कोरोना काल की क्रूरता को अभिव्यक्त करतीं कहानियाँ : ‘मूड्स ऑफ लॉकडाउन’

    रेणु यादव, गौतम बुद्ध नगर, नोएडा (उ.प्र.)

समय के साथ-साथ साहित्य का स्वरूप भी बदलता है। हर समय की अपनी विशेषताएँ होती हैं जो साहित्य में झलकती रहती हैं। यदि आदिकाल में वीरता का, मध्यकाल में भक्ति का, रीतिकाल में श्रृंगार का चित्रण न होता तो उन कालों को वीरगाथा काल, भक्तिकाल अथवा श्रृंगार या रीतिकाल नामों से न जाना जाता। चूंकि आधुनिक काल कई-कई धाराओं से समृद्ध रहा है इसलिए कभी व्यक्ति के नाम पर तो कभी विशेषताओं के नाम पर उस समय को पहचाना जाता है। इन सबके बीच सामाजिक चेतना और प्राकृतिक बिडम्बनाओं से उपजे आहत मन से स्फूरित कविताएँ-कहानियाँ भी सामने आती रही हैं। देखा जाय तो बंगाल का अकाल कोई भूल नहीं सकता और न ही उस पर लिखी गई नागार्जुन की कविता ‘अकाल और उसके बाद’ को। आपदाएँ तो बहुतेरे आयीं लेकिन प्राकृत्रिक अथवा कृत्रिम आपदा के शंकालु तराजू में झूलती इस आपदा ‘कोरोना-काल’ को शायद ही कोई भूल पाये। वैज्ञानिकों का रिसर्च एक तरफ, जनता की पीड़ा, संत्रास दूसरी तरफ जिसका कोई ओर छोर ही नहीं। जो जहाँ है वहीं हैरान-परेशान है। आखिर अचानक से थम जाने वाली जिन्दगी की शुरूआत हो भी तो कैसे हो ?

इस समय उच्च वर्ग, उच्च-मध्यम वर्ग, निम्न-मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग की अपनी-अपनी समस्याएँ हैं। ‘काहे रे नलिनी तू कुम्हिलानी’ का सवाल अब कबीर भी नही पूछ सकतें, क्योंकि नाल... भरे सरोवर का लाभ उठा ही नहीं पा रहा। डरे-डरे, अपनी जगह में सिमटे उपभोक्तावादी उपभोग के रहते हुए भोग करने से डर रहे हैं। उन्हें अपने घरों में रहते हुए एक अदृश्य भय सता रहा है, वे ‘बोर’ होने लगे हैं। तो वहीं दूसरी ओर घरों से बाहर वे लोग हैं जिनके सर पर छत नहीं है अथवा कहीं सुदूर पैसे कमाने की चाह में अथवा रोजी-रोटी की जुगाड़ में फँसे हुए हैं और कोई सुरक्षित ठाँव ढूँढ रहे हैं। क्योंकि जिसने ठाँव दिया था उसने तो खुला आकाश दिखा दिया और अपने ठाँव पहुँचने से पहले प्रशासन ने उनके पैरों के नीचे से जमीन खींच ली। अब चाहे चप्पल के साथ मीलों पैदल चलो या बोतल बाँध कर, या फिर भूखों मरों या ट्रेन से कटकर, धूप में जलकर अथवा सड़क हादसे में। रास्ते में बलात्कार से गर्भ रह जाये अथवा गर्भधारी महिलाओं का बीच रास्ते प्रसव शुरू हो जाये, अथवा बीच सड़क पर फूट फूट रो पड़ो या सड़क को ही फूंक दो। आखिर ये समस्या उन करोड़ों की गिनती में आने वाले मनुष्यों की तो नहीं ! जिनका रोजगार छिन जाना आंकड़ों में गिना जा रहा है। इनके तो खुद के आंकड़े नहीं तो भला उन आंकड़ों में कैसे जुड़ पायेंगे ?  

