प्रताप सहगल के साक्षात्कार


   हरिशंकर राढ़ी,  समीक्षक, मो. 9654030701
  
   प्रताप सहगल, साक्षात्कारित, मो. 9810638563

वैसे तो किसी भी साहित्यकार की मानसिकता, उसका वैचारिक एवं बौद्धिक झुकाव उसके साहित्य से ही तय किया जाता है, फिर भी ऐसा बहुत कुछ रह जाता है जिसका ज्ञान उसके आत्मकथ्य से ही हो पाता है। यह आत्मकथ्य आत्मकथा, साक्षात्कार या डायरी के माध्यम से पाठक के सम्मुख आ सकता है। हिंदी साहित्य के लिए भी यह सुखद है कि अब इन तीनों विधाओं को महत्त्व मिलने लगा है। इनमें भी साक्षात्कार कुछ अधिक प्रभावशाली इसलिए है कि क्योंकि साक्षात्कार में एक साथ दो मस्तिष्क सक्रिय होते हैं-एक तो साक्षात्कारकर्ता का और दूसरा साक्षात्कारित का। यदि साक्षात्कारकर्ता एक कुशल जिज्ञासु हो तो वह लेखक से बहुत कुछ कहलवा लेता है।

प्रसिद्ध नाटककार और कवि प्रताप सहगल के साक्षात्कारों के संग्रह ‘मेरे साक्षात्कार’ से अभी गुज़रना हुआ।  इंडिया नेटबुक्स से प्रकाशित इस संग्रह में अलग-अलग लेखकों-जिज्ञासुओं के द्वारा लिए गए छोटे-बड़े कुल 13 साक्षात्कार हैं। आकार की दृष्टि से इन साक्षात्कारों में विशाल अंतर देखने को मिलता जिसमें 1-2 पृष्ठ की लघुता से लेकर 30 पृष्ठों की वृहत्तरता तक का आयाम है। इतना विशाल अंतर कम साक्षात्कार संग्रहों में देखने को मिलता है। किंतु महत्त्वपूर्ण यह नहीं कि साक्षात्कार का आकार कितना है, महत्त्वपूर्ण यह है कि ये साक्षात्कार कितने गंभीर और कितने उपादेय हैं।

साक्षात्कारों की सफलता, उपादेयता और गंभीरता बहुत हद तक इस पर निर्भर करती है कि साक्षात्कारकर्ता स्वयं कितना गंभीर, अध्ययनशील, जुझारू और जिम्मेदार है। उसकी अपनी मानसिकता और बौद्धिक स्तर क्या है। यदि वह प्रश्न ही जन्मकुंडली, भोजन, कपड़ा और निजी रुचि से संबंधित करेगा तो साहित्यकार कितना भी गंभीर क्यों न हो, उसका उत्तर गंभीर नहीं हो पाएगा। यदि साक्षात्कारकर्ता के साहित्यिक-सामाजिक सरोकार गंभीर होंगे तो वह साक्षात्कार के माध्यम से किसी विचाधारा का विमर्श खड़ा कर लेगा। प्रताप सहगल के इस संग्रह में दोनों ही प्रकार के साक्षात्कार अपनी पूर्णता में आए हुए हैं।

संग्रह के कुल 13 साक्षात्कारों में से गंभीर एवं उपयोगी साक्षात्कारों का चयन किया जाए तो कुल तीन साक्षात्कार महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें प्रताप सहगल से प्रेम जनमेजय की लंबी बातचीत ‘मैं एक बेचैन रूह हूँ’, गुरुचरण सिंह द्वारा लिया गया साक्षात्कार ‘महानगर की सड़कों पर पिघलता सच’ और ‘डाॅ. शकुंतला कालरा से एक लंबा संवाद’ हैं। प्रेम जनमेजय से प्रताप सहगल की बातचीत बेहद अनौपचारिक ढंग से शुरू होती है और वे उनके लेखकीय जीवन की शुरुआत से प्रश्न प्रारंभ करते हैं। यह आवश्यक नहीं कि हर पाठक किसी लेखक के जीवन से पूरी तरह परिचित हो, इस दृष्टि से इस अंश को उपयोगी कहा जा सकता है। इसके बाद प्रेम जनमेजय प्रताप सहगल के निजी जीवन के किस्से, प्रथम प्रकाशन से होते हुए प्रथम प्रेम और विवाह पर आकर रुकते हैं। अपने उत्तर में प्रताप सहगल पहली नजर का प्यार, उसका परवान तथा अपनी प्रेयसी शशि सहगल से विवाह तक के आख्यान बड़े मन से सुनाते हैं। स्वभावतः प्रेम प्रसंगों को सुनना-सुनाना हर एक को रुचता है, इसलिए यह प्रसंग रोचक बन पड़ा है।

प्रेम जनमेजय साक्षात्कार को धीरे-धीरे गंभीरता की ओर ल जाते हैं और उसे साहित्यिक सरोकारों से जोड़ते हैं। आलोचना, नाटक लेखन एवं अन्य विधाओं से सामंजस्य को लेेकर वे कुछ कठिन प्रश्न उछालते हैं। वे पूछते हैं- “साहित्य आलोचना या अपनी आलोचना के लिए आप दोस्तियाँ निभाते हैं?” इस पर प्रताप सहगल बेबाकी से कहते हैं कि वे मानवीय कमज़ोरियों से लबालब व्यक्ति हैं और जब कोई उनकी रचना पर बात करता है या लिखता है तो अच्छा लगता है लेकिन यह दोस्ती निभाने की कोई अनिवार्य शर्त नहीं है। प्रेम जनमेजय से बातचीत में प्रताप सहगल यह स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं कि वे विभिन्न विधाओं में कैसे लिख लेते हैं और विधाओं की आवाजाही उनके लेखन में कैसे होती रहती है। आज के दौर में नाटक लेखन की चुनौतियाँ तथा बाजारवाद पर भी खुलकर चर्चा हुई है जो समाधान की ओर ले जाती है।

