अक्षर ईटों से बने ख़्याली मकानों का सिलसिला

 संस्मरण

     नासिरा शर्मा

पिछली गर्मियों में काला डोंगी रामनगर रिसाॅट में हम कुछ दिन ठहरे थे। टी.वी. सीरियल पर काम चल रहा था। दिन भर लिखना होता रात को जंगल की सैर या फिर हरी घास पर पड़ी कुर्सियों पर बैठ, गई रात तक गप्पें। रामपुर से आए उर्दू के शायर शहज़ादा गुलरेज़ भी हमारे साथ थे जो सीरियल के लिए गीत लिख रहे थे। बातों बातों में एक रात उन्होंने एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाया कि नवाब रामपुर ने एक शानदार कोठी बनवाई, तैयार हो जाने पर बेग़म साहिबा से कहा कि तश्रीफ़ ले चलें और चल कर मुआयना करें कि कोठी कैसी बनी है। बेग़म साहिबा ने कोठी देखी। हल्के से मुस्कुराई और धीरे से फ़रमाया- “मज़ा तो तब आता जब आम की बग़िया होती और मैं यूँ हाथ उठा फल तोड़ लेती।‘‘ उन्होंने हाथ ऊपर उठा बड़ी अदा से कहा। बेग़म साहिबा की ख़्वाहिश सुन नवाब साहब ने गर्दन को हल्के से ज़्ाुम्बिश दी। वह ज़माना कुछ और था। हुक़्म पाते ही आर्मी के जवानों ने फल लगे क़द्दावर दरख़्त कोठी में लगा दिये। क़िस्सा शहज़ादा गुलरेज़ ने कुछ तफसील से और बड़े दिलचस्प अन्दाज से सुनाया था। हम जहाँ बैठे थे वहाँ पर एक दो मंझोले पेड़ थे जिसमें एक लीची का था। एकाएक सबकी नजरें उस पेड़ पर जा टिकीं जहाँ सजावट की लाल लीचियों की झालरे जल बुझ रही थीं।

जब मैं अपने कमरे में लौटी तो खेत की तरफ खुलने वाली खिड़की के पट खोल सोने की तैयारी करने लगी। इलाक़े का हुस्न जो दरअसल मीलों तक फैले जंगलात का था, वह मेरे जे़हन में उभरने लगा। पेड़ भी इन्सानों की तरह एक होते हुए भी अपनी शक्ल और पहचान में कितने मुख़्तलिफ होते हैं। गेहूँ कटने के दिन थे। हवा में भूसे के कणों का भारीपन था। जंगलों में जगह-जगह सूखी घास व जंगली झाड़ियों में आग लगा दी गई थीं जो अंधेरे के गले का हार बनी दूर कहीं किसी पहाड़ी पर झिलमिला रही थी। ज़ेहन कई तरह के हसीन नज़ारों में अटका भटका सा था। नींद का कोसों पता नहीं था। एकाएक ख़्याल कौंधा कि हवाई क़िले की तरह मैंने भी तो कागज़ पर अक्षर महल खड़े किये हैं, जिसमें मेरी कहानियों के किरदार रहते हैं। नवाब साहब की बग़िया लगने में हफ्ता दो हफ्ता तो जरूर लगा होगा मगर यहाँ तो आनन फानन में सफेद कोरे बाग़ वैतागल कागज पर मैं क़लम के ज़रिए बाग़, खेत, जंगल, महल दो महले, कोठी बंगले, कमरे दालान, आँगन, कोठे, परकोटे खड़े कर देती हूँ। मुझे अपने दिमाग़ की परवाज़ पर हँसी आ गई और साथ ही ख़्याल गुज़रा कि मैंने कौन से घर की नींव सबसे पहले डाली थी ? वह रचना कौन सी थी ? उसका नाम क्या था ? वह घर किस के लिए बनाया था। रात की तन्हाई में एक दिलचस्प दिमाग़ी खेल शुरू हो चुका था।

एकाएक ज़ेहन के समुंदर मे हलचल मची और हवेल मछली पर सवार बड़ी बड़ी लहरों के बीच नीलम जलपरी और उसकी सखियों की खिलखिलाती शक्लें उभरीं। नीलम जलपरी अपने सुनहरे वालों के संग मछलियों को छेड़ती उनकी दुम पकड़ती, छेड़छाड़ करती नदी की तरफ बढ़ रही थी जहाँ उसे घड़ियाल देखना था। जलराजा की लाड़ली बेटी ज़िद कर घर से निकली थी। नदी मुहाने पहुँच सब ह्वेल मछली से कूद जलपरियां मछली का भेष बदल नदी के पानी में मचलती आगे बढ़ने लगीं। मुझे अपनी कहानी ‘संसार अपने अपने‘ की याद आ गई। बच्चों के लिए लिखी इस कहानी की पुस्तक का मुख-पृष्ठ याद आया जिस पर नीलम जलपरी का आधा शरीर मछली और आधा लड़की का था। उसके चेहरे के पीछे मूंगे के महल का स्केच था। यानी कि मैंने पहला घर ‘महल‘ या कहें जलमहल बनाया था और वह भी मूंगे का। सोच कर हँस पड़ी। याद आया शारजा में कुछ पुराने घरों की दीवारें देखी थीं जिसमें घोंघे, सीप का इस्तेमाल मसाले की जगह हुआ था।

