‘प्रेम ज़िन्दगी जीने का दूसरा नाम है’- डॉ. नरेंद्र मोहन

नरेन्द्र मोहन, 239 डी, एम.आई.जी. फ्लैट्स राजौरी गार्डन, नयी दिल्ली-110027 मो.: 9818749321 

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प्रोफेसर (डॉ.) दिनेश चमोला ‘शैलेश,‘’, डीन,  आधुनिक  ज्ञान  विज्ञान संकाय एवं अध्यक्ष,  भाषा एवं आधुनिक ज्ञान विज्ञान विभाग, उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार, ’23, गढ़ विहार,  फेज -1, मोहकमपुर, देहरादून -248005, मो. 09411173339

प्रो. चमोला: नरेन्द्र मोहन जी, आप अपने जन्म और प्रारंभिक शिक्षा- दीक्षा के बारे में कुछ बताएं।

डॉ. नरेन्द्र मोहन: दिनेश जी, मेरा जन्म लाहौर में 30 जुलाई, 1935 को हुआ। प्रारंभिक शिक्षा प्राइमरी स्कूल में हुई। तख्ती हाथ में लिए लाल-नीले टाटों पर बैठा उकता जाता तो बेवजह ही इधर-उधर ताकता रहता गोया कि कोई चीज गुम हो गई हो। चेहरे पर भी कुछ वैसे ही अक्स (भाव) आ जाते होंगे कि मास्टर जी करीब आकर डांटते हुए कहते-‘किधर ध्यान है तेरा? कहां खोए हो?‘ और मैं खोया सा उनकी तरफ देखता रहता। उनका स्वर दहाड़ में बदल जाता, ‘क्या करने आते हो यहां?‘ मास्टर जी के हाथ में झूलती बेंत देख मैं सहम जाता।  हिम्मत बटोरते हुए मैंने अपने से बाहर आते हुए कहा- ‘पढ़ने।‘ ‘अभी-अभी मैंने क्या पढ़ाया?‘ वे गरजे। ‘‘मैं क्या बताता, मैंने कुछ सुना ही नहीं था। सामने से लहराते हुए मास्टर थे और मेरी आँखों में घुप्प अंधेरा-यानि मैं बेहोश हो गया था। कैसे घर पहुंचा, मुझे नहीं मालूम। बाऊजी किसी दूसरे स्कूल में मास्टर थे और मेरे मास्टर को जानते थे। अगले दिन मैं बाऊजी के साथ स्कूल आया। वह मास्टर जी से मिले। ‘यह ऐसा ही है। ख़्यालों में पता नहीं कहां चला जाता है?‘ मास्टर जी ने मेरे सिर पर प्यार से हाथ रखा और कहा- ‘आप बेफिक्र रहें। यह कल्पना में पता नहीं कहां से कहां चला जाता है।  यह अलग ही है। आज से आप चिंता न करें।‘

हम 1944-45 के लाहौर और लाहौर कैंट के बीच एक बस्ती धर्मपुरा में आ गए थे। 1946-47 में मैं कैंटोनमेंट हाई स्कूल मैं पांचवी में दाखिल हुआ। हिंदू-मुसलमान लड़के एक साथ वहाँ पढ़ते थे। आरिफ मेरा दोस्त, मेरा सहपाठी बेंच पर मेरे साथ ही बैठता था। सामने इस्लामिया हाई स्कूल था। जब दंगे हो जाते तो दोनों स्कूलों में तनावपूर्ण स्थितियां पैदा हो जातीं। तब हम बस्ता गले में लटकाए, रेलवे क्रॉसिंग पार कर धर्मपुरा पहुंचते।  मैं और आरिफ, धर्मों-मजहबों के आर-पार झांकने की कोशिश करते। पर हम समझ नहीं पाते कि हिंदुओं-मुसलमानों-सिखों में यह तनाव और दंगे क्यों होते हैं? हो सकता है तभी से यह सवाल मेरे ज़ेहन को कुरेदता रहा है। आज भी यह सवाल कई कई रूपों में मेरे दिल-दिमाग में गूंजता रहता है।  

प्रो. चमोला: आपने कब महसूस किया कि एक खिलंदड़े, शरारती नरेंद्र के भीतर एक सनकी किस्म का, जो साथियों को भी प्रतीत होता था, रचनाकार पनपने लगा है.... जो उसे वरवस उनसे दूर कर, रचना व चिंतन के एकाकी व उबाऊ (उनके अनुसार) क्षेत्र में घुस आने के लिए विवश कर रहा था, इस पर कुछ प्रकाश डालिए। 

डॉ. नरेन्द्र मोहन: यह कहना मुश्किल होगा, अपने भीतर पनपने  वाले खिलंदड़े और शरारती नरेंद्र मोहन को कब देखा? हां, यह जरूर है कि खिलंदड़े शरारती नरेंद्र मोहन के भीतर मैंने ‘एक और को‘ किसी ‘दूसरे‘ को अपने भीतर प्रवेश करते देखा था...। और मैं कुछ न कह सका था।  खिलंदड़ापन और शरारतीपना एक तरफ, मगर यह ‘दूसरा‘ मेरे हाड़-मांस, दिल-दिमाग को चीरता हुआ मुझे अलग दिशाओं की ओर धकेले जा रहा था। जिद्दी तो नरेंद्र मोहन भी कम न था, लेकिन यह ‘दूसरा‘ जिद्दी के साथ-साथ सनकी भी प्रतीत होता था। यह वही था जिसने मेरे अंदर लिखने, पढ़ने के बीज डाल दिए और आप खुद एक तरफ होकर कहता, ‘अब बोल?‘ और मजे लूटता। लिखने या सृजन के बीच अपने अंदर फूटते देख मैं उससे कहता रहता- ‘तूने मुझे किस तकलीफ में डाल दिया जिसे न स्वीकार करते बनता है और न छोड़ते। वह हंसता, ‘अरे तकलीफ है तो आनंद भी है। कुछ लिख कर देख, तो पता चले।‘ मैंने ध्यान से उसकी तरफ देखा-‘यह दूसरा? नहीं-नहीं, यह तो मैं ही हूँ-मेरा प्रतिरूप, मेरा हमजाद, दूसरा नहीं-यह निंदर है। इसे ‘दूसरे‘ निंदर ने, मेरे भीतर सुप्त पड़े रचनाकार को जगा दिया। उसने मुझे मेरा ‘आपा‘ दिखाया। मेरे ‘होने‘ से मेरा साक्षात्कार कराया। मुझे सृजन और चिंतन की राहों की तरफ मोड़ दिया। मुझे ‘एकांत‘ में डुबकी लगाना सिखाया। यह सच है कि अगर निंदर ज़िद्द न पकड़ लेता तो कई रचनाएं अलिखी रह जातीं।

प्रो. चमोला:आपके लेखन की शुरुआत कब व कैसे हुई? कोई ऐसी घटना, दुर्घटना या कोई अन्य दिलचस्प वृत्तांत.....?

