नदी

अशोक तिवारी, नई दिल्ली, मो. 9312061821


नासिरा शर्मा को समर्पित:

समय की छाती में घोंपने वाले 

तेज़ धारदार हथियार को 

अपनी मुट्ठी में थाम लेने की हसरत लिए 

वो औरत 

बह रही है एक नदी की तरह

सरहदों के आर-पार

देश और प्रांतर की सीमाओं से परे 

टकराते हुए बड़ी बड़ी चट्टानों और गगनचुंभी पहाड़ों से 

बनाती हुई अपना रास्ता 

जूझती हुई 

‘शाल्मली’ की तरह 

जो कभी अपने घर और 

कभी घर से बाहर के बीच

तलाशती है ‘अक्षयवट’ मानवता का

नदी की तरह

लगातार बहती हुई उस नदी में 

खौलते पानी के बुलबुले हैं

लावा है

तनी हुई आँखें और 

चटखती हुई नसें हैं जो 

इतिहास की बदलती करवटों की तारीख़ करती हैं दर्ज

और खोलती हैं गिरह 

बंद होती नज़र और कुंद होती अक़्ल की

ये नदी तलाशती है कभी 

इंसानी जज़्बों में ख़ूबसूरत ग़ज़ल....

बहती रही है जो

उन दरख़्तों के सायों के बीच 

जहां बारूद के ढेर पर

मनाए जाते हैं जश्न

और गलियों में बहते इंसानी ख़ून से 

किए जाते हैं

मज़्हबी इंक़लाब के घोषणापत्र पर 

दस्तख़त


नदी की तरह बहती उस औरत के अंदर 

अनवरत बहता हुआ पारदर्शी पानी का सोता है

समय की धार पर बढ़ता ही जाता है 

उसके अंदर का गहरापन

रेगिस्तान की धूल में अपने सपनों के हरेपन को बचाती हुई 

अपने ही अंदाज़ में बहती हुई 

एक अल्हड़ नदी

अपने दोनों किनारों को कर देती है 

विरोधी धूल भरी हवाओं की धारा के हवाले 

जिसमें डूबे हुए उसके सिरे 

वहाँ तक जाते हैं ‘जहाँ फौव्वारे लहू रोते हैं’

और जो ‘संगसार’ होने की पीड़ा ही नहीं

ताहिर बटुए वाले के जख़्मों पर फाहा रखती

कुबरा और सुगरा की संवेदना को समेटते हैं 

गहरे तक महसूस करती 

संवेदना के साथ 

होती हुई एकाकार

सात नदियों की ये नदी 

बनते हुए ‘बहिश्ते ज़हरा’ 

मिलते हुए समंदर में

मिटते देखते हुए 

बसाई गई अपनी संस्कृतियों को   

माद्दा रखती है उस समंदर के ख़िलाफ़

बग़ावत करने का

जो पानी के हर छोटे-बड़े स्रोत को 

लील लेना चाहता है। 

एक नई लीक बनाकर चलने का सपना पाले ये नदी

सदियों से बह रही है

और बहती रहेगी सदियों तक


उसके मन का एक्सरे

तलाश करता रहा है ‘कुइयाँजान’ में 

रिश्तों की प्यास 

और सरोकारों का महासागर

नदी जानती है नदी बने रहने का धर्म 

हर मौसम और हर जगह हमेशा 

बुज़कशी के मैदान में भी!! 

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