इस कहानी में एक लघुमानव पल्लव भी था। जिसकी जीविका का आधार मछली पकड़ना था। जो अपनी अन्धी बूढ़ी दादी के साथ एक टूटे फूटे झोपड़े में रहता था। उसके काँटे में सुनहरी मछली फँसी थी। उसे पल्लव ने बेचा नहीं और टूटे जग में रख दिया। उनकी दोस्ती हो गई। दोनों ने अपने अपने संसार की बातें एक दूसरे को सुनाईं। जिस तरह मैंने पल्लव की झोपड़ी बनाई थी। उसी तरह शिलाँग में रहने वाले एक लड़के जोजेफ का भी छोटा सा घर टीन और लकड़ी से मिला कर बनाया था जो बाहर से काले रंग से पुता था। जोजेफ की माँ सुबह से शाम तक घर घर पानी ढोती और गठरी भर दूसरों के कपड़े धोती। जोजेफ के पिता का देहान्त हो गया था। जोजेफ एक दिन माँ का इन्तजार कर रहा था। लैम्प में तेल न था। अन्धेरे में एक जुगनू घर में घुस आया और लगा जोजेफ से बातें करने। उस कहानी का नाम ‘रौशनी‘ थां उन दोनों कहानियों के चित्र मशहूर उजबेक चित्रकार रानो हबीब की बेटी इक़बाल ने बनाया था जिसने पेन्टिंग करनी उस समय शुरू ही की थी।

बाहर दूर बोलते सियारों की आवाजें हवा अपने साथ कमरे में ले आई थीं। सुना है कुछ वर्षों पहले तक गर्मियों के दिनों में शेर जंगल से निकल सड़क किनारे ठंडी हवा का सेवन करने आकर बैठते थे। अब रात को कार की हेडलाइट पड़ने से कभी कभार पेड़ों के बीच चित्तल, नील गायें और बारकिंग डियर खड़े नज़र आ जाते थे। रात दबे पैर सुबह की तरफ बढ़ रही थी। खिड़की से आने वाली हवा में खुनकी बढ़ गई थी। उठकर खिड़की के पट बन्द करती हूँ। सुबह का तारा एक दो घन्टे में डूब जायेगा, तब मज़दूरों की आवाज़ें आना शुरू हो जायेंगी। मेज़ पर पड़े पन्नों को पलटने या कुछ लिखने का मन नहीं तो भी दिमाग़ दौड़ाती हूँ कि असम के परिवेश पर लिखे अपने सीरियल ‘दो बहनों’ में मेजर के घर का नक्शा कैसा खींचा है ? तिरछी छत वाले पोर्टिको के सामने फैला लॉन और खिले फूल। मेजर चाय बागान के मालिक हैं सो घर अन्दर से शानदार होगा मगर मैंने ऐसा कोई बयान कहीं दर्ज नहीं किया है न ही फारेस्ट आफिसर के बंगले का कोई नमूना दिया है। बस गाँव के कच्चे घर का अलबत्ता बयान है जिसमें शौचालय पुरानी शैली और गलियाँ तंग व रास्ता ऊबड़ खाबड़ है मगर सच पूछा जाये तो किसी घर या बंगले का कोई विवरण वैसा है नहीं जैसा कहानी या उपन्यास में होता है। उसका कारण शायद यह है कि मेरे द्वारा उठाए झूठमूठ के किरदार सचमुच के घरों में शूटिंग के समय मेरे संवादों को बोलते हुए उसमें रहेंगे जो वास्तव में किराये का होगा। सो ‘दो बहनें‘ सीरियल में केवल संवाद ही मेरे हैं।

मेरी पहली कहानी ‘बुतखाना‘ में रमेश का इलाहाबाद से आकर दिल्ली में मकान की क़िल्लत देखना और एक कमरे को दिन में ड्राईंगरूम और रात को बेडरूम में वह भी बहन बहनोई के आने के बाद चादरों से एक नया कमरा बना देना उसे अचम्भित करता है।

साथ ही छोटे बड़े शहरों के बीच जीवन मूल्यों की विभिन्नता पर वह कहानी केन्द्रित थी। इलाहाबाद से लन्दन और लन्दन से दिल्ली तक के सफर में मुझे इलाहाबाद व लंदन के मुकाबले दिल्ली बहुत अमानवीय अपने तौर तरीक़े और व्यवहार में लगा था। बनावटीपन के साथ ही हर इन्सान दूसरे पर अपनी धाक जमाने की फिराक़ में नज़र आता था। 1971 में हम दिल्ली आए थे। उस समय के प्रभाव अपनी जगह मगर इन पैंतीस वर्षों में राजधानी के माहौल ने क्या मुझे बदला नहीं होगा ? हर महानगर का क़ायदा बन गया है कि जो आदमी दूसरे के लिए ठहरा, वह पिछड़ गया जो दूसरों को कोहनी मारता, उनके कन्धों पर पैर रखता आगे बढ़ा; वही उन्नति के शिखर पर पहुंचा । अपवाद को छोड़ते हैं। वहीं पर तेहरान के परिवेश पर लिखी मेरी ‘आशियाना’ कहानी में भी एक कमरा है जिसमें जमशेद का छोटा सा खानदान इस उम्मीद पर रहता है कि जमा पैसे से जल्द ही दो कमरे का आधुनिक फ्लैट खरीद लिया जायेगा मगर भाई की मौत के बाद उसे भाभी और बच्चों को जाकर दूसरे शहर से लाना पड़ा और आराम से रहने का सपना पाँच बच्चों की पढ़ाई के भेंट चढ़ गया मगर वह अन्दर कहीं से खुश था कि वह ईट गारे का शानदार मकान नहीं रखता तो क्या, बच्चों का सहारा बन उन्हें इस एक कमरे में, जिन्दगी से जूझने के लिए अच्छी तालीम तो दे रहा है। कुछ ऐसी ही छोटी सी कोठरी का मालिक मुशद गुलाम था जो ढाबा चलाता था। पैसा दाँत से पकड़ कर जमा करता था मगर जरा सी लापरवाही के चलते वह जमा पैसे बेटे के कफ़न के काम आते हैं।