डॉ. नरेन्द्र मोहन: आपके पिछले प्रश्न के उत्तर में मैंने उस दिलचस्प वृत्तांत का जिक्र किया ही है कि निंदर के उकसाने पर मैं अपने भीतर सोई हुई रचना की खोज में कैसे निकल पड़ा? बाहरी घटना के शोरगुल से बाहर आने की कोशिश में, घटना मेरे अंदर वारदात की शक्ल ले लेती। 14- 15 साल की उम्र रही होगी। नींद में चलने वाला निंदर, धुंध में चलने लगा और धुंध में चलते हुए अजब-ग़ज़ब की तस्वीरें उसे नज़र आने लगतीं। वह वीरान जगहों के एकांत में निकल जाता। घर के पास ही एक बड़ा गिरजाघर था। वह किताबें उठाता और गिरजाघर के पीछे पेड़ों की घनी छांव में जा बैठता। पढ़ते-पढ़ते वह उठता और पेड़ों पर उल्टी-सीधी रेखाएं खींचता और एक चित्र का तसव्वुर करता। गिरजाघर की दीवारों पर वह कुछ न कुछ लिखता रहता। ऐसा कुछ जो तब मुझे कविता जैसे लगता। 

प्रो. चमोला: जैसे किसी खास उम्र के बाद लड़कियों में दैहिक परिवर्तन आने शुरू हो जाते हैं, क्या उसी तरह का कोई बौद्धिक परिवर्तन, चिंतन के स्तर पर नरेंद्र के मस्तिष्क में भी आने लगा था, इस बात को आपने कब महसूस किया?

डॉ. नरेन्द्र मोहन: आप का संकेत शायद किशोरावस्था की तरफ है जो व्यक्ति में कई तरह के दैहिक और मानसिक परिवर्तनों की शुरुआत होती है और वह उजबक सा खड़ा सोचता है कि आखिर यह हो क्या रहा है। बिल्कुल ऐसे तो नहीं, लेकिन कुछ-कुछ ऐसे निहायत बारीक स्तरों पर, कई बार प्रतीकों में, स्वप्नों-दुःस्वप्नों में, उटपटांग कुछ करने- धरने में, जोखिम उठाने में हमारी प्रारंभिक मानसिक-बौद्धिक प्रक्रियाओं का पता चलने लगता है। शुरू में यह बड़ा अस्पष्ट सा होता है, भ्रामक भी। लेकिन धीरे-धीरे उनमें स्पष्टता और निखार आता जाता है। विचारधारा का स्वरूप बेशक संगठित होता है मगर विचार अपनी सक्रियता में पूरी रचना में फैलता चला जाता है। इससे बौद्धिक प्रक्रियाओं का संवेदनात्मक प्रक्रियाओं से गहरा संबंध गहराता जाता है। सृजन में विचार और संवेदना परस्पर घुले-मिले रहते हैं। किशोरावस्था से मैं जैसे ही बाहर आया, मैंने देखा मेरी संवेदना में विचारों की कौंध प्रवेश करती जा रही है। मेरी मानसिकता में कुछ परिवर्तन हुआ है। चीजों को देखने समझने की मेरी दृष्टि बदली है। 

प्रो. चमोला: एक रचनाकार के रूप में आपने सृजन की मनोभूमि किस रूप में तैयार की?

डॉ. नरेन्द्र मोहन: सृजन की मनोभूमि में प्रवेश करने के लिए सिर्फ प्रतिभा ही नहीं, अभ्यास भी जरूरी है। ठीक है कि शुरू में इसके सिवा कोई रास्ता नहीं है कि आप कागज काले-नीले करते हुए लेखक जैसे ही सृजनात्मक शब्द की तलाश के लिए आगे बढ़ता है तो शब्दों की ध्वनियां सुनाई देने लगती हैं। सही और सृजनात्मक शब्द को पाने के लिए अपने से जूझते हुए जैसे सपने को पाना है। इस संबंध में अंबाला के गिरजाघर का संदर्भ मैं पहले ही दे आया हूँ। जहां मैं पेड़ों पर, दीवारों पर, बेतरतीब-बेमतलब लिखता रहा... इस तरह से जो लिखता रहा, वही आगे चलकर मेरे सृजन का नेपथ्य बना।

प्रो. चमोला: नवसिखवे नरेंद्र का मन जितना पढ़ाई-लिखाई की किताबों में रमता, उससे ज्यादा कागज काले-नीले करने में तल्लीन रहता, इसका कोई दिलचस्प या ख़ौफनाक नमूना? 

डॉ. नरेन्द्र मोहन: यह किंवदंती नहीं, रचना का सच है जिसकी गिरफ्त में मैं सौ प्रतिशत रहा हूँ। दूसरी विधाओं में मेरे चले जाने के लिए अन्य कारणों के अलावा कविता की भी महत्व भूमिका रही है। और तो और, हमारे बड़े-बड़े आलोचकों- हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेंद्र, नामवर सिंह, रामविलास शर्मा आदि ने भी अपना लेखन कार्य कविता से ही प्रारंभ किया था पर यह कोई नियम नहीं है। यह लेखक की मानसिकता पर निर्भर करता है कि वह अपने लेखन की शुरुआत कैसे करता है?

प्रो. चमोला: कहा जाता है कि हर रचनाकार के लेखन की शुरूआत प्रायः कविता से होती है, आपके साथ यह किवदंती कितने प्रतिशत सटीक बैठती है? आपने हिंदी साहित्य की अनेक विधाओं में व्यापक लेखन-कार्य किया है? ऐसे में कविता- कहानी ही क्या आपकी सबसे पसंदीदा विधा रही है और क्यों ?

