड़तीं तो उसकी जबान लड़खड़ा जाती, क्योंकि अशोक भी तो हिन्दू था।

पाकिस्तान की दीवानी दुरदाना के लिए वह दिन भारी शॉक और भयावह तनाव का वायस बन गया जब दोनों पाकिस्तान को लेकर बहस कर रहे थे। दुरदाना हक में और अशोक विरोध में बोल रहा था। जिरही उत्तेजना में उनके मुंह से झाग निकलने लगी। दुरदाना कहती, पाकिस्तान बन कर रहेगा चाहे उसके लिए खून की नदियां क्यों न बहानी पड़े। इस प्रकार बहस वैमन्स्यता की हद पार कर रही थी कि रेडियों से खबर आई कि पनहार‌ में मजहबी फसाद भड़क उठे हैं। अशोक का गांव भी उन गांवों में से एक था जो फसादियों ने जला कर राख कर दिया।

दुरदाना के लिए यह एक ऐसी खबर की तरह आई जिसे होना ही नहीं चाहिए। ऐसा होने का उसे इल्म ही नहीं था। और इस बलवे के हादसे से अशोक के परिवार को बचाने के अभियान में जुट गई। टेलीफोन उठाया और एक पर एक कई फोन अपने सभी परिचितों, जानने वालों  को फोन करने लगी तब तक जब तक उसे यह खबर न मिली कि अशोक के मां बाप महफूज़ और सही ढंग से रावलपिंडी शहर में पहुंच गये हैं।

दुरदाना के शौहर के लिए हैरान होने वाली बात थी कि एक ओर पाकिस्तान बनवाने के लिए वह लाखों हिन्दुओं को खून‌ में नहलाने को तैयार रहती, दूसरी ओर एक हिंदू की चुभे कांटे की तकलीफ़ उसे इस कदर परेशान कर रही थी। अपने लोग- पराये लोग की तंगनज़री में फंसे लोगों के लिए, इंसानियत का मिजाज़ और उसकी जुबान कभी समझ में नहीं आ सकती। दोस्त और महबूब बिरादरी और मज़हबी दायरों तक महदूद नहीं होते। दुरदाना और अशोक की निश्छल और निर्दोष दोस्ती, दुरदाना और उसके शौहर का प्रगाढ़ विश्वास एवं अटूट  दांपत्य जीवन, उनका खुशहाल-सुखद पारिवारिक जीवन और इन सबको एक साथ सार्थक बनातीं दुरदाना और उसके शौहर लतीफ की प्यारी सी बेटी।

आखिर में भारत देश का वह विभाजनकारी, विनाशकारी अगस्त शुरू हुआ था, अशोक दिल्ली जाने  को तैयार हो रहा था। दीगर हिन्दू सरकारी कर्मचारियों की तरह उसने भी हिन्दुस्तान में अपनी नौकरी के लिए इच्छा जाहिर की थी। अगर वह चाहे तो तीन महीने बाद वह अपना फैसला बदल सकता था। और अशोक को तनिक भी संदेह नहीं था कि वह तीन महीने बाद लौट आएगा। तीन महीने तो क्या वह अगले रोज ही वापस हो जाएगा। दिल्ली अस्पताल का चार्ज लेकर अगले दिन ही छुट्टी के लिए अर्जी देगा और छुट्टी के सारे दिन लाहौर में गुज़ारेगा। दुरदाना के मुरझाए हुए चेहरे को देख कर उसे तसल्ली देता और वह सुनकर हंस पड़ती एक फीकी सी हंसी।

और एक दिन दुरदाना और उसका शौहर लतीफ, डॉक्टर अशोक को दिल्ली गाड़ी में बैठाने गये। अशोक अपने साथ कुछ न लिया। अटैची में एक जोड़ा फालतू रख लिया बस। अगले रोज ही वापस आ रहा था वह। चलते समय उसने अपने फ्लैट का दरवाज़ा बस भेड़ दिया था, कुण्डी तक नहीं लगायी। ‘‘भावनाएं मौन में भारी हो रही थीं। गाड़ी चलने से पहले दुरदाना ने अपने हाथों से अशोक की सीट पर बिस्तर बिछाया। दूसरी ओर अशोक उसकी बच्ची को छाती से चिपकाए हुए थे और बेबी भी एक क्षण के लिए भी अशोक चचा से दूर नहीं होना चाहती। अशोक बार-बार दिल्ली से शीघ्र लौट आने की बात रह-रह कर दोहरा रहे थे। गाड़ी चलने का समय हो चुका था। .....गार्ड बार-बार सीटी बजा रहा.......... था। ....दुरदाना का दिल जैसे डूबता जा रहा हो.... अशोक सबसे मिल चुका था.....दुरदाना के पास जाकर उसे हौसला देने के लिए उससे फिर कहा,‘‘मैं कल नहीं परसों लौट आऊंगा।‘‘

‘‘नहीं! नहीं! नहीं! अशोक तुम नहीं आओगे। लाहौर कभी नहीं आओगे। जब तक मैं तुम्हें न लिखूं..... और दुरदाना फूट-फूट कर रो पड़ी, रोते-रोते उसके कंधे पर जा गिरी। और जब तक गाड़ी आंखों से ओझल न हो गई... दीवानों की तरह रोती रही... हिचकियां ले ले कर.. प्लेटफार्म से बाहर आकर वह अपनी मोटर में बैठ गये। जब मोटर चली तो दुरदाना के शौहर ने पूछा,‘‘तुम इस तरह क्यों परेशान हो? कल नहीं तो परसों अशोक लौट आएगा।‘‘

‘‘नहीं, नहीं, वह नहीं आ सकेगा‘‘, वह नहीं आ सकेगा। नहीं आ सकेगा, पता नहीं कितनी और देर और...घर पहुंच कर उन्होंने एक दूसरे से आंख नहीं मिलाई। कोई बात नहीं की।

और अगली सुबह अभी अंधेरा ही था कि उसके आसपास गोलियां चलने लगीं। चीख-पुकार, आग की लपटें, फायरब्रिगेड की घंटियां। एक और कयामत ही आ गई और यह फिर्किवाराना फसाद लाहौर फिर दिल्ली में शुरू हो गये।

अशोक का दरवाज़ा वैसा का वैसा भिड़ा पड़ा है और पाकिस्तान की दीवानी दुरदाना का दिल कहता  है... वह दरवाज़ा ऐसे ही भिड़ा रहेगा और न जाने कितने दिन और.....!

किसी भी तरह की सांप्रदायिकता चाहे वह धार्मिक, हो, जातिवादी हो, भाषाई हो, क्षेत्रीय हो अपने परिणाम में मनुष्य विरोधी, अमानवीय, समाज विध्वंसक, घृणास्पद, हाहाकारी, दानवी कुकृत्य है जो समाज और देश को अवनति और विनाश की ओर ले जाता है। हिटलर का जर्मनी, मुसोलिनी का इटली इनके ऐतिहासिक दुष्परिणाम के उदाहरण हैं। 

लेखक, कवि और संस्कृतिकर्मी -श्यामकुलपत, लखनऊ







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