एक कमरे के अलावा भी मैंने घर बनाया है। मैं वास्तुविद नहीं हूँ। वास्तुशास्त्र के बारे में मेरा ज्ञान शून्य है। जब छत्तरपुर का मकान बन रहा था। दीवारें उठ रही थीं। तसले में बने मसाले को राजमिस्त्री एक हाथ से कन्नी से उठा पहले से जमी ईंट पर रखता और दूसरे हाथ से ईंट उस पर जमाता था। देखने में मज़ा आ रहा था। एकाएक ख़्याल गुज़रा कि यह काम भी रचनात्मक है। मैं कोरे कागज़ पर अक्षरों की दीवार बनाती नीचे तक आती हूँ और मिस्त्री नीचे से ईटों की दीवार उठाता ऊपर तक जाता है। यहाँ पर मज़दूरी और सामान-मसाले पर धन खर्च हो रहा है मगर मैं बिना मज़दूरों, ईंटों की सहायता एवं एक पैसा खर्च किये बिना बड़ी से बड़ी इमारत खड़ी कर देती हूँ। बिना ज़मीन खरीदे किसी भी पाॅश कालोनी में कहानी के चरित्र की हैसियत के मुताबिक उसका बंगला तामीर कर देती हूँ। यह काम कुछ उसी तरह अंजाम पाता है जैसे अल्लादीन के चिराग़ को घिसने पर देव पलक झपकते ही मालिक का हुक़्म बजा लाता है और उसकी ख़्वाहिश को पूरा कर देता है।

मेरे चारों तरफ घर ही घर थे। अपना और दूसरों के भी। सड़क के दोनों तरफ शानदार बंगले रास्ता तय करते हुए देखती थी मगर यह ख़्याल कभी नहीं गुज़रा कि अमुक कोठी या घर को जैसे फिल्म की शूटिंग के वक्त किराये पर लिया जाता है, उस अन्दाज़ से किसी विशेष मकान को नज़र में रख मैंने कहानी के पात्रों को उसमें नहीं टिकाया। बल्कि अनजाने में मकान बनता चला गया। बतौर मिसाल उपन्यास ‘अक्षयवट’ लिखने के कई साल बाद अब मैं ज़हीर के घर का नक्शा बना सकती हूँ। जबकि लिखते वक्त कोई खाका जे़हन में मौजूद न था सिवाए मोहल्ले और दो घरों के जिसमें शादी के बाद मेरी दो सखियाँ निगहत और रेहाना रहती थीं जिसका कोई विशेष प्रभाव मेरे मस्तिष्क में नहीं था ! बहरहाल ज़हीर का घर उन दोनों घरों से अलग उभरा अगर ज़्यादा कानूनी सनद् रखना चाहूँ तो किसी वास्तुविद को यह काम आसानी से सौंप सकती हूँ कि उपन्यास पढ़ कर कमरा, दालान, आँगनछत, बावर्चीखाने के दिये विवरण के अनुसार एक नक्शा लम्बी छोटी लकीरों की सहायता से बना दे जिसको म्युनिस्पल्टी से पास करा लिया जाए।

इलाहाबाद के मोहल्ले, अकबरपुर में स्थित ज़हीर का मकान जितना ख़्याली था उतना ही ‘कुइयाँजान’ में डॉ. कमाल की कोठी जो जार्ज टाऊन में स्थित थी, उसी तरह शकरआरा और खुरशीद आरा के पिता की कोठी का बयान जो बरेली शहर में थी। ‘अक्षयवट’ और ‘कुइयाँजान’ में बयान सारी की सारी जगहें, मोहल्ले, सड़कें, दुकानें अपने नाम के साथ दर्ज हैं मगर जितने भी चरित्र आये हैं जिनमें निम्न, मध्य व उच्चवर्ग के लोग हैं, उन सबके घर ख़्याली हैं। मगर ‘शाल्मली’ उपन्यास की बरसाती और सरकारी घर को मुझे बनाने की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि इन दोनों नामों के साथ दिल्ली में रहने वालों को विशेष रूप से साऊथ और नार्थ एवेन्यू के घर और इसी तरह अन्य सरकारी घरों का नक़्शा जे़हन में उभरता है। ‘बुतखाना‘ की तरह ‘शाल्मली’ में भी भौतिकवाद के प्रति बढ़ती चाह जो अक्सर अमानवीय हद तक पहुँच जाती है, उसका ज़िक्र ‘शाल्मली’ के प्रति नरेश द्वारा हुआ है जो गाँव से कस्बे और फिर एकाएक राजधानी में दाखिल होता है और उसे लगता है कि यहाँ सत्ता के द्वारा सब कुछ हासिल कर लिया जाता है और वह दिल्ली में पली बढ़ी ख़ास तरह की दृष्टि रखने वाली पत्नी शाल्मली पर जोर डालता है कि वह मंत्री द्वारा कोई शानदार आवास या फिर कोई मामूली फ्लैट ही हासिल कर ले। मगर शाल्मली जानती है कि इस तरह भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति का मतलब है गलत समझौते जो वह करने के पक्ष में हरगिज़ नहीं है।