डॉ. नरेन्द्र मोहन: कविता-नाटक बेशक मेरी पसंदीदा विधाएँ हैं। साथ ही यह भी कह सकता हूँ कि कविता ही मुझे नाटक की तरफ ले गई। कम शब्दों में ज्यादा अभिव्यक्त करने की प्रवृत्ति नाटक में काम आती है क्योंकि नाटक शब्द बहुल विधा नहीं है। नरेशन और शाब्दिकता उसे ले डूबती है। इस तरह कविता और नाटक में एक अंतरिम रिश्ता है। मैंने जो लंबी कविताएं लिखीं, वे भी मुझे नाटक के करीब ले जाती रहीं। अनुभूति का ताप ही नहीं, उसकी शब्द संपदा और शब्द शक्तियां, उसकी रेंज कविता में जगी, और वही मुझे दूर-दूर तक ले गई। वह नाटक लेखन में भी मेरे बहुत काम आई। कविता और नाटक परस्पर मिलकर मुझे एक तरह की संपूर्णता का अहसास कराते रहे हैं। तो भी मैं इन दो विधाओं तक सीमित नहीं रहा हूँ। मैंने संस्मरण, यात्रा संस्मरण, आत्मकथा जीवनी पर आलोचना जैसी विधाओं में भी कार्य किया है। मैंने देखा है कि मेरे हर अनुभव या कथ्य ने अभिव्यक्ति के लिए अपने अनुकूल विधा और माध्यम को अपना लिया। लेखन की प्रक्रिया के दौरान इसकी परिपूर्ण अवस्था तक लेखक कई बाधाओं से गुज़रता है लेकिन रचना को लिख लेने के बाद जिस तृप्ति और सुख का अहसास होता है उसका कोई मुकाबला नहीं। उसके सामने दुनिया की कोई भी चीज टिक नहीं सकती। बड़े से बड़ा अवार्ड उसके सामने छोटा लगता है।

प्रो. चमोला: आप देश की पत्र-पत्रिकाओं में पिछले लगभग छह दशकों से अधिक समय से अनवरत लिख रहे हैं, इससे आपको क्या मिला?

डॉ. नरेन्द्र मोहन: आपका प्रश्न सीधा और दो-टूक है कि पिछले लगभग 6 दशकों से अधिक समय से निरंतर लिखने से आपको क्या मिला? इस प्रश्न का एक उत्तर एक प्रश्न के रूप में यह है कि लेखन के एवज में मुझे भला क्या नहीं मिला? मेरी अपनी दृष्टि का विस्तार हुआ। मैं साहित्य और संस्कृति के केंद्रीय मुद्दों के केंद्र में आ गया। मुझे यश मिला और पुरस्कारों-सम्मानों से मेरी झोली भरती रही। सोचा था सब कुछ छोड़-छाड़ चल दूंगा मगर  सृजन-प्रवृत्ति अपने में छोड़ने दे तो तब न!

प्रो. चमोला: आपको लेखक बनाने में किसका प्रमुख योगदान रहा, परिस्थितियों का या अपने जिद्दी अथवा हठी स्वभाव का?

डॉ. नरेन्द्र मोहन: परिस्थितियाँ अपना काम करती रहती हैं और रचना मन को कभी-कभी प्रताड़ित भी करती है। परिस्थिति और रचना-मन जितना उलझते हैं, उतना मेरे अनुभव निखरते हैं। सबसे ज्यादा योगदान तो अनुभवों का ही है जो विचारों से जुड़कर नई-नई कृतियों में अभिव्यक्ति पाते हैं। मेरे अंदर जो लेखक बैठा है वह लेखक जो ठान लेता है, उसे कर दिखाता है। लेखकीय स्वभाव की ज़िद्द के साथ जुड़े हुए धैर्य के बिना उसे न सही भाषा मिल सकती है, न सही अभिव्यक्ति। लेखकीय शब्द के प्रति, प्रतिबद्धता उसे एक निराले सृजन-लोक में ले जाती है।

प्रो. चमोला: आपके साहित्य पर देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पीएच.डी और एम फिल स्तरीय कई शोध कार्य संपन्न हुए हैं,  इसे आप क्या मानते हैं?

डॉ. नरेन्द्र मोहन: नए-नए विषयों पर शोध कार्य करने से शोध-छात्रों में नई तरह की जागरूकता आती ही है। इस बहाने मेरी रचनाओं और रचनाशीलता को लेकर कई महत्वपूर्ण शोध कार्य संपन्न हुए हैं। पी.एच.डी. और एमफिल जैसे शोध प्रबंध मेरी कृतियों पर हों या मेरे किसी साथी रचनाकार की कृतियों पर, वह एक तरह से शोध छात्राओं के लिए आलोचना का प्रवेश द्वार खोलते हैं। बस इतना ही।

प्रो. चमोला - जब आपके लेखन का नोटिस उच्च शैक्षणिक संस्थाएं एवं प्रबुद्ध साहित्यकार, हिंदी सेवी व आलोचक प्रभृत्ति लोग भी लेने लगते हैं तो आपके लिए अपने कर्तव्य-पथ पर अधिक तीव्रता व सजगता से बढ़ने का दायित्त्वबोध भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है। यह धीरे धीरे लेखन की प्रसिद्धि के साथ-साथ सामाजिक स्वीकृति का भी प्रतीक व पर्याय जज बनता  है। क्या आप इससे सहमत हैं? 

डॉ. नरेन्द्र मोहन: मैं अपनी लंबी रचना यात्रा में निरंतर लिखता रहा हूँ और आज भी लिख रहा हूँ। कुछ शैक्षणिक संस्थाएं, प्रसिद्ध साहित्यकार, आलोचक आदि मेरी रचनाओं का नोटिस लेते रहे हैं, उन पर लिखते भी रहे हैं। मेरे साहित्य का भारत में ही नहीं, विदेशों में भी एक व्यापक पाठक समुदाय है जो एक लंबे समय से मेरी रचनाओं को पढ़ता रहा है और अपनी प्रतिक्रियाएं देता रहा है। आपका कहना सही है कि जब इस तरह से मेरी साहित्यिक स्वीकृति हो तो अधिक तीव्रता और सजगता से लेखन पथ पर बढ़ते हुए उसी अनुपात में दायित्व भी बहुत बढ़ जाता है और मैं आपसे सहमत हूँ कि लेखकीय स्वीकृति का सामाजिक स्वीकृति के रूप में बदल जाना किसी भी लेखक के लिए और मेरे लिए भी बड़ी बात है।

प्रो. चमोला: जब आप युवा थे तब के युवा कैसे थे? आज आप युवाओं के लिए प्ररेणा-स्रोत हो, इस सम्बन्ध में आप कुछ  कहना चाहेंगे?