ऐसे डूबते लोगों को उबारने के लिए बहुतों ने हाथ बढ़ाया, कहीं सचमुच की तो कभी दिखावे की। जहाँ एक ओर प्रशासन इन बेरोजगार जनता को कर्ज देकर सहायता का ऐलान कर रही है तो वहीं दूसरी ओर बहुत-सी आम जनता सहायतार्थ सामने आयी। कुछेक ऐसे भी मददगार निकले जो बिस्तर पर पड़े बीमार व्यक्ति, जो अपना हाथ भी न हिला पाता हो... उसके हाथ में एक केला थमाते हुए दस-बारह लोग मिलकर फोटो खींचवा कर धन्य महसूस करने लगें और लोगों को धन्य-धन्य कर दिया। प्रशासन ने भी कम सहायता नहीं की, बसों में बैठ कर आने वाले मजदूरों को पैदल घर जाने पर विवश कर दिया तो कहीं एक ही ट्रेन को नौ-नौ दिन तक चलवा कर साबित कर दिया कि वाकई में बंदी के बाद लोको-पाइलाट रास्ता भूल गया ! सच तो यह भी है कि मजदूर पूछ भी नहीं सकते “कवने डगर लेके चला रे बटोहिया”। आखिर इंसान उपयोगितावादी और उपभोक्तावादी होता है, जिसकी जितनी उपयोगिता उसकी उतनी ईज्जत। 

ऐसी परिस्थिति में जिनके सर पर छत है वे छत के नीचे रहते रहते उब गए, जीने के साधन ढूँढने लगें। नौकरी जाने का खतरा सताने लगी। तत्पश्चात् नौकरशाही फरमानों में जीने के लिए कुछ न कुछ करने को मिल ही गया। साहित्य का स्वरूप बदला। थाली बजाने और दिया जलाने के अंतराल में ‘गो-गो कोरोना’ जैसी नारात्मक कविता फूट पड़ी। पत्र-पत्रिकाओं से लेकर पुस्तकों की भरमार बाजार में उतर पड़ी। किसी ने काव्य-संग्रह निकाला तो किसी ने कहानी-संग्रह। किसी ने वेबीनार करवाया तो किसी ने फेसबुक लाइव का सहारा लिया। वेबीनार और फेसबुक लाइव से एक फायदा तो हुआ कि जिन विद्वानों को सुनना दुर्लभ था वे विद्वान सहज ही अपने ज्ञानवाणी से इच्छुक लोगों को लाभान्वित करने लगें। 

कोरोना-काल में साहित्य का यह बदलाव वेब-साहित्य या ऑनलाइन साहित्य अथवा बेवीवार या लाइव व्याख्यान अथवा सेमिनार के नाम से जाना जाये तो अनुचित नहीं होगा। इस ‘लाइव’ दुनिया के पर्दे के पीछे ‘हाइड’ का हाहाकार और सोच क्या है, खास कर मध्यम-वर्गीय परिवारों में... को व्यक्त करती है यह पुस्तक - ‘मूड्स ऑफ लॉकडाउन’।  

‘मूड्स ऑफ लॉकडाउन’ मातृभारती पर उपन्यास के रूप में प्रकाशित है। शायद कहानियों को एक साथ संग्रहित करने का विकल्प उपन्यास के रूप में होगा। इस संग्रह में 21 कहानियाँ हैं, जो 2020 में कोविड-19 के प्रथम लहर के दौरान लिखी गई हैं। नोएडा के पॉश इलाके में सेक्टर 71 में क्राउन प्लाजा बिल्डिंग (काल्पनिक नाम) में 11 फ्लोर है और हर फ्लोर पर 2 फ्लैट। इन 22 फ्लैट्स में से एक फ्लैट बिल्डर का है जो कि बंद है और यह 21 फ्लैट में रह रहे क्वारंटाइन...लॉक डाउन... कोविड 19 के बीच फँसे परिवार के लोगों की मानसिक स्थिति की कहानी है। 