मुझे याद आ रहा है। ‘शाल्मली’ जे.एन.यू. में रहते हुए मैंने लिखी थी। बाग़ में रहने जैसा अनुभव उस उपन्यास में उभरा था। हर अध्याय में किसी एक वृक्ष का ज़िक्र था। 

जे.एन.यू. छोड़ते हुए ढेरों गमले सरिता विहार के फ्लैट लाई थी। पानी के फ़र्क़ के कारण सारे गुलाब और अन्य पौधे एक एक कर दम तोड़ते चले गए। हमारी किताबों के बक्से कहीं और चले गये। घर का सामान नौकरों और जरूरतमन्दों को दरियादिली से बांटा क्योंकि अट्ठाइस साल की गृहस्थी फ्लैट में नहीं समा सकती थी। यही हाल कपड़ों का था। इलाहाबाद के क़िस्से के बाद सुरक्षा को नज़र में रखते हुए उन दिनों हम सब साथ रह रहे थे। बेटी दामाद, बेटा और दो और लड़कियाँ। डॉ. शर्मा नागालैंड में थे। मगर तीन साल उस फ्लैट में रहने और कई तरह की दिक़्कतों के बावजूद हम डी.डी.ए. के खिलाफ जा उस फ्लैट में कोई कमरा कोई बाल्कनी नहीं बनवा पाए जबकि हर तरफ कुछ न कुछ बढ़ोत्तरी का काम चल रहा होता था। यह अलग बात थी। रात को सोने से पहले एक बड़ी खिड़की ड्राईंगरूम में खुलती देखती जिससे आई धूप से सारा कमरा जगमगा उठता या फिर दो कमरे के बीच एक कमरा बना देखती जिसमें अम्माँ आराम से रह रही होती या फिर किचन से एक नया दरवाज़ा बाहर फूटता देखती। अपने फ्लैट को नया रूप देते-देते, मेरा दिमाग़ थक जाता और मैं सो जाती थी।

फ्लैट की ज़िन्दगी सुरक्षा की और आधुनिकता की दृष्टि से महत्वपूर्ण थी मगर वह इलाक़ा हमारे लिए नया था। लाइब्रेरी का कोई वजूद न था। जिसके लिए डॉ. शर्मा को मीलों ड्राइवर कर जाना पड़ता था। तय हुआ छत्तरपुर में पड़े प्लाट पर सादा सा मकान बनाना ठीक रहेगा ताकि हम अपने पुराने मोहल्ले व माहौल के आसपास रहें। मकान बनाना शुरू हुआ। आर्किटेक्ट द्वारा बनाए नक्शे में हमने थोड़ा रद्दोबदल कर दिया। जिसको देख उन्होंने काफी बुरा मानते हुए कहा कि आपने मेरे नक़्शे को तहस नहस कर दिया है। ठीक उस तरह जैसे कोई आपके उपन्यास के बीच के पन्नों को फाड़ दे। तो आपको कैसा लगेगा? सुन कर हम सबको हँसी आई थी कि रहना हमको है। हमारी इच्छा से ही मकान बनना चाहिए न कि वास्तुविद के बनाए घर के अनुसार हमको रहने की आदत डालनी पड़ेगी। बात ज़रा-सी थी। हम किचन बड़ा व खुला चाहते थे। उन्होंने छोटा दिया था। हमारे बार बार कहने पर भी वह हमारी सुन नहीं रहे थे। आखिर लाॅबी और किचन के बीच की दीवार थोड़ा आगे हुई तो घर का पोर्टिको भी थोड़ा आगे खिसका जिसका उन्हें बहुत रंज था। मैंने उनका ग़म कम करने के लिए कहा कि पहले तो लोग अपनी जरूरत के मुताबिक राजमिस्त्री के साथ सलाह मशविरा करके बनवा लेते थे। इस पर उनकी तड़फड़ाहट और बढ़ गई और कटाक्ष भरे स्वर में बोले “मगर आप कभी आर्किटेक्ट नहीं बन सकती हैं चाहे जितनी कोशिश कर लें। आज उनकी बात याद करके मुझे हँसी आ रही है। काश ! इस बात का पता मुझे उस वक्त चलता कि मैंने अपने किरदारों के लिए कितनी अधिक संख्या में मकान बना डाले हैं तो मैं उन्हें राय दे डालती कि यदि वह चाहें तो मेरी पुस्तकें पढ़ अपने नए प्रोजेक्ट के लिए प्रेरणा ले सकते हैं कम से कम इससे उनके नक़्शों में दोहराव तो नहीं आयेगा।

मुझे याद आ रहा है कि एक बार इन्हीं वास्तुविद् ने मुझसे वास्तुकला और साहित्य पर बहस करते हुए प्रश्न पूछा था कि क्या एक माँ बच्चा वैसा ही पैदा कर सकती है जैसी उसकी इच्छा होती है ? यदि नहीं तो मैं कहूँगा कि वास्तुविद् बिल्कुल वैसी ही इमारत अपनी आँखों के सामने खड़ा कर सकता है जैसा कि उसके विचारों में वह आकार ले कागज़ पर सीधी लकीरों से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है।