डॉ. नरेन्द्र मोहन: तब के युवा और आज के युवा में एक युग का अंतर आ चुका है। सोच, दृष्टिकोण का ही नहीं, जीवन बोध और युगबोध बदल जाने के पैमाने भी बदल गए हैं। हम बदलते-बदलते आधुनिक काल से उत्तर आधुनिक काल में प्रवेश करते हुए आज हम उससे आगे की स्थितियों के आमने-सामने आ खड़े हुए हैं। उपभोक्तावाद और बाजारवाद का भयावह रूप हमारे सामने है। इसी में से वह अपना रूप निखार रहा है और अपनी आकांक्षाओं-सपनों को पूरा करने के लिए अग्रसर है। हमारे वक्त के युवा के बजाय आज के युवा के सामने, बदलती हुई जिंदगी और समय की विकट चुनौतियां हैं। सभी तरह की आधुनिक सुविधाएं और उपकरण होते हुए भी उसकी दुष्चिंताएं, संताप और तनाव बढ़ गए हैं। नई पीढ़ी को उसे नकारने के बजाय बेहतर ढंग से समझने की जरूरत है।

प्रो. चमोला: क्या  साहित्यकार होना गप्पबाज होना है या फिर स्वाभिमानी जीवन की सत्य घटना का संवाददाता बनना?

डॉ. नरेन्द्र मोहन: साहित्यकार कभी भी गप्पबाज नहीं रहा है, यह बात और है कि एक गप्प के सहारे वह एक पूरी फेंटेसी रच दे। और हां, सत्य घटना तक सीमित कहां है?  सत्य का पसारा दूर-दूर तक घटना से होता हुआ, घटना का अतिक्रमण कर जाता है। साहित्यकार उसी सत्य को अभिव्यक्त करने के लिए छटपटाता है और अंततः उससे साक्षात्कार करता है। यह सत्य कोई अमूर्त अवधारणा नहीं है, बल्कि जीवन-यापन की कला है अन्याय और दमन के खिलाफ जीवन जीने का दूसरा नाम है।

प्रो. चमोला: क्या एक सशक्त होते, युवा साहित्यकार नरेंद्र मोहन ने जीवन के अल्हड़ दिनों में किसी से प्रेम किया है? क्या एक  हृष्ट-पुष्ट रचना की आधारशिला के लिए प्रेम, स्त्री अथवा शराब जैसी मादकता की छौंक जरूरी है? प्रेम की मांसलता भरे उन नाजुक दिनों की ऐसी कोई रोमांचक अथवा यादगार घटना जो आज भी आपकी उम्र की सरहदों को पार कर आपको बार-बार उसी अवस्था व काल में वापस चले आने का आमंत्रण देती हो, बिना कुछ छिपाए इस पर विस्तार से प्रकाश डालने का कष्ट करें।

डॉ. नरेन्द्र मोहन: ज़िंदगी के पचासी साल पूरे करते हुए महसूस करता हूँ कि प्रेम के सिवा जिंदगी का कोई मतलब नहीं है। कविता में जो बिंब सृष्टि कार्य करती रहती है, क्या वह ऐंद्रियता के बिना संभव  है? क्या इस उम्र तक आते-आते एंद्रीयता समाप्त हो जाती है? सच-सच बताऊँ तो ज़िंदगी  के आखिरी पलों तक और आखिरी पंक्ति लिखने तक प्रेम के स्पंदन का तार देह से आत्मा तक खिंचा रहता है। यह बात और है कि इनके कई स्तर हैं... लौकिक और अलौकिक। जो हो...प्रेम दैहिक हो या देह से परे.... अध्यात्म- प्रेम में एंद्रियता का वास है। इस एंद्रीयता में कल्पना का पंछी है तो उड़ान है। जो उस देह में विहार करते हुए उसे पाने से अंत तक उड़ान भरता रहता है। प्रेम जीवित रहने की ही नहीं जोख़िम उठाने की भी चेतना उपजाता है। इसीलिए कहता हूँ कि प्रेम ज़िंदगी जीने का दूसरा नाम है। प्रेम के इस ढाई आखर से दुनिया का कोई प्राणी नहीं बचा, भला मैं कैसे बचता? 

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।

चमोला जी, प्रेम तो एक स्वाभाविक मानवीय गुण है, वह अल्हड़ दिनों में किया जाए या युवावस्था में या उसके बाद। हां, यह बात दूसरी है कि प्रेम, स्त्री या शराब किसी रचना की आधारशिला है या नहीं। यह किसी लेखक की मानसिकता, जीवन-दृष्टि और रचना-प्रवृत्ति पर निर्भर करता है कि वह इन तीनों से या किसी एक से परिचित है या किसी एक से भी नहीं। तीनों या दो या एक का उपयोग हो सकता है और नहीं भी। मुख्य बात यह है कि लेखक इनका रचनात्मक उपयोग कैसे करता है? एक और बात, प्रेम, स्त्री और शराब को, रचना पर बात करते हुए विचार की एक कैटेगरी में नहीं रखा जा सकता। शराब का नशा फौरी तौर पर सहायक हो सकता है पर गहराई से देखने पर दूर तक साथ नहीं देता। अतः आत्मलोप की तरफ हो जाता है। हां, प्रेम और स्त्री की बात अलग है।

प्रेम एक उद्वेलनकारी अनुभव है जिसमें से लेखक प्रायः गुज़रता ही है.... खास तौर पर उम्र के प्रारंभिक दौर में....जिसे आपने अल्हड़ दिनों का प्रेम कहा है। यह अद्भुत ढंग से आप पर हावी होता है और आपको पता भी नहीं चलता। वह अभागा ही होगा जिस पर ढाई आखर के प्रेम का बादल न बरसा हो। सीधे-सीधे कई बार मुझ पर भी बरसा.... और खूब बरसा। अल्हड़ता के साथ गहरी मासूमियत और कुछ भी कर गुज़रने वाले एक आवेगधर्मी जज्बा.... इस प्रेमानुभव की खासियत है। बात उन दिनों की है जब मैं हाईस्कूल में था। रोज़-रोज़ के दंगे, भय और दहशत से माहौल बोझिल रहता था। हमारे घर से सटा हुआ एक घर। वहां 10 साल की गोरी-चिट्टी एक लड़की.... और बारह साल का मैं। देखते-देखते वह लड़की मेरे साथ ऐसे जुड़ गई जैसे कभी अलग ही न होगी। बातों-बातों में वह मेरे बाल नोच लेती... पर वही नंदो-नंदिता और मैं उसके लिए निंदर.....। विभाजन के वक़्त वे पता नहीं कब, किधर घर छोड़कर चले गए और कुछ ही दिनों बाद हम भी। यह बात और है कि वह ज़िन्दगी में कई बार मिलती रहीं। ऐसी घटनाएं उम्र की सरहदों को ही नहीं, देश की सरहदों को भी लांघ जाती हैं।

