संपादकीय

मनुष्य, अपनी महत्वाकांक्षाओं का ताना-बाना, जीवन के अंतिम क्षण तक बुनता ही रहता है। परोक्षतः भावनाओं व संभावनाओं के आरोह-अवरोह का यह भावनात्मक ताना-बाना, कहीं न कहीं उसके अधिक चिंतनशील, सक्रिय व रचनात्मक रहने का प्रमाण भी है। जीव की सतत सक्रियता के समानांतर नियति के निर्णय व प्रारब्ध की नीयत, बहुधा पृथक ही होती है। कुछ चीजें होकर भी न होने की अनुभूति कराते हैं.....तो कुछ न होकर भी अपने होने की बलात प्रतीति कराती हैं।

कोरोना महामारी का यह भयावह-कालखंड असंख्य अपनों को, उनके आत्मीय कनिष्ठ-वरिष्ठों को छीन गया, जो इस सदी की कभी न भूल पाने वाली त्रासद टीस है। अपनी विरल प्रतिभा, उत्तम रचनाधर्मिता व सतत उद्यमशीलता से जीवन पथ का निर्माण करने वाले उन असंख्य साधकों की मधुर स्मृतियों को नमन !

अपनों के होते हुए भी उनके न होने का एहसासय मन, कर्म, वचन व प्राण से उनके साथ रहते हुए भी.....विदा होते हुए....कदाचित उनके (साथ) न होने का एहसास ....निश्चित रूप से मानवीय संवेदनाओं को भीतर तक झिंझोड़ने वाले क्षण हैं।

मूल्य और चिंतन, जगत को पृथक-पृथक ढंग से परिभाषित करते हैं। शब्दब्रह्म की संस्कृति, नैराश्य के गहन क्षणों में भी मन व हृदय के कोने में आशामय जीवन की उजास-भर संघर्ष-चेतना को ऊर्जा प्रदान करती प्रतीत होती है। मनुष्य जिस गंतव्य व जीवन-लक्ष्य को अपनी साधना की शुचिता से अर्जित करना चाहता है, कुटिल काल फलागम की स्थिति से पूर्व ही उसे अपने पास आमंत्रित करने का षड्यंत्र रचा डालता है। फिर सारी भावनाएं, संभावनाएं अथवा योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं और अंततः होता वह है, जो उसे प्रिय होता है। साक्षात्कार देते-देते बहुमुखी रचनाकार नरेंद्र मोहन का अपलक यूँ चले जाना कम हृदय-विदारक नहीं था। नरेंद्र मोहन अपने भुक्त जीवन के अक्षय स्मृति कोष से अतीत की भाव मंजरियां उड़ेल-उड़ेल कमर स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहती हैं....जिनमें अंतरंगता से डूब वह लंबे अंतराल बाद भी उसी आत्मीयता व तारतम्यता से जुड़ते चले जाते हैं। वे कल्पना की नाहक उड़ान नहीं भरते, बल्कि भोगे हुए यथार्थ के लहू की तूलिका से खुद के आइने में खुद को तलाशने व तराशने के महीन स्मृति-सूत्र बुनते हैं। कभी-कभी ये प्रश्नोत्तर अतीत की गहन स्मृति-वीथियों में और गहरे उतरते चले जाते।

बहरहाल, अपनी वचनवद्धता के अनुरूप ‘साक्षात्कार श्रृंखला‘ की दूसरी कड़ी में प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. नरेंद्र मोहन जी का साक्षात्कार...... जो पूरा होते हुए भी अधूरा है....और अधूरा होते हुए भी पूरा। इस श्रृंखला के बीजारोपण का कुछ-कुछ श्रेय उनको (नरेन्द्र मोहन जी) भी है। उनका लघु साक्षात्कार यूँ ही बड़ा होता चला गया। फिर इस के प्रसार की पूर्वपीठिका बनती रही।

‘अभिनव इमरोज़‘ की ‘व्यक्ति विशेष दस्तावेज‘ श्रृंखला की द्वितीय कड़ी के रूप में प्रो. तिवारी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर मेरे संपादन में विशिष्ट ग्रंथ प्रकाशित हुआ तो अनेक विद्वानों के साथ-साथ नरेंद्र मोहन जी को जिज्ञासा मुग्ध करती रही जब उन्होंने कहा-‘प्रोफेसर साहब, आपने बड़ा गजब का साक्षात्कार तिवारी जी का लिया है और आपने एक कुशल खिलाड़ी की तरह उन्हें चारों तरफ से घेरते रहे व वह भी आपके हर प्रश्न का बखूबी उत्तर देते रहे। मैं अब आपकी इस साक्षात्कार लेने की शैली का कायल हो गया हूँ। इससे मैं भी जिज्ञासा से भर गया हूँ ऐसा ही साक्षात्कार समय मिलने पर आप मेरे रचना-कर्म पर भी लें, यह मेरी दिली ख्वाहिश है।‘

‘अवश्य।‘ मैंने कहा था।

नरेंद्र मोहन जी को मैंने कभी नहीं देखा, लेकिन साक्षात्कार में शब्द दर शब्द खुद से गोया दार्शनिकता में गहरे डूब-डूब संवाद करते पाया...अक्षर-अक्षर उघड़ते.... खुद के अस्तित्व को तिनका-तिनका बटोरते। उनकी मधुर स्मृतियों को अर्पित है यह अंक.....देवेंद्र कुमार बहल जी व  नरेंद्र मोहन जी के परिवार ने इसे और संग्रहणीय बनाने में कसर नहीं छोड़ी..............शेष इस श्रृंखला की अगली कड़ी में.....

आपका,

प्रोफेसर (डॉ.) दिनेश चमोला ‘शैलेश,‘’, डीन,  आधुनिक  ज्ञान  विज्ञान संकाय एवं अध्यक्ष,  भाषा एवं आधुनिक ज्ञान विज्ञान विभाग, उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार, ’23, गढ़ विहार,  फेज -1, मोहकमपुर, देहरादून -248005, मो. 09411173339

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