जयंती रंगनाथन की ‘इश्क का रंग वायरस’, राजीव रंजन की ‘अपने अपने लॉकडाउन’, नीलिमा शर्मा की ‘टुकड़ा टुकड़ा जिंदगी’, उपासना सिआग की ‘जब तुम साथ हो’, मनीषा कुलश्रेष्ठ की ‘मॉर्निंग-ग्लोरी’, प्रतिमा पाण्डेय की ‘फंदे’, क्षमा शर्मा की ‘पीले फूलों वाले दिन’, प्रितपाल कौर की ‘हिम्मत-काल’, मृणाल वल्लरी की ‘हैशटैग द विंची’, रश्मि रविजा की ‘गुड बाय नहीं... सी यू’, पूनम जैन की ‘परमानेंट लॉकडाउन’, चंडी दत्त की ‘हम फिर मिलेंगे’, शिल्पा शर्मा की ‘जिन्दगी की ताल पे राग रस्साकशी’, प्रतिष्ठा सिंह की ‘वे दिन...वे दिन’, अमरेन्द्र यादव की ‘बीमारी के दो दिन’, रिंकी वैश्य की ‘अधूरी कहानियों के खण्डहर’, शुचिता मित्तल की ‘उसकी बातें’, दिव्या विजय की ‘बियाबान’, ध्यानेन्द्र मणि त्रिपाठी की ‘मुट्ठी भर आसमाँ’, अमृता ठाकुर की ‘आईना’, ज्योति द्विवेदी की ‘दास्तान-ए-पैनडेमिक’ को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि उन परिवारों के साथ रह कर हम उन्हें जानने की कोशिश कर रहे हैं। यह कहानी लिखना और लिखवाना एक प्रयोग है, लेकिन इस विपरीत परिस्थितियों में उच्च-मध्यम वर्गीय परिवारों का ताना-बाना इससे समझा जा सकता है। इन सभी फ्लैट में रहने वाले परिवार कहीं न कहीं एकाकीपन से तो कभी कोरोना के भय से, कभी जिजीविषा के साथ तो कभी सहम-सहम कर जी रहे हैं, जिसमें इनकी आशंकाएँ, आकांक्षाएँ और खुल कर सामने दिखाई देती हैं। उर्वशी, नसरीन, अनन्या, नंदीप, कैरोल, मानव, संगीता, अपाला आदि पात्र अलग-अलग तरिके से अपना ध्यान खींचते हैं। 

इस संग्रह की सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करने वाली कहानी है नीलिमा शर्मा की ‘टुकड़ा-टुकड़ा जिन्दगी’। किसी के लिए अच्छा तो किसी के लिए बुरा समय ले कर आये कोरोना-संकट में लेखिका ने हाउस-हेल्पर की मनःस्थिति, सपने, चाह और राह को बड़ी ही खूबसूरती से दर्शाया है। एक हाउस-हेल्पर की चाह और राह शायद ही कोई समझ पाता हो। लेकिन इस समय, कुछ समय के लिए सही ऊपजी परिस्थितियों से एक फ्लैट में रहने वाली अकेली हाउस-हेल्पर की चाह और राह मिलकर जीवन को सार्थक बनाता प्रतीत होता है। जबकि उसके उलट सार्थकता में निरर्थकता पूंजीपति को महसूस हो रहा है। उर्वशी का क्वांरनटाइन होना पूँजीवादियों की व्यथा है और उसके विपरीत नसरीन जैसी आम पारिश्रमिकों के लिए समय पलटने का सुख कोरोना के साथ मिलकर प्रकृति पर फबतियाँ कसने और उसका दुरूपयोग करने पर एक व्यंग्य के समान है। उन चैदह दिनों में नसरीन का अपनी मालकिन उर्वशी के कपड़े पहनकर सिंड्रेला जैसे घूमना और उसी की तरह खाना एवं रहना आदि उसकी टुकड़ों टुकड़ों में बँटे सपनों तथा आकांक्षाओं की वह दमित उड़ान है जो हकीकत में उसके लिए एक मद्धम दिवास्वप्न ही होगा। ये अलग बात है कि लेखिका उर्वशी के मन में डाटने डपटने के बजाय नसरीन के लिए और भी संवेदना जागृत कर देती हैं। विपरीत समय में अपने हाउस-हेल्पर की मनःस्थिति, सपनों और आकांक्षाओं को समझना ही इस कहानी सफलता है। यह बात नसरीन में शर्मिन्दगी पैदा कर देती है। फिर भी नसरीन की आकांक्षाओं की उड़ान और अतृप्त इच्छा को तृप्त करने की पुनः चाह इस बात से जाहिर होती है, “दीदी आप फिर लम्बे समय के लिए क्वारंटाइन नहीं हो सकती हो क्या” ?  