प्रो. चमोला: नरेन्द्र मोहन जी, रचनाकार चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष....अपने अनुभूत जीवन के  यथार्थ व सच्चाइयों को उसी दबंगता के साथ या कहूँ उसी यथार्थता के साथ, चित्रित करने में प्रायः असमर्थ होता है अथवा अपने असली यथार्थ को छुपाना चाहता है। उसका आधा या उससे अधिक भाग वह गोपनीय रख अथवा लुप्त कर उसे लीपापोती कर चित्रित करता है। अपने साथ घटित यथार्थ का हूबहू या कहूँ शत-प्रतिशत चित्रण करने का साहस कम साहित्यकारों अथवा लेखकों में होता है। ऐसे में नरेन्द्र मोहन जी कितना खड़े उतरे हैं ?

डॉ. नरेन्द्र मोहन: मैंने भी जीवन कथा लिखते हुए या आत्म-कथा लिखते हुए चाहा कि मैं अपने जीवनानुभवों के सच को बयान कर सकूं और मैंने ऐसा किया भी है। 

असली यथार्थ या असली अनुभव क्या है ? रचना दोनों प्रकार के अनुभव को तराशने से बनती है-वास्तविक अनुभव और अर्जित अनुभव। सवाल यथार्थ की हत्या का नहीं है, उसकी अभिव्यक्ति का है। यथार्थ स्थिर नहीं है, वह गतिशील है। उसे हूबहू अभिव्यक्त करने से हम उसकी परत दर परत तक पहुँच सकते हैं। यथार्थ का यथार्थ-अनुभव जितना देखा/झेला/ भोगा हुआ होता है, उतना ही अर्जित। यथार्थ को देखने की दृष्टि क्या है? अस्तित्ववादी, माक्र्सवादी, भाववादी, विचारवादी...? 

प्रो. चमोला: नरेन्द्र मोहन जी, आपकी रचना की प्रक्रिया क्या है? जिस प्रकार जन्म-दात्री मां अपने गर्भस्थ शिशु को 9 महीने अपने गर्भ में रखकर उसकी देखभाल व लालन-पालन करती है, क्या एक रचनाकार भी रचना से पूर्व रचना का संरक्षण कुछ इसी प्रकार के धैर्य व सावधानी से करता है? अपनी किसी औपन्यासिक कृति की रचना-प्रक्रिया के बारे में आप अपने अनुभवों से विस्तार से प्रकाश डालें।

डॉ. नरेन्द्र मोहन: रचना प्रक्रिया के बारे में कई सामान्य बातें हैं जो किसी भी लेखक पर लागू की जा सकती हैं। जैसे लेखकीय छटपटाहट कुछ कहने की, अभिव्यक्ति की, रचना की लिखने से पूर्व और उसके बाद भी। इस तरह लेखकीय मन में किसी विचार का, अनुभव का घुमड़ना और उसके लिए शब्दों की और भाषा की तलाश। अगर आप का आशय रचना प्रक्रिया संबंधी ऐसी बातों से नहीं है जो सिद्धांततः कोई रचनाकार या आलोचक बताता है। आपने एक बात कही है बल्कि एक रूपक बांधा है कि जैसे माँ अपने गर्भस्थ शिशु को नौ महीने गर्भ में पाल कर उसकी देखभाल और लालन-पालन करती है, क्योंकि रचनाकार भी रचना से पूर्व रचना की संरचना कुछ इसी प्रकार के धैर्य या सावधानी से करता है। बल्कि आप का सीधा मुझसे सवाल है कि एक बड़ी कृति जैसे नाटक या जीवनी या लंबी कविता मैं कैसे लिखता हूँ? एक लेखक जिसने कई विधाओं में लिखा हो, उसके लिए रचना-प्रक्रिया हर विधा के साथ बदल जाती है। छोटी कविता और लंबी कविता की प्रक्रिया में जब फर्क है तो अन्य विधाओं का अंदाजा आप लगा सकते हैं। रचना के जन्म होने की पूर्वावस्था पर यह रूपक सटीक बैठ सकता है मगर उसके बात की प्रक्रिया.....।

प्रो. चमोला: एक विधा में प्रवाहपूर्ण लेखन करने वाले साहित्यकार को एकाएक दूसरी विधा में क्यों चले जाना पड़ता है? इसके पीछे क्या साहित्यकार अपनी प्रतिभा को अनेकानेक माध्यमों से प्रदर्शित करना चाहता है अथवा यह पूर्व की विधा में कुछ और न लिख पाने की उसकी असमर्थता का द्योतक होती है, कृपया इस बारे में कुछ बताएं।

डॉ. नरेन्द्र मोहन: एक विधा में लिखते हुए उसमें प्रतिष्ठित हो जाने के बाद कोई लेखक दूसरी विधा में क्यों चला जाता है, उसको लेकर कई उत्तर हो सकते हैं। दो उत्तरों की तरफ आपने संकेत किया है। एक यह कि शायद वह लेखक अपनी प्रतिभा को अनेकानेक माध्यमों से प्रदर्शित करना चाहता है.. दूसरा यह कि पूर्व की विधा में कुछ और न लिख पाने की असमर्थता उसे दूसरी विधा में ले जा रही हो। ये दोनों कारण मुझे अपर्याप्त लगते हैं। एक विधा से दूसरी विधा में जाने का मुख्य कारण यह है कि जो रचनाकार छटपटाहट को महसूस कर रहा है, अभिव्यक्ति उस विधा के लिए कम पड़ रही है  जिसमें लिखने में वह अभ्यस्त है।

प्रो. चमोला: भारत-पाक विभाजन की त्रासद घटना का वह पारिवारिक चित्र जब आप अपने परिवारजन से विछुड़ कर  संशय के चैराहे में खो गए थे, उसके बारे में कुछ बताएं। एक बालक जिसके मस्तिष्क में सृजनात्मकता के स्वप्न सिर उठा रहे थे, संवेदनाएं लहरा रही थीं तो दूसरी ओर बिखरी हुई जीवन-सम्बंधों की गठरी को समेटने की ऐंठन, जीवन-यापन का संकट और इसके समानांतर अपने परिजनों के बिछुड़ने की टीस थी, कृपया इस बारे में विस्तार से बताएं कि आपकी रचनाधर्मिता का मूलाधार कहीं भारत-पाक विभाजन की त्रासदी अथवा अपने अभिन्न परिजनों का विछोह तो नहीं था ?