प्रसिद्ध साहित्यकार एवं आलोचक गुरुचरण सिंह से बातचीत आत्मवृत्त को लेकर ही शुरू होती है। क्रमशः वे अपना ध्यान प्रताप सहगल की लंबी कविताओं पर केंद्रित करते हैं। इस साक्षात्कार में अधिकांश बातचीत लंबी कविताओं के इर्द-गिद ही घूमती है। ‘छवियाँ और छवियाँ’ को कविता में एक प्रयोग मानते हुए विश्वमोहन तिवारी की पारदर्शियों  का जिक्र सुखद लगता है। लंबी कविताओं को लेकर एक विश्लेणात्मक विमर्श इस साक्षात्कार की उपलब्धि है। हिंदी साहित्य में लंबी कविताओं को लेकर कुछ खास उत्साह नहीं रहा है। न तो पाठकों ने इस पर अलग से सोचा और न आलोचकों ने ठीक से लिखा, जबकि लंबी कविता अपना एक पूर्ण कथ्य और प्रवाह लेकर चलती है। गुरुचरण सिंह एक जगह पूछते हैं - “आपकी कविता में विरोध और विद्रोह का स्वर है पर रचना के अंत में यह ठंडा पड़ जाता है या आप समझौता की ओर अग्रसर हो जाते हैं, ऐसा क्यों?” प्रताप सहगल इस आरोप को अंशतः स्वीकार करते हुए कहते हैं - “शायद यह मेरे व्यक्तित्व एव चरित्र की प्रतिगूंज मेरी रचनाओं में मिलती है। मुझे लगता है कि मैं खुद बहुत सी बातें विरोध और विद्रोह से शुरू करता हूं, पर धीरे-धीरे निरर्थकता का बोध मुझे ठंडेपन की तरफ ले जाता है।” 

अन्य प्रश्नों के उत्तर में प्रताप सहगल स्पष्ट करते हैं कि उन्हें अपने नाटकों में ‘रंग बसंती’ और ‘अन्वेषक’ बहुत प्रिय रहे हैं। इनके लेखन के दौर में बहुत सी अंतर्यात्राएं करनी पड़ीं लेकिन छायानट के तले इनकी प्रस्तुतियाँ देखना बहुत ही सुखकर और प्रीतिकर रहा। यह साक्षात्कार अंत की ओर आते-आते बहुत से गंभीर साहित्यिक-सामाजिक विमर्श उभारता है। यहाँ तक कि राष्ट्रीय समस्याओं पर भी सरोकारयुक्त प्रश्नोत्तर होता है जो विमर्श को ऊँचाई प्रदान करता है।

गंभीर साक्षात्कारों की श्रेणी में तीसरे क्रम पर डाॅ. शकुंतला कालरा से लंबी बातचीत भी उल्लेखनीय है। वे भी अपने साक्षात्कार की शुरुआत प्रताप सहगल के बचपन, शिक्षा एवं बचपन की शिक्षा का उनके लेखन पर प्रभाव के जिक्र से करती हैं। आगे चलकर वे नाटक लेखन पर आती हैं और जानना चाहती हैं कि सामान्य नाटक और बाल नाटक लेखन में किस प्रकार के अंतर का सामना करना पड़ता है। शकुंतला कालरा से बातचीत में प्रताप सहगल बहुत मुखर, कुछ आक्रामक एवं बेबाक से दिखते हैं। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पौराणिक, ऐतिहासिक आख्यानों को लेकर वे एक व्यापक दृष्टिकोण का परिचय देते हैं। यहाँ स्पष्ट होता है कि प्रताप सहगल का अध्ययन बहुत गहरा है तथा सोच उदार है। डाॅ. कालरा के बार-बार पश्चिमी अंधानुकरण के प्रश्न, उसके प्रभाव पर अंततः प्रताप सहगल चिढ़ते हैं। ऐसा लगता है कि साक्षात्कारकर्ता पश्चिमी संस्कृति से अंातंकित है जबकि प्रताप सहगल इस पक्ष में हैं कि पश्चिम जगत मंे जो कुछ वरेण्य है, उसे पूर्वाग्रहरहित होकर स्वीकार करने की आवश्यकता है।

अन्य साक्षात्कार आकार में छोटे तो हैं ही, उनमें जीवनीमूलक प्रश्नों की अधिकता है। इन साक्षात्कारों में ऐसा लगता है कि अच्छे प्रश्न न आने से प्रताप सहगल ऊबन महसूस कर रहे हैं। कई बार ऐसा महसूस होता है कि वे किसी कड़वे, चुभते हुए विमर्शात्मक सवाल की प्रतीक्षा में हैं। समग्रता में देखा जाए तो यह संग्रह प्रताप सहगल के जीवन, उनकी रचना प्रक्रिया और साहित्यिक - सामाजिक सरोकारों का एक उचित लेखा-जोखा प्रस्तुत करने में समर्थ है। पुस्तक: मेरे साक्षात्कार (प्रताप सहगल), प्रकाशक: इंडिया नेटबुक्स, सी- 122, सेक्टर 19, नोएडा - 201301, पृष्ठः 135, मूल्यः 200/- (पेपर बैक)


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