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इसी प्रकार प्रतिमा पाण्डेय की कहानी ‘फंदे’ भी घरेलू श्रमिक की इच्छाओं के कारण ध्यान खिंचती है। वैसे भी लॉकडाउन एक फंदा ही तो है जो सबके गले में आकर अचानक से लटक गया। इस समय न जाने कितने लोगों की नौकरियाँ जा रही है, ऐसे विकट समय में संगीता जैसे हाउस हेल्पर की नौकरी बची रहना किसी चमत्कार से कम नहीं। लेकिन कभी-कभी सुख-सुविधाओं का चमत्कार भी फंदा ही महसूस होता है। मालकिन ‘दीदी’ अपने स्वार्थ के लिए संगीता के गले में फंदा डालती है तो वहीं सात महिने की प्रेग्नेंट संगीता अपने स्वार्थ के लिए यहा फंदा स्वीकार भी करती हैं। लेकिन सच तो यही है कि कोई भी व्यक्ति पराये घर में खुशी खुशी रहना स्वीकार नहीं करता। संगीता को जब अपने बच्चों की याद सताती है और जब वह पति की बेपरवाही देखती है तब वह अपने उपेक्षित होने के बोध से भर जाती है, इसलिए भी वह अपने घर लौट नहीं पाती। इस कहानी में ‘दीदी’ को लाल रंग की नेलपॉलिश लगाते हुए उन्हें घूरना सिर्फ घूरना नहीं है बल्कि कहीं न कहीं किसी और के घर में कैद होकर दमित अतृप्त इच्छाओं को अपनी ही आँखों से तृप्त कर लेना है जिसे वह अपने घर में स्वतंत्रतापूर्वक कर सकती थी।   

इन कहानियों को पढ़ कर स्वयं प्रकाश की कहानी ‘बलि’ की याद आ जाती है। ‘बलि’ में हाउस-हेल्पर अपने मालिकों के इच्छानुसार अपनी प्रकृति का बलि देती चली जाती है और जब वह अपने घर लौटती है तब पहले की प्रकृति में ढ़ल नहीं पाती और आत्महत्या कर लेने पर विवश हो जाती है। यह दुखान्तक कहानी मन पर अमिट छाप छोड़ती है लेकिन ‘टुकड़ा टुकड़ा जिन्दगी’ और ‘फंदे’ सुखान्तक कहानियाँ होकर भी पाठकों के हृदय तक पहुँचने में कामयाब होती हैं। 

ध्यानेन्द्र मणि त्रिपाठी की कहानी ‘मुट्ठी भर आसमां’ में कोरोना काल में जानवरों की परेशानी, भूख और उनकी दुर्दशा का चित्रण है। इस काल में आवारा जानवरों के प्रति किसी का ध्यान नहीं जाता जबकि वे भी इंसानों पर ही निर्भर होते हैं। लेखक नंदीप के माध्यम से आवारा कुत्तों के प्रति संवेदना जागृत करने में कामयाब दिखाई देते हैं कि जिनके भूख का कोई जिम्मेदार नहीं होता पर किसी न किसी को जिम्मेदारी तो लेनी होती है। ऐसा नहीं है कि आवारा कुत्ते सिर्फ आवारा होते हैं बल्कि वे पूरे सोसायटी को गैस लीक होने के खतरे से बचा सकते हैं, बाहरी आपदाओं पर नजर रख सकते हैं और कहीं अनजान-सी आने वाली गाड़ियों पर भौंक-भौंक कर पूरी सोसाइटी को आगाह करते रहते हैं। 

मनीषा कुलश्रेष्ठ की रोमांटिक कहानी ‘मॉर्निंग-ग्लोरी’ का अंत दुखात्मक है। लेकिन लॉकडाउन में एक खुली खिड़की से प्रेम की शुरूआत और प्रेमिका के लिए बेचैनी भी देखी जा सकती है। प्रेमिका न भी हो तो निराशा में आशा की एक किरण अवश्य हो सकती है। जहाँ सबकी खिड़कियाँ बन्द हों वहीं किसी अपनेपन से भरे खिड़की का खुल जाना ठिठुरते ठंड में दूर जलते दिये की रोशनी महसूस तो हो ही सकती है। 