डॉ. नरेन्द्र मोहन: विभाजन की त्रासदी की आपने खूब याद दिला दी। यह त्रासदी लोगों के दिल-दिमाग पर अचानक एक चट्टान की तरह टूटी थी....और वे कुछ नहीं कर पाए थे। लाहौर जहां मेरा जन्म हुआ ....की स्थिति और भी नाजुक थी। 14 अगस्त, 1947 तक किसी को यह पता नहीं था कि लाहौर हिंदुस्तान में रहेगा या पाकिस्तान में। रेड क्लिफ ने  फैसला तो दे दिया था पर उसे 14 अगस्त तक रोके रखा गया ताकि कहीं कोई बड़ा फसाद ना हो जाए। सो, 14 अगस्त को हिंदुस्तान से टूटकर उसका एक हिस्सा पाकिस्तान बना और बनते ही आज़ाद हो गया और 15 अगस्त को हिंदुस्तान आज़ाद हुआ। यह आज़ादी हमें विभाजन के भयावह दंगों के साथ मिली थी। माता-पिता के साथ और हम चार भाई.... सबसे बड़े भाई, मुंबई में दो-तीन साल पहले नेवी में भर्ती हो गए थे। उनसे छोटे किसी सरकारी महकमे में नौकर थे। पिता भी अध्यापकी छोड़कर एम ई एस में आ गए थे। मैं भी आसपास की स्थितियों को कुछ-कुछ समझने-बूझने लगा था मगर पिता की नजरों में था मख़बूतलहवासी (जिसके होश-हवास उड़े रहते हों) ही था। एक काम में ऐसा तल्लीन होता कि भूल जाता है कि मुझे करना क्या है या एक काम को करता-करता कोई दूसरा काम करने लगता। आज सोचता हँू, तो लगता है एक तरह की कल्पनाशीलता उसके साथ जुड़ी रही होगी । 

बचपन की वही मख़बूतलहवासी शायद आगे चलकर मेरे लेखक बनने का कारण रही हो।  खैर, मैं बात कर रहा था विभाजन की त्रासदी की और उस वक्त के हालात की, जिसे मैं उस उम्र में कुछ-कुछ समझने लगा था। पर वह वक्त था जब दंगों की राजनीति ने कहर बरपाया हुआ था। 

हम धर्मपुरा (लाहौर और लाहौर कैंट के बीच की एक बस्ती) में रहते थे। 1946 के अंत में रात के समय ‘अल्लाह हो अकबर‘ और दूसरी तरफ से ‘हर हर महादेव‘ के नारों से आसमान गूंजता रहता था। चैबच्चा साहब के आसपास वारदातें होती रहती थीं। सुबह बस्ती के पीछे नहर में लाशें तैरती हुई दिखती तो दिल दहल जाता। मारकाट मची हुई थी। एक बसगाड़ी इधर से कटती हुई जाती, एक गाड़ी उधर से कटती हुई आती। एक शाम पूरा घर आशंकाओं से घिर गया। भाई जगमोहन ऑफिस से नहीं लौटे थे। जिस बसगाड़ी से वे ऑफिस आते- जाते थे उसका कोई अता-पता नहीं चल रहा था। बीजी का रो-रो कर बुरा हाल था। हम भाइयों के चेहरे भी उदास और मायूस...। बाबूजी गेट तक जाते और चिंतातुर लौट आते। शाम गहरा रही थी तभी बाबूजी ने भाई साहब को दूर से आते हुए देखा। वह घर आए तो सभी ने चैन की सांस ली। भाई साहब ने बताया कि उनकी गाड़ी भी दंगाइयों ने काट दी थी मगर वे किसी तरह छुपते-छुपाते, बचते-बचाते आ पाए। यह दुर्घटना होते-होते टल गई और सभी को राहत मिली। 

मैं अपने स्कूल के मास्टर यूसुफ को और अपने सहपाठी  दोस्त आरिफ को कभी नहीं भुला पाया आज तक। मास्टर युसूफ हमेशा पढ़ाया करते थे-जमा, जर्ब और तक्सीम और जब विभाजन हुआ तो वे जमा और जर्ब के नाम पर तक्सीम कराने लगे थे और बौखलाते हुए कैंची से उन्होंने अपने जिस्म पर सैकड़ों जख्म कर लिए थे और दौड़ते हुए रावी की तरफ भागने लगते थे। कई बार उन्हें डूबते-डूबते बचाया गया था। हममज़हब लोगों द्वारा उनके बीबी-बच्चों को कत्ल कर दिया गया था और वह ख़ुद सरहद से लुढ़कता हुआ अमृतसर आ गया था और फिर बटाला और दिल्ली ... लंबी कहानी है, फिर कभी।...और आरिफ.... लगता है वह आज भी पेड़ के पीछे खड़ा रुआंसी आंखों से मुझे चैबच्चा साहब से स्टेशन की तरफ जाता हुआ देख रहा हो। 