उनका अपने काम के प्रति लगाव दम्भ की स्थिति तक उन्हें ले जा चुका था। इसलिए वह इस सच को वैज्ञानिक दृष्टि से समझने को तैयार ही नहीं थे कि एक मुर्दा चीज़ के बनाने और एक ज़िन्दा जीव के सृजन में कितना भारी फ़र्क़ है। इन्सानी बच्चा माँ की इच्छाओं के अधीन नहीं बल्कि वह स्वतंत्र है अपनी बनावट में कि वह जीन्स कहाँ से ले, इसलिए पीढ़ियों के लम्बे सिलसिले से वह किसी पर भी पड़ सकता है। उसी तरह जैसे वास्तुविद जिन्होंने यह प्रश्न पूछा था वह आदतों और कदकाठी में अपने पिता से कम दादा से अधिक मिलते थे। बच्चों की तरह ही कला का जन्म भी होता है यदि वह रचनात्मक है और किसी क्लासिक परिपाठी में जकड़ी नहीं है तो उस पर बस तो स्वयं कलाकार का नहीं चलता है। कला और साहित्य कुछ देर अपने सृजनकर्ता के बस में जरूर रहते हैं मगर कुछ अरसे बाद वह अपना रंग रूप स्वयं अपनी मर्ज़ी से रचनाकार से गढ़वाते हैं।

एक बात तो माननी पड़ेगी कि मकान का नक़्शा और फिर उसे मज़दूरों से बनवाना वास्तव में कठिन काम है। शायद इसी कारण ठेकेदार का रहना कुछ लोग ज़रूरी समझते हैं कि वह नक़्शे के मुताबिक टोकाटाकी कर चीज़ें दुरुस्त करवाता रहेगा। मगर ऐसा होता नहीं है। ठेकेदारों की बदफेलियों पर बहुत सी कहानियाँ लिखी गईं मगर लापरवाहियों पर नहीं के बराबर। छत्तरपुर के मकान को बनते मैं ही देख रही थी। मेरी नज़रों को चीज़ें जल्द खटक जाती हैं सो एक दिन मैंने आखिर कह ही दिया कि मुझे पूरा घर बदगुनिया लग रहा है। दीवारें भी सीधी नहीं हैं। कोई डांस के पोज़ में तिरछी है तो कोई प्रेगनेंट सी घुमावदार दिख रही हैं तो ... मेरे दबे दबे आक्रोश को भाँप कर ठेकेदार ने फौरन कहा यह कमी प्लास्टर होने में छुप जायेगी। क़त्’ई फ़िक्र न करें। जब पलास्टर शुरू हुआ और उसे देखा तो मिस्त्री ने दिलासा दिया कि पुताई के वक्त यह कमी पूरी हो जायेगी आप फ़िक्र न करें मगर जब दरवाज़ा खिड़कियाँ लगनी शुरू हुईं तो लोहार और बढ़ई ने बदगुनिया होने के कारण जो ज़हमत उठाई उसे देखकर लगा था कि बस क़सर इतनी ही रह गई थी कि उन्होंने अपना हथौड़ा अपने सर पर नहीं मारा। इस तरह की बात साहित्य में नहीं चल सकती है कि लेखक प्रूफ पढ़ने वाले, फिर सम्पादक, फिर प्रकाशक, फिर पाठक पर अपनी कमज़ोरियाँ यह सोच कर छोड़ दे कि आगे ठीक हो जायेगा। ऐसी कमियाँ उसके लेखन को बिसमार कर देंगी। यह फ़र्क़ दो सृजनात्मक कार्यों के बीच का मुख्य फ़र्क़ है कि किरदार को सच्चा और जीवन्त कोई और नहीं स्वयं लेखक बनाएगा। उसी तरह बेहतर इमारत के नक़्शा बनाने वाले भी अपने काम के चलते आज तक ज़िन्दा हैं। लेखक का दूसरे विषय वालों से बौद्धिक रूप से टकराना अक़्सर दिलचस्प और मज़ेदार हादसा होता है शायद उसकी वजह भी है कि लेखक बिना किसी पूँजी के बिना किसी लागत के दो रूपए के पेन और सस्ते कागज़ पर भी अपनी रचना लिख सकता है मगर दूसरे कलाकार बिना धन के अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन नहीं कर सकते हैं चाहे वह चित्रकार हों, फोटोग्राफर हों, डायरेक्टर हों, नाटककार हों, दस्तकार हों, या फिर वास्तुविद । इन सबको दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है जबकि लेखक वन मैन शो‘ की स्वतंत्रता हासिल किये हुए है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि पहले वास्तुकला धनवानों तक सीमित थी। उनके शौक पूरे करने के लिए वास्तुविद, मिस्त्री, मजदूर अपनी सम्पूर्ण निष्ठा लगा देते थे मगर अब वास्तुकला आम आदमी तक पहुंच चुकी है। कम से कम हर जगह पर ख़ूबसूरत और कारामद मकान वजूद में आने लगे हैं जो प्रशंसा के योग्य बात है चाहे उसका कमज़ोर पक्ष बिल्डर हो या ठेकेदार जो मसाला और सामान में चोरी कर उसकी उम्र कम कर देता है। वास्तुविद जाॅन कुरियन ने शिक्षा तो बाहर ली थी मगर बम्बई के मौसम को देखते हुए अपने काम के बारे में उन्होंने कहा था कि हम यहाँ वैसे घर नहीं बना सकते हैं जैसे बर्फ गिरने वाले देशों में बनते हैं। गर्म प्रदेशों के लिए खुले हवादार घर ही उपयुक्त होंगे।