उपासना सिआग की कहानी ‘जब तुम साथ हो’ में बुढ़े पति-पत्नी बिना किसी के हेल्प के एक-दूसरे का साथ देकर हर समस्या का समाधान कर सकते हैं तो क्षमा शर्मा की कहानी ‘पीले फूलों वाले दिन’ स्मृत्तियों से यथार्थ के धरातल पर ला खड़ा करती है। क्योंकि शांत मन ही तटस्थ होकर परिस्थियों का आंकलन कर सकता है जैसे कि सीमा ने रोहित के व्यवहार को देखा और समझा कि पीठ पीछे बॉस की बुराई और सामने से प्रशंसा करना सिर्फ अपने फायदे के लिए है, जबकि दोनों ही बातों पर भरोसा नहीं किया जा सकता और न दोनों ही पूरी तरह से सच होता है। राजीव रंजन के लिए यह समय ‘अपने-अपने लॉकडाउन’ का है। जो जिस रूप में लेता है वह उसी रूप में लॉक होगा। लेकिन जब वायरस प्रवेश करेगा तो सबको बेआबरू कर सकता है। ऐसे में प्रितपाल कौर इसे अपाला के माध्यम से ‘हिम्मत-काल’ का समय मानती हैं। 

यह संग्रह लॉकडाउन के शुरूआती दौर यानी 1.0 एवं 2.0 में आ गई है, इसलिए कई आधी-अधूरी जानकारी या अफवाहें भी सामने आयी हैं। जैसे कि लॉकडाउन के शुरूआती दौर में चीन में एक लड़की के द्वारा चमगादड़ खाने का न्यूज बार बार दिखाई देता रहा। इस संग्रह के कई कहानियों में भी चमगादड़ खाने का उल्लेख दिखाई देता है जबकि इस बात का पूरी तरह से प्रमाण नहीं है कि यह बीमारी चमगादड़ खाने से फैली है अथवा नहीं। इस संग्रह में लॉकडाउन से उत्पन्न पीड़ा, भय प्रथमावस्था की हैं। इसीलिए पात्रों में वो तड़प नहीं दिखाई दे रहा जो 4.0 के बाद आती हैं। इसका कारण आर्थिक व्यवस्था में सुदृढ़ता का बचे रहना भी हो सकता है। यदि यही संग्रह कुछ दिनों बाद निकलता तो शायद थाली और दिए की जल्दबाजी से भरी नहीं होती। बल्कि दिल जल रहा होता, भरभरा कर आ रहे केस में एक अलग तरह का डर और भाव होता। शायद मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी ‘मॉर्निंग-ग्लोरी’ की शुरूआत नर्स के वेंटिलेटर पर जाने के बाद होती, प्रतिमा पाण्डेय की ‘फंदा’ कहानी में हाउस हेल्पर का फंदा इस कदर बढ़ जाता कि समय से पहले ही उसे प्रसव-पीड़ा उभर आती। व्यथा कि समाप्ति से पहले ही व्यथा की कथा का उभरना संग्रह को हल्का बना देता है। 

लेकिन यह कहना भी गलत नहीं होगा कि कोरोना जैसे विकट स्थिति में जब भी साहित्य की चर्चा होगी तो मध्यमवर्गीय या कहें कि उच्च-मध्यवर्ग की स्थिति दर्शाने के लिए यह संग्रह उपयोगी होगा। वर्तमान परिदृश्य में कहानी का एक यह भी रूप है जिसमें घुटी-घुटी पीड़ा, दबा-दबा सा स्वाभिमान और सहानुभूति और आगे आने वाले समय के प्रति एक अनजाना-सा भय सबके अंदर व्याप्त है। जो कि मनीषा कुलश्रेष्ठ की इन वाक्यों में देखा जा सकता है- “लोगों के चेहरे की उदासी अब गहराने लगी है, उनकी आँखों के डर अब जाहिर होने लगे हैं। खिड़कियों के पीछे से झांकते बच्चों को देखता हूँ तो घबरा जाता हूँ। कोरोना पहला और आखिरी वायरस होगा क्या ? जिसने पूरी दुनियाँ के कारोबार को शटडाऊन कर दिया है। मैं जुमले सुनता था कि तीसरा विश्वयुद्ध जहरीली गैसों से लड़ा जायेगा, या जैविक हथियारों से। मास्क में बंद चेहरे देख लगता है, यह किसी भविष्यवाणी का सच है क्या ? या धरता का प्रतिशोध ? एक आँख से न देखे जाने वाले माइक्रोस्कॉपिक वायरस ने 166 सालों में पहली बार भारतीय रेल को बंद करवा दिया। संसार के आसमानों को चीरते हवाईजहाज चुप खड़े हैं। पॉवरफुल देशों की दहाड़ मिमियाहट में बदल गई है”।

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