हम 19 अगस्त को लाहौर से अमृतसर के लिए चले थे। दो दिन खालसा कॉलेज शरणार्थी कैंप में रुके, बाद में मामा जी के घर पालमपुर जहां बाऊजी की ट्रांसफर हुई थी, चले गए। वहां मिशन स्कूल में पांचवी में दाखिल हुआ तो कुछ ही दिनों में भयंकर रूप से बीमार पड़ गया और मिशन अस्पताल में दाखिल हुआ। डॉक्टरों को समझ नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है ? मुझे लगता रहा कि विभाजन का सन्नाटा और दहशत ने मुझे जकड़ लिया होगा। खैर, लगभग 3 महीने अस्पताल में रहा।  पढ़ना-लिखना छूट गया। पालमपुर से बाऊजी की ट्रांसफर अंबाला हो गई। ग्रेंड होटल में हमारे आवास की व्यवस्था हुई। स्कूल छूट गया था और मेरे लिए ये निपट अकेलेपन के दिन थे। आवारा सा इधर-उधर डोलता रहता था। करीब ही रेलवे स्टेशन था। शाम के वक्त उधर निकल जाता और गाड़ियों को आता-जाता देखता... लौट आता। वहां से हम मोजमदार लाइन की बैरकों में भेज दिए गए। एक शाम घूमते हुए बैरक के पहले क्वार्टर के पास गुजरा तो देखता ही रह गया.... नंदो (नंदिता)! मैंने उसे पुकारा तो वह मुझे देखती रह गई। ‘तुम, निंदर यहां ?‘ मैन देखा वह दो-तीन सालों में खूब निखर आई थी। हम वहीं खड़े-खड़े  बातें करते रहे। विदा होते हुए उसने कहा.‘मैं तुम्हारे घर आऊंगी।‘ अगले दिन वह घर आ गई। बीजी उसे देखकर बहुत खुश हुई। ‘कैसी हो नंदो ?‘ बीजी ने घरवालों की खैरियत के बारे में पूछा। और इस तरह लाहौर की गोरी-चिट्टी लड़की से लगभग रोज मुलाकात होने लगी।   

विभाजन की त्रासदी मेरे बचपन की निश्चय ही एक भयावह घटना थी जिसे मैं कभी भुला नहीं पाया। उसके साथ जुड़े हुए प्रसंगों अनुभवों को भुलाने का तो प्रश्न ही नहीं था ऐसे प्रसंगों/अनुभवों से रचनाधर्मिता प्रभावित होती ही है। विभाजन पर किया गया मेरा काम मंटो की जीवनी, दो लंबी कविताएं, नाटक आत्मकथा जैसी रचनाओं में विभाजन की त्रासदी को प्रमुख उत्प्रेरक माना जा सकता है।

प्रो. चमोला: बाल्य-काल की सौंधी मिट्टी की गंध जब बाल मस्तिष्क में समा जाती है तो वह आजन्म मिट नहीं पाती। कहा जाता है कि व्यक्ति जिस मिट्टी में पैदा होता है, खेलता-कूदता है, चाहे वह संसार के किसी भी देश में चला जाए व कितनी भी भाषाएं क्यों न सीख ले, जीवनपर्यंत वह उसी मिट्टी के सपने उसी भाषा और उसी संस्कृति के आलोक में देखता रहता है..... क्या आपने इस बात को अनुभव किया कि लाहौर की उस रोमानी मिट्टी में बीते हुए बचपन अथवा शैशव के वे संपूर्ण छविचित्र किसी न किसी रूप में आपके साहित्य में अभिव्यक्त हुए हैं, कृपया इस पर विस्तार से प्रकाश डालें।

डॉ. नरेन्द्र मोहन: जी हां, मैंने यह अनुभव किया है और इसीलिए मानता हँू कि लेखक का अवचेतन जितना समृद्ध होगा उतना ही बड़ा लेखक होने की संभावनाएं उसमें होंगी।  बाल्यकाल की सोंधी मिट्टी की गंध, जैसा कि अपने कहा है, ताउम्र उस के साथ रहती है। जन्मभूमि लाहौर से जुड़े हुए धुंधले से रोमानी चित्र, उस मिट्टी की खुशबू, रंग- बिरंगी हवेलियां, अनारकली बाजार, रावी, पतंगों से भरा आसमान, बचपन में मेरे अवचेतन का हिस्सा बन गए होंगे, तभी तो वे मेरी रचनाओं में किसी न किसी रूप में आते रहे हैं। शैशव के छवि चित्र मेरी संवेदनाएं घुल मिलकर कई कई रूप धारण करते रहे हैं ....और कभी नाटकों में चरित्रों के रूप में, स्मृति चित्रों और बिंबों के रूप में। बचपन में देखकर कलंदर की छवि मेरी अवचेतन में ऐसी धंसी कि आगे चलकर कलंदर नाटक में बदल गई। बचपन में देखे गए दृश्य, लोग, नदियां, पेड़, कई कई रूपों में रचनाओं में आ ही जाते हैं .... और यही है जो मेरे साहित्य को एक निजी पहचान देती है। जन्मभूमि का, निश्चय ही महत्व है। जिस जगह, जिस शहर में कोई रचना पूरी करता है, वह जगह, वह शहर मुझे मेरी जन्मभूमि की याद दिलाती रहती है। यह तो है ही कि लेखक सरहदों में नहीं बंधता।  संवेदनात्मक,वैचारिक और चेतना की स्तरों पर वह उन से ऊपर उठ जाता है। उस अर्थ में वह एक देश में सीमित नहीं रह कर विश्व-जनीन हो जाता है। इस अर्थ में लेखक, देश और काल की सीमाओं को लांघ जाता है।

प्रो. चमोला: अपनों और अपनेपन से भौगोलिक रूप से खदेड़ा गया बालक निंदर के भीतर वहां का जिया हुआ यथार्थ हमेशा-हमेशा के लिए प्राणकोष बनकर नाजुक हृदय के कैमरे में बंद हो गया जिसकी अखुलाहट, टीस,पीड़ा,  संत्रास, समय के परिपक्व होते धरातल पर अभिव्यक्त होकर कभी कविता, कभी कहानी, कभी नाटक और और कभी उपन्यास बनकर अभिव्यक्त होती रही.......उनमें लेखक का अपना भोगा हुआ यथार्थ कितने प्रतिशत चित्रित हुआ ? क्या बोझिल मन इस बेचैनियों की अभिव्यक्ति को कागज पर अंतरित करने के बाद स्वयं को जन्मभूमि के उस बहुत बड़े ऋण से उऋण होने की अनुभूति करता रहा ? वहां का आपका बचपन, आपका जीवन, आपका परिवार, इष्ट-मित्र, दोस्त, भाई-बहन आदि किस-किस रूप में आपके साहित्य का हिस्सा बनते रहे......कृपया उन महीन संवेदनाओं को पकड़ते हुए उस अतीत के इतिहास और भूगोल को आज के संदर्भों में संवेदनाओं की कूची से निरूपित करने का कष्ट करें ।