सरिता विहार में मेरी पड़ोसिन रेखा राजवंशी जो कवयित्री थीं अक्सर घर आ जाती थीं ढेर सारी खबरों के साथ। एक दिन बताने लगी कि फलाँ महिला ने अपने घर में एक लाख का खम्भा लगवाया है। मैं चुपचाप रही क्योंकि यह ख़बर मेरे लिए फ़ज़्ाूल थी। मेरे कुछ न बोलने पर उन्हें हैरत हुई। मैं अपना गुस्सा ज़ब्त कर रही थी मगर उसका इज़हार करना नहीं चाहती थी। उन दिनों मैं फ्लैट में अकेली थी। बेटी एफ ब्लॉक में अलग मकान में रह रही थी, बेटा दुबई में था। डॉक्टर शर्मा नागालैंड और अम्माँ मुझे छोड़ मृत्यु लोक जा चुकी थीं। ऐसे मौक़े पर रेखा बराबर मेरे पास आती थी मैं उनको आहत नहीं करना चाहती थी। सो मैंने विषय बदलने के लिए कहा कि मैंने इलाहाबाद बोद्धिसत को फोन कर स्टोनिया के लिए कहा था मगर वह पेड़ कम्पनी बाग की नर्सरी में नहीं मिला। कितना महकता है उसका हरा फूल ठीक शिरीष की तरह ? एफ ब्लॉक में सड़क के दोनों तरफ लगे पेड़ पूरे मोहल्ले को सुगन्ध से भर देते हैं। वह समझ गई कि मैं उस एक लाख के खम्भे में बिल्कुल रुचि नहीं रखती हूँ। छत्तरपुर के मकान का काम चल रहा था। घर पूरा हो रहा था। किसी ने बड़े दुख से कहा कि इतना पैसा लगा मगर मैटीरियल ठीक नहीं लगा। मैं चैंकी कि कहाँ चूक हुई मगर पता चला कि वह संगमरमर की तरफ इशारा कर रहे थे। उनके जुम्ले का अर्थ समझ मुझसे भी न रहा गया और मन की बात ज़बान पर आ गई कि संगमरमर चूंकि कब्रों के सिरहाने या मकबरों पर लगा देखती हूँ। इसलिए घर में लगवाते झिझकती हूँ।

मेरा उपन्यास ‘जीरोरोड’ जो इलाहाबाद की ही जीरोरोड पृष्ठभूमि पर लिखा है। उसमें ‘चक‘ और ‘काला फाटक‘ का ज़िक्र है। यह दोनों हिस्से मानसरोवर के आगे पीछे सड़क के दोनों ओर पड़ते हैं। इस मोहल्ले में पतली गलियों के साथ बड़े बड़े आँगन वाले घर हैं। जिसमें संयुक्त परिवार कभी रहा करते थे। इस उपन्यास में दोनों घरों का जो ज़िक्र आया है वह बहुत छोटे छोटे हैं। दो कमरे दालान और छोटे आँगन के साथ। इस समय वे दोनों घर मय अपनी बनावट के मेरी नज़रों के सामने उभर रहे हैं। ऐसे परिवार जो कम जगह में सलीक़े से रहने वाले हैं मैंने बहुत देखे हैं। उसी तरह मेरे पाठकों ने भी देखे होंगें ज़रुरत के अनुसार जीने वाले इन्टीरियर डेकोरेशन जैसी चीज़ पर अपना समय और पैसा नहीं गँवाते हैं। मैंने ज़्यादातर कहानियाँ उस वर्ग पर लिखी हैं जहाँ पर पहुँचने के उचित साधन व सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं।

मैंने कहीं पढ़ा था कि वास्तुकार लुइकाहन जब अहमदाबाद आए तो वहाँ पेड़ों की घनी छाया देख कर बहुत खुश हुए थे। उन्होंने कहा था कि विनम्रता और सादगी अपने में महान मूल्य है और यदि हम इन इमारतों में उसे हासिल कर सकें तो वही होगी सच्ची वास्तुकला। मैं सोचती हूँ ऐसे ही सादे, और आरामदेह घर की बुनियादें मैंने अपनी कहानियों की ज़मीन पर डाली है। क्योंकि मेरा विश्वास है घर कीमती पत्थरों से नहीं बनता है बल्कि उसमें रहने वाले इन्सान उसे महत्वपूर्ण और सुन्दर बना देते हैं। उनके व्यक्तित्व के कारण ईंट गारे का कोई भी मकान अपनी उपस्थिति दर्ज करवा लेता है। नगर महापालिका में टैक्स उस पते के नाम से जमा होने लगता है। इलाके के अनुसार उस मकान की कीमत भी लगभग तय सी हो जाती है मगर मेरे बने घर इन सारे झंझटों से मुक्त हैं। न टैक्स देना पड़ता है न ही पालिका में पता दर्ज करना पड़ता है। यह सारी बातें सोचते हुए हँसी आती है और एक खास किस्म का लुत्फ कि मैं कितनी बड़ी अचल जायदाद की मालिक हूँ ? भारत के लगभग हर शहर विश्व के अनेक देशों में मेरे वास्तुकला के नमूनों ने कमाल कर दिखाया है।

लखनऊ के परिवेश पर मेरा लिखा उपन्यास ‘परिजात’ है। उसमें रूही के दो घर हैं। अपने पिता की ‘लाल कोठी‘ और अपने ससुराल की ‘सफेद कोठी‘। कहानी चूंकि रूही के इर्दगिर्द घूमती है इसलिए उस उपन्यास में ‘सफेद कोठी‘ का बयान ज़्यादा है जो गोलाकार बनी है। जिसके चारों ओर बाग हैं। अमराई है ... जामुन और कटहल, नीम और अमरूद के पेड़ हैं। ज़मीन तो चैकोर प्लाट की है मगर कमरों के चारों तरफ जो गोल खम्भों के साथ दालान बना है वह गोलाई में है जिसमें अक्सर रूही अतीत की याद में टहलती है या फिर बुआ परेशान सी पूरी कोठी की देखभाल करती हुई नौकर-नौकरानियों को डाँटती डपटती चक्कर लगाती रहती हैं।