डॉ. नरेन्द्र मोहन: प्रिय चमोला जी, आप स्वयं लेखक हैं और यह जानते हैं कि जिया या भोगा हुआ यथार्थ/अनुभव अपनी संपूर्णता में शत-प्रतिशत रचना में अभिव्यक्त नहीं हो सकता।  जिए र्हुए यथार्थ अनुभव के साथ या कहें वास्तविक अनुभव के साथ अर्जित अनुभव की अभिव्यक्ति में बहुत बड़ी भूमिका है। जब वास्तविक अनुभव और अर्जित अनुभव एक-दूसरे का हिस्सा बन जाते हैं तभी बड़ी रचना जन्म लेती है। मैंने उस अनुभव की टीस, पीड़ा, अकुलाहट और संत्रास को अपने भीतर देर तक संजोए रखा है और जब उसकी अभिव्यक्ति का समय आया तो ऋण-उऋण होने की भावना से परे उसे सहज भाव से अभिव्यक्त कर दिया। बचपन और मेरा वह परिवेश, घटना और प्रसंग मेरी रचनाओं का हिस्सा बनते रहे हैं जिनके बारे में आपके पिछले प्रश्न के उत्तर में बता चुका हूँ। वह अतीत, इतिहास और भूगोल स्मृतियों के रूप में आज भी जैसे मेरे साथ चलता रहता है। अतीत और इतिहास में रमे रहना, उसकी जुगाली करते रहने को मैं नॉस्टैल्जिया मानता हूँ। लेकिन जब मैं उसे स्मृतियों के जरिए खींच कर अपने आज के संदर्भों का हिस्सा बना देता हूँ तो वह इतिहास और वर्तमान को एक बड़े कैनवस तक ले आता है।

प्रो. चमोला: नरेन्द्र मोहन जी, काया की दृष्टि से सामान्य अथवा छोटी कविताओं से लंबी कविताओं तक की आपकी काव्य-यात्रा का मंतव्य तथा गंतव्य क्या रहा है? आपने छोटी कविताओं के चलते लंबी कविताओं को लिखने का संकल्प क्यों किया? क्या ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘परिवर्तन’ व ‘अंधेरे में’ जैसी लंबी कविताओं  का भी योगदान रहा इन कविताओं के आधार संरचना अथवा शिलान्यास में? इनकी रचना प्रक्रिया के पीछे आपका मूल प्रतिपाद्य क्या रहा, कृपया विस्तार से स्पष्ट करने का कष्ट करें।

डॉ. नरेन्द्र मोहन: मंतव्य और गंतव्य, चमोला जी, इतना है कि कला फार्म की दृष्टि से लंबी कविता की अलग से पहचान हो और उसे कविता की विशेषताएं और मूल्यांकन के बीचोंबीच रखा जाए। लंबी कविता को प्रबंधात्मकता या वर्णनात्मकता के खाके में नहीं डाला जा सकता क्योंकि लंबी कविता वर्णनात्मक और प्रबंधात्मक कविता जैसे खंडकाव्य, महाकाव्य से सर्वथा अलग और विशिष्ट है। दरअसल, प्रबंधात्मकता और वर्णनात्मकता के ढांचे और खांचे को तोड़कर बाहर आई है। जिन छायावादी कवियों ने प्रबंधात्मकता का उत्कर्ष रचा, उन्हें ही पहली बार यह एहसास हुआ कि अपने भीतरी-बाहरी तनावों को अभिव्यक्त करने वाली कविता प्रबंध-काव्यों से अलग एक कला फार्म है जिसकी अपनी अपेक्षाएं हैं। निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ और प्रसाद की ‘प्रलय की छाया‘ को किसी परंपरागत या प्रचलित काव्यरूप के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता। लंबी कविता के अलग स्वरूप को देखते हुए इसे सुविधा की दृष्टि से लंबी कविता कह दिया गया। लेकिन छोटी कविता के आधार पर कविता का मूल्यांकन  करने के अभ्यस्त  आलोचकों ने कविता के प्रतिमानों को निर्धारित करते वक्त लंबी कविता के अलग फॉर्म की अपेक्षा करते रहे।

अब स्थिति काफी हद तक बदल रही है। छोटी कविता और लंबी कविता विरोधी नहीं है। जैसे छोटी कविता या  प्रगीत काव्याभिव्यक्ति का माध्यम है, वैसे ही लंबी कविता भी अभिव्यक्ति का एक काव्य रूप या माध्यम है। इस बात को रेखांकित करना हमारा मंतव्य रहा है। मैंने स्वयं छोटी कविताएं लिखी हैं और लंबी कविताएं भी।  संकल्प करके लंबी कविताएं नहीं लिखी जा सकतीं, बल्कि एक बड़े फलक पर अनुभूति और वैचारिकता के तनाव से जब कवि बिंध जाता है तो लंबी कविता लिखे बिना उसके लिए कोई रास्ता नहीं रह जाता। 

निराला की ‘राम की शक्ति पूजा‘ और मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में‘ कविताओं को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। मैंने भी जब अपनी काव्यानुभूति की बुनावट में इतिहास और स्मृति को एक बड़े फलक पर तनने देता तो मुझे उसे अभिव्यक्त करने के लिए लंबी कविता के सिवा और कोई रास्ता न दिखा। मेरी लंबी कविता ‘एक अग्निकांड जगहें बदलता‘ हो या ‘एक अदद सपने के लिए‘, ‘खरगोश चित्र और नीला घोड़ा‘ कविता हो या प्रिया भतीजा ‘शर्मिला डरो न‘, इन कविताओं के काव्य ने स्वयं अपनी फॉर्म को चुना है। इन कविताओं की आधार संरचना इनकी अपनी ही है, इधर-उधर से उठाई हुई नहीं है।

लंबी कविताओं में व्यक्ति से व्यक्ति तक, व्यक्ति से समाज तक, व्यक्ति से समष्टि तक गुथी हुई संवेदनाओं और विचारों की जो रेंज है और उसमें समाया हुआ जो बहुपरती ताप और दीर्घकालीन तनाव है, वह बड़े फलक पर इतिहास, स्मृति और संस्कृति के सवालों के साथ जिस तरह अभिव्यक्त होता है, उसके मूल में मानवीयता ही है। अमानवीय स्थितियों में मानवीय हो पाने का प्रतिपाद्य छुपा हुआ है। मानवीय सरोकार के पक्ष में खड़ी ये कविताएं सपाट और एकापायी नहीं हैं बल्कि कवियों ने इन्हें तनावपूर्ण स्थितियों में से प्रतिरोध और विद्रोह के जरिए हासिल किया है और ऐसा करते हुई मानवीय प्रेम और करुणा तक पहुंचे हैं।

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