अपने उपन्यास ‘ज़िन्दा मुहावरे’ में निज़्जामुद्दीन का घर कोरे पन्ने पर तैयार किया था जिसमें वह अपने परिवार के साथ रह रहा था। कितना अजीब है। उन लोगों के लिए घर तामीर करना जो शौक़ से बनाए अपने मकान की मज़बूत दीवारें छोड़ कर सर के ऊपर छत की तलाश में मुल्क दर मुल्क भटकते हैं। यही नहीं निज़ाम की कराची में उस आलीशान कोठी में मैंने बिना पौधे लगाए बाग और घास का लान दिखाया है और फैज़ाबाद के कच्चे पक्के घर का नक़्शा जरूरत के अनुसार बनाती चली गई। आखिर नक़्शा पास कराने का तो कोई झंझट था नहीं वैसे भी छीना मकान वापस दिलाना और बर्बाद मकान को फिर से आबाद करना जितना मुश्किल है उतना ही सरल है अपने पात्रों के लिए मकान बनाते चले जाना। यदि मैं कहानियों व उपन्यासों में आए मकानों को गिनने पर आऊँ तो यक़ीनन मेरा शुमार भारत के बड़े वास्तुविदों में होना चाहिए।

इस ख़्याल के साथ ही मेरी आँखें झपक गईं। सुबह आँख खुली तो दिन चढ़ आया था। बाहर मज़दूरों का शोर और ज़िन्दगी की चहल पहल थी। चाय पीकर मैंने कमरे से बाहर निकलने का इरादा किया तो पता चला कि आस पास एक बुटैनिकल गार्डेन है जहाँ तरह तरह के पेड़ जड़ी बूटी वग़ैरा हैं और पास में साफ पानी का नाला बहता है जहाँ पर जाकर जी भर कर नहाया जा सकता था। पहले वाला आॅफर आकर्षित कर गया, वहाँ मैं गंवारपाठे यानी आलोविरा की मुख़्तलिफ़ किस्मे देखकर दंग रह गई। ‘‘शायद इसी लिए हनुमान जी बूटी लाने की जगह पूरा पहाड़ उठा लाए थे।’’ मेरे इस तरह कहने पर सभी मुस्कुरा उठे और मैं दिल ही दिल में सोचने लगी कि ऋषि मुनी जो सारा जीवन वनों में बिता देते थे, उन्हें कितना कुछ नया देखने को मिलता था। दिल क्यों घबराता ? 

‘‘अब मेरा लिखने का वक़्त है।’’ कह कर मैं लौटने के लिए कार की तरफ बढ़ी। रास्ते में नहाने वाले पक्की पतली नहर के किनारे उतर गये और मैं लौटते हुए सोच में डूब गई।

मेरी किसी रचना में पेड़ों के अलावा किसी जंगल का ज़िक्र है ? 

‘‘होगा ज़रूर.....’’ कहती हुई मैंने जे़हन में ज़ोर डाला।

‘‘ऐसा जंगल जो तुमने मकानों की तरह ख़ुद उगाया हो?’’

‘‘शायद.... शायद नहीं मगर वैसे जंगलों का ज़िक्र है। अमरूद और आम के बाग़ों का तो जरूरत से ज़्यादा जिक्र आया है।’’ सन्तरे का बाग़ का ज़िक्र ‘ठीकरे की मंगनी’ में किया है। अपने से बातें करती हुई मैं चैड़ी पक्की सड़क के दोनों तरफ खड़े घने सायदार दरख़्तों को देखती रही।

काग़ज़्ा क़लम लेकर मैं आसाम के चाय के बागानों में पहुँच गई और अपने बनाए मकान में दोनों बहनों के किरदारों के उतार चढ़ाव और तराश में खो गई। चन्द घन्टे गुज़्ार गए। थक कर मैंने क़लम रखा और चाय की प्याली की तलब लेकर बाहर निकली। घूप तिरछी हो गई थी। माहौल की ख़ामोशी एक ग़मग़ीन लय गाती लगी और मैं सामने पेड़ों पर नज़र टिकाए गर्म चाय की चुस्कियाँ लेने लगी।

जंगल के बीच रहने का यह मेरा पहला इत्तफाक था। पतले तनों के बेशुमार पेड़ एक सी लम्बाई के साथ एक तरह नज़र आ रहे थे जैसे डिज़ाइनदार अॉफ व्हाइट पर्दों का न समाप्त होने वाला सिलसिला दूर तक फैला हो।

देहरादून में बांस के जंगल में घूम उन पेड़ों के हुस्न से सराबोर हो चुकी हूँ और मोटे तनों वाले बासों को देख हैरान भी। शताब्दी जब जंगल के बीच से गुज़रती है तो हाथ में पकड़ी भाप उड़ाती चाय की प्याली की चुस्की अजीब तरह की तरावट का अहसास देती है। उन पेड़ों की हरियाली मीज़्ाो घाटी के अनेक शेडो की तरह लुभावनी थी। टेªन और कार में बैठे जंगल घूमना अलग बात थी और काला डोंगी के पोनियन्स गेस्ट हाउस में कदावर घने पेड़ों के बीच में रहना अलग तरह का अनुभव था।

जंगल में जानवर काफी थे जो अन्दर झरने के पास पानी पीने जमा हो जाते थे मगर कभी कभी नालों के ज़रिए भेजे पानी के किनारे वे अपनी प्यास बुझाने जब सड़क के क़रीब आ जाते तो उनको देखना भी एक सुखद अनुभव होता। हमें किसी फाॅरस्टगार्ड का हर रात इन्तज़ार होता जिसने रात के अन्धेरे में शेरों से मुलाक़ात कराना तय किया था। उनका वायदा वफ़ा न हुआ और हम ख़ुद जंगलों में टार्च झोंकते जानवरों को ढूँढते हल्दवानी तक चले जाते जहाँ रात का खाना खा कर और कुछ ज़रूरी ख़रीदारी कर के लौट आते थे। लीची के बाग़ खूब थे। 

दोपहर को हल्की तपिश हो जाती और धूप की ज़र्दी में फैले ये दरख़्त पतझड़ की सी कैफ़ियत में खड़े जैसे कोई ग़मग़ीन नग़मा गा रहे हों और उसकी धुन पर आसूओं की जगह उनके सूखे पत्ते टपक अजीब समा बाँध देते थे। जंगल को चारों तरफ फैला, देखते देखते इच्छा जागी कि पैदल इन के बीच से गुज़रा जाए जैसे इराक़ के नख़लिस्तान में खजूरों के दरख़्तों के बीच पानी में भरी नालियों की मेढ़ से गुज़रते हुए खुनकी और तपिश का जो मिला जुला स्पर्श हवा देती है वह बताता है कि ख़जूर का हुस्न उसके चन्द पेड़ों के झुंड में नहीं बल्कि कतारों में खड़े झूमते मीलों तक फैले वृक्षों में है। लेकिन यहाँ सूखे पत्तों से भरे रास्ते के नीचे से सरासराते, सुसताते सांपों पर पैर पड़ गया तो ? ख़्याल गुज़रा की दुबई के रेड बी रेगिस्तान के विस्तार में ठीक जसलमेर के गोल्डन डेज़र्ट की तरह मीलों तक कुछ हरी झाड़ियाँ नीचे की तरावट का अहसास देती हैं मगर वहाँ भी रेत के नीचे सांप सरसराते और बड़ी-बड़ी छिपकलियाँ छुपी रहती है।

आज चाँद रात है रोज़ की तरह जंगल अन्धेरे में नहीं डूबा है फीकी रौशनी में डूबा जंगल फिर बुलावा दे रहा है ठीक शिमला के उन चीड़ के दरख़्तों की तरह जिसकी नर्म शाखाएँ चाँद के चेहरे को सहलाती लगती हैं। मैं अभी इस जंगल के हुस्न में भटक रही थी कि महसूस हुआ आस पास कोई गहरी सांस ले रहा है। मद्धिम सरसराहट, चैंकती हूँ मगर इस ख़्याल से उबर आती हूँ कि यहाँ साँप नहीं होगा। सुबह कार्बेट पार्क की तरफ जब चलने को हुए तो मेरी खिड़की के पीछे कटे खेतों में काम करने वाले मज़दूर चीख रहे थे जो वहीं खुले में सोए थे। पानी के लिए उस गहरी नाली में जो मेरे कमरे की खिड़की के पास थी। उस में एक लम्बा चैड़ा बीमार साँप फंसा पड़ा था।

जंगल को दायें बाये निहारती रामगढ़ की तरफ बढ़ रही थी कि ये कैसा जंगल है जहाँ एक से पेड़ है मगर जब हम अन्दर बहुत अन्दर गये तो दूसरे पेड़ भी दिखे। हर जगह बारह सिंगहे है, चित्तल दौड़ रहे थे। तेन्दुए, शेर, को देख्ने का अरमान लिए हम कार्बेट पार्क घूम रहे थे। शेरनी ने दो बच्चे दिये हैं उसकी अफवाह फिज़्ाा में फैली थी मगर चिड़ियों, हिरनों, बन्दरों के अलावा हम को कहीं कोई खूंखार जानवर नज़र नहीं आया। जंगली लतरे, जंगली फूल और तरह तरह के पेड़ों को निहारते हम कुदरत के रंग देख रहे थे।

रात को रामपुर के उस रास्ते पर गए जो ख़ासतौर से नवाबरामपुर के लिए था। दूर से झिलमिलाती शहर की रौशनी और खेत में लगी आग अन्धेरी रात में यह गुमान दे रही थी जैसे धरती ने सोने के चमचमाते जे़वरों से अपना सिंगार कर रखा हो। कार्बेट पार्क के सामने हमने जिस होटल में रात गुज़ारी वह भी प्राकृतिक हुस्न का नमूना थे। काटेज बांस की बनी थी मगर अन्दर सारा इन्तज़ाम आधुनिक था। जाने बादल कहाँ से घुमड़ आए खाना खाकर जब हम डाइनिंग हाल से निकले तो रास्ते बल्ब की रौशनी में झिलमिला रहे थे। पेड़ों से बूंदे मोती की तरह गिर रही थी और हम बारिश में भीग इस तरह कहकहे लगा रहे थे जैसे कोई मासूम बच्चा गुदगुदी करने से बेसाख्ता खिलखिला उठता है।

दूसरे दिन दिल्ली की तरफ बढ़ते हुए मौसम का बदलाव साफ महसूस होने लगा और मैंने कार की खिड़की के बाहर तेज़ धूप की पीलाहट को देखकर कहा ‘‘अगली रचना में एक जंगल में जरू़र जाऊँगी। 

-छतरपुर हिल्स, नई दिल्ली, मो. 98111 19489 



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